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आचार्य श्री भ्रातृचन्द्रसूरि ग्रन्थमाला (१४).
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श्री सज्झाय संग्रह
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प्रसिद्ध कताश्री जैन हरिसिंग सरस्वति सत्ता.
सामळानी पोळ-अमदावाद.
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आचार्य श्री भ्रातृचंद्रसूरि ग्रन्थमाळा ( १४ )
परमोपकारी प्रातःस्मरणीय श्री भ्रातृचन्द्रसूरि सद्गुरुभ्यो नमोनमः ॥
श्री सज्झाय संग्रह
नाग १ लो.
संशोधक मुनिमहाराज श्री सागरजी
मुनिमहाराज श्री पुनमचंद्रजीना सदुपदेशथी
छपावी प्रसिद्ध कर्ता
श्री जैन हठीसींग सरस्वती सभा तरफथी शा. गोकळदास मंगळदास शामळानीपोळ - अमदावाद,
प्रत ५००.
वि. सं. १९७८.
आवृत्ति १ ली. सूचना- आ चोपडी रखडती मूकी आशातना करवी नहि. कींमत रु. ०-८-००
अमदावाद-धी युनियन प्रिन्टींग प्रेस कंपनी लीमीटेडमां शा. मोहनलाल चीमनलाले छाप्युं.
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पृष्ट लींटी
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शुद्धिपत्र. अशुद्धि. शुद्धि. चित्रसंभूतयी चित्रसंभूतीय
पापं
लहेस
काजतणा
फरणेदक
आथता
एकारे
पुरीक
मंदार
थया
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पाप
लहेसे
मानतो
फरहोदक
प्रथमता
बाम
जात्यंध
मंग
एकोरे
पुंगरीक
जंकार
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परस्त्री
परखी
सुभद्रासत्तीनी सुनप्रासतीनी
गम
जात्यंध
मंगल
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श्रीमन्नागपुरीयवृतपागजाधिराजश्रीवासचन्द्रसरिसल्यानमः।
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अर्पण पत्रिका.
महम परम पूज्य प्रातः स्मरणीय आ चार्य महाराज श्री श्री श्री १०णा श्री जाचन्द्र सूरीश्वरजी साहब.
आप या सजाने स्थापवामां अने नेने अत्युत्साह ने प्रेमी उन्नतिमा ला बवाने माटे तथा जीर्णशास्त्रोकारना प्रेमी होवाथी ज्ञानना प्रज्युदयने सार जे अ याग परिश्रम कर्यो ने तथा एवा ज्ञानडिना घणा उत्तम कार्यों की वाजव्य जनोने आपना ज्ञान तथा चारित्रवमे प्रतिवोधी, संसार समुद्रमाथी बहरी, नवयशने स्थापाने आपश्रीजी स्वर्गवासी यावत पण यापना उक्त गुणोथी आकर्षायिने आपश्रीजीना अमर आत्माने या लघु पुस्तक समर्पण करें बुं.
ली० श्री जैन हवीसिंग सरस्वती सजा तरफथी प्रकाशक.
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आजाराने विनंती.
आ पुस्तक प्रगट करवामां मुनिमहाराज श्री पुनमचंद्रजीना उपदेशथी नीचेना गृहस्थोए जे आर्थिक मदद आपी छे ते उपकार साथै स्वीकारवामां आवे छे:
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१२०) अमदावादवाळा शा. सांकळचंद खेमचंद लवाडीआ तरफथी ५०) अमदावादवाळा शा. मणीलाल मंगळदास तरफथी. २५) अमदावादवाळा सत्यवादी खचंद छगनलाल तरफथी. २५) अमदावादवाळा केशवलाल वीरचंद चालीसहझारवाळा तरफर्थ ४१) अमदावादवाळा शा. मोहोकमभाइ ललुभाइ फुदी तरफथी. २५) अमदावादवाळा शा. काळादास जमनादास तरफथी.
आ पुस्तक लखावत्रा संबंधीनो खर्च विकानेवासी श्रावक बादरमलजी जसकरणजी रामपुरीयाये आपेल छे.
उपर्युक्त गृहस्थी जेम ज्ञानवृद्धि माटे उत्साहित थएला छे तेम अन्य बंधुओ पण तेमनुं अनुकरण करशे के जेथी घणा मनुष्यो ज्ञाननो लाभ मेळवे एवी विज्ञप्ति छे...
आ पुस्तक छपाववामां जे कोइ छापा दोपथी भूल रही गएली होय ते सुधारी वांचवा सज्जन पुरुषोने विनंता करवामां आवे छे.
ली० प्रसिद्ध कर्त्ता
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अनुक्रमणिका.
गाथा पृष्ट. श्री उत्तराध्ययन सूत्रनी सज्झायो.. ४०२१ थी ७० १ श्री विनयनी सज्झाय..... ... १४ २ श्री बावोस परीसहनी सज्झाय. ... ३ श्री चतुरंग सज्झाय. . ४ श्री असंखया सज्झाय. . ५ श्री अकाम सकाम मरणीय संज्झाय. ६ श्री निग्रंथीय सज्झाय. ७ श्री एलकाध्ययन सज्झाय. .... ८ श्री कपिल सज्झाय. ९ श्री नमिप्रव्रज्या सज्झाय. . १० श्री द्रुमपत्र सज्झाय..... ... ११ श्री बहुश्रुत पूजा सज्झाय. ... १२ श्रीहरिकेशी सज्झाय. १३ श्री चित्र संभूति सज्झाय. २४ श्री इखुकारी. सज्झाय. १५ श्रीअनिगुण सज्झाय. २६ श्री नववाडनी सज्झाय. ... १७ श्री पापश्रमणीय सझाय.
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१८ श्री संयतीयाध्ययन सज्झाय. ... १९ श्री मृगापुत्र सज्झाय. २० श्री महानिग्रंथीय सज्झाय. २१ श्री समुद्र पालीय सज्झाय. २२ श्री रहनेमी सज्झाय. २३ श्री केशी गौतम सज्झाय. २४ श्री प्रवचन माता सज्झाय. २५ श्री याज्ञोय सज्झाय.... २६ श्री साधु समाचारी सज्झाय. ... २७ श्री खलुकीय सज्झाय. ... २८ श्री मोक्ष मार्गीय सज्झाय. . ... २० श्री सम्यक्त्व पराक्रमाध्ययन सज्झाय. ... .. ३० श्री तपो मागीय सज्झाय. ३१ श्री चरण विधि सज्झाय. ३२ श्री प्रमाद स्थानक सज्झाय.. ... १३ श्री आठकर्मनी सज्झाय. ३४ श्री लेश्याध्ययन सज्झाय. ... ३५ श्री अणगार सज्झाय. ... ३६ श्री जीवाजीव विभत्ती सज्झाय... ...
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गाथा. पृष्ट. श्री ज्ञाता सूत्रनी सज्झायो. २५७ ७०थी१२१ १ श्री मेघकुमार सज्झाय.
... २७ . ७० २ श्री संघाडग न्याय सज्झाय. ... ३ श्री इंडग न्याय सज्झाय. ४ श्री काच्छप न्याय सज्झाय. ... ५ श्री थावच्चा पुत्र न्याय सज्झाय. ६ श्री तुंबक न्याय सज्झाय.. ... ७ श्री रोहिणी न्याय सज्झाय ... ८ श्री मल्लीन्याय सज्झाय. ९ श्री जिनरक्षित जिनपाल न्याय सज्झाय... १० श्री चंद्रमा न्याय सज्झाय. ... ११ श्री दावदवा वृक्ष न्याय सज्झाय. १२ श्री फरहोदक न्याय सज्झाय. ... १३ श्री नंदमणीयार सज्झाय. ... १४ श्री तेतली पुत्र न्याय सज्झाय... १५ श्री नंदीफल न्याय सज्झाय. ... १६ श्री द्रुपदी न्याय सज्झाय. ...
१०९ १७ श्री घोटक न्याय सज्झाय. ... १८ श्री सुसमान्याय सज्झाय. ... ... .. २० १९ श्री कंडरीक पुंडरीक सज्झाय..... ... २५
2. 22 23 24 2022
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गाथा. पृष्ट. अठार पापस्थान परिहारनी सल्झायो. २४१ १२१थी१५६
१ जोवहिंसा परिहार सज्झाय. .. ... ९ १२१ - २ असत्य परिहार सज्झाय.
१२३ ३ अदत्त परिहार सज्झाय. ... ९ १२५ ४ मैथुन परिहार सज्झाय. ... १५ १२६ ५ परिग्रह परिहार सज्झाय ६ क्रोध परिहार सज्झाय.
१५ ७ मान परिहार सज्झाय. - ८ माया परिहार सज्झाय.
१३५ ... . ९ लोभ परिहार सज्झाय.
१० राग परिहार सज्झाय.
११ द्वेष परिहार सज्झाय .... . १२ कसह परिहार सज्झाय.
... ११ १४४ १३ अभ्याख्याम परिहार सज्झाय....
१४५ ...१४ पैशुन्य परिहार सज्झाय.
१५ असतिरति-परिहार सज्झाय. ... १३ १४८ .१६ परपरिवाद परिहार सज्झाय. ... १७ मामिषा परिहार सज्झाय. ... १८ मिथ्यात्व शल्य परिहार सज्झाय.
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गाथा. पृष्टः ५९ १५६थी१६६ ... ६ १५६
१५७ ५ १५८ .... ५ १५९
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. १ श्री इंद्रभूति गणधर सज्झाय. ... २ श्री अग्निभूति गणधर सज्झाय. ३ श्री वायुभूति गणधर सज्झाय.... ४ श्री व्यक्त गणधर सज्झाय. ... ५ श्री सुधर्मा गणधर सज्झाय. ... ६ श्री मंडित पुत्र गणधर सज्झाय. ७ श्री मौर्य पुत्र गणधर सज्झाय.... ८ श्री अकंपित गणधर सज्झाय... ९ श्री अचलभ्राता गणधर सज्झाय. १० श्री मेतार्य गणधर सज्झाय. ... ११ श्री प्रभास गणधर सज्झाय. ... श्री सोल सतीओनी सज्झायो.
१ श्री सुभद्रा सतीनी सज्झाय. ... . २ श्री मयणरेहा सतीनी सज्झाय... __ ३ श्री मृगावतो सतोनी सज्झाय.... . ४ श्री अंजना सुंदरी सतीनो सज्झाय,
५ श्री नर्मदा सुंदरी सतीनो सज्झाय. ६ श्री रतिसुंदरी सतोनो सज्झाय. ७ श्री रुषिदत्ता सतीनी सज्झाय....
... ६ १६५ १७४ १६६थी२०१
१६६
११.
१७० २७२ १७३ १७६ १७७
... ११
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गाथा. पृष्ट
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6 श्री दमयंती सतीनी सज्झाय. .... ९ श्री कमला सतीनी सज्झाय. ... १० श्री कलावती सतीनी सज्झाय ... ११ श्री शीलवती सतीनी सज्झाय.... १२ श्री नंदयंती सतीनो सज्झाय. ... १३ श्री रोहिणी सतीनी सज्झाय.... १४ श्री द्रौपदी सतीनी सज्झाय. ... १५ श्री सीता सतीनी सज्झाय. ... १६ श्री धनश्री सतीनी सज्झाय. ...
श्री सोले सतीनी सज्झाय. ... श्री जिन प्रतिमा स्थापन सज्झाय. श्री थूलिभद्र मुनिवर सज्झाय.... श्री केशिप्रदेशि प्रबंध सज्झाय.... श्री सुप्रभाति मंगळ सज्झाय. ... श्री आगम सद्दहणा छत्रीसी सज्झाय. श्री ब्रह्मचरी सज्झाय. ... श्री यावच्चा कुमर सज्झाय. ... श्री यावच्चा रुषिराज सज्झाय.... श्री किरिया स्थानक सज्शाय....
५ २०० ३९ . २०१
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२०९
२२४
- २२६
२३१ २३४
२३७ ४१ २३९
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॥ श्रीपार्श्वचन्द्रसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमोनमः
सज्झाय संग्रह.
शास्त्रविशारद महर्षिश्रीब्रह्मकृतः -
श्री उत्तराध्ययन सूत्रनी सज्झायो.
श्री विनयनी सज्जाय १.
श्री गुरु गौतम गुण हियमे धरी । कहिशुं विनय विचार || स्वामी सोहम गणधर दाखवे । उत्तराध्ययन मकार ॥ १ ॥ विनय करीजे रे जवियण नावसुं । जेहथी लहीए नाए । अनुक्रमे समकित चारित्र गुणग्रही । पामी जे निर्वाण ॥ विन० ॥ २ ॥ गुरुने पासे रे रहिये सर्वदा । वहिए गुरुनी सीख ॥ काज करी जे रेवंबित गुरु तं । तो हुवे सफली दीख ॥ विन० ॥ ३ ॥ कुहिए काने रे जेवी कूतरी । काढे घरथी रे लोय ॥ तिम विनितने काढे ग थकी । जस सोजाग न होय ॥ विन० ॥ ४ ॥ सूर टंकी रे कुंकु
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
कणतणुं । राचे विष्टापूर ॥ अविनय राचे रे तिम अविनीतजे । परिहरे संयम पूर ॥ विनम् ॥ ५॥ ए संजारी रे अविनय नावना । विनय करे गुण जाण ॥ तेहने श्रीगुरु सूत्र अरथ कहे। ए जिनवरनी वाण ॥ विनम् ॥ ६॥ मूल विनय डे रे जिनधर्म तरुतj । ज्ञानादिक तसु माल ॥ कीरति कुसुम अमर सुख मुगतिना । फल पामे सुविशाल ॥ विनम् ॥७॥ परिमल रुमी रे सहजे मालती। शीतल सुगंध कपूर ॥ तिम सुविनीत रे सहजे सुंदरु । पामे गुण अंकूर ॥ विनम् ॥ ७॥ सफला तरुवर फल नारे नमे । मेह नमे जलजार ॥ सालिजरी जिम दीसे ढलकती। सुपुरुष विनय विचार ॥ विन ॥ ए॥ जुवो नरनारीरे जगमां देवता । गज वृषन अने तुरंग ॥ पगपग मुःख सहे अविनीत जे । विनये सुख लहे चंग ॥ विनम् ॥१०॥जेय प्रकाशेरे अवगुण गुरुतणा। बिज निहाले आप ॥ शीख देयंता रे रीस जिको करे । तेहने बहुला पाप ॥ विनम् ॥ ११ ॥ गुण वखाणे रे
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो.
गुरु साह मिता । ढांके अवगुण जाण ॥ शीख देयंतारे प्रीत जिको करे । ते गुण पामे प्राण ॥ विन० ॥ १२ ॥ गौतम सुनखत साधु तणी परे । पामे जग जसवाद ॥ परजव सुर सुख ने मुगती लहे । जिहां नही दुःख विवाद || विन० ॥ १३ ॥ विनय तथा फल जाणी
मां । ते करज्यो गुणवंत ॥ तसु पय लागेरे ब्रह्मो वलि वलि । मागे सुख अनंत ॥ विन० ॥ १४ ॥ इति विनयाध्ययन गीतम् ॥ १ ॥
श्री बावीस परीसहनी सज्जाय २. (मूल अनादि ज्ञानगुण० ए स्तवननी - देशीमां )
स्वामि सुधर्मा अध्ययन बीजे । जंबू प्रते इम बोलेजी ॥ संयम मारग जाणी सूधो । परीसहथी नवि कोलेजी ॥ १ ॥ साधु इसा वंदो मनरंगे । अंगे उलट आपीजी ॥ जवसायरने पार उतारें । जिनधर्म प्रवहण प्राणीजी ॥ साधु० ॥ २ ॥ हस्तिनूति जिम दुधा परीसह । वमि पमी अहियासेजी ॥ धन धर्मनी परे तृषा सहेजे । ते मुनि शिवपुर वासेजी
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ॥ साधु ॥३॥ नाबाहुना सीस चिहुं जिम । सीत परीसह सहवोजी॥ ताप सहे अरहन्नगनी परे। संजम निश्चल रहेवोजी ॥ साधु० ॥ ४ ॥ मांस मसा सहे जितशत्रुनी परे । चित्त विचार न मोलेजी ॥ तेह साधु सरिखा कुण जगमांहि । अवर कहीजे तोलेजी॥ साधुण ॥५॥ सहे अचेल सोमदेव अरति । पुर्खन बोधि जिम टालीजेजी ॥ थूलिना जिम नारि परीसह । सही शील शुद्ध पालेजी ॥ साधु ॥६॥ चरीया सहे साधु संगम जिम । निसिहिया कुरुदत्त परेजी ॥ शल्या सोमदत्त अहियासे । पुहतो उत्तम शिवपुरेजी ॥ साधु० ॥ ॥ सहे आक्रोस अर्जुनमाली जिम । वध खंधक ऋषि गुणियणजी ॥ बलज जिम याचना परीसह । सहे अलान ऋषि ढंढणजी ॥साधु ॥७॥ कालवेस जिम मुनि रोगे न मोले। न तणा मुख संगेजी ॥ मल सुनंद जीवे जे मन सह्यो । तिम न करे मुनि रंगेजी साधु ॥ ए ॥ श्रावक जिम न करे सतकारे । मनमाहि बहु रीसजी ॥ प्रज्ञा कालिकसूरि सहे जिम
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. । एक चित्ते सजगीशजी ॥ साधु ॥ १० ॥ साधु मास तुसनी परे सहवो । अन्नाण परीसह नारीजी ॥समकित तणो परीसह सहिये । मुनि आषाढ संनारीजी ॥ साधु ॥ ११ ॥ श्म जे मुनि परीसह अहियासे । चारित्रथी नवि मोलेजी ॥ करजोमी तसु पाय नमीजे । श्रीब्रह्मो आणंदे बोलेजी ॥ साधु ॥ १२ ॥
इति बावीसपरीसहगीतम् ॥ २॥ श्री चतुरंग सज्जाय ३.
(राग धनाश्री) अंग डे चार जग दोहिला रे जीव । नरजव श्रवण विचार ॥ सदहणा तप संयम जोग ए । पामी आलि म हार रे ॥१॥प्राणी दोहिलो नरजव सार। लही पालीये धर्म आचार रे॥ प्राणी (आंकणी)॥ लाख चोराशी जीव योनि नमियो । चमत पमत अवतार ॥ विप्र मातंग करी कुंथु नरपति । कृपण सदन संचाररे॥प्राणी ॥॥ दस दृष्टांते दोहिलो जो श्म । मानवनो जव लाध ॥ सांजल, गुरू जोग जिन
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. धर्मतणुं । दोहि ते अगाधरे ॥ प्राणी ॥ ३॥ कर्म संयोगे जर ते पाम्यो किमें। सदहणा ते पुलंन ॥ वासित जेण मिथ्यामति जीवमो। काल अनादि मन दंजरे ॥ प्राणी ॥४॥ सांजली जिनमत साल निन्हव थया । सदहणा थकी नष्ट ॥ नाम जमाली प्रमुख ते जाणज्यो । सहस्य अति घणा कष्ट रे ॥प्राणी ॥५॥ मास तप पारणुं मान अणी करे । पूजे देव त्रिकाल ॥ चारित्र पाले अन्नव्यतणी परे । आण विण जमे चिरकालरे ॥ प्राणी ॥६॥ पामीय सदहणा साच जे जिन कर्वा । दोहिलो चारित्र पंथ ॥ खम्गधार जिम व्रत तप आचरे । धन्य ते जालो निग्रंथरे॥प्राणी ॥७॥श्रेणिक प्रमुख बहु जीव संयम विना । आज लगे सहे पुःख ॥ चारित्र आदरी काल आगामी । पामशे मुगतिना सुख रे॥ प्राणी॥७॥ अंग ए चार जग दोहिलांपामी धर्म करो मन रंग॥ ब्रह्म कहे उपदेश ए सांजली । म करो आलस अंग रे॥प्राणी ॥ ए॥इति.
इति चतुरंगी गीतम् ॥ ३॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
श्री प्रसंखया सज्जाय ४. जीव दया पालो खरी | बोलो निरती वाच ॥ शोल धरो दृढ मन सदा || संतोषेरे मन जावो साच ॥१॥ धर्मवंत नर सांजलो । नवि त्रुरे संधास्ये आय ॥ बलवंत देवें दावें । तिल कारणरे करो धर्म उपाय (एक) ॥ पाप करी धन मेलवे । साथे न यावे तेय ॥ परजव जाए जीवको । दुख नरकें रे एकलो सहय ॥ धर्म० ॥ २ ॥ मात पिता बंधव सहू । पुत्र कलत्र परिवार ॥ दुःख सहंतां परजवें । नवि दीसेरे कोइ राखणहार, धर्म० ॥ ३ ॥ धन कुटुंब ममता परुयो । धर्म न करे लगार ॥ इम करतां जम संग्रहे । तव कायारे दही कीजे बार, धर्म० ॥ ४ ॥ मोहनींद्र जर जीवमा । सूता अनंत || पंक्ति र हिज्यो जागता । जिम पामोरे तुम सुरक अनंत, धर्म० ॥ ५ ॥ पापी नर द्रव्य नींद्रमी । सूता जला हवे ॥ धर्मवंत जला जागता । जयंती रे प्रति वीर कहे ॥ धर्म० ॥ ६ ॥ सास विसास न आणीये । जे विण मोकलाव्यो जाय ॥ सावधान
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श्री उत्तराध्ययनस्वनी सज्झायो. रहिये सदा । अणचीत्योरे जम न करे घाय, धर्म॥७॥ कीजे गुरु सेवा खरी । धरिये धर्मअन्यास ॥ आपण' श्म राखिये। जिम त्रूटेरे जीव मोहनो पास, धर्म ॥॥ मित्रपणुं जगसुं करो। परिहरि मननी रोस । ब्रह्म कहे अहनिश जपो । मन मांहेरे एक श्रीजगदीश, धर्म ॥ ए॥
इति असंखयागीतम् ॥ ४॥ श्री अकाम सकाम मरणीय समाय .
(बलिहारी तोरी कुखलडी-ए देशीमां)
जवजल निधिपारे पुहता श्रीजिनराय । तिण जाख्यो ए जव तरवा तणो उपाय ॥ जे जीव करे बहु पाप अने आरंन । चोरी परदारागमन करे बहु दंन ॥१॥जीव संजली जिणवर वाणी तणो विचार। जग अकाम सकाम बे मरण प्रकार ॥ जस विरति अने समकित नहीं तास अकाम । समकितव्रतधारक श्रावक साधु सकाम (ए आंकणी)॥ बहु पाप करे मणी खीर खांम घृत मीठो । नहीं पुन्य पाप
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रनी सज्झायो.
फल परजव किणें न दीगे ॥ सुख लाधा बे में काम जोगना सार। ढंकी किम करस्युं सुकृत तणो याचार ॥ जोव० ॥ २ ॥ मऊ पापी जननो साथ घणो ने जोइ । इम जाणी मन माहे जीव दो बहु सोइ || बहु पाप आचरतां होय सरीरे रोग । तव धरतध्याने जीव पमयो करे सोग ॥ जीव० ॥ ३ ॥ गुरु मुख दुख नरके मे संजया अनेक | किम ते हिव सहस्युं इम उपजे विवेक ॥ तव धर्म न कराइ इंड्रीनग न ते थाय । इम
ध्याने मरिय ते पुरगति जाय ॥ जीव० ॥ ५ ॥ तिहांथी दुख पामे जमे अनंत काल । ए मरण अकाम प्रकार को संजाल || हिव पंडित श्रावक साधु सदा व्रत पाले । जिनवाणी पाणी पापपंक पखाले ॥ जीव० ॥ ५ ॥ जीव जयणा पाले सत्य वचन मुख जाषे । निज सूल ने उत्तर गुण निरता राखे ॥ सनी तुलना करे केटलादीस । टाले सवि मनना मोह लोजने रीस ॥ जीव० ॥ ६ ॥ गुरु साखे - सदर साधे काज । सुर सुख लहे अथवा
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१० श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. मुगति नगरनुं राज ॥ ते गणो आराधक श्रीब्रह्म तसु पय लागे । करजोमी नवोनव बोधिलाल सुख मागे ॥ जीव० ॥७॥
इति काम सकाम मरणीय गीतम् ॥ ५॥
श्री निग्रंथीय सज्जाय ६. (एकदिन २ दोय मुनि देखीया-ए देशीमां)
जिणवर २ नाषित संचलोए । धरमह २ दोय प्रकारके ॥ ज्ञान क्रिया गुण अोलखोरे । जिमलहो २ शिव सुख सारके । जिणवर नाषित संनलोए-संजलो नवियण जेय अज्ञानी.क्रिया कष्ट घणूं करे। नवपार तेय न किमें पहुंचे पुरक सहतो बहु फिरे॥ जिम बधिर आगल गीत नाटक अंधपास न सोहए। जिम तुसह खंगण आण विणु धर्म पापमंल नवि धोवए ॥१॥श्मगणि २ समकित ओलखोए । थायो समता जाव के प्रीति धरो धर्मसु सदाए। जवजल र तरवा नावके । श्म गणि सम कित अोलखोए-ओलखो एह असार सगपण मात बंधव नारीना।
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ११ को मुख न वहेचे सुख न संचे गणो एकत नावना ॥ जे कहे एकल झान शिवपुर ते अजाण गिणो सही। संयोग ज्ञान क्रिया बिझ्ने सिद्धि श्री जिणवर कही ॥२॥ जिमरथ २ चक्र बिहुं फिरेए । उमए ५ पंखि बे पंखके ॥ अंध पंगु बे वन रहेए। नगरें र थर जाए एकके । जिम रथ चक्र बिहं फिरेए-फिरे रथ जिम बिहं चक्रे तिम क्रिया ज्ञानें मिली। कर्म आठ दय करि सिछि सयंवर जाते थइ केवली ॥ एहवा मणिवर जेय जग माहे तासु पाए लागीए । कहे ब्रह्म सेवा साधुनी करि ज्ञान चारित्र मागीए ॥३॥
___ इति निग्रंथीय गीतम् ॥ ६॥ श्री एलकाध्ययन सज्जाय ।
( आरत रौद्र निवारिअ-ए देशीमां) जिम कोई नर पोसए । उरणजाति विसेसए । विहसए मन मातो देखी घYए । पाहुणमा जोए वाटमी । कुण आवे केही घमी। श्म चमी जोतां आ
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श्री उत्तराध्ययनसूचनी सज्झायो. व्यो पाहुणोए ॥१॥ उरण तेय विणासीय । मंस नखे उदासीय । हसिहसीस पाप करे श्म नर कोशए । पापे थाए मातो ए वारंन परिग्रहें रातो ए।रातो ए नरकतणी गति ते होए ॥॥ जीव हणे कूमलवे। परधन ले उलवे । मन होवे परस्त्री उपर प्रीतमीए। मद्य मंस बहु वावरे । पेट अन्याय धनें जरे । मन
रे पापतणी सुणि वातमीए ॥३॥ पाप संच करि बापमो । नरकें जाए जीवमो । एकलमो धन सजन सहु परिहरीए । बेदन नेदन बहु सहे । काल घणो नरकें रहे । एम कहे अजा दिलुत मनें धरीए ॥४॥ काणी कोमी कारणे । कोइ नर लोले घणे ॥ जिम हणे लान सहस रतनह तणोए । आंबाजोजन काज ए। सूरख हारे राज ए । काज ए को न सीधो तसु गिणो ए॥५॥ श्म सुर सुख मानवतणे । अंतर जोवो रसिघणे । गुरु नणे वणिक उदाहरणे सुंए। वाणियमा त्रण चालेए । मूल सरिखं घालेए । माल्हे ए व्यापारे करि लाजसुंए ॥६॥ एक मूल तिहां हारवे।
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रमी सज्झायो.
