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अनेकान्त
दोणिमंत पर्वत पर गुरुदत की सिद्धिप्राप्ति का उल्लेख निर्वाणप्राप्ति की चर्चा की है इसका भी कोई पूर्वाधार शिवार्यकृत भगवती पाराधना तथा हरिषेण के वृहत्कथा- प्राप्त नहीं है। कोश मे आता है। इसी को निर्वाणकाण्ड मे द्रोणगिरि निर्वाणकाण्ड का रचना काल :कहा है। हरिषेण के अनुसार यह लाट देश (दक्षिण गुज- ऊपर वराग के निर्वाणस्थान की चर्चा में बतलाया रात) मे था।
है कि सातवी सदी मे जटासिहनदि ने यह स्थान मणि__ वगस्थलपुर के समीप राम द्वारा देशभूषण-कुलभूषण मान पर्वत बतलाया है तथा पाठवी सदी में यहाँ तारापुर के उपसर्ग के निवारण की कथा पद्मचरित मे पाती है। ग्राम बसाया गया था जिसका नाम निर्वाणकाण्ड मे वहाँ इस पर्वत का नाम वशगिरि अथवा रामगिरि बत- मिलता है। इस पर से प्रतीत होता है कि यह रचना लाया है। निर्वाणकाण्ड में इन नामों के स्थान पर कुन्थ- पाठवीं सदी के बाद की है। प्रभाचन्द्र की दशभक्तिटीका गिरि नाम दिया है जो सम्भवत: उसी प्राचीन स्थान के मे सस्कृत निर्वाणभक्ति की टीका है किन्तु निर्वाणकाण्ड लिए उनके समय मे अधिक प्रचलित था।
की नही है इस पर से प्रतीत होता है कि यह दसवी सदी ___ कोटिशिला का वर्णन भी पद्मचरित तथा हरिवश- के बाद की रचना होनी चाहिए। यदि अतिशयक्षेत्रकाण्ड पुराण में आता है। किन्तु यशोधर राजा के पुत्रों के के कर्ता और निर्वाणकाण्ड के कर्ता एक ही हो तो भी निर्वाणस्थान के रूप में निर्वाणकाड में इसका जो परिचय उनका समय दसवीं सदी के बाद का होगा, क्योकि अतिदिया है वह उससे पूर्व उपलब्ध नहीं होता । निर्वाणकांड शयक्षेत्र काण्ड में उल्लिखित सिरपुर के पार्श्वनाथ की में उसे कलिगदेश मे बतलाया है । इसके स्थान के बारे में स्थापना दसवी सदी में ही हुई थी। ऊपर निर्वाणकाण्ड विभिन्न ग्रन्थकर्तामो मे मतभेद है।
के रूपान्तरो का जो परिचय दिया है उसमे सर्वप्रथम संस्कृत निर्वाणभक्ति (जो टीकाकार प्रभाचन्द्र के रूपान्तरकार उदयकीर्ति का समय तेरहवी-चौदहवी सदी कथनानुसार पादपूज्य स्वामी की कृति है तथा अधिकाश बतलाया है। अतः निर्वाणकान्ड ग्यारहवी या बारहवी विद्वान पादपूज्य को पूज्यपाद देवनन्दि का ही नामान्तर सदी की रचना प्रतीत होती है। समझते है) मै कैलास, चम्पापुर, पावापुर, ऊर्जयन्त, सम्मे- उपसहार :दाचल, शत्रजय, तु गी, गजपथ, सुवर्णभद्र का सिद्धिस्थान प० नाथूराम जी प्रेमी तथा डा० हीरालाल जी जैन नदीतट (नदी का नाम नही बतलाया है), द्रोणीमत, मेढ़क, ने सर्वप्रथम सन् १९३६ में जैन सिद्धान्त भास्कर मे हमारे वरसिद्धकट, ऋष्यद्रि, विध्य, इन निर्वाणकांडवणित तीर्थों तीर्थक्षेत्र शीर्षक विस्तत लेख मे निर्वाणकाण्ड की समीक्षा का उल्लेख मिलता है - इस तरह निर्वाणकाड के पूर्वा- की थी। बाद मे प्रेमी जी के जैन साहित्य और इतिहास धारों मे यह सबसे मुख्य रचना है। इसमे पहले पांच में भी यह निबन्ध प्रकाशित हुआ है। ऊपर निर्वाणकान्ड स्थानों मे तीर्थकरों के निर्वाण का उल्लेख है। शत्रुजय में के जो पूर्वाधार बताये हैं वे बहुत कुछ इसी निबन्ध से पांडवो के तु गी मे बलभद्र के तथा नदीतट पर सुवर्णभद्र लिए गये है। किन्तु उक्त निबन्ध लिखते समय सम्भवतः के सुगतिप्राप्ति का भी उल्लेख है। शेष स्थानों के केवल निर्वाणकान्ड के जिन रूपान्तरों का हमने परिचय दिया नाम है।
है वे उपलब्ध नहीं थे। हमने तारगा, चूलगिरि, द्रोणगिरि निर्वाणकाड मे पाठ कोटि यादव राजा (गजपन्थ), तथा कथुगिरि के सम्बन्ध मे जो विचार व्यक्त किये है वे पाँच कोटि लाट राजा (पावागिरि), आठ कोटि द्रविण भी उपयुक्त निबन्ध से भिन्न है। राजा (शत्रुजय) तथा तारापुर के निकट ३।। कोटि, इस निबन्ध मे चचित कृतियो के मूल पद्य हमारे ऊर्जयन्त पर ७२ कोटि सातसी, तुगीगिरि पर ६६ कोटि तीर्थवन्दनसंग्रह (जीवराज जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर द्वारा रेवातट पर २॥ कोटि, सवणागिरि पर २॥ कोटि, सिद्ध- १९६५ में प्रकाशित) मे पूर्णतः सकलित हैं। यहां विस्तारवरकूट पर ३॥ कोटि, मेढगिरि पर ३॥ कोटि मुनियों को भय से उन्हें उद्धत नही किया गया है।