Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 24
________________ २४. पर्व ४१, कि०१ ग्रन्थ-प्रशस्तियों के अध्ययन से न केवल विभिन्न भाषाओं प्रशस्ति संग्रह"-भाग १, सम्पादक डा० कस्तूरचन्द में निबद्ध एवं विविध विषयक हमारे साहित्य के इतिहास कासलीवाल, प्रकाशक-शोष सस्थान श्री महावीर जी, के संशोधन एवं निर्माण में तो कभी-कभी अभूतपूर्व सहा- १९५० ई० मे भी सूचीगत ग्रन्थों में से अनेको की प्रशयता मिलती ही है, विभिन्न युगो एव प्रदेशों के समृद्ध स्तियां भी प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त, १६५८ ई० मे जैन सांस्कृतिक केन्द्रों, प्रभावक आचार्यो एव साहित्यकारों, जैन सस्कृति संघ शोलापुर से प्रकाशित प्रो. वि. जोहराधर्मप्राण दानी एवं साहित्यप्रेमी, श्रावक-श्राविकाओं आदि पुरकर की पुस्तक "भट्टारक सम्प्रदाय" मे, भारतीय ज्ञानके विषय मे अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाती है। जाति- पीठ, दिल्ली से प्रकाशित तथा पं० के. भुजबलि शास्त्री कूल-वंश आदि तत्तद समाज व्यवस्था, आर्थिक दशा, राज- द्वारा सम्पादित कन्नड प्रान्तीय ताडपत्र ग्रन्थसूची (१९४८ नैतिक परिस्थितियों, भौगोलिक स्थानो की पहिचान, ई.) और प्रो० कुन्दन लाल जैन द्वारा सम्पादित "दिल्ली आम्नाय भेद, साम्प्रदायिक स्थिति, मुनिसंघों का रूप एव जिन ग्रन्थ रत्नावली" (१९८१) में, अहमदाबाद से (१९६३ दणा, धार्मिक प्रवृत्तियो का रूप एव प्रकार आदि अनेक से ७२ ई० मे) प्रकाशित मूनि पुण्यविजय जी की सस्कृत उपयोगी ज्ञातव्य भी प्राप्त हो सकती है। प्राकृत हस्तलिखित ग्रन्थो को सूचियो के ६-७ भागो मे, ऐसा नहीं है कि प्रशस्तियो की उपयोगिता एव उनके अन्यत्र प्रकाशित कतिपय अन्य ग्रन्थ-सूचियों मे, और फुटप्रकाशन की आवश्यकता की ओर विद्वानो का ध्यान नही कर रूप से भी जैन सिद्धान्त भास्कर आदि शोध पत्रिगया है-विगत पचास-साठ वर्षों में कई प्रशारत संग्रह काओ के कछ अंको मे प्रकाशित विविध प्रशस्तियों की प्रकाशित हो चुके है, यथा-- सख्या भी कम नही। १. ५० के० भुजबलि शास्त्री द्वारा सम्पादित तथा उपरोक्त विभिन्न पकाशनो में प्रकाशित अधिकांश १९४२ ई० मे श्री जैन सिद्धान्त भवन, आरा द्वारा प्रका प्रशस्तियों के मूल पाठ मात्र ही प्राप्त है। बहुधा तो पूरी शित "प्रशस्ति सग्रह"-जिसमे उक्त भवन मे सग्रहीत प्रशस्ति भी नहीं रहती, केवल नमूने के लिए कुछ अन्त्य कतिपय पांडुलिपियो की महत्त्वपूर्ण प्रशस्तियां संग्रहीत हैं, या आद्याश देकर ही सन्तोष कर लिया गया है। प्रथम साथ में शास्त्री जी द्वारा लिखित उनका विवेचन, व्याख्या आदि भी है। तीन प्रशस्ति संग्रहों मे सकलित प्रशस्तियों का परिचय, २. प० जुगल किशोर मुख्तार एव प० परमानन्द संक्षेपसार और ऐतिहासिक विवेचन भी है, अन्यत्र वह भी शास्त्री द्वारा सम्पादित, तथा वीर सेवा मन्दिर, सरसावा नही है। इस प्रकार न कुछ होने से, इस दिशा में भी द्वारा १९५४ ई० मे प्रकाशित "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह, कुछ तो हुआ, यह सन्तोष की बात है। उनका उपयोग भी भाग-१०"-जिसमे विभिन्न शास्त्र भण्डारो से चय- हया। किन्तु जिसके पाठक, विशिष्ट अध्येता, इतिहासकार नित, संस्कृत भाषा निबद्ध हस्तलिखित ग्रन्थों की... एवं शोधकर्ता उनका समुचित उपयोग कर सकें और यथोप्रशस्तियां सकलित है। चित रूप मे लाभान्वित हो सके, यह आवश्यक है कि जो ३. "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह, भाग -२", सम्पादक भी प्रशस्ति-सग्रह आगे से प्रकाशित हो, जिनमें पूर्व प्रकाएवं प्रकाशक वहीं, वर्ष १९६३ ई०--जिसमे अपभ्र श शनों के नवीन सस्करण भी हो सकते है, उन सबमें (१) तथा कछ एक प्राकृत ग्रन्थो की-प्रशस्तियाँ सकलित है। पोक हस्तलिखित ग्रन्थ प्रति में प्राप्त सभी प्रकार की दोनों ही भागो के प्रेरक-निर्देशक वीर सेवा मन्दिर के प्रशस्तिया व पूष्पिकाएँ (रचनाकार, टीकाकार, दाता संस्थापक, सचालक स्त्र० पं० जुगल किशोर मुख्तार थे, प्रतिलेखक आदि की) एक साथ अपने मूलरूप मे संकलित किन्तु उनका सम्पादन, विस्तृत परिचयात्मक प्रस्त वनायें, हो, (२) साथ में उनका अन्वयार्थ एव अविकल भाषानुविविध अनुक्रमणिकाएँ आदि कार्य मुख्यतया उनके सहायक वाद रहें, (३) पाठ सशोधन-संपादन की टिप्पणियां, स्व० पं० परमानन्द शास्त्री का है। (४) विशेषार्थ, ऐतिहासिक या तुलनात्मक विवेचन यथा४. "राजस्थान के शास्त्र भण्डारो की सूची एव (शेष पृ० २५ पर)

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