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'द्वादशानुप्रेक्षा'
- डॉ० (कुमारी) सविता जैन अनित्य :
सूर्य रश्मि है सोख लेती तत्क्षण ओस की बूंद ज्यों। क्रूर मृत्यु की तांडव लीला चल रही चहुं ओर त्यों ।। रूप यौवन थिर नहीं इक पल जहाँ इस देह का।
ध्रुव आत्मा को छोड़कर फिर उसी से प्रीति क्यों ? अशरण :
काल खड़ा जब दे रहा दस्तक हमारे द्वार पर। चतुरंगिनी सेनाएँ भी उस पल तेरी रक्षक नहीं ।। ध्रुव आत्मा को कोई भी जब अस्त्र छू सकता नहीं।
फिर मरण की भीति क्यों, फिर शरण की प्रीति क्यों? संसार:
कस्तूरी मृग सम चंचल मन दौड़ रहा इस भव-वन में। सूख की खोज यहाँ ऐसे ही जैसे जल की मरुथल में ।। तुष्णाओं की दाहक ज्वाला शीतल होगी शुद्ध घनों से।
अनित्य और अशरण जग में पर पदार्थ से प्रीति क्यों ? एकत्व:
एकाकी आया था जग में, एकाकी ही जाना है। फिर क्यों लगाता द्वार पर है अर्गला अनुराग से ? यदि वरण करना ही है तो शुद्धात्म ही इक मीत हो ।
साथी कोई चुनना ही है तो एकत्व से ही प्रीति हो । अनयत्व:
जब देह ही अपनी नहीं, तब गेह से फिर मोह क्यों ? जब द्वेष भो अपना नहीं, तब शत्रु से फिर रोष क्यों ? जब कर्म ही अपने नहीं, फिर कर्तत्व की हो बुद्धि क्यों ?
जब राग भी अपना नहीं, फिर प्रिया से हो प्रीति क्यों? अशुचि :
नव द्वारों से रिसता रहता निसि वासर मल जिस देह से। इत्र, तेल, फुलेल भी दुर्गन्धित हों पड़ जिस गेह में । सातों जलधि की जलधारा भी धो सकतीन जिस कीच को। परम अशचि उस तन से फिर निर्मल आत्मा की प्रीति क्यों।