१३.
बीजो मायो थर । थिर हवे त्रीजो लाज बहु लही ए । ए उपम व्यापारे ए । नरजव मायो धारे ए । सारे देवजवें लाहो लहीए ||७|| नरजवथी नरजव हे । सानुं मूल ते संग्रहे । दुख सहे नरकतणा मूल नीगम्यो ए । समुद्र मान जल उपमा । कहो किसीपर हुवे समा । एम काम मणुय देव अंतर गम्यो ए ॥ ८ ॥ इम विचार मन संजलि | धर्म करो मननी रक्षि | केवली इणि पर जवियण सीखवे ए । तजि बालपणुं श्रीब्रह्म कहे | पंमित जावे निर वहे । ते लहे शिवसुख सुरगण संथवे ए ॥ ९ ॥
इति एलकाध्ययनगीतम् ॥ ७ ॥ श्री कपिल सज्जाय .
( मुनीश्वर जय जय गुण भंडार - ए देशीमां. ) चंपानयरी सुहामणीजी । ब्राह्मण काश्यप नाम ॥ कपिल पुत्र तसु जाणियेजी। विद्या जणे सुगम ॥ १ ॥ सुगुण नर साधु नमो त्रण काल । हियमे हरष धरी सदाजी || जिम बूटे नवजाल | सुगुण० (ए आंकणी ) ॥ २ ॥ दाशी सूं खुबधो ययोजी । जाइ सोवन काज ॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. अहिप तलार चलावियोजी । दीगे दृष्टं राज ॥ सुगुण ॥३॥ पूबी वात लही खरीजी। मांग कहे एम राय ॥ कपिल विचार करंतमांजी। लोन न पूरो थाय ॥ सुगुण ॥४॥ बिहु मासाने कारणेजी। आव्यो मनह विमास ॥ हिव पूरो को नहीजी । जीव पमयो मोह पास ॥ सुगुण ॥५॥ श्म जाणी चारित लियेजी । पाम्यो केवलनाण ॥ नील पांचसे बूजव्याजी। केवल लहे शुलध्यान ॥ सुगुण ॥६॥ ये उपदेश सुहामणोजी । बंमो मोह विकार ॥ जिनआज्ञा पालो खरीजी । जाण। अथिर संसार ॥ सुगुण ॥७॥जीव जतन त्रिविधे करोजी । बंमो संगति नार ॥ ज्योतिष निमित्त न जाषियेजी। जाणी जिनधर्म सार ॥ सुगुण ॥ ॥ दोष बेतालीस टालियेजी । लीजे शुद्ध आहार ॥ समता सहुसुं आणियेजी। जिम लहिये नवपार ॥ सुगुण ॥ ए॥ कपिल कहे धर्म एहवोजी । जे पाले नरनार ॥ करजोमी ब्रह्मो कहेजी। ते न रहे संसार ॥ सुगुण ॥१०॥
इति कपिल सज्झायम् ॥ ८॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. १५
श्री नमि प्रव्रज्या सज्जाब ए. (सूयडा संदेशो माहरो जादवनें कहे-ए देशीमां)
मिथिला नगरी जाणिये जुगल बाहु नर रायो रे॥ मयणरेहा सुत नमि पुहवीपति । नमिये तेदना पायोरे ॥१॥ सुरपति एक चित जासप्रसंसा कीधीरे । समता नावें उत्तर दे॥ जेणे दीदा सीधीरे (ए
आंकणी)॥नारि कर एक कंकणनीपरे । देखि वैराग संजारीरे ॥ जातीसमरण चारित्र लेवा । पहुता वनद मकारीरे ॥ सुर ॥२॥ ब्राह्मणरुपें इंछ पधार्या । वात विचारीरे ॥ मिथिला नगरी कां कोलाहल । कारण हेते प्रेरीरे ॥ सुरपति ॥३॥ वृद अडे एक फले फलियो । वाय विशेषे मोलेरे ॥ स्वारथहिणा पंखीया सवि । करपर करता बोलेरे ॥ सुरपति ॥४॥ स्वारथियो सहू को अ । पूत्र कलत्र परिवाररे ॥ कर्मवशे सवि एकत्र मिलिया। वीउमतां नही वाररे ॥सुरपति ॥५॥श्म पूर्वतो बहुपरें । वासव मुनि समकायोरे ॥ त्रण प्रदक्षिणा देश वंदे । परमाणंद चित्त
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
जायोरे ॥ सुरपति ॥६॥ मान तजी संयम लिये। अजरामर पद पावेरे ॥ म जाणी जे विषय निवारे। ब्रह्मो तसु गुण गावेरे ॥ सुरपति ॥७॥
इति नमि प्रव्रज्या सज्झायम् ॥ ९॥
श्री द्रम पत्र सज्जाय १०. जिम तरु पाकुं पानमुंजी। पमतां न लागे वार॥ जीवित तिम माणसतणुंजी। जाणो हृदय मजार॥१॥ ससनेहा गोयम समय म करीस प्रमाद । समतासुं मन रीजबुजी । ए जिननो विधिवाद ॥ ससनेहा (ए आंकणी)॥ माज अणी जल कण जिस्योजी। चंचल चतुर विचार ॥ आयु अथिर श्म नरतणोजी । जिम वली अंजली वार ॥ ससनेहाण ॥॥आयु उपस्व अति घणाजी । नरजव पुर्खन जाण ॥कायथिति नथिति रह्योजी । करमतणे परिमाण ॥ ससनेहा ॥३॥ आरज देशे दोहिबुंजी । उत्तम कुल अवतार ॥ तानलQ जिनधर्मतपुंजी । सदहणा आचार॥ ससनेहा ॥४॥ सहज प्रमादी जीवमोजी । काम सुखे अति लीण ॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. १७ सयल जोग निरवल हुवेजी।खी थाये कीण॥ ससनेहाण ॥५॥ कामनोग बे परिहरोजी।म करो तसु अनिलाष॥ पालुंकीम लीजे वम्युंजी। ए पंमित जन जाष॥ससनेहा ॥६॥ नेह तजो अम उपरेजी। कमल तजे जिम नीस॥ श्म करतां केवल हुस्येजी। लहिसो नवजल तीर ॥ससनेहा ॥ ७ ॥ जीव एक एहवा हुस्येजी। सहहस्ये जिनधर्म ॥ विरहे केवलझाननेजी । ल हिस्ये ते जिनमत मर्म ॥ ससनेहा० ॥ ॥ तो हिवणा हूं केवलीजी । मनना हरूं संदेह ॥तुं कां मममोले पमयोजी। निरमल मारग एह ॥ससनेहा ॥ए। जव अनादि स्तर ताजी । कर्म खप्या अति नूर ॥ समुख तरी कुण गोपयेजी।बूमे उंछे पूर ॥ससनेहा ॥ ॥ १० ॥ राग द्वेष बे परिहरीजी । सांजली ए उपदेश ॥ गौतम मुक्ति पधारियाजी। ब्रह्म नमे सुविशेष ॥ ससनेहा० ॥ ११ ॥
इति द्रुमपत्र सज्झायम् ॥१०॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
श्री बहुश्रुत पूजा सज्जाय. ११
(दीठा सामीएं सवणडा. ए देशीमां ) मोहमद सहु परिहरी रे । लीधो संयमनार ॥ मान जे नर करे अति घणो।न लहे नलहे तेय विचारके ॥१॥ सुगुरु गीतारथ सेविये ए। कीजे कीजे ज्ञान अन्यासके ॥ज्ञानवंत पूजा लहे ए।अनुक्रमे अनुक्रमे मुगति वासके सु० (आंकणी)॥पांच गमे सीख न लहे। मान १ क्रोध २ प्रमाद ३॥ रोग ४ आलस ५णि परे रे।नलहे नलहे जग जसवादके॥सुगुरु०॥॥क्रोध १ न करे साच बोले । विरतिवंत ३ सुशील ४ ।लोलपण ५ मर्म ६ हास टाले दम । करि करि लहे सुख लीलके ॥ सुगुरुण ॥३॥ आप गमे पण पामी। सीख सुगुण रसाल ॥अविनीत ठगमें चौदह कहिये । तेसुणि तेसुणि अविनय टालके ॥सुगुरु० ॥४॥ क्रोध करि १ वलि ते उदीरे २ । करे मद लही शान ३॥ मित्रसुनविप्रीतिमंमेधातिहत अतिहठ करे अज्ञानके॥ सुगुरु० ॥ ५॥ निबंडे अवगुणें थोमे ६ । मि
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. १९ त्रसुं करे कोप ७॥ मित्रनी निंदा करे जे । तसुहुवे तसुहुवे धर्मह लोपके ॥ सुगुरु०॥६॥संविनाग न करे मुनिने ए। दीगे करे अप्रीति १० ॥ बुबध ११ थवध १५ न दमें इंशी १३। मोहए प्रोहए धरे १४ बहु चित्तके ॥ सुगुरुण ॥॥ दश पंचठाम विनीत केरा । बोलीये मनरंग॥नमी चाले १ तजे माया । नकरे नकरे कुतूहल संग ३ के ॥सुगुरु० ॥७॥ नवि निजंठे केहने रे ४। नही चपल लगार ५ ॥ मित्रसुं बहु प्रीति मंमे ६।न वदे न वदे दोष प्रकारके ७॥ सुगुरु० ॥॥ उदीरे नह क्रोध अतिघणो । झानि मे मान ए ॥ ममर १० कलह ११ निवारतो ए।पंमित पंमित १२ विनय विज्ञानके॥ सुगुरु० ॥ १० ॥ बिन न कहे मित्र गुरुनो १३। जेम हुवे अपवाद ॥ गुरु कनें रहे १४ लाज पाले १५॥श्म हुवे श्म हुवे सुविनीत नादके॥ सुगुरु० ॥११॥ मधुर बोले सूत्रनाजे । वहे सघला योग ॥ सुगुरुसुं मन प्रीति आणे।ते हुश्ते हुश्सीखे जोगके ॥ सुगुरुप ॥ १२ ॥ सोहे झानी णिपरें । जिम संख नरियो
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श्री उत्तराध्ययनमुत्रनी सज्झायो.
खीर ॥ जाति सुंदर तुरिय जेहो । चमियो च कियो सोहे वीरके ॥ सुगुरु ॥१३॥ धेनु माहें परिवयों रे । वृषज सोहे जेम ॥ कलन कुलसुं कश्विरुरे । मृगमाहे मृगमाहे मृगपति जेमके ॥ सुगुरु० ॥ १४ ॥ चंद चक्री जेम माधव, जिसि सीता गंग ॥ सयंजुरमण समुद्र सुरगिरि | जंबू जंबू रुख सुचंगके ॥ सुगुरु० ||१५|| धानना कोठारनी परे । जय सार विचार | इसा सुगुरु तुम सदा सेवो । जिमलहो जिमल हो जव दुख पारके ॥ सुगुरु० ॥ १६ ॥ क्रिया सफली थाए जेणें । होये जगमांहे मान || श्रीब्रह्म इम कहे सदा सीखो, । तेहज तेहज साधुं ज्ञानके ॥ सुगुरु ॥ १७ ॥
इति बहुश्रुतपूजा सज्झायम् ॥ ११ ॥ श्रीहरिकेशी सज्जाय १२ मथुरापुर पति शंख नरेसर | चारित्र ल्ये मन भाई ॥ विचरत विचरत एकदा रे । पुर हथियार जाई || १ || सणा परहरिये अहंकार । हरिकेशीवल मुनितणो रे । जेवो जाति प्रकार ( क ) ॥ सोमदेव कहे वाटी रे । चाल्यो मुणिवर जाम ॥ वाट थ
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. जलसीयली रे । चारित्र व्ये विप्रताम ॥सयणा ॥२॥ चारित्र पाली सुर थयो रे । तेहथी हुवो मातंग ॥ जातिपरानव लीयो संयम । उग्रतप धरे मनरंग ॥ सयणा ॥३॥ जगनि वामि गयो विहरवा रे। विष न दीये आहार । मुनिने कहे हांथी तुम जाउँ । तो सुर सानिधकार ॥ सयणा ॥ ४ ॥ साधुतणे सुर संक्रमि बोले । दीजे जोइ पात्र ॥ मुज सरिखो तुम्हे अवर न लहिस्यो। तप मुज निर्मल गात्र ॥ सयणा ॥ ५॥ विप्र कहे वेद्या ते पूरा । ते सहिपात्र सुचंग। तेहनें दीधे बहु फल होस्ये । तसु नपर अम रंग ।। सयणा ॥६॥ पंचे आश्रव जे नितु सेवे । पूरा क्रोध कषाय ॥ तसु सेवा करि जीवमो रे। निश्चे पाप नराय, सयणा ॥ ७ ॥ रीसाणा विप्र रुषिने हवे । मूके सवल प्रहार ॥ ज्ञषिना वेयावच्चने काजे । यदे हण्या कुमार ॥ सयणा ॥ ७॥ पाए लागी विप्र खमावे । स्वामि तमे खमो रीस ॥ मुजने रीस नयी इषि बोले । परि संजलो सुजगी सयणा ॥ ॥ सुर
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
वेयावच्च जि करे रे । तेण ए हया कुमार ॥ पाये लागी खामतां रे । लीधो कृषि आहार ॥सयणा० ॥ १० ॥ सुर डुंडुनि आकाशे वाजी । धन धन कहे दातार ॥ जल फल फूलसूं सोवन वरसे । विप्र लहे धर्म सार ॥ सा० ॥ ११ ॥ जाव सनानें जावत य । पापतणो मल टाले ॥ तसु पय श्रीब्रह्म वलि वलि लागे । जे शुद्ध संयम पाले ॥ सा० ॥ १२ ॥
इति हरिकेशी स्वाध्यायम् ॥ १२ ॥ श्री चित्रसंभूती सज्जाय. १३ ( सुगुण गुण आतमारे - ए देशीमां ) ब्रह्मदत्तपुर कंपिल राजियो रे । पुरिमतालपुरि चित्र | धर्म सुणी तिण संयम आदयों रे । तप श्राचरे विचित्र ॥ १ ॥ चतुर विचारीये रे । नित चित चोखे चसाल || कर्म तपी गति कोइ न जाणीये रे । केवलज्ञानी टाल (कणी ) ॥ कं पिलपुर मुनि चित्र पधारिया रे | वंद नरपति जाय ॥ पूरव जवनी प्रीति संचारतां रे । मन रलियायत थाय ॥ चतुर० ॥ २ ॥ दश
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
२३
२
३
दसारणि मृगका लिजरे रे । गंगातीर मराल ॥ कर्म संयोगे आपण अवतर्या रे । काशी देश चंगाल ॥ चतुर० ॥ ३ ॥ देवलोक दोय हुवा देवता रे । बठे जववियोग ॥ एम विचार कहे नर राजीयो रे। हिव एक एक विणुयोग ॥ चतुर० ॥ ४ ॥ कर्यु नियाएं चित्र कहे इस रे । तिणिज जु अवतार । जूप कहे ए रुरुं कर्यु रे । जिए लाधी जोग प्रकार ॥ चतुर० ॥ ५ ॥ चित्र कहे में रिद्धि पामी तजी रे | सुलि आगम संयम काज ॥ मुनिवर टालिन आगम कोइ जणे रे । ए मर्यादा जिनराज ॥ चतुर० ॥ ६ ॥ राय जणे परणों अंते उरी रे | व्ये देश पंचालह राज || नाटक गीततणा रस जोवतां रे । नर जनम सफल करो श्राज ॥ चतुर० ॥७॥ पूरव प्रीते कृषि वलतुं कहे रे । नाटक गीत असार ॥ जोग विषय वसा दुख दिये रे । ढंको काम विकार ॥ चतुर ॥ ८ ॥ सीह हरे मृगने मृग देखता रे । जिम चिकियो हरे सींचाए ॥ तिम परिवार सहुको देखतां रे । जम संघरे प्राण ॥ चतुर० ॥ ९ ॥ कीधी क
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२४. श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. रणी केमे श्रावस्ये रे । धन खासे मलि परिवार ॥ श्म बोच्यो नरपति समकित लहे रे । पण न करे विरति थाचार ॥ चतुर ॥१॥ चारित्र चित्रं सुधुं पालियुं रे। पाम्यो अविचल गम ॥ तसु गुण गाय श्रीब्रह्म मन रसे रे । वलि वलि करे प्रणाम ॥चतुर ॥११॥
इति चित्रसंभूतयी सज्झायम् ॥ १३ ॥ श्री खुकारी सज्काय १४
(जग जन जीवन-ए देशीमां) पुर खुकारे नृप खुकारए । तसु घर कमला राणी धारए ॥-सारए वेद विचार पंमित, नृगु पुरोहित तसु घरे । तसु नामे नारी जसा सारी पुत्र चिंता ते करे ॥ तव दोय सुरवर साधु वेसे तेहने घर आवए, ते घणे .आदर साधु पासें धरम मारग पावए ॥१॥ मननी चिंता झषि आगल कहे, पुत्र हुस्ये मुनि नाषित सबहे ॥-सदहे वचनें साधुने श्म बालपण मुनि थाश्स्ये, कादम सरीखा जोग जाणी ते तिहां नवि खूचस्ये ॥ तसु अंतराय न तुमे करको
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. श्सु कहि सुर नीकल्या । केटले अंतर पूत्र जनभ्या विप्रनां वंडित फल्या ॥२॥ बालकनें तव बंजण श्म कहे, ए मुनि वेषे बालनें ग्रहे ॥-ए ग्रहे बालक ते विणासी मंस तेहy वावरे । विसास एहनो जाण को तिणे कारण नह करे ॥ कुमर बीहे तात वाणी एहवी मन संचली। जेह साधु देखे जयगवेषे त्रासतां जाए टली ॥३॥ एक अवसर ते मुनि देखी पुले । एक तरु हेवें शषि तेहनें मिले ॥-नवि चलें दृष्टं साधु सनमुख नात पाणी जोव ए । ए रुप दो तेणे काले जाति समरण होव ए ॥ ते आवी तात समीप अनुमति मागए चारित्र तण। । तव विप्र वारे कुमरने तिहपर दिखाले अति घणी ॥४॥ वेद जणीजे दीजे ददणा । विषय तणा सुख अनुनविए घणा॥आपणा उतने घर नलावी पडे तापस थाश्ये । ए वचन संजली कुंमर तेहने सो पम उत्तर दिये ॥वेद सरग न दिये केहने विप्र पात्र न जाणियो । बूटिये पातक पुत्रथी नहु, विषय मुख लहे प्राणियो
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. ॥ ५ ॥ तन धन यौवन दीसे आल ए । सजन सनेहा सवि जंजाल ए॥-जंजाल माया तणो मंदिर एह दोसे जग सहू । एहवं जाण। यति थास्युं तात सूं कहिए बहू ॥ अनुमति आपो श्सू कहेतां विप्र वैरागे चमयो। जिनधर्म पाखें जीव बहु पर नवनवे नव रमवमयो ॥ ६ ॥ एहदूं कहेतां नारी ब्रूझवी। ममता माया टाली सूऊवी ॥-रीजवी चारित्र लीये ततखिण राय गरथ अणावए। ते विप्र केरो णे अवसर नारि तसु समजावए ॥-श्वान वंडे वम्यु लेवा तेह सरिखो तुं सही । तिम तेह धननो अरथ तुजने एम करतां जस नही ॥ ७॥ नरपति संजलि चारित्र आदरे । कमला राणी जावें व्रत धरे ॥-त्रत धरे बह जण टालि परिग्रह मयण बलते निरदले । जले नावे केवलज्ञान पामी, मुगति नगरी जर मिले। कीजे अविहम साथ एहवो ॥ धरम प्रीति धरीजी ए॥ कहे श्रीब्रह्म एहेवा साधु वांदी, जनमना फल लीजी ए ॥७॥
इति इखुकारी स्वाध्यायम् ॥ १४ ॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. २७ श्री मुनिगुण सज्काय १५
(ईशान इंद्र खोले लीयो-ए देशीमां.) पंच महावत जे धरे । टाले पाप अढारो रे॥ विविध परिसह जे सहे । नवकल्प करे विहारो रे । एहवा मुनिवर वंदिये। जिम लहिये नवनो पारो रे ॥ केसी गुरु परदेशी जिम । नव पमतां दिये आधारो रे॥ एहवा ॥ (ए आंकणी)॥१॥ बारे नेदे तप तपे । पाले पंचाचारोरे ॥ निंदक पूजक सम गिणे । जोस न कहे लिगारो रे ॥ एहवा ॥२॥ को बेदे वांसले । चंदन को लगावे रे ॥ बिहुं पर समता मन धरे । जावना बारे जावे रे॥ एहवाग ३ ॥चालीस बिहु करी
आगला । दोष तजी ले आहारो रे ॥ संविनाग मुनिने करे । सुमति गुपति नित धारो रे ॥ एहवाग ४ ॥ करम बंध जेहथी हुवे । न करे तिसो विवाद रे॥ नव विध शीले नितु रमे, एपुरो विधि वाद रे॥ एहवा ॥५॥ अंग अगिार जे जणे। पूरव चौद विचारे रे॥ संयमना गुण साधतां, नवियण पार उतारे रे॥ एहवाग
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
॥ ६ ॥ इम अध्ययनें पनरमे ॥ साधु तथा गुण दीरे ॥ चरणकमल नितु तेहना | श्रीब्रह्मो नमे सुजगी से रे || एहवा० ॥ ७ ॥
इति भिक्षु अध्ययन सज्झायम् ॥ १५ ॥
श्री नववामनी सज्जाय १६.
( ज्ञानपद भजीये रे जगत सुर्हकरू - ए देशीमां ) सोहम सामी रे जंबू प्रते जणे । जिहां पशु पंमग नारीरे ॥ राते वासो रे वसतिये जीए रहे । तिहां न रहे ब्रह्मचारी रे ॥ १ ॥ शील सोहावो रे साजन सेविये । कीजे धर्म अन्यासो रे || जग सघलांसुं रे समता आणी ए । इम लहिये सिद्धिवासो रे || शील० ॥ २ ॥ बीजी वामे रे कुल बल नारीना । जाति रुप न वखाणे रे ॥ त्रीजी शय्या एके आसणे । रहिवा जाव न आणे रे || शोल० ॥ ३ ॥ चंगा अंग उपांग जे नारीना । नयण वयण था हासो रे ॥ चोथी वामे रे ए नवि निरखवा । जिसे हुवे विषय विलासो रे ॥ शील ॥ ४ ॥ परीयचि जीते रे अंतर नवि वसे ।
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो.
पंचमी वामे प्रकारो रे || काम अने वली जोग जे जोगव्या । बवी ते न संजारो रे ॥ शील० ॥ ५ ॥ सत्तमीए सरस आहार निवारीए । जिए हुवे विषय विकारो रे || आठमी अति घणो अशन न कीजीए | शील पले इम सारो रे || शील० ॥ ६ ॥ अंग विनूपारे नवमी परिहरो । न्हाण विलेवल टालो रे ॥ दशमें पंचे विषयनी वारता । शीलशुं निरमल पालो रे ॥ शील० ॥ ७ ॥ इम दश ठामे रे शील जे को धरे । तसु सुरनर पनि लागे रे । ब्रह्मो वली वली तेहने विनवे । समकित शील बे मागेरे || शील० ॥ ८ ॥
॥ इति शब्रह्मचर्य समाधि स्वाध्यायम् ॥ १६ ॥ श्री पापश्रमणीय सज्जाय १७.
( अने सा ज्ञान विचार लिये- भरथरी - ए देशीमां ) चारित्र चोखे मन धरी । वलि ढीलो थाय ॥ सीहत परे दरी । जंबुक परे जाय ॥ १ ॥ पाप श्रमण संगति तजो । जिम शिवपुरि जश्ये ॥ सुहसेवा दरी । वंदित सुख लहिये (ए कणी) |
गुरु
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
रात दिवस निद्रा करे | गुरु पूजा टाले || श्री गुरुनी निंदा करे । अवगुण देखाले || पाप० ॥ २ ॥ बीज हरिय जाए चांपतो । विए पुंज्ये बेसे ॥ साधु जवा आपने । जस संजलि विकशे ॥ पाप० ॥ ३ ॥ प मिले हे परमादसुं । गुरु साहमुं बोले || वाद उदीरे
तिघणा । संयमयी मोले ॥ पाप० ॥ ४ ॥ वाद कलह गुरुसुं करे । नित सरस आहारे ॥ तप न करे सुख सीलियो । गुरु संगति वारे ॥ पाप० ॥ ५ ॥ उग्या श्रश्रमता लगे । जे ते मुख घाले ॥ बम्मासे 1 गच्छ पालटे । बक्काय न पाले ॥ पाप० ॥ ६ ॥ पासथ्यादिक पंच ए । पाप श्रमण विचांरो ॥ विषनी परेनिंदा लहे । न लहे जव पारो ॥ पाप० ॥ ७ ॥ एह दोष जे परिहरे । ते उत्तम साध ॥ अमिय जेम पूजा लहे | टाले बाध || पाप० ॥ ८ ॥ इम जाणी श्री साधुना । गुण श्रीब्रह्म गाय ॥ एक मनि सेवा मांगतां | रलियायत थाय ॥ पाप० ॥
॥
॥ इति पापश्रमणीय सज्झायम् ॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो.
