Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 45
________________ आर्ष-भाषा को खण्डित न किया जाय त्रुटियों की बहुलता है। अधिकांश कमियां जन शौरसेनी 'ध' हो जाने का भी नियम है-देखें सूत्र 'यो ध:'भाषा के रूप को न समझने का परिणाम है। प्राकृत प्राकृत सर्वस्व ३१२१४. यद्यपि शब्दानुशासन में ऐसा व्याकरण और छन्द शास्त्र के नियमो का ध्यान न रखने नही है । के कारण भी अनेक भलें हुई जान पड़ती है।" यदि शौरसेनी और जैन-शौरसेनी में भेद न किया -मुन्नुडि० पृ० १२ (समयसार कुदकुद भारती प्रकाशन) जायगा और आगमो के क्रियारूपो होदि, हवदि की भांति यदि उक्त सस्करण के प्रकाशकों, मयोजकों का आर्ष- अन्य सभी रूप भी ठेठ शौरसेनी में किए जायेंगे तो भाषा और कथित जैन-शौरसेनी के स्वरूपो पर तनिक भी 'तम्हा के स्थान में ता', तहा के स्थान पर तधा' तुज्झ के लक्ष्य रहा होता तो वे न तो उक्त बात लिखते और न स्थान पर ते-दे तुम्ह', मज्झ के स्थान पर मे-मम', जहा ही ममयसार के वर्तमान कालिक क्रिया-रूपो और अन्य के स्थान पर जधा' चेव के स्थान पर ज्जेव' आदि भी शब्दरूपो में परिवतन कर उन्हे मात्र शोरसेनी के रूप करने पड़ेगे---- जबकि आगमों में तम्हा, तहा तुज्झ, मज्झ, बना देते । सयाजको का यह केा भयानक साहा है कि जहा और चेव आदि जैसे सभी रूप मिलते हैं। उन्होने पूरे ग्रन्थ में कहीं भी होइ, हवइ, हवेइ का नाम इसी भांति आगमो में अन्य अनेक शब्दों के विभिन्न निशान नहीं छोडा-जब कि पूरे जैन आगमो मे उक्त रूपों के और भी अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं, जिन्हें रूप बहतायत से पाए जाते है। क्या सगोजक को इष्ट है शौरसेनी के नियमो मे बदला जा सकेगा। जैसे आगम मे कि धवला आदि से भी उक्त स्गो का बहिष्कार करके 'भरत' के लिए कई जगह 'भरह' शब्द आया है, जो महाउनके स्थान पर सयोजको द्वारा निर्धारित होदि, हवदि, राष्ट्रो का है, देखे-'भरहक्खेतम्मि, भरहम्मि-(ति. हबेदि कर दिए जाय और पूरे आगमो को अशुद्ध मान कर प०४/१०० व ४/१०२) इसे शौरसेनी मे भरधक्खेत्तम्मि बदला जाय ? णमोकार मत्र-माहात्म्य को ही लीजिए ? और भर धम्मि करना पड़ेगा क्योकि शौरसेनी मे त को क्या उसमे भी 'होइ या हवइ मगलं' की जगह 'होदि या ध होने का नियम है-'भरते धस्तस्य'-प्रा०स० ६/२५. हवदि मगल' कर दिया जाय ? लोए को लोगे कर णमो- इसी प्रकार आगम में रस्न के लिए रयण शब्द है जो कार मत्र के बदलने का मार्ग तो वे खोल ही चके है। महाराष्ट्री का है—रयणप्पह, (ति०प० २/१६८); रयणक्या, श्रद्धालु चाहते है कि----जो अब ‘णमो लोए सव्व- मया (३/१३५), रयणस्थभा (३/१३८) यहाँ शौरसेनी के साहूणं है वह णमो लोगे सबसाहूण' हो जाय-मूल मंत्र अनुसार 'य' की जगह 'द' होकर-'रदण' हो जायगा। बदल जाए? यह तो मूल का घात ही होगा। हम पूछते (देखें पिशल पैरा १३१) आदि । फलत:हैं कि क्या ? समयसार की गाथा ३ और ३२३ मे 'लोए' हमारा कथन है कि आगमों में (समयसार में भी) गलत था जो उसे लोगे करने की जरूरत पड़ गई। सभी रूप मिलते है और जैन-शौरसेनी में सभी समाहित हैं। हमारी ही नहीं, प्राकृत व्याकरण की दृष्टि से भी लोए, समयसार मे जिनरूपों को शुद्धि के नाम पर बदला गया लोगे और लोक के लिए लोगो, लोय, लोओ आदि सभी है-जैन-शौरसेनी की दृष्टि से वे सभी ठीक थे। संशोरूप आगमो में प्रयुक्त हैं तब किसी जगह के परम्परित धकों ने शौरसेनी को जैन-शौरसेनी समझ लिया यही शुद्ध रूप की जगह दूसरा शब्दरूप बिठाने की क्या आव- उनका भ्रम था। हमें आश्चर्य है कि उन्होंने सभी शब्द श्यकता थी? यदि संयोजक आगमो मे इसी भाति शोर- शौरसेनी मे क्यों न किए ? खैर, गनीमत है कि उनकी सेनी की भरमार करने लगे तो 'पढम' के स्थान पर मुख्य दृष्टि अपने अभीष्ट शब्दों तक ही सीमित रही, 'पधम' होते देर न लगेगी। क्योंकि शोरसेनी मे 'थ' को (शेष पृ० १४ पर) १. तस्मात्ता, २. थोधः, ३. तेदे तुम्हा सा, ४. न मज्झ ङसा, ५. थोधः, ६. एवार्थे ज्जेव स्यात्-सभी (प्राकृत सर्वस्व)।

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