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वर्ष ४१, कि० २
गौ पुच्छिका श्वेतवासा द्राविड़ो वापनायकः । निः पिच्छश्च पते जैनाभासा प्रकीर्तिताः ॥१॥ १ गोच्छक संघ, २ श्वेताम्बर संप ३ द्राविड़ संप ४ यापनीय संघ ५ नि. पिच्छ संघ ।
इन पांचों संघों को आचार्य ने जैनाभास बताया है परन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने मूल जैनधर्म की रक्षा की मीर उस रक्षा की वजह से उनके संघ का नाम मूलसंघ रक्खा गया। आचार्य कुन्दकुन्द ने गिरनार आदि तीर्थ क्षेत्रों पर शामत आदि विभिन्न मतो से शास्त्रार्थ किया एवं मूल जैन धर्म की रक्षा की। जिनका नाम मंगल करने वालों (महावीर, गौतम, कुन्दकुन्द ) मे तीसरे नम्बर पर आता है । क्या उनसे यह आशा की जा सकती है कि उनकी भारती में अनेक भाषा या शब्दों की अशुद्धि है।
आचार्य कुन्दकुन्द के सभी ग्रभ्य प्रायः प्राकृत भाषा में हैं । प्राकृत भाषा का अर्थ है कुदरती भाषा । बहुत प्राचीन काल में जिस देश मे जो भाषा बोली जाती थी वह उस देश की प्राकृत भाषा थी । एक प्राकृत भाषी देश वाला यदि दूसरे प्राकृत भाषी देश में रहने लगे तो वह उस देश की प्राकृत भाषा सीख लेगा और बोलने लिखने में दोनों भाषाओं का सम्मिलित प्रयोग कर सकता है । आज भी हम देखते हैं कि हम हिन्दी भाषा के साथ कभी-कभी उर्दू एवं अंग्रेजी भाषा का भी प्रयोग करते हैं। दोनों भाषाओं के मिश्रित प्रयोग में हम उर्दु भाषा के प्रयोग को गलत बता देवें तो यह कहा की बुद्धिमानी है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति भाषण करते हुए कह रहा है कि "आज का इंसान कितना बदल गया है" सुनने वाला कहता है यह गलत क्यों बोलता जा रहा है, सही बोलना चाहिए । "जाज का युगीन पुरुष कितना बदल गया है।" भाषाओं का मिश्रण हो सकता है पर उसका अभिप्राय गलत नही होना चाहिए।
शौरसेनी भाषा मथुरा एवं उसके आसपास के क्षेत्रों की भाषा है। थे, उनका विहार उत्तर दक्षिण सभी ओर था । अतः उन्हें अपने देश की प्राकृत भाषा का ज्ञान था ।
भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि विणुनाचल पर्वत पर खिरी थी। विपुलाचल पर्वत मगध देश में है। अतः भगवान की भाषा को कहा जाता है वह अर्द्धमागधी भाषा थी। इस अर्द्धमागधी भाषा का अर्थ ग्रन्थकारों ने किया है कि आधी भाषा मगध देश की और आधी भाषा अन्य देशों की थी । क्योकि समवशरण में दिव्यध्वनि सुनने वालों में आधी संख्या तो मगध देश के लोगों को यी तथा आधी सख्या अन्य सब देशों के लोगों की थी। इसका अभिप्राय यह है वास्तव में भगवान की वाणी सभी देशों की वाणी थी, परन्तु अधिक संख्या की अपेक्षा उसे अर्धमागधी कहा गया है। व्याकरण शास्शे मे प्राकृत भाषा के मुख्य पाँच भेद किये है, ये सभी भाषाएँ अपनी-अपनी जगह ठीक हैं। यदि इनमे कही शब्दो का मिश्रण आता है तो ठीक है कोई हानि नहीं है। लेकिन अगर हम उसके शब्दों को बदल देते हैं तो ऐतिहासिक दृष्टि से यह बहुत अनुचित है और जिन्होने उन शब्दों का प्रयोग किया उन शब्दों को बदल कर हम उनका अनादर कर रहे हैं।
कुन्दकुन्द मथुरा प्रदेश के रहने वाले नहीं प्राकृत भाषा के साथ अन्य देश को भी
आज हिन्दी पूजा, पाठ, स्तुतियों की भाषाओं का बहुत कुछ मिश्रण है, फिर तो हमे उस मिश्रण को हटा कर अपना शुद्ध शब्द रख देना चाहिए ।
हम हिन्दी का मंगल पाठ बोलते हैं उसमें ऐरावत हाथी के लिए रूपचन्द जी ने लिखा है :
'जोजन लाख गयंद बदन सो निरमये ।
इसकी जगह अगर हम इसका निम्न प्रकार सुधार कर दें तो बुरा है, जैसे
"योजन लाख गजेन्द्र वदन शत निरमयं" क्या इस सुधार को ठीक मान लिया जायगा । यदि ठीक मान लिए तो हिन्दा में भी ऐसे संकड़ों हजारों छन्दों की भाषाएँ हैं जो दूसरे शब्दों मे उसी अभिप्राय की हैं, बदली जा सकती है तथा णमोकार मंत्र को प्राकृत भाषा भी बदली जा सकती है फिर वह अनादि मूल मंत्र नहीं रहेगा। मंत्र की