श्री संगती याध्ययन सज्जाय. १८.
( शीतलजिणवर वंदीये - ए देशीमां. ) कंपिल पुरवर राजियो सखि संयती नामें ए । नाम ए परदल मान महा बलें ए । चिहुं परसेना परवर्यो नरपति वन जाय ए । थाइनें हरिण ती पूर्व पुले ए ॥ १ ॥ राय हणे मृग वांणे ए। जाय मुणिवर पासें ए । सासें ए जरियो नृप पूठे गयो ए । ध्यान मौन तिहां मुनिबे | एक तरु भूलें वेठो ए। दीगे ए राजा जय विव्हल थयो ए ॥ २ ॥ तुरिय थकी राय उतरी, ऋषिने पाए लागे ए । मागे ए मया घणी मुणिवर ती ए । स्वामी हुं राय संयती । तुम्हें रीस निवारो ए । वारोनें सार करो सेवक ती ए ॥ ३ ॥ मुनिवर उत्तर नव दीये । राजा मन वीहे ए ॥ इहे ए वचन मनें संतोषनुं ए । साधु कहे जय म करो ॥ संवेगें राचो ए। साचो ए सरण जाणो धर्मनूं ए ॥ ४ ॥ मात पिता बंधव जाइ | नहु कोइ सखाइ रे || जानें परजव प्राणी एकलो ए । तिए कारण हिंसा तजी
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३२ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनो सज्झायो. ॥ मन करुणासु जावो ए । जावोनें संयममारग गुण निलो ए ॥ ५॥ ए पर राजा संजली । ये चारित्र नार ए ॥वार ए कुमति तणी मति नावना ए। गीतारथ थर एकलो ॥ मुनि करे विहार ए।सार ए मनसुं जिनधर्म सेवना ए॥ ६॥ दत्रिय राजकुमर मिले। तेह करे विचार ए। तार ए जिनधर्म प्रवहणनी परें ए । त्रणसय त्रेसठ पाखंमी । सदहणा न कीजे ए ॥ लीजे ए करि विवेक धर्म चिहूं परें ए ॥ ॥ नरत सगर मघवादिक । तिण एधर्म कीधो ए॥ लीधो नरनव लाहो तिण वली ए। ज्ञान क्रिया धर्म साचो ए॥ करे ते लहे संपदा । तसुपय श्रीब्रह्म वंदे मनरली ए॥॥
॥ इति संयतीयाध्ययन सज्झायम् ॥ १८ ॥
श्री मृगापुत्र सज्जाय १ए. (नीलकमलदल सोभित-ए देशीमां)
सूग्रीवपुरराय बलजा सोहे । मृगा नामे राणी मन मोहे ॥१॥ धनधन साधु मृगासुत दीसे। नाव धरी वंई सजगीसे ॥ (फुपदं) देव सुगंधकनी परे जोगे।
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श्री उन्नराध्ययनसूत्रनी सज्झायो ३३ गोख चमयो रमे नारि संयोगे॥ धन ॥२॥ मारगे मुणिवर दीगे जातो । साधु तणे गुण कुंअर सतो ॥धन० ॥३॥ ततखिण जातिसमरण पावे । मात तात पासे ते आवे ॥धन ॥४॥ मात दियो मुज अनुमति आज । संयम आदरी साधु काज ॥ धन ॥ ५॥ संजलि कुंअर बोले मात । संयमनी डे मुकर वात ॥ धन ॥६॥ (ढाल-) पंच महाव्रत बुद्धर धरवा । आरंजने परिग्रह परहरवा ॥ ७॥ वह सुणो जणणी इम बोले । समरथ चारित्र मारग तोले (१०) सनमुख गंगापूर तरवो । सायर बाई पार उतरवो ॥ ॥ वह ॥७॥ वेलू कवल जिसो निसवाद । खिण एक नहीं करको प्रमाद ॥ वह ॥ए ॥ लोह तणा जव केम चवाए । अगनि काल कहो किणे पीवाए ॥ वन ॥१०॥ वायु तणो कोथलो न नराए। मेरु तुला किम तोल्यो जाए ॥ व ॥ ११॥ जोगविपंच प्रकारे लोग । तदनंतर त्यो चारित्र योग ॥वज ॥ ॥१२॥ (ढाल-) मात जे कां तुमे कहो ते साचुरे
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३४ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. जाणुं मनमांहि । कुमर श्म बोले । चारित्र तेहने दोहिलू । जसु परजव रे मन नहीं उबाह ॥ कुमरण ॥१३॥ विविधपरे सुख अनुजव्यां । नवसागर रे चमतां चिरकाल ॥ कुमर ॥ सामलि तरु पाने पमयु। तनु खंमी रे नाख्यो सुकुमाल ॥ कुमरः ॥ १४ ॥ वैतरणी नदी तारियो । बहु पचियो रे कुंनीने पाक ॥ कुमर० ॥ तिल जिम घाणी पीलियो । अति विसमय रे गणि कर्म विपाक ॥ कुमरण ॥ १५ ॥ श्म चिहुं गति मांहे नम्यो। तिह कहेतो रे न लहुं मुखपार ॥ कुमर ॥ चारित्र किणपरे दोहिलूं । द्यो अनुमति रे म लगावो वार ॥ कुमर ॥ १६ ॥ (ढाल-)मात दिये तव अनुमति सारी । कुमर चारित्र लिये कुमति निवारी ॥ १७॥ एहवासाधु तणा गुण गाउ । मन वंबित फल निश्चे पात्रं ॥ (०) अशरण जावना मृग जिम जावे। राग दोष एक खिण नउ पावे ॥ एहवा ॥१७॥ उंचो जलथी नीरज सोहे । काम सुखे तिम ते नवि मोहे ॥ एहवा ॥१॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. पाले संयम निरमल ध्यान । अदजुत पामे केवलज्ञान ॥ एहवा० ॥ २० ॥ मृगापुत्र सुख मुगतें पावे । वलि वलि श्रीब्रह्म तसु गुण गावे ॥ एहवा ॥ ॥१॥ इति मृगापुत्र सज्जाय ॥१५॥
श्रीमहानिग्रंथीय सज्जाय . __ (सेजे वसे पारेवडो-ए देशीमां.) सिक साधु नमसुं मन नावे। कहिसुंधर्म विचार प्राणीजी॥ मगध देशनो राजियो। श्रेणिकराय साधार प्राणीजी ॥१॥ गुण गावं श्री साधुना । हियो
आणंद पूर प्राणीजी ॥ चोखे चित सेवा करूं। पाप पला पूर प्राणीजी (ए आंकणी)॥२॥ राय रयवामी एक दिन जाय । वनमांहे दीठो साधु ॥ प्रा॥ रुपवंत समता गुण पूरो। संतोषं निरावाध ॥ प्राण गुण ॥३॥ वंदे दे प्रदक्षिणा। पूजे वे कर जोमी ॥प्रा०॥ तरुणपणे चारित्र लियुं । एतो मोटी खोम ॥ प्राण्गुण ॥४॥ चोथे याश्रम तप आचरीये। तें उतावल कीध ॥ प्राण ॥ मुणिवर कहे मुज नाथ न कोऽ । तिणमें
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३६ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. संयम लीध ॥ प्राण गु० ॥५॥ नाथ हुस्युं हुं ताहरो। जोगव नरना जोग प्रा० ॥ माणस जनम उहेलमो । जोगतणा संयोग ॥ प्राण गु० ॥ ६ ॥ नाथ नहीं कोई ताहरे । म नाषे मुनिराय प्रा० ॥ नूपति अचरिज संजली। मन ससंत्रम थाय ॥प्राण गुण ॥॥हाथी घोमा माहरे, अंतेउरी परिवार प्रा०, केम अनाथ कह्यो तुमे, जगवन मृषा निवार ॥प्राण गुण ॥ ७॥ तुं न लहे पर एहनी, संजल माहरी वात प्राण ॥ अथिर रिटिनो गर्व म आणिस, धर्म सरिस धर धात ॥प्रा० गु० ॥ ए ॥ कौसंबीपुर मुज पिता, बहु धन तसु - वास प्रा० ॥ पीमा एक दिन उपनी, दाह सूलने खास प्राण गु॥॥१०॥ वैद्य घणा तिहां श्रावीया, करे औषध उपचार प्रा० ॥ दुःख न टाली को सके । एह अनाथ प्रकार॥प्राण गुण ॥१९॥मातपिता लाइ सगा। बहिन प्रमुख परिवार प्रा०॥ पुःखथी कोइ न बोमवे। एह अनाथ प्रकार ॥ प्राण गुण ॥१२॥ तो में मन मांहे चिंतव्यु। थाय प्रजाते समाध प्राण ॥ तो निश्चे
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
चारित्र लेजं । टाली मन याबाध ॥ प्रा० गु० ॥ १३ ॥ नाथ थयो चारित्र लही । त्रस थावर जे प्राण प्रा० । वलि जे मुनि धर्म यादरी, थाय शिथिल जाए ॥ प्रा० गु० ॥ १४ ॥ तेह अनाथ विचारवा । तिए करो धर्म न्यास प्रा० ॥ नाथपणुं जेहथी लहो । शिवपुर मंको वास ॥ प्रा० गु० ॥ १५ ॥ इम श्रेणिक समजात्रियो । समकित समजे जाय प्रा० ॥ पाले संयम साधुजी | श्रीब्रह्म नमे तसु पाय ॥ प्रा० गु० ॥ १६ ॥ इति महा निग्रंथीय सजाय ॥ २० ॥ श्री समुपालीय सज्जाय २१. ( राग धनाश्री)
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३७
चंपापुर पालित नामे | श्रावक समकित धारी रे ॥ जीव जीवादिक नवे ते । जाणे तत्व विचारी रे ॥ १ ॥ साधु शिरोमणि वंदीये । हियने थाय उदहास रे ॥ समकित निर्मल मति होवे । जिए लहिये शिवपुर वासरे ॥ (कण ) ॥ व्यापारे प्रवहण चमथो । ते पुरि पेहुंमें जाय रे ॥ सेठ सुता परणी वढ्यो ।
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३८ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ते प्रसवे सायरमाहे रे ॥ साधु ॥२॥समुखपाल सुत ते हुओ। चंपापुरि कुसले आवे रे॥ सजन सहु हरखें मिली। सिर तिलक करी वधावे रे॥साधु ॥३॥ कुमर कला बहुत्तर नएयो। तव परणे रुपण नारी रे ॥ गोख चमी लीला करे । सुर दोगुंदक अवतारी रे ॥साधु०॥४॥ कुमर निहाले गोख थकी। मारवा काढयो चोर रे॥ मन वैरागे पूरीयो। चिंते अहो करम अघोर रे ॥ साधु ॥५॥ अनुमति तात तणी लिये। तव कुंअर संयम नार रे॥ पंच महाव्रत पालतां। लहे केवल निरमल सार रे॥ साधु ॥६॥ पुन्य पाप खपि सिक गयो। तिह पाम्युं अविचल राज रे॥ करजोमी श्रीब्रह्म कहे । प्रजु सारो सेवक काज रे॥साधु ॥७॥ इति समुउपालीय सज्जाय ॥१॥ . श्रीरहनेमी सज्झाय २२. ... (राग-केदारो-विलंब न कीजे माता सुभद्रा-ए देशोमां)
सौरीपुरवर वसुदेव राजा । तसु सुत नारायण बलदेव ॥ समुविजय शिवादेवी अंगज । नेमि करे
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
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तसु त्रिभुवन सेव ॥ १ ॥ इह परजव वंबित सुख दायक । त्रिविधें निरमल पालो शील ॥ गुण संजारो नेमितणा मन । जिम पामो शिव सुखनी लील ॥ ( ए
क) ॥ जरा सिंधु जय यादव पुहता । द्वाराम ति पुर कीधो वास ॥ सोवन मणिमय नगर वसाव्यं । सुरवर घर सरिखा वास ॥ इह० ॥ २ ॥ वीतल वचने गोपी सवि मिलि । नेमि मनाव्यो बलें विवाह ॥ राजमती कान्हरु जइ मागी । उग्रसेन मन धरे उच्छाह ॥ इह० ॥ ३ ॥ अलंकार पहेरी गज चकियो । पूछें चाले यादव जान ॥ हरिवल चमर बत्र सिर धारे। सोहे नेमिजिन इंद्र समान ॥ २६० ॥ ४ ॥ तोरण बार पधार्या पेखे । सूर संबर ससा कुरंग | मोर हंस बहु बंधण बांध्या | नेमि वदन जोए मनरंग ॥ इह० ॥ ५ ॥ पेखि पुकार करता सावज । रथथी उतरि आप नरिंद ॥ दया जाव धरि जीव तुमाव्या । त्रोमी बंधन कापी फंद ॥ ० ॥६॥ रथ खेमी पाठो घर यावे । समजावे बलदेव मुरारि ॥ दान देश लोकंतिक वचने । संयम
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१० श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायों. से पहुता गिरनारि ॥ श्ह ॥७॥ संजलि राजल नेमि सणी परे। धिग धिग चिंते ए संसार ॥ रुप अने लावन्य तनु सुंदर ।नेमि विना ए सहु असार ॥श्ह ॥७॥ मन वैरागे राजल पूर्यु। चारित्र ब्ये करि मस्तक लोच॥ अविहमरंग नेमिसूराती। विषय कषाय करी संकोच हि ॥ए॥नेमि वंदण गिरि राजल चाली। पाउस जीना संघला चीर ॥ गुफामांहे जा सूकवती। रहनेमि दीगी नगन सरीर ॥ इह ॥१०॥ विषय तणा सुख सुंदरिलोगवि।मानवनो नव सही मुलंन॥चोथे धाश्रम चारित्र लेसुं। बंमी मननो मिथ्यादंन ॥श्हण ॥११॥ सती कहे सुंदर सुर रुपे। तो पण तुमसुंअम नहीं काज ॥ गंधन कुल सरिखो कां थाय ॥ बंधवनी कांश लोपे लाज ॥ श्हण ॥१२॥ चित्त वदयुरहनेमि खमावे। त्रणे केवल पामे सार॥ मुगतें पहुता तसु पय श्रीब्रह्म। लगतें वंदे वारंवार ॥ इह० ॥ १३ ॥ इति रहनेमी संज्जाय ॥ ..........
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श्री उत्तराध्ययन सूत्रनी सज्झायो.
श्रीकेशी गौतम सज्जाय २३.
( फार्मनी देशीमां )
केशि कुमर गुण सुंदर पास तो परिवार । ज्ञान चिहुंकर दी पतो जीपतो मयण विकार ॥ सावथ्थी पुरि बहु परिवारें पुहता जाम । गांयम आवे जावे वीर तं हि नाम ॥१॥ यथा जुगति मन रतिकर गमे बे विहरंत | वेस विशेष देखे मुनिवर चित्त लहंत ॥ कुण राचे धर्म साचे कारज कर एक । तोए धर्म वि मर्म कही जे कवण विवेक ॥ २ ॥ चिंता जाणी शिष्य तणी गोयम गुरु के शि । एक यावे जावे साचो तेह उपदेशि || मिलिया दानव मानव जोवा तिहां विवाद | केशी पूढे मन बे शिष्य तणे जे वाद ॥ ३ ॥ पंच महाव्रत संयम गोयम चार प्रकार । महावीर गिरि धीर कहे श्री पासकुमार || इणिपर अंतर जोतां एक मुगति किंम होय । गोयम बोले तोले इह संदेह न कोय ॥ ४ ॥ न लहे इम कहे धर्म सोहेलो रुजु जम जत । वंकरुनें जम न लड़े पाली न सके संत ॥ विरल
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४२ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. सरखने पंमित जाणे पाले साच । तीरथ समरथ सरिखं पाले अंतर वाच ॥ ५ ॥ श्म कहे केशि वि. शेष महामति गोयम तुज्छ । टाल्यो संसय पण डे एक वलि संसय मुज्ज ॥ अनुमति पामी स्वामी केशी पूजे एम । अंतर वेस विशेष तेय कहो ने जेम ॥६॥ साची मति गुरु संगति वेस गिणो व्यवहार। तिरथ काल विशालें वेस तणा बे प्रकार ॥ निश्चे साचे नाणे दसण चारित्र सिद्धि । केशि कहे गोयम श्ह निरती ने तुज बुद्धि ॥ ७॥ अरि किम जीता जगत्र विदिता गोयम बोले । एक चन पंचें दशे अनुक्रम ए अरितोले ॥ कुण अरि मन धरि गोयम नाषे एक ए जीव । चार कषाय सखायत इंडी पंच सदीव ॥
॥ नव अज्यासे पासें बांध्या दीसे लोय । ताहरे पासे पाते बंधन काम नहीं कोय ॥ त्रोमया पास अन्यातें धर्म तणे ते जाण । कुण ते पास वेसास न कीजे जे सपराण ॥ ए॥ सजन सनेह अनेहपणे करि ढमया पास । साधु साधु कहे केशि विशेषे बुद्धि
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ४३ प्रकास ॥ बोलज आगल संजलि उत्तर तास संखेव । प्रश्न विचारो सारो साचि बधि धरेव ॥१०॥ तषणा रुप सरु वेल समूली टाल । क्रोध जलण श्रुत जले में सींची हिव नहीं जाल ॥ अति बलवंत फिरतो हीमे देश विदेश। आगम वागें चित्त तुरंगम धयों विशेष ॥ ११ ॥ पर दरिसणना वयण विचार्या सवे कुमाग । जिन धर्म साचो राचं तिण हूं धरूं वैराग ॥ धर्म रुप शुज दीप तिहां नहीं पाणी वेग । तिह सुख पामें नामें वयरी नहीं उदवेग ॥ १२ ॥ ए नवजल निहि नाव सरीर तेमालिम जीव । समुद्र तरेमन संजरे तेणें पुहचे दीव ॥ जिणवर रविकर उग्यो ते टाले अंधार । मुगति सुगति अविचल गम सदा सुखकार ॥ १३ ॥ केशि कहे करजोनि मोमी मान प्रकार । बुद्धि तुमारी सारी गौतम अडे विचार ॥ पंच महाव्रत संमत आदर वेस प्रमाण ॥पमिकमणासुं धर्म तणो मर्म निरतो जाण ॥१४॥ टालि संदेह सनेह उपाय थाए एक । लोक सहु संतोष्या पोष्या
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४४ श्री उत्तराध्ययनसूनी सज्झायौ. विनय विवेक ॥ श्रीब्रह्म जणे जे नर सुणे केशी गोयम वात । दिन दिन मंगल संजलतो हुवे सुजस विख्यात ॥१५॥
इति केशिगौतम सज्झाय ॥ २३ ॥ श्रीप्रवचन माता सज्जाय २४.
( राग-धनाश्री) चाले जयणा जोवतोरे । पाले जीव ब काय ॥ निरवद्य वचन मधुर कहे । नितु जाणी धरम उपाय ॥१॥ नमुं गुरु पायारे । जसु सीलें निरमल सार सुहावे कायारे, गणि समिति गुपति धर्म सार, कहे जिनरायारे । तिण कारण हरष अपार, नमुं गुरु पायारे॥(आंकणी)॥ दोष बेतालीस टालतारें । सूधो व्ये आहार ॥ नयणें निरखी पूंजतारे । ये उपगरण प्रकार ॥ नमुं ॥२॥ जब महादिक परग्वेरे । सूधो थं मिल जो ॥ शुज ध्याने मन राखतां । जसु चारित्र निरमल होई ॥ नमुं० ॥३॥ वचन न सावध उचरे रे । वचन गुपति संजारि ॥ काया करणी ते
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ४५ करे। जिणे हुवे जीव जगारि ॥ नमुं० ॥ ४ ॥ प्रवचन माता आठ ए। जे पाले अनुदिन सार॥ श्री ब्रह्म कहे ते मुनि नमो। जिम पामोधर्म विचार ॥नमुं॥५॥
॥ इति प्रवचन माता सज्झाय ॥ २४ ॥
श्रीयाज्ञीय सज्जाय. २५ ___ (आतमराम शील-ए देशीमां)
नयरी नाम वणारसी । विप्र वसे जयघोष ॥ बंधव तसु बीजो अ । चतुर सुगुण विजयघोष ॥१॥ गुणवंता गुरुजी वंदीयेरे । जसु दीरे दी परमाणंद ॥(ए-आंकणी)॥गंगातट तिणे पेखियो।ममुक काल्यो साप ॥ मंजारें तो अहि ग्रह्यो । मंगुक न तज्यो पाप ॥ गुण ॥२॥ देखी ए परे चिंतवे । धिग धिग ए संसार ॥ जयघोष संयम दरे । महियल करे विहार ॥ गुण ॥३॥ विजयघोष तिहां कारवे । पशुवध कारण याग ॥ जयघोष ऋषि आवे तिहां । नाश् उपर राग ॥ गुण ॥ ४ ॥ वेद विचार करे जिके । जगन करावे जाण ॥ ज्योतिषनी परे जे
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
गनि होत्र ० ॥ ॥ धर्म
ध्यान
लहे । जाणे धर्म पुराण || गुण० ॥ ५ ॥ आप अनेरा तारवा । होस्ये समरथ जेय ॥ अन्न एह लसु आपस्युं । इम विजयघोष कय ॥ गुण ॥ ६ ॥ एहनी परे तुं नवि लदे | जो जाणे तो दाख ॥ जयघोषे इम पूछियो । विप्र पूढे जन साख ॥ गुण० ॥७॥ जगवन हुं जाएं नही । जाख्यो एह विचार ॥ कर्म ईंधणे । आहुति जावन सार ॥ नियें करी । अगनि होत्र ए होइ ॥ खय ईहे जे कर्मनो । ते इह अघी जोइ ॥ गुण० ॥ए॥ नत्रनुं मुख चंद्रमा, धर्म मुख कूपन जिणंद | आप अनेरा तारस्ये । जसु मन शील आणंद ॥ गुण० ॥ १० ॥ श्रमण को समता गुणें । शीलें ब्राह्मण जाए ॥ ज्ञानें मुनि तापस तपे । ए बे साची वाण ॥ गुण० ॥ ११ ॥ अनि संग सोवन जिसो । ढंके मलनी वात ॥ पाप तजे तप दरी । व्रत पाले रंगे रात ॥ गुण० ॥ १२॥ कामजोग ठीपे नहीं । पुंगरीक परे साध ॥ ए पर तसु सविदाखवी । जे करि हुवे निरबाध ॥ गुण० ॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो.
॥ १३ ॥ हरष्यो ब्राह्मण इम सुणी | वंदी ये आहार ॥ अन्न अरथ मुजनें नही । ऋषि कहे ल्यो व्रत जार ॥ गुण० ॥१४॥ इम संजलि चारित्र लियुं । बेवश् शिवपुर जाई || श्रीब्रह्म नामि सेवक सदा । वलि वलि तसु गुण गाइ ॥ गुण० ॥ १५ ॥
॥ इति याज्ञीय सज्झाय ॥ २५ ॥ श्री साधु ममाचारो सज्जाय २६
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( राग - सोरठ. बलभद्र ले आवो नीरा-ए देशीमां ) समाचारी साधुनी बोली सुं उलट आणि । मुषिवर बहु मुगतें गया । जे आचरण प्रमाणि ॥ १॥ याव सही जातां कीजे । सिही रहतां बोलीजे ॥ पूआपण कामें । परिपूण परने नामे ॥ २ ॥ जिह साधु निमंत्रण दीजे । तिह बंद नाम कहीजे ॥ इहाकारी करो ए स्वामी । इम बोलावीजे स्वामी ॥ ३ ॥ मिलाकरुं पापनो । तहति सुगुरु आदेश ॥ गुरु पूजा काजे करे | अन्नुद्वाण विशेष ॥ ४ ॥ ज्ञानादिक काजे रहिजे । उपसंपद तेहने कीजे ॥ ए
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४८ श्री उत्तराध्ययनमूकनी सज्झायो, दश विध समाचारी । हिव अवर कहु मन धारी ॥ ॥ ५ ॥ सूरज हुवे उदय जिवारें । सवि वस्त्र पलेहे. त्यारे ॥ पडे वैयावच्च सज्जाय । करे धर्म तणाज - पाय ॥६॥ दिवस चिहुं जागे करे । उत्तर गुण - चार ॥ करे सज्जाय प्रथम प्रहर। बीजे ध्यान विचार ॥॥त्रीजे गोयर चरी जाय। बलि चोथे करे सज्जाय, आसाढे प्रगला दोय । पोसे ते चार होय ॥ ७ ॥ आसोज चैत्र त्रण पाय । ए पोरसी मान कहाय ॥ घटे वाधे अंगुल चार । ए मास प्रतें सुविचार ॥५॥ सात दिवस एक आंगुल । पावि बे अंगुल जाण; मास चार इणिपर हुवे । तासु विगत चित आण ॥ १०॥ तिथि अवम वरसें बह जोय । बह तिथि वाधंती होय ॥ तसुपर गीतारथ पासे । समको सिझांत वेसासे ॥ ११॥ हिव पोणीपोरसि कहिये । ते जाणी सुङ सदहिये ॥ जेठ आसाढ श्रावण मासें। ब अंगुल अधिक विमासे ॥ १२ ॥ नाव आसो कातिके । अधिका अंगुल आठ ॥ मगसिर पोसे माघ दश ।
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो.
