Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 95
________________ मिथ्यात्व अकिंचित्कर नहीं 0 डा० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी अकिंचित्कर पुस्तक का सामान्य रूप से अवलोकन है। यह ठीक है कि मिथ्यात्व के रहने पर कषाये रहती हैं किया । चिन्तन भले ही गम्भीर और प्रमाणयुक्त हो परन्तु और मिथ्यात्व के न रहने पर कषाये भजनीय है। जिन तकों के आधार पर मिथ्यात्व को अकिचित्कर सिद्ध विचार करे कि एकेन्द्रियादि जीवो के क्या हमारे किया गया है, वस्तुस्थिति वैसी नही है। अकिंचित्कर जैसी प्रकट कषाये पाई जाती है, परन्तु उसके मिथ्यात्व के शब्द का अर्थ होता है “अन्यथासिद्ध", प्रयोजन होन, कारण वन्ध होता है। मेरे कहने का तात्पर्य यह नही है वेकार। जब हम विचार करते है तो मिथ्यात्व अकिं- कि मिथ्यात्व ही सब कुछ है, कषाये कुछ नही। कषायों चित्कर सिद्ध नही होता है। से स्थिति और अनुभाग बध मे विशेषता आती है परन्तु मिथ्यात्व को यदि हम अकिंचित्कर कहेगे तो फिर जब तक मिथ्यात्व छुटेगा नही तब तक "हिंसादि स बधन हमे मुक्ति के साधनभूत (मिथ्यात्वाभावरूप) सम्यक्त्व और अहिंसादि से मुक्ति होती है" यह ज्ञान कैसे होगा? (सम्यग्दर्शन) को भी अकिंचित्कर कहना होगा। क्योकि जब तक यह सष्टि नही आयेगा कोई कषायो को कैस जैसे मिथ्यात्व केवल तत्वश्रद्धान को रोकने मात्र से अकि- जीतेगा? इसीलिए साम्परायिक आस्रव के भेदो में चित्कर है वैसे ही सम्यक्त्व मात्र तत्त्वश्रद्धात कराने मिथ्यात्व को भी बिनाया गया है। मिथ्यात्व के गृहीत वाला होगा। अत: जैसे मिथ्यात्व हटाओ, मिथ्य:त्व और अगृहीत भेद करके गृहोत के ४ भेद किए है --- एकांत हटाओ' से कुछ नही बनने वाला है वैसे ही सम्यक्त्व लाओ विपरीत संशय, बनयिक और अज्ञान । सम्यक्त्व लाओ' से भी कुछ बनने वाला नहीं है । यदि अत. मरा विनम्र निवेदन है कि केवल शब्दजाल के सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण माना जाएगा तो मिथ्यात्व को द्वारा जन सिद्धात की अन्यथा व्याख्यान की जाए। आगमो संसार का कारण माना जायेगा । मे जो दो तरह को बाते मिलती है उन्हें ऐकान्तिक न यह ठीक है कि कषाये बध मे प्रमुख भूमिका निभाती बनाया जाये अपितु दृष्टिभेद को ध्यान में रखते हुए कथन हैं, परन्तु इस बात का यह तात्पर्य नहीं है कि मिथ्यात्व शैली का भेद माना जाए। किसी तत्त्व को केवल युक्ति केवल अधिकरण है और अकिंचित्कर है। वस्तुनः अधि के आधार पर सिद्ध नहीं किया जा सकता है, उसमे विवेक करण तो जीव है और मिथ्यात्व प्रतिबन्धक । जरूरी है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हमारा योग जब आस्रव और वन्ध का कारण हो सकता वचन हितकारी हो। वह वर्गभेद आदि को उत्पन्न करने है, तो मिथ्यात्व को भी कारण म.नना होगा। वाला न हो। हमारी हमेगा अनकान्त दृष्टि होनी चाहिए, मिथ्यात्व वस्तुतः अज्ञानरूप है जिसे अन्य दर्शनो मे आगमो के विपरात कथनो का अपेक्षाभेद से युक्तिसगत माया, अविद्या आदि शब्दो से कहा गया है । जव तक यह समाधान करना चाहिए। तथ्य को प्रकट करने के लिए विद्यमान रहता है तब तक सदृष्टि प्राप्त नही होती है हमे पूर्वाग्रही भी नही बनना चाहिए। और सदष्टि प्राप्ति के बिना सद्ज्ञान सचरित्र नहीं मिथ्यात्व को सर्वथा - किचित्कर करने का सम्पूर्ण वनते । अतः मिथ्यात्व को यदि थोड़ी देर के लिए अबधक दर्शन पर कितना व्यापक प्रभाव पड़ेगा यह चिन्तनीय है। मान भी लिया जाये तो वह अकिचित्कर सिद्ध नहीं होता, यदि मिथ्यात्व को अकिचित्कर न कहकर मात्र कषायो को क्योंकि वह ऐसा प्रतिबन्धक तत्त्व है जो साष्ट नहीं होने बन्ध के प्रति प्रमुखता दी जाती तो अच्छा या । मिथ्यात्व देता। सद्दष्टि मे रुकावट पैदा करने वाले को मात्र कषाय नहीं है इसलिए उसे चारित्र मोहनीय मे नहीं अधिकरण कैसे कहा जा सकता है ? यह तो वह जबरदस्त । गिनाया गया परन्तु वह चारित्र में प्रवृत्ति को रोकने वाली तत्व है जो अनन्त संसार का कारण है। इसके न रहने दर्शनमोहनीय का परिणाम है। पर ही कषायें प्रमुख रूप से ससार के प्रति कारण होती (शेष पृ० ३२ पर)

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