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मध्य-प्रदेश का जनकेन्द्र सिहोनिया कि ये अन्य नरेशों को पराजित कर स्वतन्त्र हो गये थे। आसन पर मध्य में धर्मचक्र तथा दोनों ओर एक-एक यहां से प्राप्त संवत् १०१३ के प्रतिमा-लेख से ज्ञात होता सिंहाकृति अंकित है। नीचे दाईं ओर उपासक तथा बाई है कि इन्होंने सिहोनिया के शासक माधव के पुत्र महेन्द्र ओर उपासिका की प्रतिमाएँ भी निर्मित है। चिह्न स्वरूप से सिहोनिया का शासन प्राप्त किया था तथा यहाँ सवत् सिंह दर्शाया गया है। यह सिद्ध बाबा' के नाम पर घी, १०३४ में एक जैन प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई थी। गुड़, दूध चढ़ाकर पूजी जाती थी।
कच्छपघात राजवश की ग्वालियर शाखा के संवत अन्य तीर्थकर प्रतिमाओ में यहाँ एक तीर्थकर चन्द्र११५० के प्रशस्ति लेख में भी इस नाम के एक नप का
: प्रभ और एक तीर्थकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा भी है।
प्रभ और एक ताथकर पाश्व नाम आया है।" इतिहासकार गागुली ने सिहोनिया के सभी प्रतिमाएं भू-गर्भ से प्राप्त बताई जाती हैं। इस प्रतिमा लेख और ग्वालियर के संवत् ११५० के
भीमलाट
इस ग्राम के निकट एक टीले पर प्राचीन पाषाणप्रशस्ति-लेख मे उल्लिखित वज्रदाम नामक दोनों शासको
स्तम्भ है, जिसे आजकल 'भीमलाट' कहा जाता है। यह को एक ही माना है तथा इसका शासनकाल ९७७ ईसवी
स्तम्भ जैनों का मानस्तम्भ ज्ञात होता है। इस पर यद्यपि से 886 ईसवी तक की अवधि का बताया है ।१५ डॉ० रे०
प्राज कोई मूर्ति उत्कीर्ण नहीं है, किन्तु यहाँ उपलब्ध ने इसका शासनकाल ९७५ ई० माना है।"
प्रतिमाओं से यह स्पष्ट है कि यहां कोई विशाल जैन ग्वालियर के सवत् ११५० के इस प्रशास्त-लेख से
मन्दिर या । सम्भव है यह किसी जैन मन्दिर में स्थापित ज्ञात होता है कि इसने कन्नौज के राजा को पराजित पर
किया गया हो। यह भी सम्भावना है कि इस स्तम्भ के ग्वालियर पर अधिकार किया था। सम्भवतः ग्वालियर
शीर्ष भाग पर प्रतिमाएँ विराजमान की गई होंगी जो पर अधिकार हो जाने के पश्चात् इसने सिहोनिया पर अधिकार किया होगा।
कालान्तर में स्तम्भ के शीर्षभाग से अलग हो गई और अन्य प्राचीन कलावशेष
यह जिन-प्रतिमा विहीन हो गया । दमोह जिले के कुंअरसिहोनिया के जैन मन्दिर मे खण्डित और अखण्डित पुर ग्राम म एस आज भा स्तम्भ ह जिनम एक पर चारा कुल बाईस प्रतिमाएं है। इनमे एक प्रतिमा तीर्थकर कथ
दिशाओं में प्रतिमाओं का अंकन भी उपलब्ध है।" नाथ के पार्श्व मे खड्गासन मुद्रा मे स्थित है। इसके शीर्ष सिहोनिया ग्राम से दो मील दूर उत्तर-पश्चिम में भाग पर जटा जूट, मुख पर दाढी, गले में हार, सिर के
"ककनमठ" नाम से प्रसिद्ध एक मन्दिर है। इसका निर्माण गीछे प्रभावर्तुल, कटि मे मेखला, कलाई मे दस्तबन्द, बाहो ।
विशाल शिलाखण्डों से हुआ है। पं० बलभद्र जैन ने भुजबन्ध और दायाँ हाथ जांघ पर रखा हुआ अंकित है।
बताया है कि यह मन्दिर राजा कीतिराज ने अपनी पत्नी चरणों के पास खड़गासन मुद्रा में इसके सेवको की प्रति- काकनवती के नाम पर बनवाया था। यह अब ध्वस्त होने माएं भी अंकित की गई है।
लगा है । इसमें मूर्ति नहीं है । मण्डप के ऊपर शिखर है। तीर्थकर प्रतिमाओ मे यहां तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और ग्वालियर के संवत् ११५० के सास-बहू मन्दिर तीर्थकर महावीर की प्रतिमाएं उल्लेखनीय है। सुपाश्व- प्रशस्ति लेख में राजा कीर्तिराज के द्वारा 'सिंहपानीयनगर' माथ की प्रतिमा के सिर पर पाच सर्पफण अकित है। मे शंकर का मन्दिर बनवाये जाने का उल्लेख है। इस तीर्थकर महावीर की प्रतिमा के शीर्ष भाग पर दन्दभि- लेख के परिप्रेक्ष्य में लगता है 'सिंहपानीयनगर' यह सिंहोवादक है। प्रतिमा के दोनों पार्श्व में सूंड उठाये एक-एक
निया है तथा सिंहोनिया का 'ककनमठ' कीतिराज द्वारा हाथी अंकित है। बाईं ओर का हाथी खण्डित हो गया है। बनवाया गया 'शिव मन्दिर' है। मूलतः यह मन्दिर काकनइन हाथियों के नीचे कायोत्सर्ग मुद्रा मे दोनों ओर एक- मठ के नाम से प्रसिद्ध रहा प्रतीत होता है। यहाँ अम्बिका एक तीर्थंकर प्रतिमा उत्कीर्ण है। इनके नीचे चवरधारी देवी का मन्दिर तथा हनुमान की मूर्ति भी दृष्टव्यहै । इन्द्र चंवर ढोरते हुए अंकित है। प्रतिमा के पीछे सुन्दर सिहोनिया अपर नाम सिंहपानीयनगर प्रभामण्डल है।
ग्वालियर के संवत् ११५० के प्रशस्ति-लेख में उल्लि