Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 29
________________ जाता । वस्तुतः गृहस्थ ही अपनी विशिष्ट चर्या से साधुपद की ओर बढ़ता है, इस दृष्टि से यह विरोधाभास ही कहना चाहिए | सोमदेव आदि ने भी गृहस्थो के लिए प्रासुक की सीमा नही रखी। सम्भवत: दोलतराम के समय ५३ क्रियाओ मे अभक्ष्यो की सख्या बाईस तक पहुच गई । फलतः भक्ष्याभक्ष्य विचार विकसित होते होत सत्रहवी सदी में ही रूढ हो सका है । श्राहार के घटक - भक्ष्य आहार के घटकों मे भी अन्तर पाया जाता है । मूलाचार की गाथा ८२२ मे प्रहार के छह पटक बताये गए है जबकि गाथा ८२६ मे चार घटक ही बताए हैं। ऐसे ही अनेक तथ्यो के आधार पर मूलाचार को संग्रह ग्रन्थ मानने की बात कही जाती है" । आवक के व्रत- कुन्दकुन्द और उमास्वाति के युग से श्रावक के बारह व्रतो की परम्परा चली आ रही है । कुन्दकुन्द ने सल्लेखना को इनमें स्थान दिया है पर उमास्वाति, समंतभद्र और आशाधर इसे पृथक् कृत्य के रूप मे मानते हैं | इससे बारह व्रतो के नामो मे अन्तर पड गया है। इसमे पाँच अणुव्रत तो सभी में समान हैं, पर अन्य सात शीलों के नामो मे अन्तर है * । यहाँ कुन्दकुन्द और उमास्वाति की परम्परा स्पष्ट दृष्टव्य है । अधिकाश उत्तरवर्ती आचार्यों ने उमास्वाति का मत माना है । साथ ही भोगोपभोग परिमाण व्रत के अनेक नाम होने से उपभोग शब्द की परिभाषा भी भ्रामक हो गई है :एक बार सेव्य बारबार से व्य भोग उपभोग उपभोग भोग परिभोग परिभोग भावक की प्रतिमाएँ - श्रावक से साधुत्व की ओर समंतभद्र पूज्यपाद सोमदेव * (अ) गुण व्रत -- कुन्दकुन्द उमास्वाति प्रागम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन आशाघर, समंतभद्र दिव्रत दिशा - विदिशा प्रमाण, दिग्यत (ब) शिक्षावत कुंदकुंद समंतभद्र, आशाधर उमास्वाति सोमदेव अनदयत, सामायिक, सामायिक, सामायिक, सामायिक, ૨૨ बढ़ने के लिए ग्यारह प्रतिमाओं की परम्परा कुन्दकुन्द युग से ही है । संख्या की एकरूपता के बावजूद भी अनेक के नामो और अर्थों मे अन्तर है । सबसे ज्यादा मतभेद छठी प्रतिमा के नाम को लेकर है। इसके रात्रिमुक्त स्थान (कुंदकुंद, समंतभद्र) एव दिवा मैथुन त्याग (जिनसेन, आशाघर) नाम मिलते है । रात्रिभुक्तित्याग तो पुनरावृत्ति लगती है । यह मूलगुण है। आलोकित पान-भोजन का दूसरा रूप है। अत परवर्ती दूसरा नाम अधिक सार्थक है । सोमदेव ने अनेक प्रतिमाओ के नये नाम दिये है। उन्होंने १ मूलव्रत (दर्शन), ३ अर्चा ( सामायिक) ४ पर्वकर्म (प्रोषध), ५ कृषि कर्म त्याग (सचित्त त्याग), सचित्त त्याग (परिग्रह त्याग) के नाम दिये है। हेमचन्द्र ने भी इनमें पर्वकर्म, प्रायुक याहार, समारभ त्याग, साधु निस्संगता का समाहार किया है" । सम्भवत इन दोनों आचार्यों ने प्रतिमा, व्रत व मूलगुणों के नामो की पुनरावृति दूर करने के लिए विशिष्टार्थक नामकरण किया है। यह सराहनीय है। परम्परापोषी युग की बात भी है। बीसवी सदी में मुनि क्षीर सागर ने भी पुनरुक्ति दोष का अनुभव कर अपनी रत्नकरड श्रावकाचार की हिन्दी टीका मे ३ पूजन ४ स्वाध्याय ७ प्रतिक्रमण एव ११ भिक्षाहार नामक प्रतिमाओ का समाहरण किया है। पर इन नये नामों को मान्यता नही मिली है। व्रतों के प्रतीचार श्रावको के व्रत के अनेक अतीचारों में भी भिन्नता पाई गई है । : भौतिक जगत के वर्णन में विसंगतियां वर्तमानकालभौतिक जगत के अन्तर्गत जीवादि छह द्रव्यो का वर्णन समाहित है । उमास्वाति ने "उपयोगो लक्षण" कह कर जीव को परिमापित किया है पर शास्त्रों के अनुसार, अनर्थदडव्रत, भोगोपभोगपरिमाण देशव्रत भोगोपभोगपरिमाण प्रोषधोपवास, अतिथिपूज्यता, प्रोषधोपवास, प्रोषधोपवास, प्रोषधोपवास, वैयावृत्य, अतिथिस विभाग, वैयावृत्य सहलेखना देशावकाशिक उपभोग परिभोग परिमाण भोग-परिभोग परिमाण

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