Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 91
________________ क्या मिथ्यात्व बंध के प्रति 'अकिंचित्कर' है ? 0 श्री बाबूलाल जैन कलकत्ते वाले बहुत समय से यह विषय चल रहा है और सभी बडे- इसी बात को करणानुयोग भी सावित करता है कि बडे विद्वानों ने इस बारे में अपनी जानकारी से लोगो दूसरे गुणस्थान मे अनन्तानुबधी कषाय है परन्तु वह को अवगत कराया है और ग्रन्थो के प्रमाण भी रखे है। मिथ्यात्व का बध करने में अकिचित्कार है, जबकि चौथे अध्यात्म का दष्टिकोण तो बहुत साफ है । समूचे पापों का से जो गिरा जिसके अनन्तानबन्धी की विसंयोजना हई है जनक-समस्त कषायो का जनक -ससार का कारण और मिथ्यात्व का उदय आने पर नयी अनन्तानुबन्धी एक मिथ्यात्व को ही बताया है ।जब श्रद्धा विपरीत होतो कषाय का बन्ध करता है जबकि संयोजना होकर अनन्ताहै तब जो कषाय बनती है वह अनन्तानुबंधी होती है। नबन्धी अभी उदय को प्राप्त नही हुई हैं। इसका अर्थ जब अपने स्वभाव को नहीं जानता और शरीरादिक मे हुआ कि अनन्तानुबन्धी तो मिथ्यात्व को बाँधने मे अकिअपनापना मानता है तब एक प्राप्त शरीर में ही अपना. चित्कर रही और मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी को बांधने मे पना नही है परन्तु अनन्त शरीर भी प्राप्त कर सकता अनिवार्य रहा। ऐसा ही सर्वार्थमिद्धि टीका में आठवे तो सब मे अपना पना आ जाता। जब यह मानता है अध्याय में लिखा हैकि पर वस्तु से दु.ख होता है और पर वस्तु से मुख होता "अनन्त संसार कारणत्वान्मिथ्यादर्शनमनन्तं तदनुहै तब सामने कोई एक वस्तु है उससे ही द्वेष बुद्धि नही है बन्धिनोऽनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः।" परन्तु अनन्त वस्तु भी होती तो उन सबसे द्वेष बुद्धि हो अर्थ-अनन्त ससार का हेतू होने से मिथ्यात्व है, जाती अथवा राग बुद्धि हो जाती। इसलिए शुक्ल लेश्या सोही अनन्त है। अर्थात् अनन्त नाम मिथ्यात्व का है, का धारी द्रव्यलिंगी मुनि के कोई कषाय देखने मे नही आ क्योंकि वह मिथ्यात्व अनन्त संसार का कारण है। जिसका रही है परन्तु अनन्तानुबंधी बराबर चल रही है अनन्तानु- (मिथ्यात्व) का सहचर-अनचर-अनुसारणो-अनुकरण करने बंधी का अर्थ तीव्र और मन्द से नहीं है पग्नु मिथ्या श्रद्धा वाला अनन्तानबन्धी क्रोध, मान, माया लोम है। के कारण वह अपने अभिप्राय में अनन्तों पदार्थों का स्वा. यहां पर ऐसा भी नहीं है कि जैसे "सम्यकत्वं च मित्व, अनन्त पदार्थों के प्रति राग-द्वेष बुद्धि लिए हुए चल सत्र के द्वारा उन्होंने कहा कि सम्यक दर्शन देवगति के रहा है। वह कषाय अथवा वह अभिप्राय तभी मिट सकता बन्ध का कारण है, वहां पर बताया है कि सम्यकदर्शन है जब श्रद्धा ठीक हो। इसके अलावा कषाय करने का बन्ध का कारण नही। परन्तु सम्यकत्व के साथ रहने वाली और अनन्त पदार्थों के प्रति राग-द्वेष करने का अभिप्राय कषाय बन्ध का कारण है उसी प्रकार ऐसा अभिप्राय किसी भी तरह नही मिट सकता, चाहे श्रद्धा का ठीक आचार्यों का नही है कि मिथ्यात्व को उपचार करके वध होना और अनन्तानुबंधी का मिटना एक ही साथ हो परन्तु का कारण कहा है, और बन्ध तो साथ मे रहने वाली श्रद्धा सही हुए बिना अनन्तानुबंधी नही जा सकती। इसी- अनन्तानुबन्थि से ही होता है। अगर यह उपचार भी लिए आचार्यों ने मिथ्यात्व को ससार का कारण और माना जाये तो मात्र मिथ्यात्व के उदय रहते अनन्तानुबन्धि सम्यग्दर्शन को संसार के अभाव का कारण कहा है, इसी- के उदय के विना कोई प्रकार का बन्ध नहीं होना चाहिए लिए मिथ्यात्व को सबसे बड़ा पाप कहा है जिसके गये था जो होना है। केवन मिथ्यात्व के उदय में मिथ्यात्व बिना कोई कषाय जा ही नही सकती। (शेष पृ० २० पर)

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