________________
४, वर्ष ४१, कि०३
अनेकान्त
है और उससे वह निर्वाण प्राप्त करता है। यहां टीका- इस तरह व्यवहार और निश्चय का सम्यक् समन्वय ही कारों ने 'सिद्धेषु' का अर्थ शुद्धात्म द्रव्य में विश्रान्तिरूप निर्वाण का हेतु है, न केवल व्यवहार और न केवल निश्चय पारमाधिक सिद्धमक्ति अर्थ किया है।' गाथा १७२ की नय। यही ग्रन्थकार का अभिमत है। नय मात्र वस्तुव्याख्या में अमृतचन्द्राचार्य और सिद्धसेनाचार्य ने केवल परिज्ञान के लिए स्वीकृत है शुद्धात्मा नयातीत है। निश्वयावलम्बी उन जीवों को लक्ष्य करके कहा है जो (२) समयसारवस्तुत: निश्चय नय को नहीं जानते हैं :-कोई शुमभाव यहां "जीव" पदार्थ को "समय" शब्द से कहा गया वाली क्रियाओं को पुण्यवन्ध का कारण मानकर अशुभ है। जब वह अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित होता है तब उसे भावों में वर्तते हुए वनस्पतियों की भाति केवल पापबध "स्वसमय" कहते हैं और जब परस्वभाव (राग-द्वेषादि के को करते हुए भी अपने में उच्च शुद्धदशा की कल्पना करके कारण पुद्गल कर्मप्रदेशो) मे स्थित होता है तब उसे स्वच्छन्दो और आलसी हैं
'परसमय" कहते हैं।' इस ग्रन्थ में जीव के इस स्वसमय णिच्छयमालम्बन्ता णिच्छयदो णिच्छयं अयाणता। और परसमय का ही विवेचन किया गया है। णासति चरणकरण बाहरिचरणालसा केई ॥ ग्रन्थारम्भ में ग्रन्थ कार ध्र व, अचल और अनुपम गति
अन्त मे इस ग्रन्थ का उपसहार करते हुए ग्रन्थकार को प्राप्त सभी सिद्धो को नमस्कार करके श्रुत केवलियो लिखते हैं -प्रवचन (जिन वाणी) की भक्ति से प्रेरित के द्वारा कथित इस समय प्राभूत को कहने का सकल्प होकर मैंने (मोक्ष) मार्ग की प्रभावना के लिए प्रवचन करते हैं। इसके बाद एकत्व विभक्त (सभी पर पदार्थों से का सार भूत यह पंचास्तिकाय सग्रह सूत्र (शास्त्र) कहा है। भिन्न-पुद्गल कर्मबन्ध से रहित) आत्मा की कथा की
इससे स्पष्ट है कि जो व्यवहाररूप अहंदादि की भक्ति दुर्लभता का कथन करते हुए उसके कथन करने की को मात्र स्वर्ग का साधन बतलाकर और मोक्षप्राप्ति मे प्रतिज्ञा करते है --मैं अपनी शक्ति के अनुसार उस एकत्वप्रतिवन्धक बतलाकर तुरन्त उपसहार करते हुए जिन मार्ग विभक्त आत्मा का यदि प्रमागगरूप से दर्शन करा सक तो प्रभावनार्थ "प्रवचनभक्ति प्रेरित" जैसे वाक्यो वा कथन प्रमाण मानना अन्यथा (ठीक से न समझा सकने पर या क्यों करेगा। नमस्कार वाक्यों मे महावीर को 'अपुनर्भव ठीक न समझने पर) छलरूप ग्रहण न करना।' का कारण" कहना व्यवहार नयाश्रित कथन है क्योकि इससे सिद्ध है कि ग्रन्थ कार का मुख्य उद्देश्य इस प्रथ निश्चय से कोई किसी का कारण नहीं है । इ.यादि कथनो मे आत्मा के दुर्बोध शुद्धस्वरूप का ज्ञान कराना है। अतः से सिद्ध होता है कि व्यवहार रूप बाह्य क्रियाये भी निर्वा- वे व्यवहार पक्ष को गौण करके निश्चय का कथन मुख्यता णप्राप्ति के लिए आवश्यक हैं परन्तु वही तक सीमित न से करते है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि व्यवहार मिथ्या रह जाएं। अतः उन तपस्वियो के प्रतिबोधनार्थ निश्चय है। इस सन्दर्भ मे उनका यह निवेदन ध्यान देने योग्य है का कथन करके आचार्य ने दोनो नयों सम्यक समन्वय कि "ठीक न जान सकने पर छल रूप ग्रहण न करना।" करना चाहा है। किसी एक नय को हेय और दूसरे को इस तरह से निश्चय ही व्यवहार और निश्चयनय से समउपादेय कहना स्याद्वाद सिद्धान्त का और आचार्य कुन्दकुंद वित कर आत्मा को दर्शाना चाहते है। अन्यथा वेदान्त का उपहास है । अपेक्षा भेद से अपने-अपने स्थान पर दोनों दर्शन के साथ जैन दर्शन का भेद करना कठिन हो जायेगा। नय सम्यक हैं। परमदशा की प्राप्ति तो नयोपरि अवस्था इसीलिए ग्रन्थकार व्यबहार नय से कहते है कि ज्ञानी जीव
के चारित्र, दर्शन और ज्ञान है परन्तु (निश्चय नय से) न 'दर्शनविशुद्धि' आदि भावनाएं जो तीर्थङ्कर प्रकृति चारित्र है, न दर्शन है और न ज्ञान है, अपितु वह शुद्ध बन्धको कारण मानी जाती हैं वे व्यवहार से बन्ध को ज्ञायकरूप है। यही ग्रन्थकार व्यवहार नय की अनुपयो. कारण भले ही हैं परन्तु तीर्थङ्कर प्रकृति बन्ध करने वाला गिता की अशंका का समाधान करते हुए कहते है कि जैसे जीव नियम से निर्वाण प्राप्ति करने वाला माना गया है। अनार्य (साधारण) जन को अनार्य भाषा के बिना समझाना