हां न दीसे माठ ॥ फागुण ने चैत्र वैसाहें । बह अंगुल मेलो मांहे ॥ इम पौणपोरसि हिव रयणी। चिहुं नागे ते पण करणी ॥ १४ ॥ उत्तर गुण चार श्यामें। सज्जाय प्रथम मन गमें ॥ बीजे पोहरें शुन ध्यानें । सुखिम चिंते विज्ञाने ॥ १५ ॥ त्रीजे निसा मोदकरि। चिंते धर्म विचार ॥ निडा जाणे पामुश, यथासकति परिहार ॥ १६ ॥ वलि चोथे याम सज्जाय । रातें श्म पोरसि थाय ॥ जिण काल नदवज कोइ । पूरी निशि जोगें हो ॥ १७ ॥ ते चोथे नागें दीसे । तव पोरसि गणो जगीसे ॥ थाकंते चोथे जागें । सज्काय करे वैरागें ॥ १७ ॥ काल ग्रहण व्ये पाउसी । नितु नितु सांकी वार ॥पहर पाउले वेरती। पाना पगमे सार ॥ १५ ॥पमिलेहे पात्र उ घमिये। मुहपती गोडो कहिये ॥ वस्त्र पढे सहु गणि पात्र । निरखे नयणे शुल गात्र ॥२० ॥ पचीस पलेहण जाणो । सवि उपधि तणी मन आणो ॥ काय ज. यण मन धरतो। विकथादिक सवि परिहरतो ॥१॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ब्ह कारण आहार व्ये । ा संयम सार ॥ वेयण वैयावच्च दया। चिंता धर्म विचार ॥ २२ ॥ उपसर्ग दया तप रोगें । वलि शील धरेवा योगें ॥ अणसण एणे बह काजें। जोजन टाब्युं जिनराजे ॥३॥ चोथी पोरसि जाजन बंधे । सज्जाय तणी पर संधे। जयणाएं पूंजी वसति । पमिलेहे उपधि सहु जति ॥ २४ ॥ पेखी सत्तावीस मिल ।करी चरम पचखाण ॥ शुश् थव इणि बिहु पर करी । वंदे चैत्य सुजाण ॥ २५ ॥ तदनंतर करे पमिकमणुं । सवि पाप करम निरदलणुं ॥ तसु विधि आवश्यक माहे ॥ विस्तर जो उदाहे ॥२६॥श्म समाचारी जाणी। तमे तहति करो जिन वाली । एक मना थश् आराधो। श्रीब्रह्म कहे शिव सुख साधो ॥२७॥
इति समाचारी सज्झायम् ॥ २६ ॥ श्रीखनुकीय सज्जाय २७. (रे जीवडादुलह मानव भव लाधो-ए देशीमां) बुद्धि तणो निधि गरग महाऋषि । गह क्रिया
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ५१ सवि जाणे ॥ तसु परिवार हुयो अति निरगुण। ते पर कवि वखाणे ॥ १॥ सुगुण नर अविनयनी पर टालो। विधि विनय तणी सुझ पालो (ए आंकणी) जिम गलियार बळद धुरि जूता । एक पमे एक नाशे ॥ कूदे एक देखि गोरुमि ॥ दोमे गाढें वाशे ॥सुगुण २॥ एक पके मिसि मूमि मूथा जिम । एक समिल तिह नंजे ॥ रास त्रोमि क्रोधे उजा। जोत्र विलोमी गुंजे ॥सुगुण ३ ॥ तव सारथी रींसाणो तेइनें ।
आरे वींधे मारे ॥ मन परतावे पमयो विमासे । कांश रह्यो एह सारें ॥ सुगुण ४ ॥ तिम तसु सीस एक सुख सिलीया। एक अ अहंकारी ॥ एक सीखव्या सामा बोले । सीख न माने सारी ॥सुगुण०५ ॥ एक विहरंता आलस आणे । अंतर जाषा बोले ॥ वारंवार गुरु वचन जथापे । मरम गंवि ते खोले ॥सुगुण॥ ६॥ काज मोकल्यो कहे न जाणुं । श्रावी घर नवि होसे॥ अवर साधुने अथवा मेलो । मुह विणसामे रोसे ॥ सुगुण ॥ काज करे जिम वेठे झाल्या । नणी
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५२ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनो सज्झायो. गुणी गुरु मूके ॥ पंखीनी पर पंख लहीने । जमि विनयथी चूके ॥सुगुण ॥ एहवा देखी गरग महा ऋषि। अविनीत चेला बंमे ॥श्रीब्रह्म कहे चमते संवेगे । क्रिया तणी खप मंझे ॥ सुगुण ए॥
- इति खलुकीयं सज्झायम् ॥ २७ ॥ श्रीमोद मार्गीय सज्जाय २७
( सुहगुरु जोवे वाटडी-ए देशीमां) सोहम गणहर श्म कहे । सुण. जंबू जाण ॥ शिव सुख कारण धर्म डे ॥ उत्तम गुण गण ॥१॥ मोद मारग तुम ओलखो । तेह पहिर्बु ज्ञान ॥ दरसण चारित्र तप सही। विधि चार समान (आंकणी) ते मति श्रुत अवधि करी । चोथु मन परयाय केवल पंचम जाणवू । ए ज्ञान उपाय ॥ मोद० २॥ अव्य गुणे पर्यव करी । जाणे सर्व विचार ॥ धर्म अधर्मनन काल ए । जीव पुद्गल सार॥ मोद०३॥जीव अजीव पुन्य पाप ए । बंध आश्रव जोश। संक्र निर्जर मोक्षसुं । नवतत्त्व ते हो ॥ मोक्ष ४ ॥ ए जाणे ज्ञानें करी
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. । हिव दरिसण जोग ॥ सहज धर्म एक नर लहे । जाती समरण जोग ॥ मोदण् ५॥ बीजी रुचि उपदेशनी । त्रीजी सुगुरु प्रतीत ॥ चोथी श्रुत नणतां हुवे । समकितनी रीत ॥ मोद० ६ ॥ थोमाथी पामे घणुं । पंचम रुचि बीज ॥ सूत्र अरथ अवगाहतां । बठी रुचि रीज ॥ मोद० ७॥ऽव्यादिक संघली परें। नय हेतुप्रमाण ॥ जाण लाधा विस्तर रुचें । ते सप्तम जाण ॥ मोक्षण ७ ॥ गुपति समिति चारित्र गुणे । किरिया रुचि आठ॥पर तीरथथी उन्नगो। पण ज्ञानें माठ ॥ मोह ए ॥ वीतराग लगतें करी । नवमी रुचि संखेव ॥ अव्य बहे पर जोवतां । धर्म रुचिनो नेव ॥ मोद॥ १० ॥ इणिपर दरिसण जाणवू । रुचि दशे प्रकार ॥ हिव तसु सदहणा कहु । तेहनी परचार ॥ मोदण् ११॥ जिनमतनो परिचय करे। करे सुगुरुनी सेव ॥ संगति निह्नवनी तजे। पर तीरथ नहु सेव ॥ मोद॥ १५ ॥ निस्संकिय आदिक वली। पाले आठ आचार ॥ चारित्र प्रथम सामायिकें ।
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५४ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. बेद उगवण सार ॥ मोद० १३ ॥ त्रीजु विसुधि परिहारनुं । चोथु सूखिमसंपराय ॥ यथाख्यात पंचम गणो । तप पुविध कहाय ॥ मोद० १४ ॥ इणिपर कर्म सयल खप। । पामे शिवपुर ठाम ॥श्रीब्रह्म कहे करजोमीने । नित नित करुं प्रणाम॥मोकण १५॥
. इति मोक्षमार्गीय सज्झायम् ॥ २८॥ श्रीसम्यक्त्व पराक्रमाध्ययन सज्जाय २९.
(गज सुकुमालना गीतनी-देशीमां) अध्ययनें जिणवर ओगणत्रीसम बोले। शुन वचन त्रिहत्तर नाव लही नवि मोले ॥संवेगें धर्म तणो हुवे अविहानावें। क्रोधादि अनंता चार खपावे ॥१॥ चूटक-त्रिहुं नव मांहे शिवपुर पामे । निदे सिद्धि पामे; काम तणा सुख जाण। असार।आरंजनी मति वामे ॥२॥धर्म नाव साता सुख मे । साहमी गुरु गुण बोले ॥ जगति करी सर्व कारज साधे। तेहने कोश् न तोले ॥३॥ आलोयण सरलपणे नपुं नारी वेद। नहु बंधे नवला बांध्या करे विजेद ॥ मोहनीय
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श्री उत्तराध्ययनमुत्रनी सज्झायो. खपावे निंदा करतो जोश । जन साख गरहणे कर्म अनंत खय होइ ॥४॥ सामायिक करि सावद्य टाले । चोवीसथ्थे जाण ॥ समकित रयण सदा अजुआले। ए जिन वचन प्रमाण ॥५॥ वंदण नीचं गोत्र खपाव।। उचुं गोत्र उपावे ॥ पमिकमणे अतिचार निवारी११। काउसग पाप खपावे १२ ॥६॥ (सिरि नेमिजिणेसर-ए देशी) पचखाणे रुंधे आश्रव केराबार' । थवथुश् मंगल रतन त्रय लान विचार ॥ सुर सुख लहे अथवा अंत क्रियानो लाह' । काल ग्रहणे ज्ञानावरण खपावे साह" ॥७॥ पाप कर्म त्रोमे प्रायबित्ते'' खमावंता मित्र नाव । ज्ञानावरण सज्काय खपाव'वायण निर्जर लाव ॥पूढे टले सूत्रना संसय ० गुणवे अखलित ज्ञान । चिंतवतां कर्म आउ खपावे पावे निर्मल शान ॥॥ जिनशासन धर्म कथा करतो दीपावे ।श्रुतने अाराधन झानावरण खपावे ॥ एक मनो चिहुं दिशि चित्त नमंतो वारे ५। संयम करि आश्रव कर्मतणो बंध वारे२६॥ए॥ जीव करे निर्मल
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५६ श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. तप संगे वो दाणे लहे सिहि विषय निवारे ते संतोषी सोग रहित जसु बुधिर ॥ अप्रतिबद्ध राग नवि मुंजे वास निरंजण शील२१ । विणयट्टणाओं पाप निवारी पामे शिवपुर लील२२ ॥१॥ संनोग तणे पचखाणे आलंबण टाले । निज लान संतोषं सुख शय्या दोय पाले २३ ॥ पचखाणे उपधिने संबल करे सज्जाय। आहार तजे ते संतो मन जाय ॥११॥ वीतराग समता गुणि जीले टाले जेय कषाय ६ । रुंधे जोग त्रिविध जे पामे खपवा कर्म उपाय ॥ सयर तजी पामे सिधिना गुण" एकाकी जे हो । कलह कषायनु मंतु टाली संवर पूरो होइ२९ ॥१५॥ नातह पचखाणे नव सय जमण निवारे । सर्व संवर शुकलें ध्याने मुगति पधारे १ ॥ प्रतिरुप पणे मुनि ते हुवे समतावंत २ । वैयावच्च करतांतीर्थकर पण वंत'३ ॥ १३ ॥ तनु मानस उख न लहे सकल गुणेकरि पूरो। वीतरागपण नेह निवारी विषय पंच तजी सूरो ॥ खिमावंत ते सहे परीसह मुगते हुवे नि
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
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रलोज । सरलपणे हुवे धर्म याराधक मदवि तजे
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४८
मद योज ४९ ॥१४॥ जे जावे साचो ते जिनधर्म राधे । जिम बढ़े करे तिम करण साच गुण साधे
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५ १
जोगे जे साचो ते निरतो संयम योग
॥
आले योग। मन गुपते पाले
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३ ॥ २५ ॥ वचन गुपति अध्यातम साधे काय गुपति पर जोइ । पापतणो श्रव सवि मी संयम निरमल होइ " ॥ ज्ञान विसोहे एकमनें करि वचन संवर जे पाले । सुलन बोधि पण ते उ
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पारजे " एपर चित्त निहाले || १६ || संवरे जे काया ते चारित्र अजुखाले " । जे झाने पूरो ते जग सयल निहाले । जिम दोरा साथै सुइ पमी नवि जाय । तिम ज्ञानी पमयो प्रमादें कुगति न जाय ॥ १७ ॥ दरिस पूरो खपे मिथ्यामति मुगति सुद्ध चारित्रें "। राग दोष टाले श्रुति संवर संजलि वचन विचित्रे ॥ वयण घाणिंद " शरीरे जे कोइ संवर पाले । ते नर रागद्वेष बेन करे विषय गृद्धि जे टाले ॥१८॥ समता क्रोधह जयि " मान तज्ये सुकुमाल ८ । माया
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.६ ३
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नयण
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श्री उत्तराध्ययनमुत्रनी सज्झायो. तजी सरलो "लोनि संतोष संजाल ॥राग दोष मिथ्यातरु जे दंसणने नाण । चारित्र करि निर्मल खपे कर्म सपराण" ॥१५॥ शैलेशी रुंधे त्रिक योगें थाश्रव सघला उमे७२। अकर्म पणुं आवे कर्म जीपी मुगति वास ते मंझे" ३ ॥ लेस थकी ए बोल त्रिहत्तर कह्या जे कोश् आराधे। श्रीब्रह्म कहे ते मुख निवारी अविचल पदवी साधे ॥२०॥
इति सम्यक्त्व पराक्रमाध्ययन सज्झायम् ॥ २९॥
श्रीतपोमार्गीय सज्जाय. ३० ___(मल्लिनाथना स्तवननी देशीमां)
तप कीजे रे राग दोष दोय परिहरी । व्रत पंचे रे सुमति गुपति सुं मन धरी ॥ अन्यंतर रे बाहिज तप बिहुं पर कह्यो । एकेको रे बहय प्रकारें संग्रह्यो-अणसण उणोदरिजिदाचरि सरस विगे तजे सही कायाक्लेश' संलीनता परी उहे अनुक्रम ए लही ॥ वलि विनय' वैयावच्च प्रायवित्त ध्यान' कासग्ग' जाणिये । सज्जाय इणिपर बह प्रकारे
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. ५९ तप अत्यंतर आणिये ॥ १ ॥ ए बिहु परे रे निरतो तप जे आचरे । नर नारी रे सिद्धि रमणि निश्चे वरे ॥ जिम मोटो रे सरवर नीर जयों हुवे । घमनाला रे मूमये नीर न आश्रवे-संनवे आतप योग जलनी शोषणा जाणो सही । एह उपम तप विषे संचारजो जिनमत लही ॥ संयमे रुंधे करम आश्रव आवतो श्म जाणिये । तप थकी तेहगें अंत पामे तेम तप वखाणिये ॥२॥ जिम सोवन रे अगनियोगे मल सवि तजे । निरमल थरे तेज तणे बल अति नजे ॥ तिम टाले रे तप अगनिये मल कर्मनो । तिण कारण रे एह प्रकार के धर्मनो-धर्मनो आदर करो अहनिस जैम पामो सुख घणुं । क्रोधादि अंतर वैरी वारी वाणी जिणवरनी सणो॥ जल नाव आणी सुगुरु वाणी तप तणी खप कीजए । मनरंग अतिघण श्रीब्रह्म जंपे सफल जनम करीजए ॥३॥
इति तपोमार्गीय सज्झायम् ॥३०॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनो सज्झायो. श्रीचरण विधि सज्जाय. ३१
(राग-धनाश्री) एकविध संयम सुविध धर्म करी । झानादिक त्रण पाले ॥ धर्मचिहुंपर पंच समिति धरि । काय बहे टाले ॥ १॥ हो नवियण मुनिने हो नवियण मुनिने हो मन नाव धरि चरण कमल सिर लाजं । कुमति तणीपरे पूर निवारी मन वंछित फल पाउं ( आंकणी) नय साते वखाणे सूधा । पालि प्रवचन मात ॥ नवविध शील सदा मन राचे । दश विध धर्म विख्यात ॥ हो ॥२॥ अंग अग्यार विचारे निरता। प्रतिमा जाण बार ॥ तेरक्रियास्थानक नित वरजे । उपकरण चौदह धार ॥हो ॥३॥ पनर नेद सिझ सुधा जाणे। साधुदोष सोल टाले॥सतरनेदसंयम नितसंचे। रथ सोलंग संनाले॥ हो ॥४॥ गणवीसे ज्ञान विचारे । वीसे असमाधि मे ॥ दोष सबल एकवीसे परिहरि। परिसह मन नहु खेमे ॥ हो ॥५॥देव सदा चोवीश आराहे । पचीस नावन नावे ॥ गुण सत्तावीस साधुतणा धरि । अविचल पदवी पावे ॥ हो ॥६॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनो सज्झायो.
साधुतणा गुण बहु विध अ । किणपरे पार लहा॥ जाव धरी निज बुझि सरीखा । श्रीब्रह्म सदा गुण गा॥हो० ॥ ७ ॥
॥इति श्री चरणविधिय सज्ज्ञायम् ॥३१॥
श्रीप्रमादस्थानक सज्काय. ३२ (श्रीआचारिज विजयदेवसूरि तेहना प्रणमुंपाय-ए देशी)
काल अनादि लगी मुख दायक ।राग द्वेषदोय बंमो ॥ तेहतणी पर संनल साची । वास मुगति पुर मंमो ॥ १ ॥ संजलजो विष सरिस विषय सुख। तेह थको रहो रे ॥ मोहनींद मूकीने जागो। ज्ञान नदय लहि सूरें ( ए आंकणी ) कर्म बीज रागादिक कहिये । मोहथकी कर्म हो ॥ कर्म मूलगणि जनम मरणतुं । पुरक मूल ते जो ॥ संजल ॥॥ दवनी आग अधिक इंधण लहि। वायु संजोगे दीपे॥इंद्रिय अगनि सबल थाहारे। किणहीपर नहु ठीपे॥संनल ॥३॥ संग बिलामीनो सुख कारण । मूसाने नवि हो ॥ ब्रह्मचारीने एम स्त्री संगति । व्रत सुख हेत म जो॥संनल ॥४॥जिम विष फल रुपें रस रुमा ।
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. अशुना पण परिणामे ॥ तेम विषय छीना जाणो। परनव पुरक स नामे ॥ संजल० ॥ ५॥ रमे राग देखो रुप रुहुँ । मन माहे अतिरीके ॥ देखि विशेष पतंग तणीपर । पमी अगनिमाहे सीके ॥संजल ॥ ६॥ मीन जेम रस रातो प्राणी । पेखि मंस मुख वाहे ॥ कूटे वींध्यो अति तमफमतो। धीवर वेरी साहें ॥संजल ॥ ७॥ नव नव गंधे नमरो रातो।केतकि कंटे खूचे ॥ सहे परानव इणिपर मानव । गंध विषय ते विगूचे ॥संनल ॥॥ संजलि सबद गीत धुनि रुमी। रुपे हरिण पराण ॥ एम मुख शब्द थकी लहे मानव। विषय पुरक सपराण संनल ॥ ए ॥ करिवर विंध्याचलनो वासी। करिणी फरसे रातो ॥ लहे पराजव इणिपर मानव। फरस विषय मद मातो॥संनल ॥१॥ चपल चित्त चिहुं दिसि ऊलफलतो । लहे पुरक असंतोषी ॥ वीतराग जावे जीव सुखियो । जे हुवे मुगति गवेषी ॥ संजल ॥११॥ विषय तणा सुख कादम समवम । जे मे तसु संग ॥श्रीब्रह्म कहे ते मुनिवरना
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. नित । चरण नमुं मन रंग ॥ संजल ॥१२॥
इति प्रमाद स्थान सज्झायम् ।। ३२ ॥
आठ कर्मनी सन्काय ३३
आठ करम जिणवर कह्या । ज्ञानावरण विचारो रे ॥ दर्शनावरण वली मोहनी । वेदनी आयु संजारो रे ॥१॥ विषम करम गति जाणजो, धर्म करो मन जाव रे; ए नव समुह तरण जिसें, पामिय प्रवचन नाव रे ॥ विषम ॥२॥ नामने गोत्र अंतराय ए, आठ करम तणा नामो रे; एहतणी प्रकृति सह, एकसो अगवन्न ठामो रे ॥ विषम ॥३॥ मोह थिति सागर जाणवी । सित्तर कोमा कोमी रे॥ सागर तेत्रीस आयुनी । त्रीसावरण दोय जोमी रे ॥ विषम ॥४॥ वेदनी करम अंतरायनी । त्रीस कोमा कोमी जाणो रे ॥ अंतरमुहर्त सवितणो। आयु जघन्य मन आणो रे ॥ विषम ॥५॥ वीस कोमाकोमी सागरे । नाम ने गोत्र संनारो रे ॥ आठ मुहर्त जधन्य ए । जाणीय बंध निवारो रे ॥ विषम ॥ ६॥
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. तिण कारण नवियण सुणो । पाप प्रमाद सवि टा. लो रे ॥ ब्रह्म कहे जिन आणसुं । चारित्र मारग पालो रे ॥ विषम ॥७॥
॥ इति कर्म प्रकृति सज्झायम् ॥ ३३॥ श्रीलेश्याध्ययन सज्माय ३४. (जीवडा अवगुण विष दूषण टालि-ए देशीमां)
लेश्या बह जिणवर कहे रे । जीव तणो परिणाम ॥ कृष्ण नील कापातए रे, तेज पदम शुक्ल नाम ॥१॥ जगत गुरु लेश्या कहे विचार । अप्रशस्त सवि परिहरी रे॥धरो प्रशस्त प्रकार (आंकणी) कृष्ण लेश काजल समी रे । चास पंखि सम नील ॥ अलसि कुसुम कापोत डे रे । ए त्रण विरुक्ष लील ॥जगतः ॥॥ तेज लेश जिम करमजी रे । पदम जिसी हरियाल ॥ सुकिल संख जिम उजली रे । एह प्रशस्त संजाल ॥ जगत ॥३॥ कयरसे पहिली कही रे । बीजी तीखी हो ॥त्रीजी तुरी जाणवी रे चोथी खाटी जो ॥ जगतम् ॥४॥ आसव रस पंचम
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. .६५ कही रे । ही गुल जिम मीठ ॥ लेश्या पुदगल रसे सन रे। केवलज्ञानी दीठ ॥ जगत ॥५॥ सडया कलेवर सारिखो रे । पहिली त्रिहुंनो गंध ॥ वास कुसुम कपूरनो रे । बीजी त्रिहुं सुगंध ॥ जगत ॥ ६॥ सागर पत्र करवत जिसु रे । पहिली निहुंनो फास ॥ अर्क तूल बुश्समो रे । बीजी त्रिहुंनो विमास॥ जगत ॥ ७ ॥ पहिली अति निरदय हुवे रे । बीजी बह रीसाल ॥ त्रीजी कूम कपट नर्यो रे । एत्रण पाप रसाल ॥ जगत ॥॥ चोथी बीहे पापथी रे । पंचमी धरि धर्मध्यान ॥ बठी विषय रसें नही रे । ए शुल लेश्या मान ॥ जगत ॥ए॥ अंतर्मुहूर्त लहु गिणो रे । सघली लेश्या आयु ॥ उत्कृष्टी हिव जाणजो रे । अनुक्रमे एह उपाय ॥ जगत० ॥१॥ संख्या सागरोपमें रे । मुहरतसुं तेवीस ॥ पलीय असंखे जागसूं रे । दश सागर सजगीस ॥ जगत० ११॥ एम अधिक त्रिहुं सागरें रे। बिहुं सागर श्म हो ॥ मुहूरत सुं सागर दशेरे । एम तेत्रीसे जो ॥ जगत०
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श्री उत्तराध्ययनसुनो सज्झायो.
१२ ॥ प्रशस्त लेश्या तजोरे । चित्त धरो शुभ ध्यान ॥ करजोमी श्रीब्रह्म कहेरे । जिम पामो शुभ ज्ञान ॥
|| जगत० १३ ॥
इति लेश्याध्ययन सज्झायम् ।। ३४ ।। श्री अणगार सज्जाय ३५.
