Book Title: Anekant 1969 Book 22 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 18
________________ भारतीय दर्शनों में प्रमाणभेद की महत्त्वपूर्ण चर्चा डा० दरबारीलाल कोठिया भारतीय दर्शनो मे प्रमाणभेद की महत्वपूर्ण एवं वना या गौतम की तरह उनके समावेशादि की चर्चा नही ज्ञातव्य चर्चा उपलब्ध है । सभी दर्शनों ने उस पर विमर्श की। इससे प्रतीत होता है कि प्रमाण के उक्त दो भेदो किया है। प्रस्तुत मे विचारणीय है कि प्रमाण, जो वस्तु- की मान्यता प्राचीन है। चार्वाक के मात्र अनुमान-समीव्यवस्था का मुख्य साधन है, कितने प्रकार का है और क्षण और केवल एक प्रत्यक्ष के समर्थन से भी यही अवगत जसके भेदों का सर्वप्रथम प्रतिपादन करनेवाली परम्परा होता है। जो हो, इतना तथ्य है कि प्रत्यक्ष भोर अनुमान क्या है ? दार्शनिक ग्रन्थों का पालोडन करने पर ज्ञात इन दो को वैशेषिको और बौद्धो ने'; प्रत्यक्ष, अनुमान होता है कि प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और और शब्द इन तीन को साख्यों ने'; उपमान सहित उक्त शब्द इन चार भेदों की परिगणना करने वाले न्यायसूत्र- चार को नैयायिकों ने और अपत्ति तथा प्रभाव सहित कार गौतम से भी पूर्व प्रमाण के अनेक भेदों की मान्यता उक्त छह प्रमाणों को जैमिनीयों (मीमासको) ने स्वीकार रही है, क्योंकि उन्होंने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और किया है। आगे चलकर जैमिनीय दो सम्प्रदायों मे प्रभाव इन चार का स्पष्ट रूप में उल्लेख करके उनकी विभक्त हो गये-भाद्र और प्राभाकर । भाद्रों ने तो छहों अतिरिक्त प्रमाणता की समीक्षा की है तथा शब्द मे प्रमाणों को मान्य किया। पर प्राभाकरो ने प्रभाव को ऐतिह्य का और अनुमान में शेष तीन का अन्तर्भाव प्रद- छोड़ दिया यथा शेष पाच प्रमाणो को स्वीकार किया। शित किया है। प्रशस्तपादने' प्रत्यक्ष और अनुमान इन इस तरह विभिन्न दर्शनों मे प्रमाण भेद की मान्यताएं दो प्रमाणो का समर्थन करते हुए उल्लिखित शब्द आदि प्राप्त होती है। प्रमाणों का इन्ही दो में समावेश किया है । तथा चेष्टा, जैन दर्शन में प्रमाण के भेद :निर्णय, प्रार्प (प्रातिभ) और सिद्धदर्शन को भी इन्हीं के अन्तर्गत सिद्ध किया है। जैन दर्शन में भी प्रमाण के सम्भाव्य भेदों पर विस्तृत प्रशम्नपाद से पूर्व उनके मूत्रकार कणादन प्रत्यक्ष । ६. प्रत्यक्षमनुमान च प्रमाण हि द्विलक्षणम् । और लैङ्गिक के अतिरिक्त अन्य प्रमाणों की कोई सम्भा प्रमेयं तत्प्रयोगार्थ न प्रमाणान्तर भवेत् ।। ---- - - - - ----------- -दिइनाग, प्रमाणममु० (प्र० परि०) का० २, १. प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा प्रमाणानि । -गौतम अक्षपाद, न्यायमू० १११॥३॥ पृ० ४ । ७ दृष्टमनुमानमाप्तवचन च सर्वप्रमाणमिद्धत्वात् । २. न, चतुष्ट वम, ऐतिह्यार्थापत्तिमम्भवाभावप्रामाण्यात् ।। विविध प्रमाणमिष्ट प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि ।। ३. शब्द ऐनिह्यानर्थान्तरभावादनुमानेऽर्थापत्तिसम्भवाभा -ईश्वरकृष्ण, सा० का० ४ । वानर्थान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः । ८. अक्षपाद, न्यायसू० ११११३। -~~-वही, २।२।११,२॥ ६. शाबरभा० ११११५।। ३. शब्दादीनामप्यनुमानेऽन्तर्भाव समानविधित्वात् ।...। १०. जैमिनेः पटप्रमाणानि चत्वारि न्यायवेदिन.। -प्रश० भ० १० १०६-१११ । १२७-१२६ । साख्यस्य त्रीणिवाच्यानि द्वे वैशेपिकबौद्धयोः । ४.,५. तयोनिप्पत्तिः प्रत्यक्षलेङ्गिकाम्याम् । -अनन्तवीर्य, प्रमेयरत्नमा० २१२ के टिप्पण मे -वैशेषि० सू० १०॥१॥३॥ उद्धृत पद्य, पृ० ४३ ।

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