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'अकिचिरकर' पुस्तकमागम-विरुद्ध है
है उससे यह स्पष्ट होता है कि बंध के कारणों से मिथ्यात्व इस विषय का समाधान करते हुए विद्यानन्दि स्वामी को सर्वथा सर्वथा अलग नही किया जा सकता । और यह कहते हैं (अष्टमह० पृ० २६७) कि मोहविशिष्ट अज्ञान में तो हम पहिले ही कह चुके है कि कषाय (अनन्त नबधी) सक्षेप से मिण्यावर्शन मादि का संग्रह किया गया है। इष्ट की उत्पत्ति का जनक मिथ्यात्व ही हैन कि मिथ्यात्वं अनिष्ट फल प्रदान करने में समर्थ कर्म बन्ध का हेतु का जनक कषाय-'तत्र भावबन्धः क्रोधाद्यात्मकः तस्य कष'यकार्थसमवायी अज्ञान के प्रविमामावी मिथ्यावर्शम, हेतुमिथ्यादर्शनम् ......' सोऽपि (द्रव्यबन्धोऽपि) मिथ्या दर्श- अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग को कहा गया है। नाविरतिप्रमाद कषाय योग हेतुक एव बन्धत्वात् । मोह और अज्ञान मे मिथ्यात्व आदि का समावेश हो जाता
-आप्तर० २१६. है। दोनो आचार्यों के कथन में तात्त्विक भेद नही है, कर्मबंध मीमासा प्रसग में जो बात कही गई है वह केवल प्रतिपादन शैली की भिन्नता है।" इस भांति है
उक्त प्रसग को अष्ट सहस्री विवरणम् दशम परिच्छेद "राग-द्वेषादि विकारों सहित अज्ञान बंध का कारण पृ० ३३५ पर इस प्रकार कहा गया हैहै। थोडा भी ज्ञान यदि वीतरागता सम्पन्न हो तो कर्म
"नचेवं अज्ञानहेतुत्वे बन्धस्य मिथ्यादर्शनादि हेतुत्वं राशि को विनष्ट करने में समर्थ हो जाता है। परमात्म
कथं सूत्रकारोदितं न विरुद्धयन इति चेत्, मिथ्यावर्शनाप्रकाश टीका मे लिखा है-'वीरा वेरग्गपराथोवपि हु
विरतिप्रमाद कषाययोगानाम् कषाय कार्यसम्वाय्यज्ञानाविनासिक्खऊण सिझंति ।...... ... ॥पृ० २२७॥ भाविनामेवेष्टानिष्टफलदानममर्थकर्मबन्धहेतुत्वसमर्थनात्
वैराग्य संपन्नवीर पुरुष अल्पज्ञान के द्वारा भी सिद्ध मिथ्यावर्शनादीनामपि संग्रहात् सक्षेपत इति बुद्धयामहे । हो जाते हैं। सम्पूर्ण शास्त्रो के पढ़ने पर भी वैराग्य के ततो मोहिन एवाज्ञाद्विशिष्ट: कर्मबन्धो न वीतमोडादिति विना सिद्ध पद की प्राप्ति नहीं होती। समन्तभद्र अपने सूक्तम् ।" युक्तिवाद द्वारा इस समस्या को सुलझाते हुए कहते हैं
पाठक देखें-जहाँ अज्ञान को बन्ध का कारण कहा, 'अज्ञानान्मोहिनो बन्धो न ज्ञानाद्वीतमोहतः।
वहाँ उस अज्ञान मे मोह को ही कारण माना; और मोह ज्ञानस्तोकाच्चमोक्षः स्यादमोहान्मोहिनोऽन्यथा ॥' वह है जो मोहित करे, भुलाए, अज्ञानी बनाए । ऐसा मोह
-आ० मी० ६८. मुख्यत. दर्शनमोह-(मिथ्यात्व) ही है। चारित्रमोह तो मोह विशिष्ट व्यक्ति के अज्ञान से बध होता है। श्रद्धान मे वाधक न होकर मात्र चारित्र घातक है और मोहरहित व्यक्ति के ज्ञान से बंध नही होता है। मोह- श्रद्धान व चारित्र में महद् अन्तर है। यह पाठक सोचें कि रहित आत्मज्ञान से मोक्ष होता है। मोही के ज्ञान से वध दर्शन और चारित्र मे कौन किसका साधक है? कौन होता है।'
पहिले और कौन पीछे है ? क्या यह ठी.. है कि दर्शन के यहाँ बन्ध का अन्वय व्यतिरेक ज्ञान की न्यूनाधिकता
बाद के क्रम में आने वाला चारित्र, दर्शन का कारण हो के साथ नही है। इससे ज्ञान को बन्ध या मुक्ति का कारण
यानी जो चारित्र मोहनीय की प्रकृति अनन्तानुबन्धी है, नहीं माना जा सकता। मोह सहित ज्ञान बन्ध का कारण वह प्रथम प्रकृति-दर्शनमोहनीय (मिथ्यात्व) के बन्ध में है और मोहरहित ज्ञान मुक्ति का कारण है। अत: यह कारण हो ? आश्चर्य ! बात प्रमाणित होती है कि बन्ध का कारण मोहयुक्त क्या कभी यह भी सोचा कि यदि मिथ्यादर्शन बन्ध अज्ञान है................."। यहां यह आशका सहज उत्पन्न में कारण न होगा तो उसका विरोधीभाव-सम्यग्दर्शन भी होती है कि इस कथन की सूत्रकार उमास्वामी के इस मोक्ष में कारण न होगा। और ऐसे में 'झानचारित्रेमोक्षसूत्र के साथ विरुद्धता है-'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाय- मार्ग.' सूत्र रचना पड़ेगा। सम्यक शब्द तो दर्शन का विशेयोगः बन्ध हेतवः।'
षण है, वह भी न हो सकेया और तब सारा का सारा