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२६, बर्ष ४१, कि० १
अनेकान्त
अन्य शब्दों का प्रचुर मात्रा मे प्रयोग है। जैसे तृतीये के गम, मंगलाचरण ‘णमो लोए सव्वसाहणं ।' अब आपको स्थान पर दिए. संपराये के स्थान पर संपराए, कषाये के सोचना है कि आप प्राचीन मूल बीजमत्र को जैन-शौरसेनी स्थान पर कसाए आदि । ये सभी सप्तमी के रूप है और के अनुसार 'लोए' के रूप में स्वीकारते है या मात्र ‘लोगे' सभी मे से (प्राकृत सर्वस्व और प्राकृत-शब्दानुशासन के रूप को स्वीकारने के कारण उसे मात्र अर्धमागधी के उपर्युक्त नियमानुसार) य को हटा दिग गया है। हमारा लिए छोड़ते हैं ? निर्णय आपके हाथ है। अभिमत प्राकृत भाषा के प्रकाण्ड विद्वान् डॉ० ए० एन० हमारी दष्टि से आगमरूप कुन्दकुन्द भारती के मूल उपाध्ये, डॉ हीरालाल, डॉ नेमीनन्द आरा व पिशल के जैन-शौरसेनी (जिम में कई प्राकृत भाषाएं समिलित है) अनुरूप है-कि जैन-शोरसेनी को दिगम्बर आचार्य ने के रूप को यथावत सुरक्षिन ग्यना ही कुन्दकुन्द की द्विअपनाया जो कि कई प्राकृत भाषाओ का मिला-जुला रूप सहस्राब्दी मनाने की सार्थकता है। अन्यथा, हम उत्सवो है-(देखें हमारा अन्य लेख)-फलत: दिगम्बर आगमो में बाजे बजवाने, भाषणादि सुनने-सुनाने के तो अभ्यासी में सभी रूप मिनते है। कही त को द भी होना है, कही
है ही-कोई नई बात नहीं । यदि आप अपनी अज्ञानता व का लोप भी होता है, कही क को ग होता है और कही
या कायरतावश अथवा भावावेशवश भाषा-बदलाव (सशोकया ग का लोप भी होता है और कही इनके लोप के
धन?) को न रोक सके तो आप अपने आगम का स्वयं स्थान में य भी होता है। जैसे-गति = गदि, गति = गइ;
घात कराएंगे। वेदक=वेदग, एकेंद्रिय-एइंदिय; इसके मिवाय मध्यवर्ती
डॉ. रिचर्ड पिशल प्राकृत-भाषाओ के जाने-माने क ग च ज त द प व य का लोप तो बहुशः पाया जाता
प्रामाणिक उच्चतम विद्वान माने जाते है उन्होंने प्राकृत में है। फलत:-जहाँ जो है, ठीक है।
उपलब्ध प्रभूत माहित्य और आगमिक ग्रन्थो को बड़ी हमारा निवेदन है कि यदि इस रहस्य को न समझा
बारीकी से देखा और उनके आधार पर प्राकृत भाषाओ गया और हम भावुकता में बह गए तो (सशोधित ? समय
के पारस्परिक भेद के जो निष्कर्ष अपनी कृति 'प्राकृत सार गाथा न० ३ 'लोगे' के अनुसार) जिसे हम अब तक
भाषाओ का व्याकरण' द्वारा सन्मुश रख, उनमे उन्होने 'णमो लोए सव्वसाहूण' पढते रहे है कभी उसे गलत मान
शौरसेनी और जैन-शोर सेनी दोनों को प्रथक्-पृथक भापाएं कर ‘ण मो लोगे सव्वमाहूणं' भी पढने लगेगे । और तब
माना। उन्होंने दोनो भाषाआ का पृथक्-पृथक् नामोल्लेख कहाँ जायगा स्वामी गमतभा का कथन --'न हि मंत्रोक्षर.
किया, दोनो के शब्द रूप मे भेद दशामा प्रार दोनो के न्यूनोनिहन्ति विषवेदना ।' जब कि णमोकार हमारा महा
साहित्य को भिन्न बतलाया। फनतः-दोनो भाषाएँ एक मंत्र है । सोचें क्या भाषा के बदलाव की भांति इस मत्र
नही है और दि० जं. आगम भी शोरमेनी के नही है-वे में लोए का लोगे न होगा? और न होगा तो क्यो, किस
सभी जैन-शौरसेनी भाषा के है। बत. दि० आगमो को नियम से ? यदि न होगा तो उस नियम को समयसार
शौरसेनी की प्रमुखता देकर उनमे शौरसेनी की भरमार गाथा न० ३ मे लागू क्यों नहीं किया जा रहा ? अब ये सोचना आपका काम है कि वर्तमान संशोगों के नाम
करना और उनमें गहीन जैन-शोररानी रूपों का तिरपर आगमरूपी कुन्दकन्द भारती बदलेगी या नही?
स्कार करना सर्वथा ही अनुचित है-जैसा कि किया जा यदि बदलेगी तो समयसार में परिवर्तित शब्दरूपों की
रहा है। डॉ. पिशल द्वारा निर्दिष्ट कुछ उद्धरण (पाठको
की जानकारी के लिए) इस प्रकार हैभाँति आगमसम्मत प्राचीन अनादि मूलमत्र णमोकार भी आपके हाथों से खिसक कर अन्यों के हाथो मे रह जायगा (एक) पृथक-पथक नामोल्लेख : -वह आपका सिद्ध न हो सकेगा। क्योंकि आपका भाषा- (क) 'सौख्य शब्द के लिए महाराष्ट्री, अर्धमागधी, शुद्धिमोर'लोए' को अशुद्ध मान उसे 'लोगे' कर चुका है और जैन महाराष्ट्री, जन-शौरसेनी, शोरसेनी और अपभ्रश में प्राचीन मूलबीज मंत्र में 'लोगे' है नही-देखें-षट्खण्डा- सोक्ख होता है। -पैरा ६१ अ०