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मागम-तुल्य ग्रन्थों की प्रामाणिकता का मूल्यांकन
निरपेक्षता की शक्ति को गुण माना जाय या दोष-यह (v) उमास्वाति ने ज्ञान को प्रमाण बनाकर जैन विचारणीय है । एक ओर हमें 'अज्ञात कुलशीलस्य, वासो विद्योत्रा में सर्वप्रथम प्रमाणवाद का समावेश किया । देयोन कस्यचित' की सूक्ति पढ़ाई जाती है, दूसरी ओर (vi) उमास्वाति ने श्रावकाचार के अन्तर्गत ग्यारह हमे ऐसे ही सभी आचार्यों को प्रमाण मानने को धारणा प्रति ओ पर मौन रखा। संभवतः इसमे उन्हें पुनरावृत्ति दी जाती है। यह और ऐसी ही अन्य परस्पर-विरोधी लगी हो। मान्यताओं ने हमारी बहुत हानि की है। उदाहरणार्थ, शिष्यता से मार्गानुसारिता अपेक्षित है। परंतु लगता शास्त्री' द्वारा समीक्षित विभिन्न आचार्यों के काल-विचार है कि उमास्वाति प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने तत्कालीन के आधार पर प्रायः सभी प्राचीन आचार्य समसामयिक समग्र साहित्य म व्याप्त चर्चाओ की विविधता देखकर सिद्ध होते है :
अपना स्वयं का मत बनाया था। यही दष्टिकोण वर्तमान १. गुणधर ११४ ई०पू० -
में अपेक्षित है। २. धरसेन ५०-१०० ई० प्रथम सदी सौराष्ट्र, महाराष्ट्र उमास्वाति के समान अन्य आचार्यों ने भी सामयिक ३. पुष्पदत ६०-१०६ ई० , प्राध्र, महाराष्ट्र समस्याओं के समाधान की दृष्टि से परंपरागत मान्यताओं ४. भूतबनि ७६-१३६ ई. १-२ सदी आध्र में मंयोजन एवं परिवर्धन आदि किये है। इसलिये धार्मिक ५. कुदकुद ८१.१६५ ई० १-२ सदी तमिलनाडु ग्रथो में प्रतिपादित सिद्धांत, चाय या मान्यताये अपरि६. उमास्वाति १००-१८० ई० २ सदी
वर्तनीय है, ऐमी मान्यता तर्क संगत नही लगती । विभिन्न ७. वट्टकेर
प्रथम सदी
यूगो के ग्रंथों को देखने से ज्ञात होता है कि अहिंसादि पांच ८. शिवार्य
" मथुरा
नीतिगत सिद्धांतों की परंपरा भी महावीर-युग से ही चली ६. स्वामिकुमार
२-३ सदी गुजरात है। इसके पूर्व भगवान् रिषभ की त्रियाम (समत्व, सत्य (कार्तिकेय)
स्वायत्तता) एबं पवनाथ की चतुर्याम परपरा भी। इनमें गुणधर, धरसेन, पुष्पदत और भूतबलि का पूर्वा- महावीर ने ही अचेलकत्व तो प्रतिष्ठिन किया। महावीर पर्य और समय तो पर्याप्त यथार्थता से अनुमानित होता ने युग के अनुरूप अनेक परिवर्धन कर परंपरा को व्यापक है। पर कंदकंद और उमास्वाति के समय पर पर्याप्त बनाया । व्यापकीकरण की प्रक्रिया को भी परंपरापोषण चर्चायें मिलती है। यदि इन्हें महावीर के ६८३ वर्ष बाद ही ही माना जाना चाहिये । र द्यपि आज के अनेक विद्वान इस मानें, तो इनमे से कोई भी आचार्य दूसरी सदी का पूर्व निष्कर्ष से मःमत नही प्रतीत होते पर परपराये तो परि. वर्ती नही हो सकता (६८३-५२७- १५६ ई.)। इन्हे वधित और विकसित होकर ही जीवन्त रहती है । वस्तुतः गुरु शिष्य मानने में भी अनेक बाधक तर्क है
देखा जाय, ता जो लोग मूल आम्नाय जैसी शब्दावली (i) उमास्वाति की बारह भावनाओं के नाम व क्रम का प्रयं ग करते हैं, उसका विद्वान जगत के लिये कोई अर्थ कुंदकुंद से भिन्न है।
ही नहीं है। वीसवी सदी मे इस शब्द की सही परिभाषा (ii) उमास्वाति ने वट्टकेर के पंचाचार और शिवार्य देना ही कठिन है ? भ. रिषभ को मूल माना जाय या के चतुराचार को सम्यक् रत्नत्रय में परिवधित किया। भ० महावीर को ? इस शब्द की व्युत्पत्ति स्वय यह प्रदर्शित उन्होने तप और वीर्य को चरित्र मे ही अन्तर्भूत माना। करती है कि यह व्यापकीकरण की प्रक्रिया के प्रति अनुदार
(iii) कुंदकुंद के एकार्थी पांच अस्तिकाय. छह द्रव्य, है । हा बीसवी सदी के कुछ लेखक" समन्वय की थोड़ी सात तत्व और नी पदार्थों की विविधा को दूर कर उन्होने बहुत सभावना को अवश्य स्वीकार करने लगे हैं। सात तत्वों की मान्यता को प्रतिष्ठित किया ।
सैद्धान्तिक मान्यताओं में संशोधन और उनकी (iv) उमास्वाति ने अद्वैतबाद या निश्चय-ब्यवहार स्वीकृति प्टियों की वरीयता पर माध्ययमाव रखः ।
उपरोक्त तथा अन्य अनेक तथ्यों से यह पता चलता है