Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 23
________________ ग्रन्थ-प्रशस्तियों का उपयुक्त प्रकाशन इतिहास के प्रमुख साधन स्रोतों के रूप में, शिलालेखो के पश्चात् ग्रन्थ प्रशस्तियों का भी अतीव महत्वपूर्ण स्थान है। अनेक प्रयों की या छोटी-बडी रचनाओं की भी पांडुलिपियों में किसी न किसी प्रकार की प्रशस्ति प्राप्त हो जाती है, जिसमें बहुधा बड़ी महत्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी निहित रहती है। प्रशस्तियाँ कई प्रकार की होती है, यथा-- (१) मूल रचनाकार की प्रशस्ति, जिसमे रचनाकार का नाम, कुल-वश आदि, या आम्नाय एव गुरुपरम्परा, रचना स्थल, रचनातिथि, उक्त ग्रन्थ के सहायक आदि अथवा जिसके हितार्थ लिया गया है उसका नाम, परिचय आदि, तत्कालीन शासक या राजा का नाम आदि, ज्ञातव्य दिए जाते है। कभी-कभी उक्त ग्रन्थ के आधारभूत अथवा तद्विषयक पूर्ववर्ती साहित्य एवं साहित्यकारों का नामोल्लेख भी रहता है । कहीं-कही किसी तत्कालीन रोचक या महत्वपूर्ण पटना का भी उल्लेख हो जाता है। अधिकांशतः ये प्रशस्तियों प्रत्यात मे होती है, किन्तु कभी-कभी ग्रन्थ के आद्य मे उपोद्घात रूप से भी उपयोगी ज्ञातव्य रहता है, विशेषकर पूर्ववर्ती साहित्य या लेखकों के विषय मे अनेक ग्रन्थो के प्रत्येक सर्ग पर्व या अधिकार के अन्त में, तथा ग्रन्थति मे मूल लेखक रवित पुष्पिकायें भी रहती है, जिनमें भी अनेक बार महत्त्वपूर्ण ज्ञातव्य प्राप्त हो जाता है। किसी-किसी ग्रन्थ के मध्य मे भी कहीं-कहीं किसी समवायिक ऐति हासिक तथ्य का उल्लेख हो जाता है । इस प्रकार का समस्त ज्ञातव्य जो मूललेखक द्वारा स्वयं प्रदत्त होता है, रचना या रचनाकार की प्रशस्ति के अन्तर्गत आता है । (२) टीकाकार की प्रशस्ति जिन ग्रन्थो की कालान्तर मे एक या अधिक टीकाएँ, वचनाएँ व्याया विलय व्याख्याएँ, विवृत्तियाँ आदि हुई, उक्त टीकाकारादि ने भी बहुधा अपनी टीका में प्रायः आद्य, अन्त्य अथवा दोनों स्थलों में स्वयं अरना डा० ज्योतिप्रसाद जैन परिचय, तिथि, स्थान, प्रेरक, तत्कालीन शीर्षक मूलग्रन्थ और कर्ता, अपने से पूर्ववर्ती उस ग्रन्थ के अन्य टीकाकार आदि का भी उल्लेख किया है। (३) दान- प्रशस्ति – जैन परम्परा से चतुविधदान प्रवृत्ति के अन्तर्गत शास्त्रदान का प्रभूत महत्व रहा है। अनेक धावनाविकायें पुरातन ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ कराकर उन्हें मुनिराजो आविकाओं गृहत्यागी, ब्रह्मवारी या उदासीन धावको आदि को भेंट करते रहे है । बहुधा किसी व्रत के उद्यापन या अनुष्ठान आदि के उपलक्ष्य मे भी इस प्रकार का शास्त्र दान किया जाता रहा है । अपने ग्राम या नगर के अथवा अन्यत्र के जिनमन्दिरों के शास्त्र भण्डारों मे भी, भण्डार के संवर्द्धन, प्राचीन साहित्य के संरक्षण अथवा स्वाध्याय प्रेमियों के हिलार्थ शास्त्रों की प्रतिलिपियों कराकर दी जाती रही है । (४) प्रतिलेखक प्रशस्ति एक एक ग्रन्थ की समयसमय पर कई-कई प्रतिलिपियाँ बनी, जो विभिन्न शास्त्र भण्डारों या व्यक्तिगत सग्रहो में संरक्षित रहीषा प्रत्येक प्रतिलेखक अपने द्वारा लिखित प्रति के ऊन्त मे अपना नाम, लेखन स्थान, प्रतिलेखन तिथि, प्रेरक का नाम आदि दे देता है। इस प्रकार की प्रशस्तियों से तत्सम्बन्धित ऐतिहासिक ज्ञातव्य के अतिरिक्त, बड़ा लाभ यह होता है कि एक ही ग्रन्थ की विभिन्न प्रतियो के मिलान से ग्रन्थगत पाठ का संशोधन-सम्पादन] सन्तोषजनक हो सकता है। दूसरे यदि ग्रन्थ के मूल लेखक की तिथि, स्थानादि । अज्ञात हो या अल्पज्ञान हो तो उसकी विभिन्न प्रतियों में जो प्राचीनतम उपलब्ध प्रति होती है उससे मूल लेखक के ममयादि का भी बहुत कुछ सही अनुमान हो जाता है । कभी-कभी एक नाम के कई-कई आचार्य या ग्रन्थकार हो गये हैं। उनमें भेद करने उनका पूर्वापर निश्चित करने में भी व प्रशस्तियाँ अनेक बार सहायक हो जाती है। तथा इसमे सन्देह नही कि उपरोक्त विभिन्न प्रकार की -

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