Book Title: Adhyatma Panch Sangrah
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal, Devendramuni Shastri
Publisher: Antargat Shree Vitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust
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विषै प्रवर्तते भये नहीं है सत्य सूत्र का ज्ञान जिनको अरु नाहीं है संस्कृत का ज्ञान जिनको, ताकरि महंत शास्त्र का ज्ञान तिन तैं अगोचर भया । ताकरि मूढता को प्राप्त भये, हीन शक्ति भये । सत्य वक्ता, साँचा जिनोक्त सूत्र का अर्थ ग्रहण कहा कोई रहा नाही सत्य जिनमत का तो अभाव भया । तब धर्म तैं परान्मुख भये । तब कोई-कोई गृहस्थ सुबुद्धि संस्कृत - प्राकृत का वेत्ता भया । ताकरि तिन सूत्रन को अवगाहा !" ( भावदीपिका, अन्त्य ) यद्यपि पण्डित - परम्परा लगभग सातवीं शताब्दी से सतत प्रवहमान है, फिर भी इसमें जो प्रखरता तथा कर्मकाण्ड के विद्रोही स्वर दसवीं शताब्दी में मुनि रामसिंह के "पाहुडदोहा में लक्षित होते हैं. वास्तव में उसी पद्धति का अनुवर्तन परवर्ती पं. बनारसीदास तथा पण्डितप्रवर टोडरमल जी से ले कर कवि बुधजन, पं. जयचन्द छावड़ा तथा पं. सदासुखदास कासलीवाल (उन्नीसवीं शताब्दी) ने किया । श्रुतधर आचार्य कुन्दकुन्ददेव से लेकर आज तक जिन आचार्यो. मुनियों तथा पण्डितों ने अध्यात्म के विषय में लिखा है, उन्होंने अपनी किसी-न-किसी रचना में यह बात अवश्य लिखी है कि स्वभाव का भान हुए बिना पूजा, दान, शील, तप, संयम जप आदि आत्मज्ञान न होने से वृथा हैं। स्वयं पं. दीपचन्दजी के शब्दों मेंतीरथ करत बहु भेष को बणाये कहा, वरत-विधान कला क्रियाकांड ठानिये ।
तथा
चिदानंद देव जाको अनुभौ न होय जोलों,
तोलों सब करवो अकरवो ही मानिये। 19311(उपदेश सिद्धान्तरल) आप अवलोके बिना कछु नाहीं सिद्धि होत कोटिक कलेशनि की करो बहु करणी। क्रिया पर किए परभावनि की प्रापति है,
मोक्षपंथ सधे नाहीं बंध ही की धरणी ।। ( शानदर्पण, १४ ) यथार्थ में विवेक के बिना क्रिया कैसी होती है? इसका वास्तविक
चित्रण कवि ने प्रस्तुत सवैया में किया है।
यथा- केऊ तो कुदेव मानें देव को न भेद जाने,
केऊ शठ कुगुरु को गुरु मानि सेवे हैं।
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