Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[२४] अंकुरित करने में महामेघ के समान थे। चिन्तामणि के समान वे इष्टवस्तु के प्रदाता थे।
यह आगमवाचना मथुरा में होने से माथुरी वाचना कहलायी। आचार्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में होने से स्कन्दिली वाचना के नाम से इसे अभिहित किया गया। जिनदास गणी महत्तर ने यह भी लिखा है कि दुष्कालं के क्रूर आघात से अनुयोगधर मुनियों में केवल एक स्कन्दिल ही बच पाये थे। उन्होंने मथुरा में अनुयोग का प्रवर्तन किया था। अत: यह वाचना स्कन्दिली नाम से विश्रुत हुई।
प्रस्तुत वाचना में भी पाटलिपुत्र की वाचना की तरह केवल अंगसूत्रों की ही वाचना हुई। क्योंकि नन्दीसूत्र की चूर्णि में अंगसूत्रों के लिए कालिक शब्द व्यवहृत हुआ है। अंगबाह्य आगमों की वाचना या संकलना का इस समय भी प्रयास हुआ हो, ऐसा पुष्ट प्रमाण नहीं है। पाटलिपुत्र में जो अंगों की वाचना हुई थी उसे ही पुन: व्यवस्थित करने का प्रयास किया गया था। नन्दीसूत्र के अनुसार वर्तमान में जो आगम विद्यमान हैं वे माथुरी वाचना के अनुसार हैं। पहले जो वाचना हुई थी, वह पाटलिपुत्र में हुई थी, जो विहार में था। उस समय विहार जैनों का केन्द्र रहा था। किन्तु माथुरी वाचना के समय विहार से हटकर उत्तर प्रदेश केन्द्र हो गया था। मथुरा से ही कुछ श्रमण दक्षिण की ओर आगे बढ़े थे। जिसका सूचन हमें दक्षिण में विश्रुत माथुरी संघ के अस्तित्व से प्राप्त होता है।६३
नन्दीसूत्र की चूर्णि और मलयगिरि वृत्ति के अनुसार यह माना जाता है कि दुर्भिक्ष के समय श्रुतज्ञान कुछ भी नष्ट नहीं हुआ था। केवल आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष अनुयोगधर श्रमण स्वर्गस्थ हो गये थे। एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, जिससे सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल-सम्बन्धी माना गया। चतुर्थ वाचना
जिस समय उत्तर-पूर्व और मध्य भारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था, उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना वीरनिर्वाण संवत् ८२७ से ८४० के आस-पास वल्लभी में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में सम्पन्न हुई। इसे 'वल्लभीवाचना' या 'नागार्जुनीयवाचना' की संज्ञा मिली। इस वाचना का उल्लेख भद्रेश्वर रचित कहावली ग्रन्थ में मिलता है, जो आचार्य हरिभद्र के बाद हुये। स्मृति के आधार पर सूत्र-संकलना होने के कारण वाचनाभेद रह जाना स्वाभाविक था।६५ पण्डित दलसुख मालवणिया ने६६ प्रस्तुत वाचना के सम्बन्ध में लिखा है
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५९. पारिजातोऽपारिजातो जैनशासननन्दने।
सर्वश्रुतानुयोगद्रु-कन्दकन्दलनाम्बुदः ॥ विद्याधरवराम्नाये चिन्तामणिरिवेष्टदः । आसीच्छीस्कन्दिलाचार्यः पादलिप्तप्रभोः कुले ॥-प्रभावकचरित, पृ. ५४ अण्णे भणंति जहा-सुत्तं ण णटुं, तम्मि दुब्भिक्खकाले जे अण्णे पहाणा अणुओगघरा ते विणट्ठा, एगे खंदिलायरिए
संथरे, तेण मधुराए अणुओगो पुणो साधुणं पवत्तितो ति मधुरा वायणा भण्णति। -नन्दीचूर्णि, गा. ३२, पृ. ९ ६१. अहवा कालियं आयारादि सुत्तं तदुवदेसेणं सण्णी भण्णति।
___-नन्दीचूर्णि, गा. ३२, पृ. ९ ६२. जेसि इमो अणुओगो, पयरइ अज्जावि अड्डभरहम्मि। बहुनगरनिग्गयजसो ते वंदे खंदिलायरिए ॥
–नन्दीसूत्र, गा. ३२ ६३. (क) नन्दीचूर्णि, पृ. ९ (ख) नन्दीसूत्र, गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति-पृ. ५९ ६४. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७-पं. दलसुख मालवणिया। ६५. इह हि स्कन्दिलाचार्यप्रवृत्तौ दुष्षमानुभावतो दुर्भिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिकं सर्वमप्यनेशत्। ततो दुर्भिक्षातिक्रमे
सुभिक्षप्रवृत्तौ द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तद्यथा एको बल्लभ्यामेको मथुरायाम्। तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो
जातः। विस्मृतयोहिं सूत्रार्थयोः संघटने भवत्यवश्यवाचनाभेदो न काचिदनुपपत्तिः। -ज्योतिष्करण्डक टीका ६६. जैन दर्शन का आदिकाल, पृ.७