Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
View full book text
________________
हिंसा में धरम केऊ मूढ जन मानतु हैं, धरम की रीति-विधि मूल नहीं बैठे हैं। केऊ राति पूजा करि प्राणिनि को नाश करें, अतुल असंख्य पाप दया बिनु लेवे हैं। केक मूढ लागि मूढ अबै ही न जिनबिंब, सेवे बार-बार लागे पक्ष करि केवे हैं।।
(उपदेशसिद्धान्तरत्न, पद्य ३५) इन आध्यात्मिक कवियों की यह भी एक विशेषता है कि जहाँ क्रियाकाण्ड की सटीक समालोचना की है, वहीं मिथ्यात्व. अन्याय, अभक्ष्य के त्याग, राजविरालोकविरुादिद्ध काई तथा अन्याय छोड़ कर जिनधर्म में प्रवृत्ति करने का उपदेश दिया है। देव-दर्शन तथा जिन-पूजन के सम्बन्ध में जैनियों की यथार्थ प्रवृत्ति तथा लोभ-वृत्ति का परिचय देता हुआ कवि कहता है कि स्वयं तो सुवासित भात खाते हैं और मन्दिर में बाज़रा चढ़ाते हैं। पाप में करोड़ों खर्च करते हैं, पर धर्म में कौड़ी भी खर्च नहीं करते। जैसेकि
घरम के हेत नैंक खरच जो वणि आवे. सकुचे विशेष, धन खोय याही राह सों। जाय जिन-मन्दिर में बाजरो चढावे मूढ, आप घर माहि जीमे चावल सराह सों।। देखो विपरीत याही समैं माहिं ऐसी रीति,
चोर ही को साह कहे कहें चोर साह सों।।३६।। तथा- क्रोडा खरचे पाप को, कौडी धरम न लाय,
सो पापी पग नरक को, आगे-आगे जाय। मान बड़ाई कारणे, खरचे लाख हजार, धरम अरथि कोड़ी गये, रोवत करें पुकार || उपदेश०, ४०-४५
जिनदेव के समान जिनमूर्ति को न मानकर पंचामृताभिषेक करना, मूर्ति पर लेप चढ़ाना, पुष्प-फल चढ़ाने आदि का निषेध किया गया है तथा उनको वीतराग आम्नाय के विरुद्ध कहा गया है।
रात्रि में पूजन करने तथा दीपक से आरती उतारने का तो लगभग सभी श्रावकाचारों में निषेध किया गया है। पण्डित आशाधरजी
११