Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 28
________________ २५ वर्ष ४१, कि.१ अनेकान्त (पृ० १६ का शेषांश) शास्त्रों में सैद्धान्तिक चर्चाओं के विरोधी विवरण: खाता । भगवती आराधना मे साधुओ के २८ व ३६ मूलयह विवरण दो शीर्षकों में दिया जा रहा है : गुणो को चर्चा के समय कहा है। "प्राकृतटीकाया तु अष्ट विशति गुणा: । आचारवत्वादयश्चाष्टो-इति षट्त्रिंशत् ।" (१) एक ही प्रन्थ में प्रसंगत चर्चा-मूलाचार के । इसी ग्रन्थ में १७ मरण बताये है पर अन्य ग्रन्थो में इतनी पर्याप्ति अधिकार की गाथा ७६-८० परस्पर असगत हैं : संख्या नही बताई गई है। सौधर्म स्वर्ग की देवियो की उत्कृष्ट आयु ५ पल्य ५४० शास्त्री ने बताया है कि 'षट् खण्डागम' और 'कषायईशान स्वर्ग की देवियों की उत्कृष्ट आयु ७ पल्य ५४० प्राभूत' मे अनेक तथ्यों में मतभेद पाया जाता है। इसका सानत्कुमार स्वर्ग मे देवियोकी उत्कृ. आपु ६ प० १७४० उल्लेख 'तन्नान्तर' शब्द से किया गया है। उन्होने धवला, पवला के दो प्रकरण"-(१) खुद्दक बंध के अल्प जयधवला एवं त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अनेक मान्यताभेदों का बहुत्व अनुयोग द्वार मे वनस्पतिकायिक जीवों का प्रमाण भी सकेत दिया है। इन मान्यता भेदो के रहते इनकी सूत्र ७४ के अनुसार सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीवो से विशेष प्रामाणिकता का आधार केवल इनका ऐतिहासिक परिअधिक होता है जबकि सूत्र ७५ के अनुसार सूक्ष्म वनस्पति प्रेक्ष्य ही माना जावेगा। कायिक जीवों का प्रमाण वनस्पतिकायिक जीवों से विशेष आचार विवरण संबंधी विसंगतियां : अधिक होता है। दोनों कथन परस्पर विरोधी है। यही शास्त्रों मे सैद्धान्तिक चर्चाओं के समान आचारनही, सूक्ष्मवनस्पतिकायिक जीव और सूक्ष्म निगोद जीव विवरण में भी विसगतिया पाई जाती हैं। इनमें से कुछ वस्तुत: एक ही हैं, पर इनका निर्देश पृथक् पृथक है। का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है। (२) भागाभागानुगम अनुयोग द्वार के सूत्र ३४ को श्रावक के पाठ मूल गुण ---श्रावको के मूलगुणों की व्याख्या में विसगतियों के लिए वीरसेन ने सुझाया है कि परम्परा बारह व्रतों से अर्वाचीन है। फिर भी, इसे समन्तसत्यासत्यका निर्णय आगमनिपुण लोग ही कर सकते है। भद्र से तो प्रारम्भ माना ही जा सकता है। इनकी आठ (२) भिन्न-भिन्न ग्रन्थों में असंगत चर्चायें--(१) तीन की सख्या मे किा प्रकार समय-समय पर परिवर्धन एव वातवलयों का विस्तार यतिवृषभ और सिंहसूर्य ने अलग- समाहरण हुआ है। यह देखिए :-- अलग दिया है : १. समतभद्र तीन मकार त्याग पचाणु व्रत पालन (अ) त्रिलोकप्रज्ञप्ति मे क्रमशः ११/२, ११/६ व ११-१/२ २. आशाधर तीन मकार त्याग पचोदुम्बर त्याग कोश विस्तार है। ३. अन्य तीन मकार त्याग पचोदुम्बर त्याग, रात्रि (ब) लोकविभाग मे क्रमशः २, १ कोश एवं १५७५ धनुष भोजन त्याग, देव पूजा, विस्तार है। जीव दया, छना जल पान इसी प्रकार सासावन गुणस्थानवी जीव के पुनर्जन्म समयानुकूल स्वैच्छिक परिवर्तनों ।। तेरहवी सदी के के प्रकरण में यतिवृषभ नियम से उसे देवगति ही प्रदान पं० आशाधर तक ने मान्य किया है। यहां शास्त्री" करत ह जब कि कुछ आचाय उसे एकान्द्रयादि जावा की समन्तभद्र की मूलगुण-गाथा को प्रक्षिप्त मानते हैं। तियंच गति प्रदान करते है। उच्चारणाचार्य और यति- बाईस अभक्ष्य-सामान्य जैन श्रावक तथा साधुओ के वृषभ के विषय के निरूपण के अन्तरो को वीरसेन ने जय- आहार से सम्बन्धित भक्ष्याभक्ष्य विवरण मे तेरहवी सदी घवला मे नयविवक्षा के आधार पर सुलझाने का प्रयत्न तक बाईस अभक्ष्यो का उल्लेख नहीं मिलता। मूलाचार किया है। इसी प्रकार, उच्चारणाचार्य का यह मत कि एवं प्राचाराग के अनुसार, अपित किए गए कन्दमूल, बहुबाईस प्राकृतिक विभक्ति के स्वामी चतुर्गतिक जीव होते बीजक (नि:जित) आदि की भक्ष्यता साधुओं के लिए हैं-यतिवृषभ के केवल मनुष्य-स्वामित्व से मेल नहीं वजित है। पर उन्हें गहस्थो के लिए भक्ष्य नही माना

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