Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 56
________________ २२, वर्ष ४१, कि० १ अनेकान्त हिन्दी जैन काव्य में बूचराज कृत चेतन पुद्गल लाल जी ने ही नये रूप में प्रस्तुत किया है। मुगल काल कमाल, ब्रह्मरायमल्ल कृत परमहंस चौपई, बनारसीदास मे फारसी शब्दो के सहज बोधगम्य हो जाने के कारण कृत मोह विनेक तथा भैया भगवतीदास का चेतन कर्म इस रेरवता में भी नफासत आ गई है :चरित आदि श्रेष्ठ रूपक काव्यों के माध्यम से जैा तत्त्व न्याहौँ कू पाया श्री सिर सेहरा बंधाया। के मधुर विवेचन की परम्परा प्रारम्भ हुई थी। इसी सीस पंच को जावौं सब संग भी रहा है। परम्परा में विनोदीलाल कृत 'सुमति कमति को मगरौं' कहां गया नाथ मेरा, किया न दिगर फेरा, महत्वपूर्ण रचना है। भाषा के सरल प्रवाह और सवाद परवर दिगार मेरा, दिल संग ही रहा है । तत्व की प्रधानता से अन्य काफी रोचक बन गया है। पशु देख महर पाई, सब धन धगी छुड़ाई, 'कुमति' और 'सुमति' दोनों नारियों एक-दूसरी की निन्दा इतनी खबर मैं पाई, गिरिनार गढ़ गया है। करते हुए 'चेतन' पति को अपनी ओर आकृष्ट करने का मैं जाऊंगी जहाँ ही, जहाँ गया मेरा साई, कैसा प्रयत्न कर रही है : मैं वे अज भरोगी, मुझ कू मुकति रहा है। कुमति कहै सुनि नाह बावरे, यह तोकू फुसलावं। मरे चस्यौ दातारा, महताब सा उजारा, यह दूती चंचल सिवपुर की, केतेक छंद यह प्राव ॥ जिन मन हरा हमारा, वे मन हँस रहा है। है सूधी अपने घर बैठी, जाको अंक लगावै । उसकी खबर जो ल्याव, वोहोत सबाब पावं, तो सौ कंत पाय के भौंद, क्यों नहि नांच नचावे ॥ मुझकूँ कोई बतावै, उसका वतन रहा है । सुमति कहै इनको सूधापन, जान परंगो तोकों। मुझे छोडि किधर भागा, दिलजान वस लागा, बैहै नारि जरा मनमथ की, यह अपनी गोकौं । प्रातस वियोग लगा, दिल खाक-२ हो रहा है। अपनों कियो पाप ही पैहैं, हूँ काहे को रोकौ। खाने में क्या करूंगी, दिन रैन को मरोंगी, तब ही समझि परंगी चेतन, जब छोड़ेगो मोकौं। मैं वे अजल भरौगी, मुझको मुकति कहा है। फागुन सुदि १३ सवत् १७४३ मे लिखित 'चेतन परहैजु मुझे दीना, उन्हीं के इश्क भी ना, गारी' मे आत्मा द्वारा जन्म-जन्मान्तरों में काया कष्ट मैं खूब तुझे चीना, मश्ताक हो रहा है। मेलने की निन्दा करते हुए उसे सिद्ध वधू से विवाह करने दिल जांन यार मेरा, किया बन में बसेरा, को कहा गया है: करो नाथ फेरा मुकतन के बाह है। यह तो है बारे को बिगरी, अब कैसे जात सुधारी। अब खोप लाज नाहीं, मै जाऊँ कंत ताहीं, छाड़ों सग कुमति गणिका को, घर से देहु निकारि। नयो दस्त मुझ गाहीं तो करें सुख महा है। व्याहो सिद्ध वधू सी वनिता, और निबाहन हारी। लाचार हो रहोगी, उसके कदम गहोंगी, तृष्णा छांदि गहो निज संवर, तनहु परिग्रह भारी॥ मैं वे अजल भरौंगी, मुझको मुकाते महा है। विनोदी लाल द्वारा साठ वर्ष की उम्र में लिखित राजल खड़ी पुकारे, जुगवस्त सीस मार, नेमिनाथ की वीनती तथा एक अन्य रचना रेरवता खड़ी मुख नाथ का निहार, क्या गुम हो रहा है। बोली के विकास-क्रम की दृष्टि से महत्वपूर्ण रचनाएं है। मुश्तास में दरस को, तेरे कदम परस को, जयपुर नरेश सवाई प्रताप सिंह जी निधि तथा उनके तुझे न मेरे तरस की, वे पर ही महा है। दरबारी कवि अमृतराम आदि द्वारा लिखित रेरवते विरह तू मान मरज मेरी, भव पाठ की मैं चेरी, और गेयता की प्रधानता के कारण तो रोचक है ही किन्तु मैं पांव खाक तेरी, कब का गुस्सा गहा है। शब्द और क्रिया के रूपो मैं खड़ी बोली हिन्दी के प्रारम्भिक लाल विनोदी गाव, तुझे महर भी न आवं, मानदण्ड भी है । अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ड में लिखित मैं वे अजल मरौंगी, मुझको मुकति कहा है। निम्नांकित रेरवता मे राजुल के विरह को केवल विनोदी ११०-ए, रणजीतनगर, भरतपुर (राज.)

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