Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 77
________________ आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय 0 डॉ० सुदर्शनलाल जैन, वाराणसी दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द का स्थान सर्वो- आपकी मान्य रचनायें हैं-१. पचास्तिकाय संग्रह, परि है। आपन भगवान महावीर की वाणी का मन्यन २. समयमार, ३. प्रवचनसार, ४. नियमसार, ५. अष्टकरके हमे नवनीत प्रदान किया है। भगवान महावीर ने पाहुड, ६. द्वादशानुप्रेक्षा और ७. भक्तिसग्रह । 'रयणसार' जिस वीतरागता का उपदेश दिया था उसे मात्र बाह्यलिङ्ग के सन्दर्भ मे विद्वानो का मतभेद अधिक होने से उसे यहा के रूप मे समझा जाने लगा तो आपने भगवान महावीर नही लिया गया है। क्रमशः उनके उक्त प्रथों का परिचय दर्शन के बाह्य और आभ्यन्तर वीतराग भाव को स्पष्ट दिया जा रहा है। किया । अभ्यन्तर वीतरागभाव को प्रकट करना उनका १. पंचास्तिकाय सग्रह-यह ग्रन्थ दो श्रुतस्कन्धो मे प्रमुख लक्षा था । अत: आपने उन्ही बातो का अधिक व्या- बिभक्त है । दोनों श्रुतस्कन्धों का प्रारम्भ ग्रन्थकार 'जिन' ख्यान किया है। इसका यह तात्पर्य नही है कि उन्हे बाह्य स्तुतिपूर्वक करते है।' यह नमस्कार निश्चय ही भक्तिरूप वीतराग मुद्रा अभीष्ट नही थी। वस्तुतः आपने बाह्य और व्यवहार नय का आश्रय लेकर किया गया है। इसके प्रथम आभ्यन्तर वीतरागभाव के उपदेशो का व्यवहार और श्रुतस्कन्ध में षड्द्रव्यो का और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में नव निश्चय उभय नयो के द्वारा सम्यक आलोडन करके अपने पदार्थों एव मोक्षमार्ग का वर्णन है। जीवन मे तथा स्व-रचित ग्रन्थो में समावेश किया है। प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए लिखाआपके ग्रन्यो के अन्तः साक्ष्य से तथा आपकी स्वय की "प्रवचन के सारभूत पचास्तिकाय सग्रह को जानकार जो जीवन शैली से आपकी निश्चय-व्यवहार की ग्रथायोग्य रागद्वेष को छोड़ता है वह दुखों से मुक्त हो जाता है। समन्वय दृष्टि स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके अर्थ को जानकर तदनुगमनोद्यत, विगतमोह और सामान्य रूप से कोई भी लेखक अपनी रचनाओ के प्रशमित राग-द्वेष वाला जीव पूर्वापरबन्धरहित हो जाता प्रारम्भिक अशो में अपने अनुभवो को भूमिका रूप में है। द्वितीय श्रुतस्कन्ध में तत्वश्रद्धानादिरूप व्यवहार मोक्षस्थापित करता है और अन्त में उसहार के रूप मे उन्हे मार्ग का कथन करके निश्चय मोक्षमार्ग का कथन करते परिपुष्ट करता है। अत: उन्ही अशो को यहा इस लेख में हुए लिखा है -"रत्नत्रय से समाहित (तन्मय) हआ आत्मा प्रमुख रूप से माध्यम बनाकर आपकी समन्वयदृष्टि का ही निश्चय से मोक्षमार्ग है जिसमे वह अन्य कुछ भी नहीं प्रतिपादन किया गया है-- करता है और न कुछ छोड़ता ही है।' यह कयन निश्चय ही निविकल शुद्ध ध्यानावस्था को लक्ष्य करके कहा गया (पृष्ठ २ का शेषाश) निर्ममत्व या अरिग्रह जैसे गुण आत्मा मे प्रगट होते हैं- है। इसक आग बतलाया है कि अहृदादि की भक्ति से उसके रहते वे व्यर्थ है। बहुत पुण्यलाभ एव स्वर्गादि की प्राप्ति होती है । यही परिसर में निरासत रहने का अभ्यास करने अहंदादि की भक्ति से कर्मक्षय का निषेध और निर्वाणप्राप्ति उसका परिमाण करने का तथा उक्त परिमाग की सीमा की दूरी को भी बतलाया है, भले ही वह सर्वागमधारी को निरन्तर घटाते जाने का अभ्यास करने से ही व्यक्ति और सयम-तपादि से युक्त क्यों न हो। यह कयन भी शनैः शनैः अपरिग्रही हो जाता है, और सच्चे सुख एवं छठे आदि गुण स्थान वालों को लक्ष्य करके कहा गया शान्ति का उपभोग करता है। है। यही पर यह भी कहा गया है कि मोक्षाभिलाषी पुरुष चारबाग, लखनऊ निष्परिग्रही और निर्ममत्व होकर सिद्धों मे भक्ति करता

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