Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 79
________________ प्राचार्य कुंदकंद के ग्रन्थों में निश्चय-व्यवहार का समन्वय (वस्तु स्वरूप का ज्ञान कराना) कठिन है उसी प्रकार गाउं (अर्थ तत्त्व को जानकर) और अत्ये ठाही चेया व्यवहार नय के बिना परमार्थ का उपदेश देना अशक्य है। (अर्थ मे स्थित आत्मा) पद चिन्तनीय हैं जो निश्चय व्यव इस तरह यहां स्पष्टरूप से साधारण जन को परमार्थ हार के समन्वय को ही सिद्ध करते है। शुद्ध निश्चय नय तक पहुंचाने में व्यवहारनय को अनिवार्य साधन के रूप तो स्वस्वरूप स्थिति है वहां कुछ करणी नही होता, जब में स्वीकार किया गया है। इसके आगे व्यवहार को "अभू. कि ससाग को करणीय कर्म भी जानना जरूरी है। तार्थ" तथा शुद्धनय (निश्चयनय) को "भृतार्थ" कहते हए (३) प्रवचनसारभूतार्थनयाश्रयी को सम्यग्दृष्टि कहा है। यहा ग्रन्थकार यह ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इन तीन अधिकारों में भ्रम निवारणार्थ पुनः कहते हैं-जो परम भाव (उत्कृष्ट विभक्त है। इसकी प्रा:म्भिक पांच गाथाओ में तीर्थंकरों. दशा) में स्थित है उसके द्वारा शुद्ध तत्त्व का उप- सिद्धो, गणधरों, उपाध्यायों और साधुओ को नमस्कार देश देने वाला शुद्धनय जानने योग्य है और जो अपरम किया गया है तथा उनके विशुद्ध दर्शन-ज्ञान प्रधान आश्रय भाव (अनुत्कृष्ट दशा) मे स्थित है वे व्यवहारनय से उप को प्राप्त करके निर्वाण सम्प्राप्ति के साधनभूत समतादेश करने के योग्य है। इस तरह व्यवहारनय को त्याज्य भाव को प्राप्त करने की कामना की गई है। इसके बाद न बतलाते हुए अपेक्षा भेद से ग्रन्थकार योगो नयों की सराग चारित्र वीतराग चारित्र आदि का कथन किया प्रयोजनवत्ता को सिद्ध करते है। अधिकाश जीव अपरम गया है। भाव में ही स्थित है। यहा टीकाकार "अमनचन्द्राचार्य" तृतीय चारित्राधिकार का प्रारम्भ करते हुए ग्रन्थकार "उक्त च" कहकर एक गाथा उद्धृत करते है-- सिद्धो और श्रमणो को बारम्बार नमस्कार करके दु:ख"जइ जिणमय पवजह ता मा ववहार णिच्छा मुयह। निवारक श्रमणदीक्षा लेने का उपदेश देते है। इसके बाद एक्केण विणा छिज्जइ तित्थ अणोरण उणतच्च ॥" श्रमणधर्म स्वीकार करने की प्रक्रिया प्रादि का वर्णन करते ___ अर्थ-यदि तुम जिनमत की प्रवर्तना करना चाहते हुए निश्चय व्यवहाररूप श्रमणधर्म का विस्तार से कथन हो तो व्यवहार ओर निश्चय दोनो नयों को मन छोडो, करते है । प्रमङ्गवश प्रशस्त राग के सन्दर्भ में कहा हैक्योंकि व्यवहार नय के बिना तो तीर्थ व्यवहार मार्ग) "रागो पमत्थभूदो वत्थु विसे सेण फलदि विवरीदं । का नाश हो जायेगा और निश्चय नय के बिना तत्त्व ___णाणा भूमिगदाणित बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२२॥" (वस्तु) का नाश हो जायेगा क्योकि जिनवचन को स्याद्वाद अर्थ जैसे एक ही बीज भूमि की विपरीतता से विपरूप माना गया है, एकान्तवादरूप नहीं। अत: निनवचन रीत फल वाला देखा जाना है वैसे ही प्रशस्त रागरूप सुनना, जिनविम्बदर्शन आदि भी प्रयोजनवान है। शुभो योग भी पात्र की विारीतता से विपरीत फल वाला ग्रन्थ का उपसंहार करते हुए प्राचार्य ने कहा है "जी होता है। इसे सिद्ध है कि प्रशस्त राग पात्रभेद से बहुत प्रकार के गृहस्थ आदि बाह्य लिङ्गो मे ममत्व करते तीर्थकर प्रकृ त के बन्धादि के द्वारा मुक्ति का और निदाहैं वे समयसार को नहीं जानते । व्यवहार नय दोनो नादि के बन्ध से संसारबन्ध का, दोनों का कारण हो (मनि और गृहस्थ) लिङ्गो को इष्ट मानता है।" पर यहा सकता है। श्री जयमेनाचार्य ने २५४वी गाथा की व्याख्या जो अलिङ्गी को मोक्षमार्ग निश्चय नय से कहा है वह करते हैं। इसी अर्थ को स्पाट करते हुए लिखा हैविशुद्धात्मा की दृष्टि से कहा है। जो विशुद्ध आत्मा है 'वै वित्य गृहस्थों का मुख्य धर्म है। इससे वे खोटे ध्यानों वह जीव-अजीव द्रव्यों मे से कुछ भी न तो ग्रहण करता से बचते हैं तथा साधु-सगति मे निश्चय-व्यवहार मोक्ष मार्ग है और न छोड़ता है। ____ का ज्ञान होता है, पश्चात् परम्परया निर्वाणप्राप्ति होती इस प्रकार जो इस समयप्राभृत को पढकर अर्थ एव है।' २ तत्त्व को जानकर इसके अर्थ में स्थित होगा वह उत्तम उपसहाररूप २७४वी गाथा मे शुद्धोपयोगी मुनि को सुख प्राप्त करेगा। यहां पडिहूड (पढ़कर), अत्थतच्चदो सिद्ध कहकर नमस्कार किया गया है तथा २३५वी गाथा

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