[ इति कोड आणि कामिनी जोव इति प्रीयडा वाट - ए देशी ] पंच व्रत मन शुद्ध आदर | बंकि सवि गृहवास ॥ वसति जोए सूकती । तेह निवसे रे मन जाव उदास ॥ १ ॥ के वंदो रे गुरु गिरुया । जिए दीवे रे हुवे परम आणंद के ॥ तन मन विकसे नामें । जिम जल निधिरे देखी शुज चंद के (कणी ) ॥ नारि तृण मणि दृषद कंचण । गिणे समता जाय ॥ लोलपण रसनो तजे । मन शुद्धे रे पाले बह काय के ॥ वंदो ॥ २ ॥ दसे दिश जिम शस्त्रधारें । अगनि जंतु हणाय ॥ तासु हिंसा टालवा । निज हाथे रे जोजन न पचाय के ॥ वंदो० ॥ ३ ॥ नमण बंदण रयण पूजा । रिद्धिनें सतकार || एह नवि वंठे मनें । ते पामे रे केवल गुण
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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
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सार के बंदो० ॥ ४ ॥ मुगतिना सुख तेह लहस्ये । तजे प्रेम जे रीस || श्रीब्रह्म तसु पय नित नमे । मन मांहे रे वल आणि जगीस के वंदो० ॥ ५ ॥
इति अणगार गुण सज्जायम ॥ ३५ ॥
श्रीजीवाजीव विजत्ती सज्जाय ३६
जीव ने अजीव प्रकार रे । लखिये तत्व विचार | धर्म धर्म समय आकाश रे । पुद्गल
जीव प्रकाश ||१|| जिन नापित निरतो जाणो रे । सम कितनी मति मन आणो ॥ करो ज्ञान कला - ज्यासरे । जिम पामो शिवपुर वास (यांकणी ) धर्म
धर्म वे लोक प्रमाण रे । नर खेत्र समय मन जाए ॥ नन लोक लोके व्याप्यो रे । लोकें पुद्गल थिर थाप्यो, जिन० ॥ २ ॥ सवि पुद्गल दालि अरुपी रे । पुद्गल वर्णादि सरुपी, सयपंच अधिक वलि त्रीस रे । पुद्गलना नेद जगीस, जिन० ॥ ३ ॥ जीव सिद्ध
संसार रे । तेहनी पर दोय संजारी ॥ तेह पनर प्रकारें सिद्धारे । व्यवहार नेद ए कीधा, जिन० ॥ ४ ॥
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६८ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. निश्चे सवि मुगतें सरिखा रे। हिव कहुं विगतनी संख्या ॥ एकसो अम पुरुष संजारी रे। दस पंक बीसे नारी ॥ जिन ॥ ५॥ गृहलिंगे सीके चार रे। परलिंगे दसय विचार ॥ अठोत्तरसो जिन वेसें रे। एक समय मुगति सवि ससें ॥ जिन ॥ ६॥ अववाहन जघन्ये चार रे । उत्कृष्टी दोय अवधार ॥ अठोत्तरसो मध्य जाणो रे । एक समय सिद्ध वखाणो । जिन ॥ ७॥ ऊरध लोकें गिण चार रे । दोय समु त्रण सेसवार ॥ वीस अधोलोक ते जाणुं रे। एकसो अम तिरिय वखाणुं ॥ जिन ॥ ७॥ सर्वारथ सिद्ध विचार रे। तसु उपर जोश्रण बार ॥ पणयालीस लख जोयण माण रे। सिह नत्र जिसं उत्ताणजिन ॥ए ॥ अमजोयण जाम विचालें रे।रुपा जिम उऊल पालें। सिक जोयण चोवीस नागें रे । रहे अखय अनंत विरागें ॥ जिन ॥ १०॥ सुख सागर मांहे कोले
। मुख संग नही जसु मीले ॥ ए सिह सरूप विचार्यो रे । संखेपे जे गुरु मुख धार्यों ॥ जिन ॥११॥
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श्री उत्तराध्ययनमूत्रनी सज्झायो. ६९. हिव जीवतणा उ प्रकार रे । धर नीर' जलण संभार ॥ वायु वनसपती त्रस "काय रे । ए जाणवी बहकाय ॥ जिन ॥ १२ ॥ एहमांहि घणा जव नमियो रे। बहु काल अबुधपणे गमियो ॥ ए पर
ओलखी सार रे । कांश कीजे धरम आचार ॥ जिन ॥१३॥ तप सयर संलेखण कीजे रे ।क्रोधादिक सयल तजीजे ॥ आहार चार पचखीजे रे । चउसरणा चित्त धरीजे ॥ जिन ॥ १४ ॥ अंतकाल जे को विराधे रे। ते परनव उरगति साधे ॥ अनियोगी परमाधम्मी रे। कंदप्पी थाय अहंमी ॥ जिन ॥१५॥ जे मिथ्या दरिसण रातो रे । तप करिय नियाणे मातो ॥ एम जीव मरे जे कोइ रे । समकित नवि पामे सोइ ॥ जिन०॥१६॥ खोटुं करि ज्ञान दिखाले रे। धर्मदायक गुरुने हीले ॥ माया करी अवरण बोले रे । ते थाय किलमषी तोले ॥ जिन ॥ १७ ॥ मरपंत जे रोस न मे रे । परें बालमरणनी मं ॥ आसुरिय गते ते जा रे । आराधक किमे न था।
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७० . श्री उत्तराध्ययनमुत्रनी सज्झायो. ॥ जिन ॥ १७॥ श्म बालमरण परें जाणी रे।पंडित पण हिय आणी ॥ परनवे जे कोइ जाय रे । आराधक सुखियो थाय ॥ जिनम् ॥ १५ ॥ त्रीसम उत्तर ऊयणे रे । जिणवर कहे अमृत वयणें ॥ समता जगसुं मन धरिये रे । जेथी नव सायर तरिये ॥ जिन ॥ २० ॥ ए नाष संखे सारी रे । बत्रीस अध्ययन विचारी ॥ श्रीब्रह्म कहे जे जन जणस्ये रे । ते मंगल कमला लहस्ये॥ जिन ॥१॥ ॥ इति जीवाजीवविन्नत्ती सज्जायम् ॥३६॥ ॥ इति श्रीउत्तराध्ययन छत्रीस सज्झायो संपूर्णम् ॥
महामहोपाध्याय श्रीमेघराज मुनिराज कृतःश्रीज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
१ मेघकुमार सज्जायम् (ब्रह्मदत्त कंपिलपुर राजोयोरे. ए देशी)
वीरजिणेसर वंदु विगतस्युंजी। प्रणमी गोयम पाय ॥ थविस्युं हर्षे हुँ रुषिराजीयोजी। मेघकुमर
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
जले जाय ॥१॥ सहजसोजागी साधुशिरोमणी. जी । जेहन चरित्र विस्तार ॥ स्वामि सुधर्मा जंबू प्रतें कहेजी। बहा अंग मजार ॥२॥ सहज ॥ आंकण। ॥ नयर राजगृह अति रलीयामणोजी। श्रेणिक तिहां नृपसार ॥ धारणी देवी तसु घरे सुंदरीजी। मंत्री अजयकुमार ॥३॥ स ॥ धारणी देवी गज सु. पर्नु लहेजी। पूज्या पंमितराज ॥ पुत्र होसे नृप तुम्ह घरे राजीयोजी, सीधां सघलां काज ॥ ४॥ स०॥ धारणीने मन मोहलो ऊपनोंजी। त्रीजा मास मकार ॥ पंच वरण जो जलधर ऊनएजी। वरस मोटी धार ॥५॥ स ॥ देव आराधी मोहलो पूरवेजी। मंत्री अजयकुमार ॥ नवमें मासे पुत्ररतन जएयोजी ॥ नामे मेघकुमार ॥ ६ ॥ स ॥ कला बहुत्तर तेह नणावीयोजी । परण्यो रमणी आठ ॥ देव उगंदकनी परे जोगवेजी। विलसे लक्ष्मी थाट ॥ ७॥ स० ॥ तेणे कालें वीर समोसर्याजी । वांदे मेघकुमार ॥ समकावीने ते माता पिताजी, लीधुं संयम जार ॥ ७॥ स०
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श्री मातासूत्रनी समायो. ॥ बार विनागे सूतो साथरेजी। बहुलो साधु संचार॥ पाद संघट्टे साधु तणे करीजी । नावी नींद लगार ॥ ॥ए ॥ स० ॥ मनमां चिंते ए रुषि दोहिखाजी। आय प्रजात जिवार ॥ वीर जिणेसरनें वांदी करीजी । मांडं घर व्यापार ॥ १० ॥ स०॥
॥ढाल २॥ (राग केदार गोडी. पारधीयारे वनवाट देखाडी-ए देशी)
रवि उगमते आवीयो रे । वीरजिणेसर पास ॥ वीर बोलावे श्रीमुखे रे । ऊनो मन उदास रे ॥ ११॥ मेहां सांजल निरती वाण । तुं तो गुण मणि केरमी खाण ॥ तुं शुज मति हीयमले आण । जिन वचने ब्रांति म जाण रे ॥ १२ ॥ मेहा० ॥
आंकणी० ॥ इहांथकी लव पाउले रे । त्रीजे गिरि वैताढय ॥ दंत सुमेरुप्रन हाथीयो रे । सहस गजे करी थाढय रे ॥ १३ ॥ मेहा ॥ ग्रीषम काल दावानले रे । दाधो ते गजराज ॥ पहुतो एक सर एकलो रे। पाणी पीवाने काज रे ॥ १४ ॥ मेहा ॥ पाणी वो कचरो घणो रे । खूतो ते अंतराल ॥ पूरव वेरी
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श्री ज्ञातासूत्री सज्झायो,
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हाथीये रे | पीयो ते ततकाल रे ॥ १५ ॥ मे० ॥ सात दिवस वेद वेई रे । वीसशत वरसाउ ॥ काल करी वींध्याचले रे । पुनरपि थयो गजराज रे ॥ १६ ॥ ॥ मे० ॥ चदंत मेरुप्रन रातको रे । सात सया परिवार | वनदव देखी ऊपनो रे । जाती समरण सार रे ॥ १७ ॥ मे० ॥ नदव ऊगवा काजे रे । हाथी करे उतकंठ || जोयण परिमित्त मांगलं रे । गंगाने उपकंठ रे ॥ १८ ॥ मे० ॥ उन्हाले दव परजले रे । खोच्या सघलां प्रांण ॥ सिंह गजादिक जीवने रे । मंमल कीधुं ठां रे ॥ ११ ॥ मे० ॥ ससलो एक ऊना रहेवा रे । पांमे नही किहां लाग ॥ तें पण अंग खंजोलवा रे । उपामयां तिहां पाग रे ॥ २० ॥ मे० ॥ गज पग देठे ससलो रह्यो रे । लागो ति सुकुमाल ॥ । जीवदया मन लेखवी रे । राख्यो पग अंतराल रे ॥ २१ ॥ ० ॥ रात्रि अढी वन दव दह्यो रे । ससलो पहुतो ठाम || हाथी पण त्रुटी पमयो रे । मूर्त शुन परिणाम रे ॥ २२ ॥ मे० ॥ जीवदयाने कारणे रे ।
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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श्रेणिक घरे अवतार ॥ गजनवे जे दुख तें सह्यां रे । ते तुं कां न संचार रे ॥ २३ ॥ मे० ॥ वयष सुणी जग गुरुता रे । त्यो मेघकुमार ॥ जातीसमरण ते लहे रे । बे नयां करूं सार रे ॥ २४ ॥ मे० ॥ पुनरपि दीक्षा आदरे रे | जप तप कीध उदार ॥ विपुल गिरि करे मेघजी रे । संथा से मनोहार रे ॥ २५ ॥ ॥ मे० ॥ कालकरी सुरपति थयो रे । विजय विमान मज्जार || एक जवने यांतरे रे, लहेस जवनो पार रे ॥ ३६ ॥ मे० ॥ एम शिष्य गंमे वो रे । सुह गुरु हितनें काज ॥ राजचंद्रसूरि जग जयवंत रे । पजणे रूषि मेघराज रे ॥ 29 ॥ मे० ॥
॥ इति श्रीमेघकुमार स्वाध्यायम् ॥ १ ॥ ज्ञाता प्रथमाध्ययनउत्क्षित्तन्यायप्रथमः संपूर्णः ॥
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२ संघाडगन्याय सज्जायम् ॥
( एणे अवसर कुमर सकोसल पूछे वात - ए देवी. ) नयरी राजगृही इंद्रपुरी अवतार | तिहां कुण
ईशाने गुणसेल चैत्य उदार । तसु अडूर सामंते
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ७६ जुनुं एक उद्यान । तिणमांहे कूनो जागो डे बहु मान ॥ ते रे कूया पासें एक अनेरो मोटो मालीक उन । लता गुआम गुळ करी वीटयो को न दीसे उन । सारथवाह धनावो नामे बहुधन पूजां पाने । जमा नामें तसु वरघरणी चेमो पंथग नामे ॥१॥ तिणे नयरे कुकर्मी पाप चंमाल सरुप । विजय नामे तस्कर ताके परधनरुप । जना सारथवाही चिंते धन्य ते माय । निज कूखे ऊपना बाल रमामे गाय ।। तो ते गावे गीत अने हुलरावे वली वली ध धवामे। हुं कां सरजी देव अधन्ना चिंतवि बातम तामे । एम विमासी देव आराधन बाहरि बहुपरि मंझे। पुत्र सुकोमल तो ते प्रसवे विघन विलास विहमे ॥५॥ नामे देवदिम उमाय आजरण पहिरावे । लेई चहुटे चांचर पंथगता सरमावे । एक पासें मूंकीयो बालक पंथग बोरें। सर्व जूषण जूषित बालक दीगे चोरें। तउरे चोर विजयते बालक लेइ सर्वाचरण ऊतारे । जई उद्यान गहरमांहि पेसी बालकने ते मारे। जग्न
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. कूया मांहे नाखी तेहने पेठो मालीक ले। पंथग पण तिहां हसी रमीने बालक जोवे पडे ॥३॥ बालक नवि दीगे तव ते सेठ जणावे। एम सांजलि सेठ सो मूर्खा ततखिण आवे । वस्यो चेतज बे ते नेटि लेई बहु मांन । कोटवाल जणाव्या दोमया तेह अमान ॥ तउरे मान घणे ते जोता कूए बालक मार्यों दीगे। हाहाकार करीने तलारे जोयो तस्कर धीगे। काला मांहि बेठो दीगे काली घणो मराव्यो । चहुटे चाचरे बहु परे फेरवि ले हर्मबंध कराव्यो ॥ ४ ॥ किणे काले काल धनावो राज विरोध ते चाल्यो । जांणि कोटवाने ते पण ततक्षिण काल्यो। ते तस्कर साथें एक हम बंध करावे । तिहां नात पाणी लेश दिन दिन पंथग आवे ॥ तत ते जात जिमंता तस्कर मागे सेठ कहे किम आपुं । मुझ सुत घातक तुं महा पापी कवल मात्र पण नापुं । जम्यो सेठ पण फेरावेला तस्कर साथ नावे । आधुं नात देवू मे तुजनें एम कही सेठ मनावे॥५॥ दिन बीजे आधो
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श्री ज्ञातामुत्रनी सज्झायो. सेठ दीए तसु जात । पंथग पण रीसे कहे जाने वात । दिनकेते लूटो सेठ घरे ते आवे । स्नान मर्दन कीधो सयल कुटुंब वधावे ॥ तोरे सयल कुटंबे बहु पर मांन्यो दीसे नडा रुवी। सेठ कहे तुं का हे न बोली नही नवि ऊठी जमा कहे मुऊ सुत घातकनें किम तुम्हे जात समप्यु । सेठ कहे सरीर रदाने हेते जोजन अप्यु ॥६॥ जेम ते चोर विजयते बहु परे आपद पांमे । तेम जे नर संयम आदरि वली वली धन कामे। तिणे चोर ताणी परे आतमने मुख दीधं । सेवें पण बेहमे उत्तम चारित्र लीधुं ॥ दी, जेम सेठ जोजन तस्करने आतम रक्षा काजे । तेम जे संयम लेई मुनिवर गुणमणि करी विराजे । दंसण नांण संयमने हेतें जे कोई नोजन करसे । रुषि मेघराज कहे ते पूजा पामें शिव रमणी सही वरसें ॥७॥ इति श्रीज्ञाता द्वितीयाध्ययन संघाडग न्याय सज्झायम् ॥२॥
३ इंडग न्याय सज्झायम्.
(साधु शिरोमणी वंदीए-ए देशी) चंपानयरी धन जरी । तिहां बाहिर कूण झाने
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७८ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. रे ॥ सुनूमि जाग उद्यान वहुं। तो नंदनवन समाने रे ॥१॥ समकित शुभ हीयमे धरो ने । जेहथी सुख विस्तारो रे ॥ नर सुर सवि संपति लहे । ने लहीये नवनो पारो रे ॥२॥ स (आंकणी०) उत्तर दिसि उद्यान थकी। तिहां माली कडो सोहे रे ॥ तिहां एक मयूरी बे मां । प्रसवे नर दीठ मोहे रे ॥३॥ स ॥ तिणे नयरें धनवंत वसे । सागरदत्त जिणदत्त नामोरे॥सारथवाहना सुत बिहूं। माहोमांहे सारे कामोरे ॥४॥ स०॥ तिणे नयरें वेश्या बसे । देवदत्ता नाम प्रसिझा रे ॥ बहु गणिका मांने तेहने। धन धान्ये करी समृका रे ॥५॥ स ॥ सादरदत्त जिणदत्त चेवि जणा । देवदत्तास्युं वन जाय रे ॥ विषय तणा सुख अनुजवे । ते दियमे हर्षित थाय रे ॥६॥ स ॥ हसी रमीने बेवि जणां । वन मालीक ले पेग रे ॥ नव कौतक जोतां हीमे । वनमोरी ये जण दीठा रे ॥ ७ ॥ स० ॥ ऊमी ते केंकार करी। ते बेठी तरुवर माले रे । चित्त चमक्या ते बेवि जणा।
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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काठमांहि बेवि निहाले रे ॥ ८ ॥ स० ॥ मा बे दीठा
तिहां । लेइने निज घर जाय रे ॥ कुकरु पोषकने सुंपिया | पंखवाइ मोटां थाय रे ॥ ए ॥ स० ॥ सागरदत्त इंका पासे ज । मनमांहि खाणें संका रे ॥ ए मोर घासे के नहीं । वे नित्य मन संका रे ॥ १० ॥ स० ॥ पोतानुं हुं हाथ करी । कान पासे लेई बजावे रे | एम करतां पोचुं थयुं, वे हाथ घसे पछतावे रे ॥ ११ ॥ स० ॥ इणि न्यायें दीक्षा ले । जिन धर्मे संका वहस्ये रे ॥ इह लोके ते दुख सहस्ये । नरकादिक परजव लहस्ये रे ॥ १२ ॥ स० ॥ जिणदत्त इंकुं जोड़ने । मनमांहि संका टाले रे ॥ मोर होस् सही माहरे । रुमिपरे तेहने पाले रे ॥ १३ ॥ स० ॥ कालें ते पोतज थयो । ते देखी जिणदत्त हरबेरे ॥ मोर पोषक तेमी करी । मोर सोंपी बहु संतोषे रे ॥ १४ ॥ सं० ॥ ए मोर रुमि परे राखज्यो । सीखवजो नाटारंजो रे ॥ ते पण बहु परे सीखने । नाचवा करे रंजो रे ॥ १५ ॥ मोर सीख्यो जिल्दने
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. जाएयुं । चहटे चाचरे से जाय रे ॥ सहस लाख जीपे पणे । नें हीयमे हर्ष न माय रे ॥ १६ ॥ स० ॥णे न्यायें दीदा ले। जिण धर्म निसंकित करस्ये रे ॥ रुषि मेघराज कहे मुदा । जिणदत्त जेम पूजा वरस्ये रे ॥ १७ ॥ स० ॥ ॥ इतिश्री ज्ञाता तुतीयाध्ययन इंडग न्याय सज्झायम् ॥३॥
कापन्याय सज्जाय ४.
(मिथिला नयरी जाणीये ए-देशी. ) नयरी वाणासी जाणीये । तिहाथी कूण ईशाने रे ॥ गंगा नामें महा नदी । माहें अह बहु माने रे ॥ १ ॥ सुंदर मुनिवर इंजीयनें वश कीजे रे। जिनवर जाषित आमस उपर निज मन दो रे ॥२॥ सुंदर० ॥ आंकणी ॥ ते अह वह कमले गयो । बहु मह कहनो ठामो रे ॥ ते पासें मालीक हो। फूल फलें अनिरामो रे ॥ ३ ॥ सुंदर ॥ तिहां बे पाप सीयालीयां । पाप चंमाल सरूपी रे ॥ बाहार गवेषण कारणे । सांके जमे लोलपी रे ॥ ४ ॥ सुंदर
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ॥ गंगा प्रहथी नीसरे । कलप बे आहार अर्थी रे ॥ ते बे पाप सीयालीए । दीग ते पण अर्थी रे ॥५॥ ॥सुंद० ॥ते बे पाप सीयालीया। कहप पासे आवे रे॥ कन्डपे इंसी गोपवी । निश्चल थ ने गवे रे ॥६॥ सुं० ॥ दांत नखे फामे खोने । ते बेहु पाप सीयाला रे ॥ तेहस्युं नवि पहुंची सके। थाक्या बे महा काला रे ॥ ७ ॥ सुंग ॥ एकांते दुपी रह्या। एक कजप मन ताढे रे॥ चीते गयां सीयालीयां । एक पग बाहिर काढे रे॥॥ सुं०॥ ते पग खाधो सीयालीए। एणीपरे चारे खाया रे ॥ ग्रीवा पण काढी पड़े तो। खाधी सघली काया रे । ए॥सुं॥ इणिपरे जे दीक्षा ले। इंशी नविगोपवस्ये रे ॥ कबपनी परे श्ह लोके। पर लोके दुख जोगवस्ये रे ॥ १० ॥ सुं० ॥ हिव ते पाप सीयालीयां । बीजा पासें जा रे ॥ ते हाथ पग गोपवी रह्यो। तेहसुं किंपि न था रे॥११॥ शुं थाकी गयां सीयालीयां । बीजे कन्हप जाणी रे॥दिशावलोक करीने पहुतो। जिहां गंगा प्रह पाणी रे
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४२ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ॥१५ ॥ सुं० ॥ ते कळप सुखीयो थयो । एम सी वस राखे रे ॥ बिहु लव तें पूजा लहे । मेघराज मुदा मुनि नाषेरे ॥ १३ ॥ सुंद॥ इतिश्री ज्ञाता धर्मस्य चतुर्थाध्ययन काच्छप न्याय सज्झायम् ॥४॥ ॥४॥ थावच्चापुत्र न्याय सज्जायम् ॥
- (नयरी चंपावतो जाणीये)
छारवती नयरी वमी, इंजपुरी अवतारो रे ॥ कृष्ण नरेसर राजीयो, त्रण खंग लखमी घर सारो रे ॥त्रण खंझ लक्ष्मी जेहने घरे, जादगं कुल कोमए। उपन बहुत्तर वली अनेरी बांधवानी जोम ए ॥ ते नगरीथी शान कूणे, रेवताचल दीपतो। तिहां नंदन नाम उद्यान मोटो, मेरु नंदन जीपतो ॥१॥ तिणे नया व्यवहारणी. थावच्चा ऋफिप्ररी रे॥सयल कटवे आगली, दान गुणे करी सूरी रे ॥-दान सूरी धने पूरी, थावच्चापुत्र सुत थयो, कला बहुत्तर धूर जणाव्यो, परणावीयो उबव जयो; बत्रीस रमणी एक दहामे, देवता सुख अनुनवे, एणे अवसरे नेमि जि
॥
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
एवर, नविक जन नुवि जगवे ॥२॥ नेमि जिणंद समोसर्या, गिरनारे लगवंतो रे ॥ चतुरंग सेनस्युं परवयों, वांदे हरि गुणवंतो रे॥-जगवंत आव्या निसुणि हर्षे, थावच्चा पुत्र आविया । धर्म देसण संजलीने, संयम लेवा नाविया ॥ घरे आवी माय सुणावी, संयम अनुमति मागए । वचन सांजलि पुत्रना ते,लही मूर्ग जागए ॥३॥ उठी वासुदेव नेटीया, कडं पुत्र सरूप रे; वासुदेव पण घरे आविया, कुंवर प्रते कहे नूप रे ॥-नूप पत्नणे वायु नवरे, शेष बाधा टालस्युं । जोगवो नपे ज्वर उपां सुख, रुमीपरे अम्हे पालस्युं ॥ सुखार का जब न गया, कांश संयम आदरो, वलतुं विमासी कहे कुंअर, जनम मरण यूरें करो ॥४॥ तव वासुदेव वलतुं कहे, ए निज करम विणासे रे ॥ जनम मरण परहां टले, बोले कुमर उदहासे रेःउल्हासथी एम कुंअर बोले, देव अनुमति दीजीए। नेमि जिणवर पाय सेवी, उत्तम कारज कीजीए ॥ उदघोषणा पुरि हरि करावें, जिको संयम बादरे। पढ़ें
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. सयल कुटुंबनो, निरवाह माधव तसु करे ॥ ५॥ थावच्चापुत्र संयम सुणी, सहस्र नर राग प्रमाण रे। बेसी सहस्रनरवाहिणी, आव्या तिहां बहुमांण रे:बहुमाने आव्या कुंवर पासे, देखि उडव हरि करे। सहस्र नरस्युं स्वामि पासें, कुंअर संयम आदरे ॥ थावच्चापुत्र सुमति सुमतो,चौद पूरवधर थयो। सहस्र शिष्य जिन आंण पांमी, विहार करवा ऊमह्यो ॥६॥ तेणें कालें सेलगपुरे, सेलगराय महंतोरे मृडक कुमर युवराजीयो, पंथगादिक महामंतोरेः-महामंत पंथग पंच सयांस्युं, तेणि नगरि पधारिबानी जानपत्र राय वंदी, श्रावक धर्म वधारीया ॥दीपतो। तिहां पनेरी सोगंधीया नगरी वसे । तिहां नगरसेठ एक मोटो, नाम सुदंसण उल्हसे ॥७॥ ते जगतो थयो सुचि तणो, तेणे नगरे गुरु आवे रे; थावच्चापुत्र मुनि सहसस्यु, सुदंसणने मन नावे रे:-मने नावे धर्म पावे, सांजली सुचि धावीया । थावच्चापुत्रसुं वाद करवा, सेठ साथे आवीया।बहु प्रश्न पूर्वी धर्म प्रीडी थावच्चा
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
पुत्र पास ए। परिव्राजक सहसस्युं शुचि, संयम लीए उल्हास ए ॥ ॥ चौद पूरव सुचि मुनि लणे, सहस्र शिष्यनो परिवारोरे; थावच्चापुत्र पण सहसस्युं, सेठेजे चम्या अणगारो रेः-अणगार चमीया, कर्म जमीया, पामि केवल सिद्धि गया । सुचि पासे सेलग पंच सयास्यु, अन्यदा संयत थया ॥ सेलग पण अग्यार अंगी, पंच सय मुनिनो धणी । सेज सुचि पण सहस साथे, सिधि पहुता महामुणी ॥ ॥ सेलग राज झषि विहरता, अरस विरस रस आहारो रे; सरीरे दाघ ज्वर उपनो, न चाले कांश उपचारो रेःउपचार कां जब न चाले, सेलगपुरे मुनि श्राविया। मृक कुंअर वांदि पूढे, नगवन् कांश पूर्बल थया॥ तव कह्यो कारण दाघ ज्वरनो, वैद ततक्षिण पूर्वीया। पामीयु औषध थया सुखोया सेलग कृषि तिहां मूीया ॥ १० ॥ तव पांचसे शिष्य विहरीया, पंथग मूक्युं ले पासेरे; आहार करी गुरु पोढीया, सांके काती चोमासेरेः-चोमासे गुरु पाय खामे, पंथग कृषि
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. पाय लागए । चेत्या गुरु निज पुत्र पासे, विहार अनुमति मागए॥शिष्य सवे वलीया, आवि मिलीया, सेजे सिद्धि गया। निज कर्म बाली पाप टाली सवे ते सुखीया थया ॥ ११ ॥ सेलग धुरि सघला थया, तव पाम्यो अपवादोरे, सुशिष्य विनय देखी करी, वली बांडि परमादोरेः-परमाद गंम्यो, उद्यम मांगयो सुजस तिहूयण विस्तयों । एम अनेरो संयम आदरी, आतम जिणे सिथलो कर्यो ॥ ते लहे निंदा जिके संयम,आदरि उद्यम करे, मुनि मेघराज कहे ते नविक प्राणी, सयल सिकि हेलांवरे ॥ १५ ॥ ॥ इति श्री ज्ञाता पंचमाध्ययन यावच्चापुत्र सुचि सेलग राजर्षि
न्याय सज्झायम् ॥ ५॥ श्रीतुंबकन्याय सज्जायम् ६.
