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अनेकान्त
ऊहापोह उपलब्ध है । भगवती मूत्र में चार प्रमाणो का मतिश्रतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे ।" उल्लेख है-१. प्रत्यक्ष, २. अनुमान, ३. उपमान और मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान ४. पागम । स्थानागसूत्र में प्रमाण के अर्थ मे हेतु शब्द सम्यग्ज्ञान है और वे प्रमाण है। का प्रयोग करके उसके उपर्यक्त प्रत्यक्ष विचार भेदों का आशय यह कि षटखण्डागम मे प्रमाण और प्रमाणानिर्देश किया है । भगवती और स्थानागका यह प्रदिपादन भास रूप से जानो का विवेचन होने पर भी उस समय लोक संग्रह का सूचक है।
की प्रतिपादन शैली के अनुसार जो उसमे पाँच ज्ञानों को पागमो मे मुलतः ज्ञान-मीमासा ही प्रस्तत एव विवे- सम्यग्ज्ञान और तीन ज्ञानो को मिथ्याज्ञान कहा गया है। चित है । षट्खण्डागम में विस्तृत ज्ञान-मोमासा दी गयी वह प्रमाण तथा प्रमाणाभास का प्रवबोधक है । राजहै । वहाँ तीन प्रकार के मिथ्याज्ञानी और पांच प्रकार के प्रश्नीय, नन्दीसूत्र और भगवती सूत्र मे भी ज्ञानमीमासा सम्यग्ज्ञानों का निरूपण किया गया है तथा उन्हें वस्तू- पायी जाती है। इस प्रकार सम्यग्ज्ञान या प्रमाण के मति, परिच्छेदक बताया गया है। यद्यपि वहाँ प्रमाण और श्रुत, प्रादि पाँच भेदों की परम्परा पागम में वर्णित है। प्रमाणाभास शब्द अथवा उस रूप मे विभाजन पुष्टिगोचर परन्तु इतर दर्शनो के लिए वह अज्ञान एव अलौकिक नहीं होता । तथापि एक वर्ग के ज्ञानो को सम्यक और जैसी रही, क्योकि अन्य दर्शनो के प्रमाण-निरूपण के साथ दूसरे वर्ग के ज्ञानो को मिथ्या प्रतिपादित करने से अवगत उसका मेल नही खाता । अतः ऐसे प्रयत्न की आवश्यकता होता है कि जो ज्ञान सम्यक् कहे गये है वे सम्यक परि- थी कि अागम का समन्वय भी हो जाय और अन्य दर्शनों च्छित्ति कराने से प्रमाण तथा जिन्हें मिथ्या बताया गया के प्रमाण-निरूपण के साथ उसका मेल भी बैठ जाय । इस है वे मिथ्या ज्ञान कराने से अप्रमाण (प्रमाणाभास) इष्ट दिशा मे सर्व प्रथम दार्शनिक रूप से तत्त्वार्थसूत्रकार ने है । हमारे इस कथन की सम्पुष्टि तत्त्वार्थसूत्रकार के निम्न समाधान प्रस्तुत किया। उन्होने' तत्त्वार्थसूत्र मे ज्ञानप्रतिपादन से भी होती है।
मीमासा को निबद्ध करते हुए स्पष्ट कहा कि जो मति
आदि पाँच ज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान वणित है वह प्रमाण है १. 'गोयमा-से कि त पमाण? पमाणे चउविहे पण्णत्ते और मल में वह दो भेद रूप है-1. प्रत्यक्ष और २. -तं जहा पच्चक्खे अणुमाणे प्रोवम्मे पागमे जहा
परोक्ष । अर्थात् आगम मे जिन पाँच ज्ञानो को सम्यग्ज्ञान अणुयोगद्दारे तहा यव्व पमाण ।
कहा गया है वे प्रमाण है तथा उनमे मति और श्रुत ये -भ० सू० ५।३।१६१-१६२ ।
दो ज्ञान इन्द्रियादि पर सापेक्ष होने से परोक्ष तथा २. अहवा हेऊ चउविहे पण्णत्ते, त जहा पच्चक्खे अणु
अवधि, मनःपर्यय और केवल ये तीन पर सापेक्ष न होने माणे प्रोवम्मे प्रागमे ।
एवं आत्म मात्र की अपेक्षा से होने के कारण प्रत्यक्ष -स्था० सू० ३३८ । ३. णाणाणुवादेण अस्थि मदि-अण्णाणी सुद-अण्णाणी
४. प्रा० गृद्धपिच्छ, त० सू० १९, १० । विभगणाणी प्राभिणिवोहिय णाणी सुद-णाणी अोहि
५. वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक कणाद ने भी इसी शैली से
बुद्धि के अविद्या और विद्या ये दो भेद बतलाकर णाणी मणपज्जव-णाणी केवलणाणी चेदि । (ज्ञान
अविद्या के सशय आदि चार तथा विद्या के प्रत्यक्षादि की अपेक्षा मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभगज्ञान,
चार कुल पाठ भेदों की परिगणना की है। तथा आभिनिबोधिक-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मनः पर्यय-ज्ञान और केवल ज्ञान ये केवल आठ ज्ञान है।
दूषित ज्ञान (मिथ्याज्ञान) को अविद्या और निर्दोष इनमे आदि के तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान और अन्तिम
ज्ञान (सम्यग्ज्ञान) को विद्या कहा है।
-देखिए, वै. सू० ६।२७, ८, १० से १३ तथा पांच ज्ञान सम्यग्ज्ञान है।)
१०॥१॥३॥ -भूतबली-पुष्पदन्त, षट्ख० १०१।१५॥
६. त० सू० ११६, १०, ११, १२ ।