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आर्ष-भाषा को खण्डित न किया जाय
सर्व विदित है कि वेदों की भाषा आर्ष-भाषा है और उसमें संस्कृत व्याकरण के प्रचलित नियम लागू नही होते । पाणिनीय जैसे वैयाकरण को भी वेदो के मूल शब्दों की सिद्धि के लिए वेद - भाषा के अनुसार ही पृथक् से स्वरवैदिकी प्रक्रियाओं की रचना करनी पड़ी और यास्काचार्य को वेदविहित शब्दों की सिद्धि और अर्थ समझाने के लिए अलग से तदनुरूप निरुक्त ( निघण्टु) रचना पडा ।
वेदों की भाति दिगम्बर प्राचीन अगम भी आर्ष है और उनकी रचना व्याकरण से शताब्दियों पूर्व हुई हैउनमें परवर्ती व्याकरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती । आ मे प्राकृत भाषा सम्बन्धी अनेक रूप पाए जाना भी इसकी साक्षी हैं। और दिगम्बरो की आषं भाषा का नाम ही जैन शौरसेनी है ।
प्राकृत व्याकरण के रचयिता आचार्य हेमचन्द्र जी १२वीं शताब्दी के महान् प्रामाणिक विद्वान् थे श्रीर आर्ष का निर्माण उनसे शताब्दियों पूर्व हो चुका था और हेमचन्द्रादि ने उपलब्ध रचनाओं के आधार पर बहुत बाद मे व्याकरण की रचना की । हैमचन्द्र ने 'शब्दानुशासन' मे दो सूत्र दिए है - 'आम्' और 'बहुलम्' । उनका आशय है कि आर्ष प्राकृत में व्याकरण की अपेक्षा नही होती उसमे प्राकृत भाषा के सभी रूप 'बहुलम्' सूत्र के अनुसार पाए जाते हैं और बहुलम् का अर्थ - 'क्वचित्प्रवृत्ति, क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव । - कही नियम लागू होता है कही ला नही होता, कही अन्य का अन्यरूप होता है ।
स्व० डा० नेमिचन्द्र, आरा ने प्राकृत को दो विभागो में विभक्त किया गया माना है। वे लिखते है
'हैम ने प्राकृत और आर्ष-प्राकृत ये दो भेद प्राकृत के किए है। जो प्राकृत अधिक प्राचीन है उसे 'आर्ष' कहा गया है ।' -आ० हैम० प्राकृत शब्दानु० पृ० १३४
श्री पद्मचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली
इसके सिवाय त्रिविक्रम द्वारा रचित 'प्राकृत शब्दानुशासन' के Introduction मे पृ० ३२ पर लिखा है"Trivikram also makes reference to ARSHA But he says that ARSHA and DESYA are rudha (रूढ़ ) forms of the language, they are quite independent; and hence, do not stand in need of grammer. " इसी में पृ० १८ पर लिखा है - 'The sutra 'बहुनम्' occurrings in both Trivikram and Hemchandra, which n eans. 'क्वचित्प्रवृत्ति क्वचिदप्रवृत्ति क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदेव, and Hemchandra's statement 'आर्षे तु सर्वे विधयो विकल्पन्ते । ' - आगम मे सभी विधियां विकल्प्य है ।
उक्त स्थिति मे जब कि आचार्य हैमचन्द्र के 'बहुलम्' और 'आम्' सूत्र हमारे समझ हो और हमें बोध दे रहे हो कि -- आर्ष- आगम ग्रन्थ सदा व्याकरण निरपेक्ष और है प्राकृत व्याकरण के नियम अन्यत्र ग्रन्धो में भी क्वचित् प्रवृत्त व क्वचित् प्रप्रवृत्त होते है तथा क्वचित् शब्दरूप अन्य के अन्य ही होते है। इस बात को स्पष्ट समझ लिया जाय कि आगम आर्ष है और आर्ष-भाषा बन्धनमुक्त है । और जैन शौरसेनी का यही रूप है । दि० आगमो की भाषा यही है इसमे किसी एक जातीय प्राकृत व्याकरण से सिद्ध शब्द नहीं होते । जब कि शौरसेनी इससे सर्वथा भिन्न और बन्धनयुक्त है। ऐसी दशा मे आर्ष को व्याकरण की दुहाई देकर उसे किसी एक जातीय व्याकरण में बांधने का प्रयत्न करना या निम्न सन्देश देना कहाँ तक उपयुक्त है ? इसे पाठक विचारें ।
"उपलब्ध सभी मुद्रित प्रतियों का हमने भाषा शास्त्र, प्राकृत व्याकरण और छन्द शास्त्र की दृष्टि से सूक्ष्म अवलोकन किया है। हमे ऐसा लगा कि उन प्रतियो मे परस्पर तो अन्तर है ही, भाषा शास्त्र आदि की दृष्टि से भी