(राग फाग) तेणें कालें अने तेणें समे, नयर राजगृह आसि। गुणसेल चैत्य मनोरम, ते नगरीने पासि॥तिहां जिनवीर समोसा,साधुतणे परिवार।परिषद बार तिहां मिले, नगरि थयो जयकार ॥१॥ वीरजिणंद मुणिंद
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
तो, तिहां सोहे सीस । गौतम उत्तम गणधर, जसु जस विसवा वीस ॥ जठीय वांदी जगगुरु प्रश्न करे तिहां धीर । केम जीव जारे हलून थाय कहो जिनवीर ॥ २ ॥ सांजल गौतम उत्तम एक चित्त कहे महावीर । कोइक पुरुष महा एक तुंबचहे जलनीर ॥ जईने दुर्ज कुसें कर | वेढे ते महा तुंब । लेप करे माटी तपो तावने मूकें तुंब ॥ ३ ॥ सुकुं जाणी करी वेढे मान वली देइ लेप | वचवच माज वेढयो वली उपर माटी आप ॥ वेढे आठ लेप करी नारी हू गोल । गौतम ते जले मूक्यो थको जाए वह बोल ॥ ४ ॥ एणे न्यायें जीव सेवतो महा पावठाण अढार । तेणे करी बांधीया कर्म तेथे थयो महा जार | आठ कर्मे कर वीटीयो प्राणीयों जारे अतीव । काल करी धरणीतले नरक प्रतिष्ठित जीव ॥ ५ ॥ जारी थावातणो गौतम उत्तम एह उपाय | हिवे जेम लघु पण पांमीये ते निसुणो मुनिराय ॥ तुंब व माटी लेपातो जे संबंध | पांणी जोगें माटी गली कोह्यो
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. माननुं बंध ॥ ६ ॥ तव धरती थको ते तुंब कांक पांमे उकास । इणिपरे बंध आने टल्या, तव जल उपरे वास॥इणिपरे लघु पण गौतम पामें जे जग जीव। पाप अढार निवारे धारे धर्म सदीच ॥ ७॥ आठ कर्म बंधण टल्या, तव जीव थाय प्रकास । लोक अग्रे जर ते जीव सास्वत मांगे आवास । गौतम जग गुरु प्रणमी जपे तपे थाय अदीन। कहपनी परें खीय पंच करे संलीन ॥ ७ ॥ एम जाणी आठ कर्म तणों जेम होइ न बंध । तेम करो संवर रसि अहनिस मांमो संबंध ॥ एम करतां केवल लहे लोकालोक वि. काल । मुनिमेघराज कहे सदा ते नरलील विलास ए इति श्रीज्ञाताषष्टाध्ययन तुंबक न्याय सज्झायम् ॥ ६ ॥
रोहिणी न्याय सज्जायम् ७ (राग मेवाडो. विनय करीजेरे भवियण भावस्युं-ए देशी.)
नयर राजगृहरे अति रलीधामणुं, धण नामें तिहां सार्थवाहरे; नसा नांमेरे तसु घर सुंदरी, विलसे सुख प्रवाहरे ॥१॥ नवियण नावे रे संयम पा
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ८९ सोये, बांमी कूम कषायरे; जिणवर वयणेरे आदर कीजीये, शिव सुख एह उपायरे ॥२॥ नवियण ॥ थांकणी ॥ तेह तणे घरे चार सुपुत्र थया, धनपाखने धनदेवरे; धनगोप त्रीजोरे धनरख जांणीये, चार वह सुणो हेवरे ॥३॥ ज० ॥ उहिया पहिलीरे, जो. गवती बीजी;त्रीजी रिषिया जांण रे चोथी वहुरे नामे रोहिणी, बहु गुण तणीय निहांण रे ॥४॥ न॥ सार्थवाह चिंतेरे रात्र पबिम पहरें, कोण मुज घर
आधार रे; चिंतवि एह रे प्रातजिमांमीयु, कुटुंब सवे परिवार रे ॥५॥न ॥ तेहनी साथेरे वह चि. हुंने दीए, पंच सालि मागु जिवार रे; राखी वधारीने मुझनें आपजो, वहू कहे तहत्ति तिवार रे ॥६॥ ॥ न० ॥ उजिया नाखरे वाटें घर जाती, जोगवती सालि खाय रे, रखिया राखे रे रतन करंमीये, रात्रे उसीसे गयरे ॥७॥ पीहरीया तेमावे रे चोथी रोहिणी, सुंपी ते पंच सालि रे; रुमी परे राखीने एह वधारज्यो, ते लीए सालि संजालि रे ॥ ॥ ज० ॥ पंच
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
सालि वावीरे चार वरस लगें, बहुं कुंनसे यइ सालि रे; पंचम वरसें रे धने चिंतन करी, तेमयुं कुटुंब सकालिरे ॥ ९ ॥ ज०॥ प्रथम जमामीने तेहनें समदें, मांगि उड़िया सालि रे: ते पण आणिरे सालि कोगरथी, सालि पंच जोइ टालि रे ॥ १० ॥ ज० ॥ धनें
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लख्योरे दाणा ते नही, पूर्वी उकिया तामरे; ते प बोली रे नाख्या में सही, सार्थवाह दिए तसु कांम रे ॥ ११ ॥ ज० ॥ न्याति समदेरे दासी उतियां, कीधी एम जे साध रे; पंच महाव्रत यादरि जे त्यजे, ते जव रुलस्ये अगाधरे ||१२|| ज० ॥ तेषी परे पूबीरे जोगवती कहे, खांधा दांणा में सेठ रे; तव तेहने कीधीरे रांधणि एम जिके, संयत जरस्ये पेट रे ॥ १३ ॥ ज० ॥ ते दुख लहस्येरे जोगवती परे, रखिया राख्या जाणि रे; धने कीधी रे तेहने जंकारणी, पाम्यो सुख बहुमां रे ॥ १४ ॥ ज० ॥ एम जे महाबत रुकें राखसें, ते सुख जसनो जंकार रे; सार्थवाहें पूबी रे लघुवहू रोहिणी, नरे ते सालि कोठार रे ॥ १५ ॥
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. धनसाहें कीधीरे ते घर स्वामिनी, एम जे महाव्रत पंच रे; रुमिपरे राखीने जेह वधारसे, ते सुख लहे सप्रपंच रे ॥ १६ ॥ ज ॥ एहवं जाणीने महाव्रत राखस्ये, तेहनां सीके काज रे; तसु जस परिमल चिहुं दिशि विस्तरे, प्रणमे मुनि मेघराज रे ॥ १७ ॥ जण ॥ इति श्रीज्ञाता सप्तमाध्ययन रोहिणी न्याय सज्झायम् ॥७॥
॥ मल्लीन्याय सज्जायम् ॥७॥ (गोयम गणहर पाय प्रणमी करी-ए देशी)
अपर विदेहेरे विजय सलिलावती, बलि नामें मोटोरे तिहां पृथ्वीपती; महाबल कुंअररे धारणि उर धयों, मित्र ब साथेरे ते नित्य परिवयोंः-परिवयों अन्यदा थविर पासे, कुंअर संयम आदरे, ब मित्र साथे कपट करतो महाबल तप अधिको करे; स्त्री वेद अरज्युं कपट करतां वीस थानक फरसतां, जिन नाम गोत्र उपारजीने जयंत पहुता तिहां हुतां ॥१॥ तिहाथी चवि करि जरत महिलापुरे, कुंन नरेसर प्रजावती उरवरें; महाबल सखर आवी अवतरियो,
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श्री ज्ञातामूत्रनी सज्झायो. चौद सुपनस्युरे जिणवर गुण नर्योः-गुण जर्या जनम्या मागशर शुदि दिन एकादस सुरवर, उडव कोई कर्म कन्या नाम मबी पिड करे; अनुक्रमे यौवन रूप चमीया मोहण एक घर कारए, सोवन प्रतिमा मांहि मंमावी कवल दिन प्रति जारए ॥२॥ एणे अवसरे पूरव मित्र सुरवर, चवी बह नगरें ते थया नरवर कोसल देसेंरे नगर साकेत ए,पमिबुद्धी राजारे एक थयो केतुए-केतु सरखो पहु प्रतापी, देवी तस पदमावती,सुबुद्धि मंत्री नाग यात्रा अन्यदा हुश्नावती; अंग देसें नगर चंपा, चंछ बाया राजी. यो, तिहां अरहन नामे सेठ म्होटो श्रावकने गुणें गाजीयो ॥३॥ देस कुणालारे नयर सावथ्थीए,रुपी राजारे सेव्यो अरथीए;धारणी देवीरे सुबाहु उदारिया, रूप यौवनरे करी लक्षण धारियाः-धारिया लक्षण का. शिदेसे नगर तीहां बाणारसी, संख नामे राय मोटो, किरती जसु चिहुं दिशि वसी; कुंनराए कुंगल काजें सोवनकार निनुंबिया, ते गया कासी राय पासें जे.
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
टि राये प्रतीबीयां ॥ ४ ॥ कुरुवर देसेंरे पुर हत्थिना उरे, राजा प्रदीपशत्रुरे वय निरजरे; कुंज नरेसररे पुत्र सुगुण जर्यो, मह्नि दिनरे कुंछार लक्षण परिवर्यो:परिवय अन्यदा ते तेकावे, चीताराकै कारीगरु, पंचालदेसें कंपिल नगरे राय जितशत्रु मणहरूं; नयरि मिथिला नाम चोखा वसे तिहां मस वासणी, एम वह राजा परवानें श्रव्या जिहां त्रिभुवनधणी ॥ ५ ॥ कुंने तेथारे ढांना बह नृपा, पहुता मोहण घरे तेजे तपनतपा; स्वामि पधारीरे पश्मि उघामए, गंध विज्ञटी रे वदन नसाकए: - नसामए मुख बह राजा ताम स्वामी बोलए, मल मूत्र जर्यु मनुष्यनुं तनु जंगुर घम सम तोलए; संवेग अधिको बह राजा सांजली मनमां वहे, जाति सांजरि प्रभु पासे संयम लेवा ऊमहे ॥ ६ ॥ पोस उजाली रे तिथि एकादसी, वरस सो पूरे कुरि घरे वसीमली जिणेसर संयमदरे, व सुरवर तिहां बहुला करे:- करे उडव स्वामि साथें बद राजा पण ग्रहे, चारित्र जिणवर
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
पामि केवल समेतें शिवपुर लहे; एम जाणि नवियण कपट टालो संयम पालो जावस्युं, मुनि मेघराज कहे जेम सुजस पामो तरो जव धर्म नावस्युं ॥७॥
इति श्रीज्ञाताष्टमाध्ययन मल्लीन्याय सज्झायम् ॥जिनरदित जिनपाल न्याय सजायम् ॥७॥
( राग जकडी.-सिद्धारथ नरवर कुले-ए देशी.)
नयरी चंपावती जाणीये, माकंदी सार्थवाहो; नमा नांमे सुंदरी, विलसे सुख प्रवाहो,:-प्रवाह सुखनुं विलसंतांरे, पुत्र अनोपम बे जण्या; जिनरखित जिनपाल नामें, कला बहुत्तर ते नण्या ॥श्ग्यार वेला सायर उतरि, धन उपारजि आवीया। बारमी वेलावली चमिया, मावीत्र पूढे लावीया ॥१॥ मावित्र वरज्या पण नवि रह्या, वाहण लरीलं धन धांने; कुटुंब सवे मोकलावीने, चालिलं वाहण बहुमानें:-बहू माने जग्र वाय दह दिशि, वाहण पण शतखंग थयुं । पाटीयुं पांमी बेव बंधव, रयणदीप तेणे सयुं ॥ तिहां
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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उतरी जल वावे पीधुं, रयणादेवी जांणीयां । तिहां वि तत क्षण घणे मांने, बे बंधव घरे आणीया ॥ २ ॥ अमृत फलें करी पोषीया, विलसें देवी स्युं बेहवें; अन्यदा इंद्र आदेशथी, समुद्र सोधन चाली तेहवें: - समुद्र सोधन देवी चाली, जाती कहे वे जोमुदा । सुखे रहेज्यो निज श्रावासे, त्रणें वनें रमजो सदा ॥ पण दक्षिण वनि तुम्हे म जाज्यो, तिहां एक काल जुजंग ठे । ते तुम्ह जीव विणास करस्ये, एम कही जाए पढे ॥ ३ ॥ घरे ते बेन विरति लहे, त्रण वन जोए उल्हासो; दक्षण वायु के कारणे, परस्त्रीनो स्यो विसासोः - विश्वास स्यो परदार केरो, चिंतवि दक्षण वन गया । सूली विध एक पुरुष देखी, बे बंधव जयजीत थया ॥ हाम ढगलो देखिने रे, सूली विध नर पूढीयो। ते कहे काकंदीपुर निवासी, हुं एणी देवी एम की यो ॥ ४ ॥ ए देवी महा पापिणी, तु अपराधें मारें; तव बे पूबे तेहने, म्हने कहो कुण तारें; -तरों तवही ज ते कहेरे, सेलगयक्ष सेवा करो । ते करे सेवा सेलग
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. कहेरे, वचन एक हीयमे धरो ॥ नारी म धरज्यो चित्त मांहे, कही अश्वरूप ते करे । खंधे चमावि बेहु बंधव, सेलग यद सायर तरे ॥ ५ ॥ (ढाल २ राग मारुणी. कोई राखोरे मेघरथराय. ए देशो.)
रयणादेवी आवी मंदिरे, बे बंधव नवि देखे रे; ज्ञान करीने जोयुं तेणीये, सेलग खंधे पेखे रे ॥६॥ मनावो रे प्राण आधार, कहेंती पू- धाई रे; जिनरखित जिनपालीओ, सेलग साथे जाई रे ॥७॥मनावो रे ॥ आंकणी ॥ विल विलती अंगमोमती, उपरे नाटक करती रे; हावनाव देखामती,आंखे यांसू जरती रे ॥ ॥ मना ॥ अबला एकलमी किसें, अपराधे मुफ बंमोरे, पूरव प्रीति वीसारिने, जणजण स्युं कां मंमो रे॥ए॥मनीरस निर्दय नीवर, जिनपालक सदा एहवो रे, जिनरखित रसीओ सदा,मीठगे जाण किये मेवो रे ॥१॥ म०॥ एकवार नयण निहालीए, किंकरी तुम्ह पाय लागे रे; जिनरखित प्रेम पूरीयो, जोवे देवी मुख रागे रे॥१९॥म॥सेलगपूरथी
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ९७ खेसवें, देवी त्रीशूलें धरीयो रे; तीक्षण करवालें करी, खंमोखं ते करीयो रे ॥ १२ ॥ मग ॥ एम जे संयम आदरो, वांबसे जे कामलोगो रे; ते जिनरखितनी परें, लहस्ये उखनो जोगो रे ॥ १३॥ म ॥ वली देवी विलवे घj, जनपालक नवि चलीयो रे; तो ते सेलग तारीयो, सयल कुटुंबे मलियो रे ॥ १४ ॥ म ॥ माणसना सुख नोगवी, पडे थयो ऋषि राजो रे; एम जे कामनोग बमस्ये, ते साधे निज काजो रे ॥ १५ ॥ म ॥ सेलग गुरु जिम जाणवो, लवजल निधि सम जांणी रे ; नारी नयणे न चूलस्ये, ते तरसें नव प्रा. णी रे॥१६॥म ॥ विषय कषाय निवारीने, धन्य तिके धर्म राखे रे, राजचं सूरि जगविचरतां, मेघराज मुदा मुनि नाषे रे ॥ १७ ॥ मना ॥ इति श्रीज्ञाता नवमाध्ययन जिनरक्षित जिनपालित सझायम् ॥९॥ . ॥ १० ॥ चंमा न्याय सज्जायम् ॥
(रतनपुरी सणगार-ए देशी.) तेणे समे तेणे काले नयर राजगृहें, वीर जिणंद
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. समोसर्याए ॥ तेणे काले गणधार, गिरु गौतम सोवन वन तनु दीपतो रे ॥ १॥ श्रावी प्रजुने पासें, देश प्रदक्षणा वांदी पूडे गुरु कन्हें ए॥ मया करी जिनराज नगवन मुऊ कहो, जीव घटेनें किम वधे ए॥ ॥॥ बोले जगगुरु वीर, गौतम पमिवाथी, कृष्ण पदें जिम चंउमाए; दिन प्रति मंगल हानि, जेम अमावासें, अस्त मंगल शशहर थयो ए ॥३॥ एम जे चारित्र लेश, दिन प्रतिहारवे, दशविध यति धर्म प्राणीयोए; खंती गुत्ति बंजचेर, उठा करतो ए इणि विधे आपण' घटे ए॥४॥ वधवानो उपाय गौतम सांजलो, पमिवा शुक्लथी चंडमाए; दिन प्रते वाधे तेज, मंगल पण वाधे, पूनिम पूरो उगमे ए ॥५॥ एम जे चारित्र ले,साधु गुणें वाधे,खंति गुत्ति ए करी दिनप्रतें ए; पूरो जास प्रकाश, दीपे शशि जिम एणीपरे,आपण पुं वधे ए॥६॥ एम सांजलि जिन वाणि, धर्मे उद्यम करो, दिन प्रति चमते जावस्युं ए श्ह लोके जयकार, शिव सुख परनवें, मुनि मेघराज कहे मुदाए ॥ ७॥
इतिश्री ज्ञाता दशमाध्ययन चंद्रमान्याय सझायम् ॥१०॥
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श्रीज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
॥ ११॥ दाव दवा वृक्ष न्याय सज्जायम् ॥ ( राग मारुणी. तीरथपतिरे श्री वीर सदा नमुं रे-ए देशी. )
राजगृहरे नगरी अति सोहामणी रे, समोसर्या जिनवीर ॥ गौतमरे गिरुन गुरु वांदी कर रे, प्रश्न करे तिहाँ धीर ॥ १ ॥ जगवन हो जाषो जाव करी जलें रे, तुम्ह वांणी अमीय रसाल ॥ एतो बूजे बाल गोपाल, जग जीव दया प्रतिपाल ॥ २ ॥ जगवन० ॥ ॥ कणी० ॥ २ ॥ विराधक रे ने आराधक जीवकोरे, थाए के प्रकारि ॥ जिणवर रे जाषे गौतम सांजलोरे, समुद्र जय बहु वारि ॥ ३ ॥ ज० ॥ तेहने कूलें रे दाव दवां उग्या तरु रे, वाए पूरव परिम द्वीप चाय ॥ वाय जोगें रे एकेक फूले नें फलें रे, एकेक पण कमलाय ॥ ४ ॥ जगवन० ॥ एम संयमरे लेइने जे संयती रे, खमे साधु श्रावकना बोल | पण नविरे अन्य तीरथीना ते खमेरे, ते देस विराधक तोल ॥ ॥ ५ ॥ पूरव पविम रे सामुद्रिक वाय वायते रे, के सूके दाव दवा तेह, केइ करे पतियां पुफियांतें
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. फट्यां रे, एम चारित्र आदरि जेह ॥६॥ ज०॥ अन्य तिरथी रे जाण्यांवचनसमा सहेरे, पण साधुश्रावकनी वांण ॥ न सहे रे गौतम ते चारित्रीयो रे, देस बाराधक जाण ॥ ७॥ न० ॥ केश दाव दवारे मूंकी पान परहां पमें रे, वाय डीप समुपनो वाय ॥ नहु खमसे रे सह एना जे बोलमा रे, ते सर्व विराधक थाय ॥. ७॥ नव ॥ के दाव दारे पुफियांने फलियां सदा रे, वाये छीप समुनो वात, एम मुनिवर रे सहेसे सहूनां वयणमां रे, ते सर्वश्राराधक ख्यात॥ए॥न ॥ विराधकने आराधक एम जाणीए रे, खमस्ये जे मुनिराय॥मुनि मेघराज रे ते गुरुने नावें करी रे, दिन प्रति प्रणमे पाय ॥ १० ॥ ज० ॥ इतिश्री ज्ञाता एकादशाध्ययन दावदवा वृक्ष न्याय सज्झायम्॥११॥ ॥ फरहोदकन्याय सज्जायम् ॥१२॥
(कुमर सुबाहु वखाणीएजी-ए देशी.)
चंपा नयरी धने नरीजी, जितशत्रु तिहां नरराज; धारणि देवी डरें धर्योजी, अदीणशत्रु युवराज
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श्री ज्ञातामूत्रनी सज्झायो. . १०१ ॥१॥ उत्तम नर संगति साधु करेसि, तो धर्म पामिस सुबुद्धिथी हो, जेम जितशत्रु नरेश ॥२॥ उत्तम ॥ आंकणी ॥मंत्रिसुबुद्धी जाणीयेजी,श्रावक बुद्धि नंमार ॥ नगरी बाहिर जलें जरीजी, खाइ एक असार ॥ ३॥ उत्तम ॥ गो अहि कूकरनां ममांजी, तेह पुरगंध वारि ॥ अन्यदा राय जमी करीजी. विटयो ने परिवारि ॥४॥उत्तम०॥ नात वखाणे वली वलीजी, सहू कहे हाजी एम॥तव राजा सुबुद्धिजी, वलि बलि पूढे तेम ॥५॥ उत्तम । सुबुद्धि कहे राजन सुणोजी, पुदगल एह सनाव ॥ रहुं ते मुं हुवेजी सुगंध पुरगंध नाव ॥ ६ ॥ उत्तम ॥ रायने मन मान्युं नहीजी, अन्यदा चमी हय खंध ॥ खाइ पासें नीकट्याजी, उबली तिहां पुरगंध ॥ ७॥ उत्तम ॥ मुह मचकोमवा लागीयाजी, मंत्री तिहां समन्नाव ॥ राय कहे अहो पामुयोजी, फरहोदक सदनाव ॥७॥ ज० ॥ मंत्री पूयुं एम कहेजी, राजन पुद्गल मर्म ॥ जे जूठं ते हुवे नमुंजी, कहे राय खोटो धर्म ॥ ए॥
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ज० ॥ राय प्रतिबोधवा जणीजी, फरहोदक संऊकाल; मंत्रि अणावी नवे घमेजी, दिन प्रति घालेगाल । ॥१०॥ जग ॥ एम करतां अव्य घालतांजी, उदक रयण ते थाय; पाणी घर नरसुं पीजी, जिमीय चखूलिए राय ॥ ११ ॥ ज० ॥ राजा अति आणंदीउजी, पूब्युं मंत्री जेम; फरणेदकथी नीपमुंजी, राय करावें तेम ॥ १२ ॥ ज० ॥ उदक रतन वली नीपमुंजी, राजा श्रावक थाय; कालक्रमें संयम ग्रहेजी, मंत्री पण नले नाय ॥ १३ ॥ ज० ॥ अंग ग्यार बिहुं लणेजी, पामे केवलसार; मुगति रमणि बन्ने वरेजी, नर सुर करे जयकार ॥१४॥ ज० ॥ फरहोदक न्यायें करीजी सुबुझें बोध्यो राज; एम जविक नर बोधीएजी, पजणे मुनि मेघराज ॥ १५ ॥ ज० ॥ इतिश्री ज्ञाताद्वादशमाध्ययनफरहोदक न्याय सज्झायम् ॥१२॥ नंदमणीयारन्याय सज्जायम् ॥१३
( ससनेहा गौतम-ए देशी) नयर राजगृह दीपतुंजी, गुणशैल वीर वर्धमान
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. १०३ समोसर्या यावी मिलेजो, परषद दिए बहुमान ॥ ॥१॥ सोजागी वीरजिण सेवो नवियण लोक, जेहने ध्याने देमकेजी, पामियुं सही सुरलोक ॥२॥ सोजागी० ॥ आंकणी० ॥ सुधर्मा देवलोकथीजी, आवी दऽरदेव; बत्रीस व नाटक करेजी, एक मन सारे सेव ॥३॥ सोजागी ॥ गौतम पूजे वागरोजी, जगवन दर्डर देव; देवतणी शधि नोगवेंजी, केहवे कमें हेव ॥४॥ सो ॥ सुण गौतम राजगृहेंजी, नंद नामें मणीआर; धनपति वीर जिन संगतेजी, पांम्यो धर्म उदार ॥ ५ ॥ सो० ॥ अन्यदा संग असाधुनोजी, सेवानें समवात; समकित पर्यव हारीयाजी सबल थयुं मिथ्यात ॥ ६॥ सो ॥ तेणे से- ग्रीषम समेंजी, अष्टम तप वर कीध; तृषा पोसामांहि उपनीजी, आरतिस्युं मन दोध ॥७॥ सो॥चिंते धन्य ते सर कूआजी, वावि करावी जेण; पारी पोसो श्रेणिक कहीजी, वावि खणावि तेण ॥ सो ॥ ७ ॥ चिहुं दिशि वामी सोनतीजी, तेह माहे साल चार;
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१०४ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. पूरव नाटक माहा नसाजी,-ते गही अलंकार ॥ए॥ सो० ॥ बहु जण एम संतोषीएजी, लोक प्रशंसे सेठ; अन्यदा सूल रोगें करीजी, आरति मूठ नेट ॥१॥ सो॥ तेणी वावें देसक थयोजी, सांजलि कीरति सार जातीसमरण उपमुंजी, अणुव्रत करे उच्चार ॥११॥ सो ॥ गौतम हूं तिहांबावीजी, सांजल देसकराज; चादयुं राजपंथे थजी, वीरजिण वंदण काज ॥१॥ सो ॥ श्रेणिक पण आवे तिहांजी, वंदण लेइ परिवार; एक किषोरे देमकोजी, चांप्यो ते निरधार ॥ ॥ १३ ॥ सो एकण देसें आक्रमीजी, वीर जिन सन मुख थाय; हाथ जोमी जिन स्तुति करेजी, काल करे जले जाय ॥ १४ ॥ सो ॥ सोहमें सुरवर थयोजी, चार पल आयु प्रमाण; क्षेत्र विदेहें साऊसेजी, गौतम उतपति जाण ॥ १५ ॥ सो ॥ एणे कारणे मिथ्यातनीजी, संगति पूरे टाल; मुनि मेघराज कहे मुदाजी, जिणवर आणापाल ॥ १६ ॥ सानागी० ॥ इतिश्रीज्ञातात्रयोदशमाध्ययन नंदमणीयार न्याय सज्झा रम ॥१३॥
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. १०५ तेतली पुत्रन्याय सज्जाय १४.
