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निन्नानवे के चक्कर से बचिए
'इतिहास मनीषी विद्यावारिधि' स्व. डा० ज्योतिप्रसाद जैन
अरिपग्रह का अर्थ है परिग्रह का अभाव और 'परिग्रह' सर्वथा नगण्य है, हेय है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी डेविड उसे कहते है जो आत्मा को सर्व ओर से घेरे व बांधे रखता थोरो की उक्ति है कि "सबसे बड़ा प्रमीर वह है जिसके है-- "परितो गृह्ण ति आत्मानमिति-परिग्रहः।" चेतन- सुख सबसे सस्ते है-आत्मा की आवश्यकताए जुटाने के अचेतन, घर-जायदाद, धन-दौलत आदि अनगिनत बाह्य लिए पैसों की आवश्यकता नहीं होती।" गोल्डस्मिथ कहता भौतिक पदार्थ मनुष्य को बांधे रखते है। वह अहर्निश है कि- "हमारी प्रमुख सुविधाएं व आरामतलबिया ही उनके अर्जन, सग्रह, सुरक्षा की चिन्ता में तथा उनके नष्ट बहुधा हमारी सर्वाधिक चिन्ता का कारण होती है और हो जाने या छिन जाने के भय से व्याकुल रहता है । वह जैसे-जैसे हमारे परिग्रह में-हमारी धन सम्पत्ति में बढोउन्हे ही अपना जीवन प्राण समझता है। प्रतएव वे सब तरी होती जाती है हमारी चिन्ताएँ भी बढ़ती जाती है, पदार्थ सामान्यतया परिग्रह कहलाते हैं, किन्तु वास्तव में नित्य नवीन चिन्ताए उत्पन्न होती जाती है। शायद इसी. स्वय वे पदार्थ परिग्रह नही है, वरन् उनमे जो व्यक्ति की लिए किसी ने कहा है कि - "जिमने धन की सर्वप्रथम मुर्छा है, ममत्वभाव है, आसक्ति है, वही परिग्रह है और खोज की, उसी ने मनुष्य के सारे दुःख भी साथ ही साय इस परिग्रह का मूल कारण उसकी कामनाए, इच्छाएं, खोज लिए।" आकाक्षाएँ, लोभ, तृष्णा या आशा है। जिसका चित्त इन अपने धर्म को, स्वरूप व स्वभाव को आत्मा और चित्त आशा-तृष्णादि विकारो से ग्रस्त रहता है, उसके पास अटूट की शाति को प्राप्त करने का आधार धन-सम्पनिया परिधन वैभव हो तो भी उसे सुख व शान्ति प्राप्त नही होती। ग्रह नहीं है, वरन् उसके त्याग मे, उमकी आशा व तृष्णा इसीलिए एक शायर ने कहा है कि
के घटाने में ही निहित है। जमीयते दिल कहां हरीसों को नसीब ।
अहमक पूछना है वहा जाने की राह क्या है ? निन्नानवे ही रहे कभी सौ न हुए ॥
जेब गर हल्की करें हर जानिब से रास्ता है। तृष्णा ग्रस्त जीवों को कभी भी चित्त की शान्ति जिन महानुभावो ने “परिग्रह पोट उतारकर लीना प्राप्त नही होती। वे सदा निन्नानवे के चक्कर मे पडे चारित पंथ" उन्हीने आत्म धर्म प्राप्त किया है। जरा यह रहने है, क्योकि पुरानी इच्छामो की पूर्ति के साथ ही साथ सोचना तो शुरू कीजिए कि धनवान होने की वह कौन-सी तृष्णा को सीमा आगे-आगे बढती जाती है। अत: वह धनी सीमा है कि जिसपर पहुंचकर आपके और अधिक धनवान होते हुए भी निर्धन है, वैभव सम्पन्न होते हुए भी रक है - बनने की इच्छा समाप्त हो जाय ? स्वय पमझ मे आ जायेगा म: हि दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला। वह यह भी जाता कि इस मृगतृष्णा से पार नही पाया जा सकता। है कि
आशैव मदिराक्षाणाम आणव विषमजरी। दि की तस्की भी है जिन्दगी की खुशी की दलील। आशामूलानि दुखानि प्रभवन्ती देहिनाम् ।। जिन्दी सिर्फ जरोसीम का पैमाना नही ।। येषामाशा कुतस्तेषा मन' शुद्ध शरीरिणाम् ।
जीवन के सुख का प्रमाण चित्त का सन्तोष व शान्ति अतो नैराश्य नवलम्ब्ध शिवीभता मनीषिण. ॥ है, मात्र धन-दौलत उसका मापदड नहीं है - वह बाह्य तस्य सत्य-श्रुत-वृत्त-विवेकस्तत्त्वनिश्चय । वैभव मे नही मापा जा सकता।
निर्ममत्वं च यस्याशा पिशाची निधनंगता॥ पुरातन जैनाचार्य कह गये है कि जो निग्रंथ होता है, बडी भयंकर है यह धन लिप्पा । यह तृष्णा ही समम्त भीतर-बाहर दोनों से सर्वथा निष्परिग्रह होता है, वही दुःखों की जड़ है। इस आशा पिशाचिनी के नष्ट होने सच्चा चक्रवर्ती होता है-लौकिक चक्रवर्ती सम्राट का पर ही सत्य, श्रुतज्ञान, चारित्र, विवेक, तत्वनिश्वय और अपार वैभव भी उस महात्मा की दिव्य विभूति के समक्ष
(शेष पृ० ३ पर)