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मिथ्यात्व ही अनन्त संसार का बंधक है
: स्व० श्री पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
जैन सन्देश के १५ नवम्बर सन् १९८२ के अक के हो सकेगी। हमे इस लेख ने ही इस सम्पादकीय को मुख पृष्ठ पर पं. जगन्मोहन लाल जी शास्त्री का "क्या लिखने के लिए प्रेरित किया है। हमने उन्हें लिख दिया मिथ्यात्व अबन्धक है ?" शीर्षक से एक स्पष्टी करण है कि हम आपका लेख प्रकाशित नही करेंगे। हमे मिथ्याप्रकाशित हआ है। इसी विषय के सम्बन्ध में हमें भोपाल त्व की अकिंचित्करता इष्ट नहीं है क्योकि समस्त जिनाके डा० रतनचन्द्र जी का फुलस्केप आकार के २६ पेज गम इससे सहमत नही है। ससार मे मिथ्यात्व का और का एक लेख 'मिथ्यात्व स्थिति अनुभाग वन्ध का हेतु नहीं मोक्षमार्ग में सम्यक्त्व का महत्व सर्वागम सम्मत है यदि है' शीर्षक से प्राप्त हआ है। उन्होने भी अपने लेख में प० मिथ्यात्व बन्ध मे अकिंचिकर है तो मोक्षमार्ग मे सम्यक्त्व जगमोहन लाल जी की नैनागिर में उपस्थिति की चर्चा भी अकिंचित्कर ठहरता है तब आचार्य समन्तभद्र का यह करते हए उनके द्वारा आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचनो कथन कि तीनों नालो और तीनों लोको मे सम्यक्त्व के के उद्धत अंशों को अपने लेख में उद्धृत किया है और लिखा। समान कल्याणकारी और मिथ्यात्व के समान अकल्याणहै कि मैंने उनसे पूछा कि जब आप उसी कधन से इस कारी नही है। जिसका समर्थन चारों अनुयोगों के शास्त्र समय सहमत हैं तब पहले उसका खण्डन क्यों किया? एक मत से करते है, मिथ्या ठहरता है। एक अोर बन्ध उन्होंने उत्तर दिया-"मैंने प्रवचन पारिजात देखा नही के चार भेदों ना ध कषाय और योग से बतलाना और केवल जैन सन्देश (१० जून ८२) मे प्रकाशित लेख मे दूसरी पोर बन्ध के पांच या चार कारण बतला कर मिली जानकारी के आधार पर उसका समर्थन कर दिया। मिथ्यात्व को प्रमुख स्थान देना तथा यह लिखना कि यह उन्होंने बतलाया कि अपने लेख में उन्होने कषाय से ही समस्त भी बन्ध के कारण है और पृथक्-पृथक भी बन्ध के स्थिति अनुभाग बन्ध का होना स्वीकार किया है। पंडित कारण है क्यो ऐमा लिखने वाले समस्त प्राची। जैनाचार्यों जी के इन शब्दों को उनकी सहमति से ही मैं इस लेख में के विचार में वह तर्क नही आया जो आज प्रथम बार उद्धृत कर रहा हूं। इस प्रकार माननीय प. जगमोहन- मात्र आचार्य विद्यासागर जी के विचार मे आया है ? लाल जी के वचनों को समर्थन रूप मे उद्धत कर जिन्होंने क्या वे सब आगम रचयिता प्राचार्य आगम की गहराई आचार्य श्री के कथन को आगम विरुद्ध सिद्ध किया है मे नही उतरे ? इसका एक मात्र सम्यक् समाधान यही उनके इस प्रयत्न का खोखलापन स्पष्ट हो जाता है।" सम्भव है कि प्रकृति प्रदेश बन्ध तेरहवे गुणस्थान तक तथा डा० रतनचन्द जी ने अपने इस विस्तृत लेख मे
स्थिति वन्ध अनुभागवन्ध दशवे गुणस्थान तक होते हैं आचार्य विद्यासागर जी के प्रवचन पारिजात मे प्रकाशित
तथा वन्ध के कारणों में से कषाय उदय दसवें गुणस्थान प्रवचनों का पूर्ण समर्थन करते हुए उसका विरोध करने
तक और योग तेरहवें गुणस्थान तक रहते है। अत: इन वाले विद्वानों को आकण्ठ विषय कषायो मे डूबे हए और
दोनो को ही चार वन्धो का कारण कहा । इन्हीं मे अपनेजिनका मुरुप काम आगम की गहराई में जाना नहीं है
अपने स्थान तक शेष कारण अन्तर्भून है वे अकिचित्कर अपितु सतही ज्ञान द्वारा पंडित के नाम से प्रसिद्ध होकर '
नहीं है। प्रवचनादि द्वारा पैसा कमाना है' आदि लिखा है। इस आज अनन्तान बन्धी कषाय को महत्व दिया जा रहा तरह के लेख जब तक लिखे जाते रहेगे यह चर्चा बन्द नहीं है, मिथ्यात्व को नही । आगम के अभ्यासियों से यह बात