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वसौं शताब्दी के अपभ्रंश काव्यों में वार्शनिक समीक्षा
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घोषणा क्या कर सकते हैं।" पशुबलि-हिंसा के विरोध में स्वीकार करता है। इस मत की पुष्टि करते हुए कवि आचार्य सोमदेव सूरि" ने भी अपने यशस्तिलक चम्पू में कहता है कि-"जिस प्रकार पुष्प से गंध भिन्न नहीं है, विशद वर्णन किया है। पुष्पदन्त ने भी इस प्रकार की किन्तु पुष्प के नष्ट होने पर गध स्वतः नष्ट हो जाती है। वैदिक मान्यता को उचित नही माना है, क्योंकि हिंसा उसी प्रकार शरीर के नष्ट होने पर जीव भी स्वत: नष्ट करने वाले महापापी व मायाचारी होते हैं। इसलिए हो जाता है।" इस मत का खण्डन करते हुए जसहरकवि ने वेदों का अनुसरण करने वाले को नरकगामी चरिउ में कहा गया है किकहा है।
"जी आहारदेह सो अण्णु जिमइ गहिओ अचयणो।" ब्राह्मणधर्म की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि
'यह शरीर जीव से भिन्न व अचेतन है।" जिस "हा हा बम्भणय माराविय, रायह रायवित्ति दरिसाविया प्रकार चम्पक पुष्प की वास तेल में भी लग जाती है और पियरपक्खु पच्चक्ख णिरिक्खइ मंसखडु दियपडिय भक्खइ॥ गध की पुष्प से पृथक सत्ता सिद्ध होती है, उसी प्रकार धोयंतउ दुद्धे पक्खालउ होइ कहिं मि इग लु ण धवलउ।
देह और जीव की भिन्नता देखी जाती है।" जीव की सत्ता एह देहु किं सलिल धुप्पइ हिंसारम्भे डम्भे लिप्पइ॥"
के संदर्भ में कहा गया है कि यदि जीव शरीर से पृथक है, "पशुओं का वध करके पितृपक्ष पर जो द्विज पंडित
तो क्या उसे किसी ने देखा है।" इसके प्रत्युत्तर ये कहा
गया है किमास खाते है, हिसा दम्भ तो उनसे पूर्णत: लिपटे है। तब
दूरा एन्तु सद्द णउ दोसइ पर कम्भि लग्गओ। उनके द्वारा देह को जल से क्या होगा ? कहीं अगार दूध
गज्ज इ जेम तेम जगि जीउ वि वह जोणीकुलं गओ।" से धोने पर श्वेत हो सकता है ?" आचार्य कहते है कि
___"दूर से आता हुआ शब्द यद्यपि दिखाई नही देता। वैदिक मान्यतानुसार यदि यज्ञ मे बलि दिए जाने वाले
परन्तु जिस शब्द का कान मे लगने पर अनुमान-ज्ञान हो प्राणी (जीव) स्वर्ग के अधिकारी होते है तो लोगो को ।
जाता है, उसी प्रकार नरक-योनियों में जीव की गति अपने पुत्रों व स्त्रियों सहित स्वय को भी बलि चढ़ जाना
होती । अतः जीव अनुमान से सिद्ध है।" । चाहिए।
चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि और वैदिक मान्यतानुसार तत्व एक ही है-'ब्रह्मा' जो
वायु ही जगत के मूल तत्व हैं। इन्ही भूत चतुष्टयों से अर्थ नित्य है। इस मान्यआ की समीक्षा करते हुए कवि
और काम पुरुषार्थ उत्पन्न होते है। कोई परलोक नहीं कहता है कि-"यदि ब्रह्म एक व नित्य होता, तो जो एक
है, मृत्यु ही निर्वाण है।" चार्वाक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, देता है उसे दूसरा कैसे लेता है ? एक स्थिर है तो दूसरा ।
जल, अग्नि और वायु के परस्पर ससर्ग से ही जीव की कैसे लेता है ? एक स्थिर होता है तो दूसरा दौड़ता है।
उत्पत्ति होती है । अर्थात् उसकी सत्ता है।" इस मत की एक मरता है तो अनेक जीवित रहते हैं। अतः जो नित्य
समीक्षा करते हुए अपभ्रंश कवि कहता है कि-उन है, वह बालकपन, नवयौवन व वृद्धत्व कैसे प्राप्त करेगा
चारो में परस्पर विरोधी गुण होने के कारण इनका इत्यादि।
सयोग कैसे हो सकता है? चार्वाक दर्शन :
जल जणहं विरोह ससहावे ताई ति किह उक्के भावे । केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले भौतिकवादी पवणु चवलु महि थक्क थिरत्ते, हा कि झखिउ सुरगुरुपुत्तें।" या जड़वादी (चार्वाक दर्शन सुख को ही जीवन का परम "जल और अग्नि स्वभाब से विरोधी गुण युक्त हैं, लक्ष्य मानते है । चार्वाक दर्शन के अनुसार 'जीवो नास्ति' फिर वे एक स्वरूप कैसे रह सकते हैं ? पवन चंचल है अर्थात जीव नहीं है।" वह शरीर से पृथक जीव की सत्ता और पृथ्वी अपनी स्थिरता लिए हुए स्थिर है।" यदि स्वीकार नहीं करता बल्कि शरीर को ही आत्मा मानता जीव चार भूतों के संयोग से उत्पन्न है तो सभी जीवों का है। क्योकि शरीर से पृथक आत्मा मूर्तरूप में दिखाई नहीं स्वभाव व शरीर एकसा क्यों नहीं है । अतः यह एक देती। अतः यह दर्शन शरीर पर्यन्त ही जीव की सत्ता वितण्डामात्र है। यदि भूतचतुष्टय के सम्मिलन मात्र