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षवला पु.
का शुद्धि पत्रक
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अशुद्ध अकषायी, संयत शुद्धिसयतों मे केवलणाणि-जहाक्खादकेवलज्ञानी, यथाख्यात वाउकाइय-बादरपुढविकाइय
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कायिक, बादर पृथिविकायिक,
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संखेज्जदिभागे, संख्यातवें भाग में कदि-गोकदि-अवत्तव्वसंचिदा कृति, नोकृति व अवक्तब्य संचित
अकषायो, मनः पर्ययज्ञानी, केवलज्ञानी, संयत शुद्धिसंयत तथा केवलज्ञानियों मे केवलणाणि-सजद-जहाक्खादकेवलज्ञानी, संयत, यथाख्यात वाउकाइया, तेसि चैव सुहमा पज्जत्तापज्जत्ता, बादरपुढविकाइयकायिक और उन्ही के सूक्ष्म तथा पर्याप्त व अपर्याप्त, बादर पृथिविकायिक, असंखेज्जदिभागे, असंख्यातवें भाग में कदिसंचिदा कृति-संचित [पृ० २८१पर "शेष मार्गणामों में कृतिसंचित हैं"; कह कर औदारिक मित्र काययोगी को भी कृतिसंचित ही बताया है ।] XXXS
कारणमुपरि प्रोक्तमेव XXX शका-मनुष्य व तियंचों द्वारा भुज्यमान एइंदिएसु एकेन्द्रियों में कृति आदि संचित
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णोकदि-अवत्तव्य नोकृति व अवक्तव्य शंका-भुज्यमान एइदिय-बि-ति-चदु-पंचिदिएसु एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियो मे कृति संचित [सागरोवमसदपुधत्तं] स्त्री व पुरुषवेदियों का तथा नपुंसकवेदियो का सागरोपम पृथक्त्व काल देवनारको के मूल शरीर की जघ दुगुणी विशेष अधिक है। सखेज्जा । परिहा रसुद्धिस जद.
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xxx देखो पृ. ३०५ का शंका-समाधाम मनुष्य व तियं च के उत्तर शरीर की जघन्य विशेष अधिक [यानी कुछ अधिक दुगुणी है। संखेज्जा । एव सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसजदाणं; णवरि तेजाकम्मइय-परिसादणकदी पत्थि परिहारसुद्धिसंजदसंख्यात हैं। इसी प्रकार सामायिक ब छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों के कहना चाहिए। किन्तु उनके तंजस-कामंण शरीरो की परिशातनकृति नहीं होती। परिहार
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संख्यात है । परिहार