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निर्वाणकाण्ड के पूर्वाधार तथा उसके रुपान्तर
अतिशयक्षेत्रकाण्डवणित तीर्थ उल्लिखित है।
ग्रन्थों मे मिलता है। सत्रहवी सदी के ही लेखक जयसागर की तीर्थजयमाला बलराम के स्वर्गवास स्थान में तुगीगिरि का तथा मे कुल ४६ तीर्थों का नामोल्लेख है। इनमें निर्वाणकाण्ड- पाण्डवों के निर्वाणस्थान श@जय का वर्णन भी हरिवंशवणित कैलास, संमेदाचल, चम्पापुर, पावापुर, गिरिनार, पुराण तथा महापुराण में प्राप्त है। किन्तु राम, हनुमान शत्रुजय, वशस्थल, मुक्तागिरि, तुगी, गजपन्थ, तारगा तथा प्रादि का तुगीगिरि से सम्बन्ध निर्वाणकाण्डकर्ता के पहले अतिशयक्षेत्रकाण्डवणित प्रागलदेव, गोमटदेव, सिरपुर, किसी ने नहीं जोडा था। हलगिरि इन तीर्थों के नाम पाये जाते है।
गजध्वज पर्वत के समीप पहले बलभद्र श्रीविजय के सत्रहवीं सदी के ही विश्वभूषण की सर्वत्रलोक्यजिना- समवसरण का उल्लेख उत्तरपुराण में मिलता है। किन्तु लय जयमाला मे २६ तीर्थों का उल्लेख है जिनमे सोना
उनका तथा अन्य छः बलभद्रों का निर्वाण गजपथ पर गिरि, रेवातट, सिद्धकूट, बडवानी ये तीर्थ निर्वाणकाण्ड
हुप्रा यह मान्यता निर्वाणकाण्ड के पहले उपलब्ध नहीं वणित तथा अग्गलदेव, हलगिरि, गोमटदेव ये अतिशयक्षेत्र होती। काण्ड वर्णित है।
वरदत्त के निर्वाणस्थान तथा वरांग के स्वर्गवाससत्रहवी सदी मे ही मेरुचन्द्र तथा गंगादास द्वारा स्थान के रूप में मणिमान पर्वत का वर्णन जटासिंहनन्दि तुगोगिरि की यात्रा के लिए लिखे गये बलभद्र-अष्टक प्राप्त के बरागचरित मे मिलता है। इसका जो स्थान उन्होने
बतलाया है वह वर्तमान तारंगा से मिलता-जुलता है। अठारहवी सदी के प्रारम्भ मे कारजा के भ० देवेन्द्र- यहाँ पर गुजरात के पाठवीं सदी के राजा वत्सराज ने कीति ने गजपन्थ, तुगी, तारगा, शत्रुजय तथा गिरिनार तारादेवी का मन्दिर बनवाकर तारापुर ग्राम बसाया था । की यात्रा सघसहित की थी। उन्होने तत्सबधी छप्पयो मे निगम में मणिमान पवंत का नाम न देकर केवल यात्रातिथियाँ भी दी है। उनके शिष्य जिनसागर की लहु
इतना बताया है। कि यह स्थान तारापुर के निकट है इस अकश कथा मे राम-पुत्रो के निर्वाणस्थान पावागिरि का तरह दोनो वर्णनों में कोई विरोध नहीं हैं। उल्लेख है।
लव कुश के निर्वाणस्थान का कोई वर्णन निर्वाणकाड सत्रहवी सदी मे धनजी ने तथा अठारहवी सदी में के पर्व नहीं मिलता। यह बात सवणागिरि, सिद्धवरकूट, राघव ने मुक्तागिरि की जयमाला व भारती की रचना
पावागिरि (सुवर्णभद्र-मिद्धिस्थान), मेदगिरि तथा रिम्मिकी थी। इनमें पहनी मस्कृतमिथित हिन्दी में तथा दूमग द गिरि के बारे में भी है। मराठी में है।
इन्द्रजित तथा कुम्भकर्ण का निर्वाणस्थान पारित कारजा के भ० देवेन्द्रकीनि के शिष्य पडित दिलमुख
अनुसार क्रमश. विध्य पर्वत के महावन में मेघग्व तथा ने मन् १८३७ म अकृत्रिम चन्यालय जयमाला में पावा
नर्मदा के किनारे पिठरक्षन यह था । निर्वाणकाण्ड में दोनो गिरि (दोनो), द्रोणागिर तथा पिद्धवरकूट को छोडकर
का निर्वाण वडवानी के पाग चलगिरि पर बताया है। चलनिर्वाण काण्ड वणित गभी तीर्थो का नामोउल्लेख किया है।
गिरि विन्ध्य पर्वन के महावन में भी है तथा नर्मदा के तीर दमी ममय के लगभग कवीन्द्रमेवक की मराठी तीर्थ
के पास भी है। इस तरह पद्मवरित के वर्णन से यह बन्दना में कैलाम, शत्रजय' मागीनगी, गिरिनार, मुक्ति
मिलता-जुलना है। हो सकता है कि पुराने समय में चूलगिरि यथा गजपन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है।
गिरि के ही अासपास के दो स्थान मेघरव तथा पिठरक्षत ७. पूर्वाधार :--
के नाम से प्रसिद्ध हों तथा निर्वाणकाण्डकर्ता ने दोनो के निर्वाणकाण्ड मे वणित पहले पाँच तीर्थों का (कलाम लिए समीपवर्ती चलगिरि का नाम दे दिया हो (जमे कि चम्पापुर पावापुर, ऊर्जयन्त तथा समंदाचल का) वर्णन मणिमान पर्वत के लिए उन्होंने तारापुर का नाम दिया पद्मचरित, हरिवशपुराण, महापुराण प्रादि अनेक पुरातन है)।