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२४. वर्ष ४१, कि० २
अनेकान्त
आधव:
इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग की ज्वाला में प्रतिपल जलता। राग द्वेष से पीड़ित हो नित आस्रव का द्वार खला रखता। शभ और अशुभ पर दृष्टि रख बेड़ी में जकड़ा फिरता। चौरासी की योनि में तू भ्रम वश म्रमण किया करता ।।
संबर :
कुछ भी शेष नहीं जग में मेरे करने के हेतु। मैं संकल्प विकल्प किया करता केवल कर्मों के हेतु ॥ कर्तृत्व बुद्धि को त्याग यदि बन जाऊँ ज्ञाता-द्रष्टा ।
तब आस्रव का द्वार रुके बन जाऊँ संवर का कर्ता । निर्जराः
पर से विमुख होकर हो जाऊँ निज स्वभाव में लीन । डूबूं और रमूं उसी में, हो जैसे जल बिच मीन । ब्रह्मचर्य के साहचर्य से करूं निर्जरा कर्मों की।
शुद्धोपयोग में ही हो जाए थिरता मन व इन्द्रियों की। लोक भावना :
षट् द्रव्यमय इस लोक में, दुर्लभ आत्मा ही है शरणभूत । उसमें जो विचरण करे, वह परलोक से भयभीत क्यों। चाहें नरक हों या निगोद, फिर किसी से भीति क्यों?
स्वर्ग और ग्रेवेयक से भी हो फिर किसी को प्रीति क्यों? बोधि दुर्लभ :
पूर्व संचित पुण्य से सब कुछ सुलभ संसार में। नर देह उत्तम कुल हो कंचन कामिनी भी साथ में॥ बस तत्त्व का श्रद्धान ही है कठिन इस संसार में ।
मर कर भी तू रमण कर इस बोधि दुर्लभ भाव में । धर्म:
वीतराग विज्ञानमय, शुद्ध बुद्ध, अरि नाशकारी। परम चैतन्य, अखण्ड रूप, 'सविता' सम आलोक कारी।। निविकल्प समाधि में हो लीन धर्म का जो धारी। चार गतियों के दुःखों से फिर उसे हो भीति क्यों ?
७/३५, दरियागंज, नई दिल्ली-२