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मार्गशिर, वीरनि० सं०२४५६, अनेकान्तके इतिहास पर एक दृष्टि
आचार्यका भी उल्लेख मिले । संजय वैरत्थीपुत्र सचमुच ( Gymnosot hist.) के निकटसे शिक्षा ग्रहण की उस ही प्रा वीन जैनधर्मके उपासक थे । पहली बात तो थी । अतः संजयको जैनमुनि मानना अनुचित नहीं यह है कि बौद्ध शाओंमें इन संजयके शिष्य मौद्गला- है। और जब मंजयका जैनमुनि होना स्पष्ट है तब यन और सारीपुत्त लिखे हैं । ये दोनों महानुभाव अनकान्त अथवा स्याद्वाद सिद्धान्तका भ० महावीरसे बादको बौद्ध धर्ममें दीक्षित ह.गये थे । परंतु इसके पहले प्रादुर्भाव होना स्वतः सिद्ध है। बाद संजयका क्या हुआ ? यह बौद्व शास्त्रोंसे कुछ इस प्रकार अनेकांत सिद्धान्तका प्रकाश भ० महाप्रकट नहीं होता । इधर जैनों की 'धर्मपरीक्षा' (अ०१८ वीरसे बहुत पहले जैनों द्वारा हुआ था और बादको श्लो०६८-६९) से प्रकट है कि मौलायन जैन मनि श्रीसमन्तभद्र आदि मुख्य मुख्य जैनाचार्योंने उसका
पुर्ण प्रकाश चहुँओर फैला दिया था । किन्तु हतभाग्य था, जो मुनि पदसे भ्रष्ट होकर बौद्ध होगया था। यह
स मध्यकालके पश्चात् जैनोंके निकटसे इस सिद्धान्त माद् लायन बौद्ध शास्त्राक मोद् ।नायनक यातरिक्त का प्रकाश छुपने लगा और इसका दुःखद परिणाम अन्य कोई प्रकट नहीं होना; क्योंकि जैनशास्त्रमें भी वही हुआ जो होना था । जैनोंमेंसे वस्तुके सर्वगुणोंपर इसको बौद्धशास्त्रकी तरह बौद्धमतका एक खास समुचित विचार करनेकी शक्ति जाती रही, वे एकांतमें प्रवर्तक लिखा है । इस अवस्थामें मौदगलायन जा पड़े और आपसमें ही लड़-झगड़ कर दुनियाँ की गुरु मंजयका जैन मुनि ह.ना उचित ही है। जैनों के
नजरमें अपना मूल्य खो बैठे ! किन्तु ये भी दिन सदा
" + नहीं रह सकते थे-फलतः अाज हम जैनोंमें 'अने'महावीरचरित् 'में एक संजय नामक जैनमुनिका कांत' का अरुण प्रकाश फिरसे देख रहे हैं-हमारा उल्लेख भी है, जिसको कुछ शङ्काएँ थीं और जो हृदय इस ऊषावेलामें श्राशाकी मधुर समीरके झोकों भ० म. वीरके दर्शनसे दूर हो गई थीं। बौद्वशास्त्रमें से उल्लसित हो रहा है और यह भास रहा है कि मंजय की जो शिक्षाएँ दी हैं वे स्यावाद सिद्धान्तस
'अनेकांतका प्रदीप्त प्रकाश और जैनोंका अभ्युदय
अन मिन्न । तुलती हैं । जान पड़ता है, इम मिद्धान्तको
__ अब दूर नहीं है।' श्राओ, पाठको, इसका स्वागत करें
और अनेकांत रसका पी-पिला कर समाजको स्वस्थ संजरने तेईसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथजी की शिष्य- बनाएँ । परंपराके किसी प्राचार्यसे सीखा था; किन्तु ठीक नौर से न ममझ मको के कारण वह उसका विकृत रूपमे
अनेकान्त प्रतिपादन करता रहा । उसकी इस शङ्काका समाधान 'अनेकान्त' गुण दोष वस्तु कं दिखलाता है ! भी भ० महावीरके निकटसे हो गया था । इस दशामें 'अनेकान्त' सत्यार्थ रूप सन्मुख लाता है ! बौद्ध शास्त्रों में उसका पीछे का कुछ हाल न मिलना
'अनकान्त' सिद्धान्त बिम्नवत् दर्शाता है !
'अनेकान्त' जिन वैन सुधारस वर्षाता है! प्रकृत सङ्गन है -तब वह फिरसे जैन मुनि होगया था। संजयकी शिक्षाका मादृश्य यूनानी तत्ववेत्ता हो 'एक पक्ष एकान्तमय' दोषपूर्ण होता सदा ! (Pyrrho) के सिद्धान्तों से है; जिसने जैन मुनियों 'अनेकान्त' निर्दोष नय जय पाता है सर्वदा ! १ महाक्ग ११२३-२४
-कल्याणकुमार जैन, "शशि" २. भगवान् पारवनाथ पृ. ३३०-३३२
हिस्टॉरीकन ग्लीनिगम पृ. ४५