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भारतीय दर्शनों में प्रमाणभेव की महत्त्वपूर्ण चर्चा
प्रमाण है। प्राचार्य गृद्धपिच्छ की यह प्रमाण द्वय को प्रत्येक के लक्षण भी वही मिलते है। लगता है कि गृद्धयोजना इतनी विचार युक्त और कौशल्यपूर्ण हुई कि पिच्छ और अकलङ्क ने जो प्रमाण निरूपण की दिशा प्रमाणों का प्रानन्त्य भी इन्हीं दो मे समाविष्ट हो जाता प्रदर्शित की उसी पर उत्तरवर्ती जैन तार्किक चले है। है। उन्होंने प्रति संक्षेप में आगमोक्त मति, स्मृति, सज्ञा विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, हेमचन्द्र, और धर्मभूषण (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (ग्रनुमान) प्रभृति ताकिको ने उनका अनुगमन किया और उनके को भी प्रमाणान्तर स्वीकार करते हुए उन्हे मतिज्ञान कह कथन को पल्लवित किया। कर 'माये परोक्षम" सूत्र द्वारा उनका परोक्ष प्रमाण में
स्मरणीय है कि प्रा. गृद्धपिच्छ के इस प्रत्यक्ष-परोक्ष समावेश किया; क्योंकि ये सभी ज्ञान परसापेक्ष है । वैशे
प्रमाण द्वय विभाग से कुछ भिन्न प्रमाणद्वय का प्रतिपादन षिकों और बौद्धो ने भी प्रमाण द्वय स्वीकार किया है, पर
भी हमे जैन दर्शन में प्राप्त होता है। वह प्रतिपादन है उनका प्रमाण द्वय प्रत्यक्ष और अनुमान रूप है तथा अनु
स्वामी समन्तभद्र का । स्वामी समन्तभद्र ने प्रमाण (केवलमान में स्मति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क का समावेश सम्भव
ज्ञान) का स्वरूप युगवत्सर्व भामी तत्त्वज्ञान बतलाकर ऐसे नही है । अतः आ. गृद्ध पिच्छ ने उसे स्वीकार न कर
ज्ञान को अक्रमभावी और क्रमश अल्पपरिच्छेदी ज्ञान को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप प्रमाण द्वय का व्यापक विभाग
क्रमभावी कहकर प्रमाण को दो भागो में विभक्त किया प्रतिष्ठित किया । उत्तरवर्ती जैन तार्किको के लिए उनका
है । समन्तभद्र के इन दो भेदो में जहाँ प्रक्रमभावी मात्र यह विभाग प्राधार सिद्ध हुआ। प्राय सभी ने अपनी
केवल है और क्रमभावी मति, श्रत, अवधि मौर मन पर्यय कृतियो में उसी के अनुसार ज्ञानमीमासा और प्रमाण
ये चार ज्ञान अभिमत है वहाँ गृद्धपिच्छ के प्रत्यक्ष और मीमासा का विवेचन किया है। पूज्यपाद ने' न्यायदर्शन
परोक्ष इन दो प्रमाण भेदो में प्रत्यक्ष तो अवधि, मन पर्यय आदि दर्शनों मे पृथक् प्रमाण के रूप में स्वीकृत उपमान,
और केवल ये तीन ज्ञान है तथा परोक्ष मति और श्रत ये अर्थापनि और आमम आदि प्रमाणो को परसापेक्ष होने से
दो ज्ञान इष्ट है। प्रमाण भेदों की इन दोनो विचारपरोक्ष में अन्तर्भाव किया और तत्त्वार्थमूत्रकार ने प्रमाण
धारानी मे वस्तुभूत कोई अन्तर नही है। गृद्धपिच्छ का द्वय का समर्थन किया है। प्रकलङ्क ने भी इसी प्रमाण
निरूपण जहाँ ज्ञान कारणो की सापेक्षता पौर निरपेक्षता द्वय की सम्पुष्टि की, साथ ही नये आलोक में प्रत्यक्ष और
पर प्राधृत है वहा समन्तभद्र का प्रतिपादन विषयाधिगम परोक्ष की परिभाषामों तथा उनके भेदो का भी बहुत
के क्रम और अक्रम पर निर्भर है। पदार्थों का क्रम से स्पष्टता के साथ प्रतिपादन किया है । परोक्ष की स्पष्ट
होनेवाला ज्ञान क्रमभावि और युगवत् होने वाला प्रक्रमसख्या' सर्वप्रथम उनके ग्रन्थों में ही उपलब्धि होती है और
भावि प्रमाण है। पर इस विभाग की अपेक्षा गृपिच्छ १. मतिः स्मृतिः सज्ञा चिन्ताभिनिबोध इत्यनन्तरम् ।
का प्रमाण द्वय विभाग अधिक प्रसिद्ध पोर ताकिको द्वारा -त. मू० १११४। २. वही, १।११।
अनुसृत हुआ है। . ३. अत उपमानागमादीना मत्रैवान्तर्भावः । -पूज्यपाद, स० सि० १।११।
६. विद्यानन्द, प्र० ५० १०६६ । ४. प्रत्यक्ष विशद ज्ञान मुख्यसव्यवहारतः ।
७. मणिस्यनन्दि, परी० मु. १, २ तथा ३।१, २ परोक्ष शेषविज्ञान प्रमाणे इति सग्रह. ।।
८. हेमचन्द्र, प्र० मी० १११६, १० तथा ११२१,२ -प्रकलङ्क, लघीय, ११३। ज्ञानस्यैव विशदनिर्भासित प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य ६.
६. धर्मभूषण, न्यायदी. प्रत्य० प्रका०, पृ० २३ तथा परोक्षता । -वही, स्व. वृ० ११३।
परो० प्रका० पृ० ५३ ५. ज्ञानमाद्य मतिः सज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधिकम् । १०. तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत्मवंभासनम् । प्राइ नामयोजनात् शेष श्रत शब्दानुयोजनात् ।।
क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसम्कृतम् ।। -वही, ११११ तथा ३१६१ ।
समन्तभद्र, प्राप्तमी० का० १०१