Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 84
________________ १०, वर्ष ४१, कि०३ अनेकान्त निमित दो प्रकार के होते हैं एक कर्म निमित्त और दूसरे उदय को परम्परा चलती रहे वे अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, नोकर्म निमित्त । जैसे कमनिमित्त मिथ्यात्व आदि नियत माया लौर लोभ प्रकृतियाँ हैं । इनसे यह जीव अनन्त भवों हैं वैसे नोकर्म निमित्त नियत नहीं होते। ये कहीं कोई तक परिभ्रमण की सामर्थ्य प्राप्त करता है। अनुबन्ध शब्द निमित्त हो जाता है और कहीं कोई । मिथ्यात्व आदि का अनन्त भवों तक की संसार में परिभ्रमण की सूचना देता कनिमित्तो मे अन्तर्भाव होता है। है यह उसका तात्पर्य है। यद्यपि त. सू० के छठे अध्याय में ज्ञानावरणादि के अकिचित्कर पुस्तक में अनन्तानुबन्धी की विसयोजना आस्रव के भेदों का विवेचन क्यिा है पर वारीकी से देखने करने वाले का मिथ्यात्व मे आने पर एक आवलि काल पर वे सब मिथ्यात्व आदि अन्तर्भूत हो जाते हैं । तक अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं रहता इसे गोलमाल प्रथम गुणस्थान में जो मिथ्यात्व, नपुंसक वेद आदि कर दिया गया है। जबकि संक्रमावलि हो या बन्धावलि, १४ प्रतियों का बन्ध होता है उसका मूल कारण मिथ्या- naraलि काल एक आवलि काल तक उनके उदय न होने का नियम है के ना होने जा त्व ही है। मिथ्यात्व के साथ अविरति, प्रमाद, कषाय यह षटखण्डागम मे तो स्वीकार किया ही है, कषायप्रार्भत में और योग तो होते ही हैं, मिथ्यात्व बिना वे हों तो भी इन भी इस नियम को स्वीकार न कर अन्य प्रकृतियों मे स्वी१६ प्रकृतियों का बन्ध अन्य से नहीं होगा, यह आगम कार किया गया है। केवल अनन्तानुबंधी के लिए इस नियम स्वीकार करता है। पर मिथ्यात्व में बंधने वाली जो को नहीं स्वीकार किया गया है। कषाय प्राभत में बतलाया प्रतियाँ है उसका कारण भी मिथ्यात्व भी है, क्योकि है कि अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करने वाला जीव जब उनका जो कि उत्कृष्ट स्थिति बंध होता है । वह तीव्र सासादन गुणस्थान मे प्राता है तो अन्य कषायों का उससे मिथ्यात्व के सद्भाव में ही होता है तीन आयुओं संक्रम होकर उसी समय सासादन गुण के कारण अनन्तानुको अपवाद इसलिए रख दिया है कि उनका उत्कृष्ट बन्धी का अपकर्षण होकर उदय हो जाता है। यहाँ जो स्थितिबन्ध विशुद्धिवश ही होता है। फिर भी तियंचायु परस्पराश्रय दोष आता है उसकी अवगणना की गई है। का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व में ही होगा। मनुष्यायु इस प्रकार हम देखते है कि अकिचित्कर पुस्तक से भी उसी प्रकार प्रकृति है। देवायु का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध मिथ्यात्व बन्ध के कारणों में मुख्य होकर, उसे गौण कर सयमी के अवश्य होगा, यहां इतना विशेष जानना। दिया गया है और कषायो को आगे कर दिया गया है। अकिंचित्कर पुस्तक में जो अनन्तानुबन्धी मे 'अनुबंध' जबकि कषायों की सता मिथ्यात्व को स्वीकार करने पर का अथ किया है वह पुराने आचार्य और विद्वानो ने वैसा ही बनती है, अन्यथा नहीं। विस्तृत पुस्तक सप्रमाण हम अर्थ नहीं किया। केवल हमें अकिंचित्कर पुस्तक मे ही लिख रहे हैं उससे बातें स्पष्ट हो जायेगो, जिनागम क्या पढ़ने को मिला। अनन्त भवों तक जिनके यथासम्भव है वह समझ में आ जायगा । (पृ० ८ का शेषांश) णिय भावणाणिमित्तं मए कद णियमसारणामसुदं । (७) भक्तिसंग्रहपच्चा जिनोवदेसं पुवावरदोसणिम्मुक्कानियम. १८६ ३. तीथकर भक्ति ६ ४. तीर्थकर भक्ति ७ ५. ८ ६. योगिभक्ति २३ (५) अष्टपाहुड ७. आचार्य भक्ति १ ८. प्राचा० ७६. पंच गुरुभक्ति ७ १. दर्शन पाहुड गाथा १,२ २. शीलपाइड गाथा २ १०.जारिसया सिचेप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति । ३. धम्मेण होइ लिंगं ण लिंगमेत्तेण धम्मसपत्ती। जरमरणजम्ममुका अट्ठ गुणालाकया जेण ॥ नियम. ४७ जाणेहि भावधम्मं किं ते लिंगेण कायवो । लिंगपा. २ असरीररा अविरणासा अणि दिया णिम्मला विसुद्धप्प । जो पावमोहिदमदी लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाण । जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा ससिदी णेया॥ निय० ४० उवहसइ लिगि भावं लिंगंणसेदि लिंगीण ।। लिंगपा० ३ एदे सव्वे भावा ववहारणय पडुच्च भागादा है। सम्वे सिद्धसहावा सुद्धणया सासदी जीवा ॥ नियम. ४१ (६) द्वावशानुप्रेक्षा (बारसणुपेक्खा) ११. नियमसार गाथा ५० १. द्वादशानुप्रेक्षा गाथा १ २. पंचास्ति० गाथा १७३ १२. देखें लिंगपाहुड, अष्टपाहुड टिप्पण न०३

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