Book Title: Anekant 1988 Book 41 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 18
________________ १० वर्ष ४१०१ this is exactly the nature of the language called Jain Saurseni. Dr. Hiralal ( Introduction of पट् बडागम P. IV) 'जैन महाराष्ट्री का नामचुनाव समुचित न होने पर भी काम चलाऊ है । यही बात जैन शौरसेनी के बारे में और जोर देकर कही जा सकती है। इस विषय में अभी तक जो थोड़ी-सी शोध हुई है, उससे यह बात विदित हुई है कि इस भाषा मे ऐसे रूप और शब्द है जो शौरसेनी में बिल्कुल नही मिलते बल्कि इसके विपरीत वे रूप और शब्द कुछ महाराष्ट्री और कुछ अर्धमागधी में व्यवहृत होते हैं । अनेकान्त - विशल, प्राकृत भाषाओ का व्याकरण पृ० ३८ 'प्राचीन गाथाओं की भाषा शौरसेनी होते हुए भी महाराष्ट्रीयन मे युक्त है। भाषाओं की दृष्टि से गाथाओं मे एकरूपता नही है ।' - 'अर्धमागधी और महाराष्ट्री का सम्मिलित प्रभाव इन पर देखा जा सकता है ।' - डा० नेमिचन्द्र, आरा प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास पृ० २१७ - --- उक्त मान्यता की पुष्टि मे हम दि० अगमो के विविध उद्धरण दे इससे पूर्व कुछ इन भाषाओं के नियमो का अवलोकन कर ले ता विषय और स्पष्ट होगा । उससे यह भी स्पष्ट होगा किशोरोनी के ऐसे कई रूप है। जिन्हें दि० आचार्यों ने ग्रहण नहीं किया और उनकी जगह सामान्य — ग्रन्य प्राकृती के रूपों को भी ग्रहण किया । जैसे शोरसेनी के नियमों में एक सूत्र है- 'तस्मात्ता'प्राकृत शब्दानुशासन, ३/६/१२. इसका अर्थ है- शौरसेनी में 'तस्मात् ' शब्द को 'ता' आदेश होता है जैसे कि 'ता अलं एदिणा माषेण इसमे तम्मात् के स्थान पर 'ता' हुआ है। यदि दि० आवायों को नेवल शौरसेनी मान्य रही होती तो वे अपनी कृतियो म सभी जगह तस्मात् की जगह 'ना' का प्रयोग करते पर उन्होंने उक्त नियम की उपेक्षा कर अन्य भाषाओं के शब्द रूपो को भी आगम में स्थान दिया । जैसे- समयसार - गाथा १०, ३४, ११२, १२७, १२८, १२६ नियमसार गाथा १४३, १४४, १५६ में 'तम्हा' का ग्रहण है, जब कि शौरसेनी के नियमानुसार वहाँ 'ता' होना चाहिए था। दूर क्यों जाते हैं, हमें तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थ 'समयपाहू' के नामकरण मे भी शौरसेनी की उपेक्षा ई दिखती है । तथाहि - 'पाहुड' शब्द संस्कृत के 'प्राभृत' शब्द का प्राकृतरूप है जिसका अर्थ भेंट होता है। यदि इस शब्दरूप को शौरसेनी के नियम से देखना चाहें तो वह 'पाहूद' होगा। क्योकि शौरसेनी मे नियमों में एक सूत्र है'दन्तस्य शौरसेन्यामरवावचोऽस्तोः । - प्राकृतशब्दानुशासन ३ / २ / १, इसमें 'त' को 'द' होने का विधान है, * होने का विधान नहीं पर आचार्य ने उक्त नियम की उपेक्षा कर अन्य प्राकृतो के नियमानुसार 'त' को 'ड' कर दिया है। अन्य प्राकृतों के नियम हैं-तोड पताका प्राभूति प्राभृत स्यावृत पते । प्राकृतद्रिका २ / १७ 'ड· प्रत्यादो' - प्राकृत-सर्वस्व २/१०; 'तस्य हृत्व हरीतक्यां प्राभृते मृतके तथा । - वसन्तराज २ / ० Intro - duction of A.N. Upadhye in प्राकृत सर्वस्व । इसी प्रकार दि० आगमों में उन सभी प्रानो के रूप मिलते है जो रूप जन शौरसेनी की परिधि में आते है । दि० आचार्यों ने न तो सर्वथा महाराष्ट्री को अपनाया और न सर्वथा शौरसेनी या अर्धमागधी को अपनाया । अपितु उन्होने उन सभी प्राकृतों के रूप को ( भिन्न-भिन्न स्थानो में अपनाया जो जैन शोर में सहयोगी है और जैसा उपर्युक्त विद्वानों का मत है और प्राचीन दि० आगमो और आचार्य कुन्दकुन्द की रचनाओ में इसी आधार पर विविध प्राकृत के प्रयोग है-दिगम्बर आचार्य नियम किसी एक प्राकृत के कोर नहीं चले। यदि वारीकी से देखें तो प्राकृत भाषा के नियमों की परिधि बहुत विशाल है शौरसेनी मे तो कुछ ही परिवर्तन है; प्राकृत शब्दानुशासन मे तो शौरसेनी सम्बन्धी मात्र २६ सूत्र है (देखें अध्याय ३ पाद २) ऐसे में क्या २६ सूत्र मात्र से जैन आगमों की रचना हो सकती है ? जरा सोचिए ! मानना पड़ेगा कि आगमो मे अन्य प्राकृतनियमों का भी समावेश है। उदाहरण के लिए 'पाहुड' शब्द को ही लीजिए। इसमें जो 'म' को 'ह' और ''

Loading...

Page Navigation
1 ... 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142