(गोयम २ गणहर पाय नमी-ए देशी) तेतली तेतली पुरवर जांणीयेए, बहु धन बहु धन तणो निवासके; कनकरह राजा दीपतोए, हय गय हय गय बहुलां तासके, तेतली पुरवर जाणीयेए;-जाणीये रूम राय केरी देवीपट्ट पदमावती, तेतलीपुत्र प्रधान प्रवर चार बुद्धि तस जागती; कलाद नाम सोनार मोटो पोटिला तस वरथया, त मंत्रि परणी घणे हर्षे, विविध परे उडव थया॥१॥कनकरथ कनकरथ राय चिंतवे ए, पुत्रथी २ राज विणासके, जनम जात कलेश करीए, विनवेश बहु परे तासके, कनकरथ राय चिंतवेए:-चिंतवे रांणी घरे तेमावे, तेतलि पुत्र प्रते एम कहे, राय हुंती पुत्र बनो, राखो तो घर स्थिति रहे॥देवी जायो पुत्र गंनो, पोटिला खोले लीए, पोटिला जाइ मुश् बेटी, राणीने आण। दीए ॥२॥ तेतली मंत्रीयनें घरे ते वधेए, कनकध्वज नाम तासके, लदण गुणे करी परवों ए, सीखवो २ कला
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श्री ज्ञातामुत्रनी सज्झायो.
अन्यासके, तेतली ने घरे ते वधे एः- वधे यौवन रूपें मीय मंत्रिने मनें पोटिला, अनिष्ट गढी हूइ कर्मे या चिंते मन जला ॥दांनसाला दांन दीजे, सुव्रता संगति ज, साधवी पासे धर्म सांजलि, संयम लेवा ऊमही || ३ || मंत्रीय २ पूढयो एम कहे ए, संयमश् पालीय सारके, देवतणी ऋद्धि जो लहोए जोगवो सुख विस्तारके, मंत्रिय पूढयो एम कहे ए: - लहो जो तुम्हे देवता जव, तुम्हें हुं प्रतिबोधवो, ए वाच दे चारित्र लेश, संयम पालेा जिनवो ॥ पोटिला - का काल करीने, देवना सुख अनुजवे, कनकरथ रा काल कीधे कनकध्वजराज जोगवे ॥ ४ ॥ मातानें वयणें मंत्रिए, मानेएर बहु परे रायके, - वतां ऊठे सण दीए ए । पगसात पुढें जायके, मातानें वयणें मंत्रिनें ए:- मंत्रि वाध्यो राय मांन्यो, देव पोटिल अनुदिनें; बूऊवें मंत्रिराज गर्वे, देवनें कां नवि मने ॥ तो तेहनें प्रतिबोधवाने, राय ऊपराठोकीयो, तो मंत्रि वामीमांहि पेसी समतारस मन
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• श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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जावीयो ॥ ५ ॥ मंत्रीय मंत्रि चिंते सवि कारमाए, साजण पीठ परिवार के श्राप सवारथ सहुए मियुंए को नहीं को नही केहनें आधारके, मंत्रिय चिंतें सविकारमाए: - धारि मनमां एक जिनधर्म देवपोटिल बूजबे, जातिसमरण लहे मंत्री, पूरव जव तिहां सूवे ॥ पाबले नवे महापदम राजा, हूं हुई पुंकरी गिणी, संयम पाली महाशुक्रे, देव हू रुद्धि घणी ॥६॥ तिहां थकी २ चवि मंत्री थयो ए, साधवो २ मनुजव सारके, पंच महाव्रत आदरे ए । पोटिल २ देवकरे जयकारके, तिहां की चवि मंत्री थयोए:- ऊमह्यो मंत्री
पूर्व करणें, कर्म दय सघलां करे, लहे केवल ध्याननें बल, सिद्धि रमणी ते वरे ॥ एणे न्याये दुख पाये केई जीव नवि धर्म लहे, केईक पामे ब्रूऊव्यो धर्म, मेघराज मुनि एम कहे ॥ ७ ॥
इति श्रीझाता चतुर्दशमाध्ययन तेतलीपुत्र न्याय सज्झायम् १४ ॥ नंदिफल न्याय सायम् ॥ १५ ( सोरीपुरवर वसुदेव राजा - ए देशी. ) चंपानयरी जितशत्रु राजा, सारथवाद धनावो
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१०८ श्री ज्ञातामुत्रनो सज्झायो. नांम; ते चंपाथी कूण शान, अहिबत्ता नगरी धनगंम ॥१॥ काम सुखेथी विरमो नवीयण,मन धरि निर्मल पालो सील, इह लोके सुख संपति लहीये, परनव मुगति तणी लहे लील ॥२॥ कांम० ॥ आंकणी ॥ सेठ धनावोलेई किरीयाएं, अहिबत्ता नणी करे प्रयाण; साथे गृहस्थ अने घणा लिंगी, अरथी जननें दिए बहू दांण ॥३॥ कान ॥ देस प्रांत जई ते उतरी, मोटे साद करावे घोष; आगे नंदि फलां बह तस्वर, तेहनां फल म म खाज्यो लोक ॥ ४ ॥ कांम ॥ नंदि फलां पासे जे रहिया, सेठ करावे पुनरपि घोष; मीगं फल दीसे अति सुंदर, सेठ कहेवायुं ते करे फोक ॥ ५॥ काम ॥ सेठ तणां जेणे वचन न मान्यां, हंस करीने जे फल खाय; जेम ते फल रस परिणमीयो, ततदण ते सवि यमघर जाय ॥६॥ काम ॥ एणे न्यायें जे संयम लेई, पंचेंडि सुख कामे जेय; इह लोके ते आपद पामे, परनव सहस्ये बहु गति तेह ॥ ७॥ कां ॥ सेठ वचन
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. तिहां माण्यां जेणे, तेणे नंदि फल बांड्यां पूर; कुसले खेमे ते घरे पहुता, पाम्यां तेणे सुख नरपुर ॥॥ कां ॥ एम जे संयम लेई मुनिवर, पंच विषय सुख बगमे जेह; इहलोके ते देवतणी परे, परनवे सिव सुख पामे तेह ॥ ए ॥ कां ॥ सारथवाह धनावो कुशलें, अहिबत्ता पुरि करे प्रवेश; काम करी चंपापुरिावे, विलसे लखमी सुखें असेस ॥ १०॥ कां ॥ अन्यदा सेठ लीए वर दीदा, देव थयो लहस्ये सिवराज; एहवा ऋषिनां समरण कीजे, पत्नणे हर्षे मुनि मेघराज ॥ ११ ॥ काम ॥ इति श्रीज्ञातापंचदशमाध्ययन नंदिफल न्याय सज्झायम् ॥१५॥
१६ दूपदी न्याय सज्जायम्. (त्रिभुवन प्रभुरे मल्लिजिणंद जुहारीए-ए देशी.)
चंपापुरिरेत्रण वसे सहोदरा, सोम सोमदत्तरे सोमजूति धनेसरा; ते त्रिहुं तणीरे नार्या नागसिरी वमी, जूतसिरीरे जदसिरी रूपें चमीः-चमी रूपें तेणे नयरें, धर्मघोष गुरु परिवर्या; उद्यान आव्या तास शिष्यवर,
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
धर्मरुची बहु गुण जर्या ॥ धर्मरुची मुनिवर मास पारणे नाग सिरी घर यावए, ककूंचं तुंबुं पां मियाहारी सव सिद्धि सुख पाव ॥ १ ॥ नाग सिरिरे महामुनिवरना घातथी, हेली लोके रे रोगे पमी पापथी । पहुतो छडी रे मह मरीनें सातमी; एम साते रे नरके फिरी बहु पुखखमी:-खमी वेदन पुढवि मह कह, जाव काल अत, बहु दाह पीमी जमत जमतां, जरतखेत्र विदित ॥ तिहां नयरि चंपा, सागरदत्त घरे हुई ते वर बालिका, सागरें परणी सारथवाह सुति नाम तसु सुकुमालिका ॥ २ ॥ तेहने फरसें रे सागर कुंअर बहु बले, तेणे बांकि रे निक्कुक पण तेम परजलें । दान साला रे अातिहां गोवालिया, तेनें पास रे दीक्षा लिए सुकुमा लिया; - सुकुमालिया वनलिए तापन, छठवें अनुदिनें, पंच गोविल एक वेशा देखी चिंते ते मने ॥ एह संयमनो फल ए बेतो, मुऊ पंच जर्त्ता परनवे, थाईज्यो एहवुं करि नियाएं, ईशा देवी हुवे ॥ ३ ॥ कपिलपुरि रे डुपदाय घरे
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. १११ अवतरी, नांमें धूपदी रे लक्षण श्रावक गुण नरी; पांच पांडव रे आव्या परणवा काज ए, पदी पण रे पूजे श्री जिनराजए;-जिनराज प्रतिमा पूजि परणी हस्तनागपुरि आव ए, पांमवे मान्युं कुबिल नारद, सुपदी न संनाव ए; धातकी खंमे अमरकंका राजधानी नरवरु, पदमनाने खूपदी हरावी, करे बळ आंबिल वरु ॥ ४ ॥ छारावती रे कृष्ण नरेसर राजीयो, बिहु खंभे रे जेहनो महिमा गाजीयो; तेणे. कृष्णे रे पांच पांडव साथें मिली, तरी सागर रे ड्रपदी चाली मनरली;-मनरली सागर वेगे उतरि, गंगा पांमव उतरे, देवी गंगातणे सांनिध, तरी हरि गुण स्तव करे; कहे पांमव बल परीक्षा करी नाव न मोकली, सुण। कृष्णे दी देसवटो, पांच पांमवने बली ॥ ५ ॥ वासुदेवनीरे आणा पांमी पांमवे, पांसुं मथुरारे दक्षिण वासी तिणे हवे; पुत्र प्रसवेरे ड्रपदी पांमुसेन कुंअरु, समोसा रे ओरा नगवन गणहरु:-गणहरु थेरा पास पांमव, नारिस्युं संयम लीए, चौद पूरव नएयां तेणे,
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. संयम तपस्युं चित दीए;-सुव्रता अजा पासे दीक्षा, लीए तिहां वर ड्रपदी, नण्यां अंग श्यार जप तप, करे बहला ड्रपदी ॥६॥ पांच पांमवरे नेमि वंदण सोरठ चल्या, नेमिसर रे गिरनारें शिवपुरि मिट्या; ते सांजलि रे पांडव अणसण उचरें, सेजेरे पामी केवल सिकि वरें;-सिद्धि वर्या पांमव ड्रपदी पण, करी अणसण शुन्न मने, ब्रह्मलोके देव पदवी, नोगवे सुख अनुदिने; सिफसे विदेहें एम जाणी, नी
आएं इरें करो, मेघराज मुनि कहे नवियण, सयल सिद्धि जिम तुम्हे वरो ॥ ७॥ इति श्रीज्ञाताषोडशमाध्ययनद्रुपदीन्याय सज्झायम् ॥ १६ ॥ : घोटकन्याय सज्जायम् ॥१७॥
(धर्म जिणवर सांभलो. ए देशी) हस्तशीर्ष पुरवर वमुरे, कनकध्वज तिहां राय; वाहण व्यापारी वांणीया, तिहां निवसेरे जाणे धन उपाय ॥ १॥ सांजण रे साजण माणुस सांजलो रे, वस कीजे रे इंशीय पंच, नरनव रे नरजव लहितां
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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कणी० ॥ श्रालोची ते
दो हिलो रे ||२|| साजण० ॥ वांणीयारे | जर समुझें जाय ॥ उतपात अनेक नदीरीया । मूढ रे तिहां कालीयवाय ॥३॥ साजण०॥ मूढ दिशा नियमिकारे । श्रथतमा ते नीट ॥ काली दीपें जड़ उतर्या । तिहां घोमारे बहुला दीव ॥ ४ ॥ साजण० ॥ रतन सोनाना आगर घणा रे । तेणे वाहण पूरि ॥ पाठा हस्तशीर्षे यवीया । राय जेट्यो रे नेट लेइ नूरि ||५|| साजण० ॥ कनक केतराएं पूबीया रे | कां पूरव दी || बोल्या वलता वांणीया । काली दीपैरे घोगा कि ॥ ६ ॥ साज० ॥ तो रा नर मोकल्या रे । घोमा काला काज ॥ वाजिंत्र चित्राम चंदन पुमा । गुल साकर रे कंबलराज ॥ ७ ॥ साजण० ॥ एणे वाहण पूरीयां रे । ते काली दीवे जाय ॥ साकर गंध वाजां देखी। केश्क घोमा रे दूर पलाय ॥ सा० ॥ ||८|| ते सुखीया थया सांचरे । एम जे चारित्र लेइ ॥ पंच इंद्रीय विषय बांगस्ये । सही जवोजव रे पूजा लह ते || साज बीजा जे घोका लालची । ते
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. तरतर नेमा थाय ॥ नीला जव साकर वाणी । पीतां घोमा रे तिहां बहु लोजाय ॥१०॥ साजण ॥ चक्कु श्रवण नाक जीनथी रे। घोमा घणा ऊलाय ॥ वाहण तेणे पूरी करी, ते सुप्या रे कनककेतराय ॥ ११ ॥ सा॥ कंब प्रहारे सीखव्या रे। ते घोमा एम साधु॥ पांच इंघीय विषय मूंजस्ये। ते मुखीयारे नव रखस्ये अगाध ॥१२॥ सा॥ पांच इंडीविषय बांमीए रे । एह जांणी रे जीव ॥मुनि मेघराज कहे मुदा, जिम पामो रे तम्हे सुख सदीव ॥ १३॥ साजण ॥ ॥ इति श्री ज्ञाता सप्तदशाध्ययन घोटक न्याय सज्झायम् ॥१७॥
॥१० सुसमान्याय सज्जायम् ॥
( सांभलि वांणी जिनतणी-ए देशी.) नयर राजगृह दीपतुं। श्रेणिक तिहां नरराय ॥ धनो नाम सारथपति । पंच पुत्र तसु थाय रे ॥१॥ धर्मि उद्यम करो । एह सरीर असारो रे ॥ सूधां व्रत धरी । लीजे एहनुं सारो रे ॥२॥ धर्मि॥ आंकणी॥ धनो धनपाल जाणीये । धनदेव धनगोव नाम ॥ धन
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
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रख बठी एक सुता । सुसमा रूपे निरामो रे ॥३॥ धर्मि० ॥ सेवत घरे दास चेको । तास चिलाती नांम ॥ सुसमांनें ले करी । करे रांमतिनुं कांमोरे ||४|| धर्मि० ॥ चिलाती घर घर तणां । आणें खोलंजा अनेक ॥ सेवे घरथी काढीयो । व्यसनी मांहि
यो एका रे ॥ ५ ॥ धर्मि० ॥ सिंह गुहा नाम चोरपली | तिहां पहुतो निर्वाण ॥ विजय चोर सेनापति । तेणे मान्यो बहुजाणो रे ॥ ६ ॥ ६० ॥ चोर तणी विद्या घणी । ते सीखव्यो दास ॥ विजय चोर अन्यदा मूखो | चित्रातीने दिए ग्रासो रे ॥७॥ ध० ॥ चोर पांचसे परिवय । शस्त्र लेइ बहुमांन ॥ आव्यो अन्यदा धन घरें । रात आधी अनुमांन रे ॥ ८ ॥ ध० ॥ धन सेवनुं धर लूटीभुं । सुसमा लीधि साथ ॥ चाट्या सिंहगुहा जणी | सेठ कहे नर नाथो रे ॥ ॥ धर्मि० ॥ श्रे किरायें तेमावीया । नगरतला कोटवा - ल ॥ जार्ज सिंहगुहा जणी । धन चाट्यो ततकालो रे ॥ १० ॥ ध० ॥ पंच पुत्रनें सेक्स्युं । चाल्या ते कोट
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
बाल ॥ ते आव्या जाणी करी। चोर नाग समकालो रे ॥ ११॥ ध० ॥ सेठ तणुं धन वालीयुं । चिलाती सुसमा लेइ ॥ नागे एक दिसि धावीया । सेठ सपुत्रस्युं तेहो रे ॥ १५ ॥ ध० थाके चोर सुसमा, मस्तक व्यं तांम ॥ नागे नूलो त्रसें मू । पहुतो छगति गंमो रे ॥ १३ ॥ ध० ॥ एम जे संयम श्रादरी। मूंऊसे माणस लोग ॥ इहलोकें निंदा लहे । परजव पुर्गति जोगो रे ॥ १४ ॥ध ॥ बेटी मारी जाणी करी । सेठ करे आनंद ॥ त्रलें जूचे पराजव्या । पाणी न पामें बिंदोरे ॥ १५ ॥ धर्मिण ॥ तव तेणे सेठे बोलावीया । ते पांचें वर पुत्र ॥ मुऊने तुम्हे आहार करी । तुम्हे राखो घर सूत्रो रे ॥ १६ ॥ धम् ॥ एम पांचें कहि ए अंगजा। हमे सुसमा आहार ॥ नयरि पहुता बह जणा । पाम्या सुख विस्तारो रे ॥१७॥ धर्मिण ॥ अन्यदा वीर समोसर्या । सेठ थयो तिहां साधु ॥ संयम पाल। सुर थयो । टलस्ये मुख आबाधो रे ॥ १७ ॥ धर्मिण ॥ जेम सेठे आहारी सुता।
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श्री ज्ञातामुत्रनी सज्झायो.
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वर्णन रूप न काज || केवल नगरी पामवा। एम ते मुनिवर राजो रे ॥ १७ ॥ ६० ॥ अ न रूप वधारवा । नलीए आहार सुचंग || केवल मुगति पुर पांमवा । मुनि मेघराज कहे मन रंगो रे ॥ २० ॥ धर्मि० ॥ इति श्री ज्ञाता अष्टादशाध्ययन सुसमा न्याय सज्झायम् ||१८|| | कंडरीक पुंडरीक सज्जायम् १९ ॥
( सील सुहावोरे साजण सेवी ये- ए देशी. ) पुष्कलावती रे विजय सोहामणी । पुंकरीगिणी राजधानी रे || महा पउम नामेरे तिर्दा नर राजीयो । पदमावती देवि रांणी रे ॥ १ ॥ संयम सरीस्युं रे जवि - यण जावीए | जेहनुं फल विस्तारो रे || एक जाइ खंगीने गयो सातमी । बीजो सब मजारोरे ॥ २ ॥ संयम० ॥ ० ॥ पुंमरीक कंमरीक ते बे पुत्र थथा । पुंमरिक तिहां जुवराजो रे || अन्यदा थेरा तिहां समोसर्या । महा पउम साधें काजो रे ॥ ३॥ स० ॥ पुनरपि थेरा तिहां समोर्या । पुंमरीक वांदे मुलिंदो रे || कंमरीक पण तेम जाय वांदवा | मन
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११८ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. मांहि धरी आणंदोरे ॥४॥ सं० सांजलि सह गुरुना मुखनी वाण।। श्राव्यो मुमरिक पासो रे ॥ अनुमति मागे कंमरीक नावीयो । घुमरीक कहे वर नासो रे ॥५॥ स ॥ राजग्रहो तुम्हे एह सहोदरा । ते कहे नथी मुझ काजो रे ॥ घणा महोबव घुमरीक तिहां करे। कंमरीक थयो ऋषिराजो रे ॥६॥ सं० ॥ अंत प्रांत आहारे ते शषि उनगो । व्याप्यो दाह कलीवो रे ॥ थेरा आव्या जिहां घुमरीगिण।। घुमरीक वांदे अतीवो रे ॥ ७ ॥ सं० ॥
ढाल २. (उत्तराध्ययने बोल्यु सोलमेजी-ए देशी.)
पुमरीक देखी कंमरीक बलाजी । उषध करावे अनेक ॥ रोग गयो पण आहारे मूीयोजी ।। न करे विहार विवेक ॥ ॥कर्मतणी गति दोहिली जाणीएजी । जेहनो विषम उपाय ॥ सुख मुख जीवें ए विण जोगव्यांजी। बूटे रंक न राय ॥ ए॥ कर्मण ॥ आंकणी ॥ एह जाणी पुंमरीक राजीयोजी।
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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
आव्यो कंमरीक पास ॥ हाथ जोमीने तेहना गुण स्तवेजी। कमरीक चाल्यो विमास ॥ १० ॥ कर्म ॥ केते काले कंमरीक आवीयोजी। घुमरी गिणीने वास॥ आरत ध्याने मनमां पीमीयोजी । पुंमरीक वांदे उहास ॥ ११ ॥ क० ॥ धन्य २ तुं जलें सरज्यो महा मुनिजी । जीव्युं ताहरुं प्रमाण ॥ एम प्रशंस्यो पण नवि बोलीयोजी । कंमरीक वचन विनाण ॥१२॥ कम् ॥ पुंमरीक बोल्यो कंमरीक सांजलोजी। राज्यतणुं ने काज ॥ तव ऋषि कहे रे एमज जाणवूजी। कंमरीकने देश राज ॥ १३ ॥ कर्म० ॥ पुंरीक पोते संयम आदरेजी। कंमरीक बेठगे राज ॥प्रीणित नोजन की, तिणे दिनेजी। उपनी वेदन दाऊ ॥१४॥ कर्म० ॥ राज्य अंतेउर आरति ते मूजी । पहूतो सातमी गंम ॥ एम अनेरो संयम आदरीजी । वांबसे लोग प्रकांम ॥ १५ ॥ कर्म ॥ ते सुख लहसे कंमरीकनी परेंजी । हिवें घुमरीक मुनीस ॥ थेरा जगवन वांदी हुँ जिमुंजी । अनिग्रह करे सजगीस ॥ ॥ १६ ॥ कर्म ॥
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श्री ज्ञातामुत्रनी सज्झायो.
ढाल ३.
( कनक कमल पगलां० ए - देशी. ) राजऋषि पुंमरीक तिहां थकी रे, वे थेरा पासके ॥ चाजाम के धर्म आदरे ए, पाले मन उहास के ॥ १७ ॥ त्रिभुवने जेहनो जस विस्तरे ए | निर्मल गुण मंमार के || एहवा महामुनि सेवतांए । लही जवनो पारके ॥ १८ ॥ त्रिभुवने० ॥ यांकणी० ॥ as खमण ऋषि पारणेए । रस विरस जत्त लद्ध के || राजे आहार न ते जर्यो ए । शक्रस्तव तेणे किद्ध के ॥ १९ ॥ ६० ॥ चार आहार तेणे षिों पचखीयाए । शुज ध्यान कीधो कालके ॥ सब सिझें जई उपनोष । सीले विदेह विशालके ॥ २० ॥ त्रि० ॥ एम जे संयम आदरीए । वरजे जे कामजोग के ॥ इह लोके पूजा लहे ए । परजव मुगतिनो जोग के ॥ २१ ॥ त्रि० ॥ ज्ञाताअंगनीमति अनुसारुए । कीधीए
गणीस जासके॥ जे जिनवयण विराधीनं ए । मिच्छाटुक्क तासके ॥ २२ ॥ त्रि० ॥ श्रीपासचंद्रसूरि शि
१२०
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२१ रोमणोए । श्रीसमरचंद्रसूरिंद के ॥ राजचंऽसूरि जग जयवंतां ए । तेजें जांणि दिणंद के ॥ २३ ॥ त्रि ॥ सरवण कृषि मोटा मुनिए । पाटण साध्यु काज के ॥ ते सहगुरुने पाय नमीए, पत्नणे मुनि मेघराज के ॥ २४ ॥ त्रि० ॥ देवगुरु केर। सांनिध्यए । एम कोधी नास के ॥ नरनारि अहनिश जणोए । पूगे मननी आस के ॥ २५ ॥ त्रिम् ॥ इति श्री ज्ञाता एकोनविंशतिनमाध्ययन कंडरीक पुंडरीक सज्झायम् ॥ १९ ॥ संपूर्णम् संवत १६५५ वर्षे, चैत्र कृष्णपक्षे १० भोमव सरे, श्री अमदावादनगरे लिखितम् ॥ ग्रंथ ग्रम् ५०१ ॥ कल्याणमस्तु ॥ सूचना-' एकादशम'
वि०-मां म' न वांचवो.
