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(वि-सहलाम्बी उपक्रम में) क्या कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?
[! श्री पप्रचन्द्र शास्त्री, नई दिल्ली लगभग दस वर्ष पूर्व सन ७८ जून में मेरे मन में कैसा? हो, यदि मूल आगमरूप कुन्दकुन्द भारती बदलती एक विकल्प उठा था और तब मैंने 'आ० कुन्दकुन्द की है तो 'सर्व व पूर्णग्वं स्वाहा' में संदेह नहीं। प्राकृत' शीर्षक के माध्यम से कुछ लिख कर अपने मन को सर्वविदित है कि षटखण्डागम शास्त्र आचार्य कुन्दशान्त कर लिया था। पर, आज आचार्य कुन्दकुन्द की कुन्द से बहुत पूर्व हुए आचार्य भगवत् भूतवलि-पुष्पदंत की द्वि-सहस्राब्दी समारोह के उपक्रम-समाचारों को पढ़-सुनकर कृति है। प्रथम पुस्तक के पृ. १३३ पर चौथे सूत्र में वह विकल्प पुन: जागृत हो बैठा है । विकल्प है- 'क्या 'इंदिए, काए, कसाए' शब्द प्रयुक्त हैं और ये शब्द क्रमशः कुन्दकुन्द भारती बदलेगी?'
'इन्द्रिये, काये, कषाये' इन संस्कृत शब्दों के स्थान पर __ वर्तमान में हमारे समक्ष दो कुन्दकुन्द भारती हैं --एक
(परिवर्तित रूप प्राकृत मे) दिए गए हैं । अर्थात् उक्त रूपों आगमरूप और दूसरी संस्थारूप । प्रसग में संस्था के
में प्राकृत भाषा के नियम रूप सूत्र 'प्रायः क ग च ज त द विषय में हमे कुछ नही कहना। क्योंकि हम मान कर
पब य वां लोप:'-प्राकृतसर्वस्व २/२ और 'प्रायो लुक्क
गचजतदपयवां'-प्राकृत शब्दानुशासन १/३ के नियमाचलते है कि समय, साधन और साधको के अनुरूप सस्थाएँ निमित और विघटित होती रहती है, इसमें हर्ष-विषाद
नुसार संस्कृत के शब्दों से 'य' को हटा दिया गया है।
उक्त तीनों शब्द सप्तमी त्रिभक्ति के रूप हैं। इतना ही (पृ० २४ का शेषांश)
क्यों ? उक्त चौथे सूत्र से पूर्व भी आचार्य ने षट्खण्डागम वश्यक, (५) ग्रन्थ प्रति का संक्षेप में पूरा परिचय, प्राप्ति ।
के मंगलाचरण में इसी नियम के अनुरूप क या ग को स्थान सहित, (६) ग्रन्थ, अप्रकाशित है या प्रकाशित, हटाकर लोके या लोगे के स्थान पर 'लोए' शब्द का प्रयोग प्रकाशित है तो कब और कहाँ से, (७) प्रशस्तियों का नियमो लो मन मारण।' इसके अतिरि संकलन भाषा वार तथा कालक्रम से हो, और (८) अन्त
के आचार्यों ने भी 'लोए' को मान्यता दी है। स्त्रय कुन्दमे उपयुक्त वर्गीकृत नामानुक्रमणिकाएँ आदि रहे।
कुन्दाचार्य ने भी इस शब्द का खुलकर प्रयोग किया है। यो तो देश भर मे अनगिनत छोटे-बड़े जैनशास्त्र
देखें-पंचास्तिकाय प्राभत गाथा ८५, ६० आदि । उक्त भण्डार मे सग्रहीत प्रायः प्रत्येक ग्रन्थप्रति मे एक व अधिक
रूप के सिवाय दि० आगमों में लोयो, लोओ, लोय जैसे प्रकार की प्रशस्तिया प्राप्त हो जाती हैं। उन सभी भडारों
सभी रूप मिलते है और सभी उचित हैं। क्योंकि का सम्यकरीत्या सर्वेक्षण-पर्यवेक्षण करके अनगिनत प्रश
प्रकाण्ड प्राकृत विद्वानो के मतानुसार दि. आगमो की स्तियां एकत्र की जा सकती है। अतएव एक-एक भण्डार
भाषा, अन्य कई प्राकृत भाषाओं का मिला जुला रूप है मे यदि छोटे-छोटे हों तो, ग्रामपास के या सम्बद्ध कई-कई और इस भाषा का नाम ही जैन-शौरसेनी है । स्मरण रहे भण्डारों मे, संग्रहीन ग्रन्थों की प्रशस्तियों के पृथक-पृथक कि शौरसेनी और जैन-शौरसेनी में महद् अन्तर है। आज प्रशस्ति-संग्रह उपरोक्त प्रकार से सुसम्पादित होकर प्रका- हमारे कई विद्वान भी भ्रम में हैं वे शोर-सेनी को ही दि० शित किये-कराये जा सकते हैं। यथासम्भव सर्वागपूर्ण, आगमों की भाषा मान बैठे हैं और रूप बदल रहे हैं। उपयुक्त ज्ञातव्य पूरित एवं स्तरीय प्रकाशन समय और युग षटखण्डागमकार से पूर्ववर्ती आचार्य गुणधर हैं इनकी के लिए अपेक्षित है।
--चारबाग, लखनऊ रचना 'कसाय पाहड सुत्त' है। इसमें भी इसी जाति के
* द्वादशानुप्रेक्षा गा०८, सुतपाहुड गा० ११, दर्शनमा गा० ३३।卐देखें-चास्तिकाय ।