शास्त्रविशारद श्रीब्रह्मर्षि कृतअढार पापस्थान परिहारनी
सज्झायो. ॥ जीवहिंसा परिहार सकायम् ॥१॥
(अंग छे चार जग दोहिला रे जीव-र देशी.) सुंदर रूप विचार चतुरपणूं । उत्तम कुल अव
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१२२ श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झायो. तार ॥ जोग संयोग संपति सवि अतिजल। । पामीए अरथ नंमार ॥१॥विवेकी जीव दया धर्मसार। सदा पालीये करी विचारण (आंकण)॥ अंग नीरोगनें जीवित अति घणूं । कीरति प्रबल सोनाग ॥ जिणवर गणधरपति चक्रधर । उत्तम पद लेह लाग ॥२॥ वि० ॥ गजनव समकित विण ससो राखियो। तिण थयो मेघकुमार॥परित संसार कर्यो वहिलमो। पामस्ये एह संसारनो पार ॥३॥ वि०॥सरणं ख्यो पसु जीव पारेवमो, धन र मेघरथराय ॥ साधु तारज नीम कुमरतणी । कीरति घणी गवाय॥४॥ वि०॥ त्रस अने थावर जीव जाणी करी । तेहना थवा रखवाल ॥ आरंज परिहरी त्रिविध ५ परे । वंदीये साधु त्रिकाल ॥५॥ वि० ॥ प्रथम अंगे वली अध्ययन चोथे । समकितने अधिकार ॥ जीव सवि न इणिये एह सद्दहणा। जिणवर कहे विचार ॥६॥ वि०॥ अविरति विरतिधर श्रावक मुणिवर । केवली जेय सयोग। निज अधिकार आचार विशेषे । आचरे ते यथायोग
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२३
॥७॥ वि० ॥ पण सवि हूं तणी एक सदहणा । अंतर नहीं लगार ॥ जीव सवि आपणा जीव सम लेखवी । करिये पर उपगार ॥ ॥ वि० ॥ सूत्र वचन सुणी सुगुरु मुख निरमला । ओलखी जिणवर आण ॥ श्रीब्रह्म कहे दया धर्म आराधतां । नरनब करो प्रमाण ॥ ए ॥ वि० जीव दया धर्म ॥इति ॥
असत्य परिहार सज्जायम् ॥ २॥
__ (विषय न गंजीए-ए देशी.) संजलि वाणी जिनतणी। जाणी सूत्र विचार ।। सत्यवचन मुख बोलिये। धर्म सयल माहें सारोरे॥१॥ असत्य न नापीये। असत्ये जपतप जायरे ॥ सत्य वचन थकी। सुख अनंता थाय रे (आंकणी) ॥२॥ असत्ये अपजस हुवे घणो। असत्ये टले विसास ॥ असत्य धर्मन हुवे एकगं। जिम आतप गंह वासो रे ॥३॥अ॥मरियचिअसत्यवचने जम्यो।सागर कोमा कोमि॥ सावद्याचारज वली। काल अनंता संजोकि रे॥४॥अ०॥ वसुराजा नरके गयो। कूमी साख प्र
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१२४ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. माण ॥ रुली रजा महासती। कूमे वचन विनाण रे॥ ॥५॥ अ॥ थया जमाली कलमषी। एक उत्सूत्र प्रमाण ॥रूपीने लखमणा नम।। बोली कूमी वाण रे॥ ॥६॥०॥ रागछेष हिय धरी । म नरो कूमी साख । असत्य बोला' रसवशे। मिच्छाबुक्कम नाष रे ॥७॥ अ०॥ धोज पतीज जिको धरे। सत्ये सूके तेह। मंत्र तंत्र विद्या फुरे। सत्य आधारे जेह रे॥७॥ अ॥ पंमितपणा तणो घणो । मन आणि अहंकार ॥ नाषा असत्य न टालस्य। ते रुलस्ये संसारो रे।ए॥ अ॥ मुख रोगोने बोबमो।मूंगो असत्ये होय ॥ वदन सरंगू तसु सदा। सत्य वदे जे कोई रे ॥१०॥ अ॥ वधे विरोध न जेदथी। पर जीव नहु पीमाय ॥ वचन विचारी बोलीये। धर्म अधिक जिणे थाय रे ॥११॥अ॥ अव्य देत्र काल नाव । जोर लान विशेष ॥ सत्य वचन जे उचरे। तसु सत्यवादी रेख रे ॥१२॥०॥ हितकारी सर्व जीवने। सत्य कहीजे जेय ॥ बीज सत्य समकित तणूं। श्री ब्रह्म कहे कहो तेय रे॥१३॥अति ॥
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२५ ॥अदत्त परिहार सकायम्॥
(श्रीगुरु गौतम गुण हियडे धरो-ए देशी)
अदत्त न लीजे रे प्राणी परतणूं। तृणा समाणू जेह ॥ सोना समवम परनव आपq । चोरी लीबूं तेह ॥॥चोरी परिहर प्राणी श्मगणी।चोरीए अपजस थाय ॥बंधन बेदन इह लोके लहे। परनव नरके जाय॥ (आंकणी ) चोरी॥ खेत्र खले घर अंगण वीसयु। मूक्युं ते व्यो कां ॥ थांपण परनी ओलवीये नहीं। श्म नाषे जिनरा॥२॥ चो० ॥ अधिकुं ले ओढुं नवि दीजे। मकरो वांनी जेल ॥ चोर सखायत वुह रति संगतें।म करो ते सूं मेल ॥३॥ चो॥ मातपिता मित्र बंधव बहिनमी। न धरे को विसास ॥ चोरथकी संकातं सवि रहे। लहे अचिंत्यो पास ॥४॥ चो॥ जिमको कांश व्ये धन आपणूं। तेथी जिम मुख होय॥ तिम पण परनं धन लेता सही। थाय ख मन जोय॥ ॥५॥चो॥ करणी बंमे वंचक चोरनी। ते सुख पामे सार ॥ जिम जग अंगज लोहखुरातणो । रोहण नाम
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१२६ श्री अठार पापस्थान परिहारनो सज्झायो.
संगार ॥ ६ ॥ चो० ॥ चोरतणे संग घात सहे घणा । घमियाला जिम जाए || मंमुक चोरे पामी आपदा । संग विशेष प्रमाण ॥ ७ ॥ चो० ॥ पर अपवाद न बोले साधुजी | मागे अनुमति ठाम ॥
ये नहीं । रान नगर ने गाम ॥८॥ जे पाले मानवी । त्रिविधें प्रदत्त कहे ते जिन यज्ञा की । वससे मुगति मकार ॥ ॥ ए ॥ चो० ॥ इति ॥
दीधूं पण कांड्
चो० ॥ त्रीजुं व्रत निवार ॥ श्रीब्रह्म
|| मैथुन परिहार सज्जायम् ॥४॥
(राग - प्रभाति. वा. भरथरी. पाप श्रमण संगति तजो - ए देशी ) सुरगिरि सुरमणि सुरगवी । सुरकुंन समाणी ॥ उपमां जेहने रे । जिनराज वखाणी ॥१॥ संजलो वात साची । रहोशील व्रत राची ॥ सं०॥ हुये मुगति गति जाची सं० । पर छावर सविकाची (यांकणी) सं० ॥ विषय दुख मेरु गिरिवर समा । सुख सरसव जेहा । लप सुखने कारणे रे । म खमो घणा बेहा ॥२॥ सं० ॥ गर्भज मनुज नवलख रतें । हुवे पुरुषनें योगे ॥ संख
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२७ समुचिमनी नही। सवि विणसए नोगे ॥३॥ सं०॥ दासि कुमारी विधवा जे ! गणिका परनारी ॥ संगति एहनी रे। तजो फूषण नारी ॥४॥ सं०॥ एहना प्रेम नवि थिर रहे। जिसा मेह अकालें ॥ चपल असती होय र । बेहो वहिल देग्वाले ॥५॥ सं० ॥ कूम कलह तणी कोठमी। अधोमी मल पूरी ॥ नवि ठरे लाख दीधे। थोमे थाए अणूरी ॥६॥ सं०॥ मन वचन तने निरमली। थोमी हुवे सुकुलीणी॥ स्वारथी लोनिणी रे। अति घणूं लीणी ॥७॥ सं०॥ रावण दस सिर रमवमयो। पर रमणि विकार ॥ संचारान जले वह्यो। ललितांग कुमार ॥॥संाहण्यो सहोदर मणिरथे। पर रमणी राते॥ पुंमरीके पण तिम कयु। विषया रसमाते ॥ ए॥ सं०॥ बेद नेदन नपूंसकपणूं । इहां लहे अपार ॥ नरक ताती लोह पूतली। सांझ ये अनिवार॥ ॥१०॥ सं० ॥ शोल गांगेय उपम नली। पर नारिनु वीर॥ सामी सुहम वखाणीये। नर शील सधीर॥१९॥ सं०॥ नेमि मबी थूलना वली। जंबू वयरकुमार॥
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१२८ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. सेठ सुदंसण जाणीये। जस शील संजार ॥१२॥सं॥ सतीय सीता कमलावती। शिवा प्रौपदी नार॥प्रहसमे नाम सहए जपे । शील तणे आधार ॥१३॥सं॥ जस श्ह लोके तसु घणो। परनव सिद्धि पामे ॥ इंच मानवपति तेहने। विनये शिर नामे ॥ १४ ॥ सं०॥ वाम नव मन शुद्ध राखतां। जिको शील आराधे ॥ श्रीब्रह्म नमे नितु तेहने। जिन मारग साधे ॥१५॥सं॥
॥ परिग्रह परिहार सज्जायम् ॥५॥ (सुणो सुगा रे पूता संयम विसमू. अथवा आश्रव परिहरि
संवर मनधरि, जे पूरां व्रत पालेरे-ए देशी)
अतिघण तृष्णा मोटी इच्छा। मूल सबल जस दीसे रे। कलह कषाय महाथम जाहुँ। जे देखी सह हीसे रे॥१॥ धन धन ते मुनिवर चारित्र आदरी। परिग्रह वृद न पाले रे॥ वाहणसम नव सायर तारे। पंचम व्रत शुफ पाले रे॥॥ (आंकणी) बहु पर चिंता माल चिहुं दिसि। गारव त्रण लघु माल रे॥माया
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १२९ लाले सघलो वींटियो। गोडा मोह रसाल रे ॥ ३ ॥ धन२॥ पर वंचन पाने ते बायो। उल नव पल्लव सोहे रे॥ कपट कुसुम गंधे महमहतो । काम लोग फल मोहे रे ॥४॥ धन २॥ दोहिले रोप्यो बहु उखें पा. स्यो। हाण थये संतापे रे ॥ नरक तणी गति खे जा। जिहां वेदन बहु व्यापेरे ॥५॥ धन २॥ इंजिय सुख रस मीठो लागे । सविहुने मन नावे रे ॥ मातपिता मित्र बंधव बेटा। प्रमुख मिली वहि चावे रे॥६॥धन ॥ मुगति तणो ए बे अंतरायी। लोह शिला जेम जारी रे॥ एह सहित गुरुने जे वांदे। तेन तरे नरनारी रे॥७॥धन ॥श्रेणिक बांध्यो कूणिकराये। परिग्रह काजे जो रे ॥ कनकरथे निकसान कराव्या । पुत्र लोन रस सो रे ॥ ७ ॥धन २ ॥ राग रोस कस मंथो पाये । मुनिवरना मन चाले रे ॥ कश्ये मन संतोष न थावे। जेह तेह अरथ निहाले रे ॥५॥ धन ॥ राय सुनूम ब खंग जरतपति । लोने नरक गति लाधी रे ॥ सुरप्रियतणी कथा संजलज्यो । खो
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१३० श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. ने वेरमति वाधी रे ॥ १० ॥ धन ॥ साथ न थाए परजव जातां । चोर संघाते जा रे ॥ राय अगनि जलयोगे विणसे । वेदनि सरण न था रे ॥११॥ धन २॥ धर्मोपगरण थकीय अनेरो।जे अनरथ नवि जाणे रे ॥ समकित रतन न तेनर पामे । श्म श्री वीर वखाणे रे ॥ १५ ॥धन॥मूल संसार तणू आरंज । परिग्रह कारण तास रे ॥ श्रीब्रह्म कहे ए त्रिविधे बुझे । ते पामे सिकि वासरे ॥ १३॥धन ॥ इति ॥
॥क्रोधपरिहार सज्जायम् ॥६॥ ( रे जीवडा दुलहो मानव भव लाधो-ए देशी.)
आगम वचन विचारी रुमां । क्रोध म करिस लगार ॥ क्रोध वशे आवे कर्म बांधे । नमे अनंत संसार ॥१॥ रे प्राणी समताने रस राचो।क्रोध सरपनी संगति मूको । धर्म बाराधो साचो ॥२॥रे प्राणी (आंकणी)॥ क्रोध महा फणधर मोटो । नयण रातमां रीसे ॥ धमण तणीपरे ते धमधमतो । विष संपूरण दीसे ॥ ३ ॥ रे प्राणी ॥ जेहतणे विष नर
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १३१
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हुवे रातो । न लहे विरुवुं रुरुं ॥ मंत्र न तंत्रे ते वश थाय । प्राहे बोले क्रूरुं ॥ ४ ॥ रे प्राणी० ॥ अगनि दाघ ज्वरनीपरे अंगे । दाह अनंतो व्यापे ॥ परने पण क्रोधे नर चकियो । जिमतिम अतिसंतापे ॥ ५ ॥ रे प्राणी० ॥ वचन कठोर दिवस तप जाए । गाले मास तप खोए || देतो श्राप वरस तप हारे । सुकृत कर्यो सविधोयरे ॥ ६ ॥ रे प्राणी० ॥ रीस चमयो जो घा मूके तो । देसूणा पूरव कोमे ॥ जे संच्यो ते चारित्रहारे । क्रोध गनिने जो रे || || रे प्राणी० ॥ धरम करतो क्रोध न बांके । तो धर्म निष्फल थाय ॥ कास कुसुम सेलकी कुसुम जेम । कांइ फल न कहाय ॥ ८ ॥ रे प्राणी० ॥ संज्वलनो क्रोध जल रेखा सम । वीतरागपणु वारे || पनर दिवस लगि तसु थिति बोली । देव गते अवतारे ॥ ८ ॥ रे प्राणं० ॥ रजरेखा सम प्रत्याख्यानो । चार मास थिति जोइ ॥ साधुपणु तसु उदय न यावे । मानव गति में सोइ ॥ ॥ा रे प्रापी० ॥ सूका कादम राइसमाणो । क्रोध का प्रत्याख्यानो ॥
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१३२ श्री अढार पापस्थान गरिहारनी सज्झायो. श्रावकपणु न लहे तिरि थाए । वरस दिवस थिति मान्यो ॥ १० ॥ रे प्राणी ॥ जावजीव रहे नरकावासे । पर्वतराश् समायो॥ एहने उदय न समकित पामे। ए सवि सूत्रे जाणो ॥ ११ ॥ रे प्राणी ॥लागे क्रोध पलेवण रे । दाजे सुगुण रतन्न ॥ दमानीरे उदहावे जे को। ते मानव धन धन्न ॥ १२॥ रे प्राणी ॥ चमकोसियो दमातणे बल। देवगते अवतरियो॥ कूरगमू ऋषि केवल पामे । उपशमने गुण नरियो॥१३॥ रे प्राणी० ॥ गयसुकुमाल ने खंदक शिष्य । अर्जुनमालागार ॥ दमा प्रमाणे केवल पाम्यो । टाल्यो नव अवतार ॥१४॥रे प्राणी ॥ एह जाणी जे नरनारी । क्रोध न करे लगार ॥श्रीब्रह्म कहे तसु चरणे लायु। करं सफल अवतार ॥ १५ ॥ रे प्राणी ॥ इति ॥
. ॥ मानपरिहार सज्जायम् ॥७॥ ( सांभलजो मुनि० ॥ अथवा ॥ ते गिरुओ भाइ २-ए देशी.)
मान महा विषधर अति मोटो । तसु प्रमाण न कहा रे ॥ तिण मंक्यो नर कालो था । सुख
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १३३ बाया पलटा रे ॥१॥ श्म जाणी आणी कोमल पणु । परिहरिये अनिमानरे । मान तजी बाहूबल पाम्युं । ततखिण केवलज्ञानरे ॥२॥ (आंकणी) ॥ जाति १ अने कुल २ बल ३ ठकुरा ४ । लाल ५ रूप ६ तप जोइ रे ॥ श्रुत ने मदे नर जे हुवे मातो। हीणपणु लहे सोइ रे ॥२॥श्म ॥ए आने फणी मोटा वांका । विष पूरे संपूरारे ॥ जेणे मंकया नर जम थाय । दीसे विष अंकूरारे ॥३॥ श्मण ॥ देव अने गुरु मातपिताने । विनये कोट न नामेरे ॥ जिम दीवमो हवे वाये पूरो । पण गलो परिणामे रे ॥४॥ श्म ॥ जाति मदे हरिकेशी हीणो।कुलमद म रियचि नमियो रे ॥ बलमदे शिवनूति वीरतणो जीव । घणो काल रमवमियो रे ॥५॥ श्मण ॥ सनतकुमार सुरूप मदे ते । कुष्टतणुं मुख पामे रे ॥राजतणे मद लहे पराजव । दशारणना ऋछि वामे रे ॥ ६ ॥ श्म० ॥ लाजि संनूम नरकगति पुहतो । शूलिन श्रुते खीणो रे ॥ चारे तपसी देव न वंद्या । तप मदे तप थयो
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१३४ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो.
ही पोरे ॥ ७ ॥ इम० ॥ वेत्रलता १ तरु २ अस्थि ३ पहाणे ४ । यंत्र समाणो मान रे ॥ सुर १ नर २ तिरियंच ३ नरक ४ गते ते । यापे ाम निदान रे ॥ ८ ॥ इम० ॥ परक १ चोमास १ वरस ३ जावजीव ४ । अनुक्रमे एथिति थाय रे ॥ वीतरागपणु ९ चारित्र श् श्रावकधर्म्म ३ । समकित ४ नुं अतराय रे ॥ ए ॥ इ० ॥ आपण अति घणुं वखाणे । परने दसि हसि निंदे रे || ते नर चारित्र तप जप संजम । मूल थकी निकंदेरे ॥ १० ॥ इम० ॥ ममाता मयगलसूं खेले । तेथ ते दुख पामे रे || तिम अजिमानी मान करतो । विसे घणे विरामे रे ॥ ११ ॥ इम० ॥ मान करे महर जे आणे । घणी प्रशंसा वंढे रे ॥ पीठ महा पीठ साधु तणी परे । कर्म घणा ते संचे रे ॥ १२ ॥
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श्म० ॥ मान तजी संयम जे पाले । विनय विवेक न चूके रे ॥ ते नरनी संगति खिण ब्रह्म । जावथकी नवि मूके रे ॥ १३ ॥ इम जाणी० ॥ इति ॥
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १३५
॥ मायापरिहार सज्जायम् ॥॥ ( कपटी कहिया० ॥ वा. सामला मन मोहन मेरा-ए देशी)
माया म करो मन मंस मधरो । सरलपणूं मन आणो ॥ पदम नागिणी समवम माया । उपम सूत्र वखाणो रे ॥१॥ सीखवू हित कारण जोश । कपट म करस्यो कोश् ॥ कूम मतिने धर्म न हो । नागसिरी जिम जो रे ॥२॥ सीख० ( आंकणी ) ॥ खिण राचे विरचे खिण माहे । वांकी गति ते चाले ॥ देखतमा जे परने वंचे । जाण्यु फेरी वाले रे ॥३॥ सी० ॥ मोह साथियो शिर वहे मोटो । परबि रहे राती ॥ विषम महा विष बलबल पूरी । हीमे गहन ऊजाती रे ॥सी० ॥ ४ ॥ मंत्र तंत्र वस किमे न थाय । विष न वले उपचारें ॥ नागिणी पाहें माया अधिकी, जोतां विषने नारे रे ॥ ५॥ सी० ॥ गोश १ ने गोमूत्र २ मींढासींग ३ । समूल ४ सम माया ॥ परक १ चोमास २ वरस ३ जावजी ४ । तसु थिति मान सहाया रे ॥ ६॥ सी० ॥ सुर नर ति
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१३६ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. र्यच नरक तणी गति । अनुक्रमे एह देखामे ॥ जिनपणु १ चारित्र २ देसविरति ३ वलि । समकित हाण पमामे रे ॥ ७ ॥सी० ॥ मलि जिणंद कथा जोश्ने । माया मूल निवारो ॥ बार वरस संयम पाले राय । उदार मारणहारो रे ॥ ॥ सी० ॥ अनंत पापनी राशे वीटयो । पामे नारो वेद ॥ मायानुं फल एह जाणी। तेहनो करो विद रे ॥ ए॥ सी० ॥ विकस्यां कमल समुं मुख दीसे । चंदन शीतल वाणी ॥ हियमो कातर सम कपटीनुं । ए धूरत अहिनाणी रे ॥ १० ॥ सी० ॥ रूपी लखणा माया ने बल । न कह्यो मन। साल ॥ तप संजम अति बहुला कीधा । तसु फल न थयुं वाल रे ॥ ११ ॥ सी० ॥ मोर त. णीपरे मीतुं बोले । साप गले पुण आखा ॥ तिम धूरतनी विसमां करणी । बोले मधुरी जाषा रे ॥१॥ सी० ॥ लोक मनावे रस देखामी । हियमा माहि कषाय ॥ आंबानो ए मोटो अवगुण । रुख सयल माहें राय रे ॥ १३ ॥ सो० ॥ बाहिर पाका बोर तणीपरे।
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श्री अठार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १३७
रातां अति घण दीसे । परिणामें अभ्यंतर काठा । पुरजन विस्वावी से रे ॥ १४ ॥ सी० ॥ इम माया सापिणीथी डूरें । जेय रहे नरनारी ॥ तेहना गुण ब्रह्म अनुमोदें। ग़म रथ विचारी रे ॥ १५ ॥ इति लोभ परिहार सज्जायम् ॥ ९ ॥
( धर्मवंतनर० ॥ वा. धर्म जिणवर सांभलो रे - ए देशी. ) लोज न कीजे प्राणीया रे | आणी मन संतोष ॥ वेला पामी धर्मनी । वलि कीजे रे तेहनो पोष ॥ १ ॥ संजलरे संजलरे प्राणी सीखमी रे । तजि विरुखो रे लोन विकार ॥ ए ढेरे ए बेरे विषधर वांकको रे । गणि पूरो रे विष जंमार (क)॥ कोलाहल करे अति घणो । जिम गम गम गाजे मेह || मंबर फणमंरुले । जयंकर रे दीसे एह ॥ २ ॥ संज० ॥ एणे संख्या मानवी रे । तासु नही उपचार ॥ मंत्र न तंत्र न औषधी । करि न सकेरे तेहनी सार ॥ ३ ॥ संज० ॥ लोनें वाह्यो जीवको रे । ही देश विदेश || समुद्र तरे अटवी जमे । रण मादेरे सहे किलेस ॥ ४ ॥ सं० ॥ बंधव पुत्र पिता
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१३८ श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झायो. माता रे । रमणी तणो विसास ॥ लोनी नर आणे नहीं। जे तेथी रे पामे त्रास ॥५॥ संज०॥ नंद न नक तृपता थया रे, कपिल कथा संचार ॥ आखो जग लहे एकलो। पुण तोहे रे लोन न पार ॥६॥ संज०॥ अगनि न तृपतो इंधणे रे । नोगे तृपती न नार ॥ समुछ न तृपतो पाणीये । तिम प्राणी रे लोन विचार ॥७॥ संज०॥ रंग हलऽ १ खंजन २ तणो रे । कादमरुने कृमिराग ४॥ परक १ चोमास श्वरस ३ थितें। जावजीवे रे ४ ए रंग विलाग ॥ ॥ संजण ॥ सुर १ नर तिरि ३ नारक गते रे। ४, ए चिहुंने बल जाय ॥ जिनपणु १ संयम र गृहिधर्मे ३, समकितनो रे । करे अंतराय ॥ ए॥ संज० ॥ वाधे वेल समुनी रे । वाधे तृष्णा तेम ॥ जिम जिम पामे अति घणुं । एतो तिम तिम ते आणे प्रेम ॥ १० ॥ संन० ॥ सय सहसें लाखें क्रोमें रे। चक्रधर ने सुरराय॥पामे संपति एहवी। पण लोनें रे तृपति न थाय ॥ ११ ॥ सं० ॥ ऊसीसी अंतर करे रे । सहक त्रहक बल मेल ॥ कूम करहा
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १३९
कूम माप ले । लेवे जूठो रे वानी जेल ॥१२॥ संज० ॥ लोनें रातो जीवको रे । मूके साचो धर्म ॥ समकित थी ढीलो पमे । जाणी साचो रे जिनमत मर्म ॥ १३ ॥ सं० ॥ कराकर चोरी करे रे । मंगे माया पास ॥ हिंसा दिक पातक रमे । करे बहुपरे रे वणिज न्यास १४॥ संज० ॥ अरथें अनरथ हुवे घणो रे । चिहुं जण जोश चरित्र || संजलि बिहुं बंधव कथा । लोज ढंगी रे ये चारित्र ॥ १५ ॥ सं० ॥ धर्म ने सुख सवि तजे रे । लोनें रातो जीव ॥ अवसर वेला नवि जोवए, हाहूतो रे जमे सदीव ॥ १६ ॥ ज० ॥ अवगुण देखी तिघा रे । लोन तजे नर जेह ॥ श्रीब्रह्म कहे मुऊ मन वस्या | संतोषी रे गुरु श्रावक तेह ॥ १७ ॥ संव ॥ राग परिहार सज्जायम् ॥ १० ॥
( हवा साधु तणा गुण गावं - ए देशी )
रागत वश रातो प्राणी । कोमिखय करे मनी ॥ १ ॥ संजल जीवमा सीख रसाली | राग म राचिस रहे मनवाली संज० (कणी ) ॥ राग
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१४० श्री अठार पापस्थान परिहारनो सज्झायो.
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महामल्ल बलवंत जारी । वाह्यो लोक सयल संसारी ॥ सं० ॥ कामराग जब वे बहु नकियो | मणिरथ जो अति रमव कियो ||२|| संज० ॥ रहनेमी कुमर वैरागी । नंदिषेण विषयामति जागी ॥ ३ ॥ सं० ॥ चरम सरीरी एम विगूता । वर कहे कुण जे जव खूता ॥ ४ ॥ संज० ॥ पाप करे रमणी रंग वाह्यो । प्राण तजे पण न रहे साह्यो ॥ ५ ॥ संज० ॥ सगा सजनसूं करे विरोध । स्त्री रातो न लहे प्रतिबोध ॥ ६ ॥ संन० ॥ जुटे निरलज थयो पुत्र इलाती || किम दुख पाम्यो पुत्र चिलाती ॥ ७ ॥ संज० ॥ किम पारो रस याकुल थाय । स्त्री प्रतिबिंब देखी ऊजराय ॥ ८ ॥ संज० ॥ विषयराग इम गणी परिहरिये । स्नेहराग पण किमे न करिये ॥ ९॥ सं० ॥ सारथवाह घरणि परे जोइ । गया बन्ने यम मंदिर सोइ ॥ १० ॥ सं० ॥ स्नेहें शय्यंजव गुरु न किया । सुत वियोग पुण सुं पनिया ॥ १२ ॥ संज० ॥ सगर राय पुत्रनुं दुख जाणी । ते विलव्या
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १४१ अति घण दीनवाणी ॥ १३ ॥ सं० नृगु बंजण सुत राग विशेषे । दीघां ऋषिने आल अलेषे ॥ १४ ॥ सं० ॥ स्नेह राग गौतम ऋषि जोश। केवलज्ञान विलंबे हो ॥ १५ ॥ नेहें तिल सरसव पीलाय । अलसि करमि पुण ते श्म थाय ॥ १६ ॥ सं० ॥ त्रीजो दृष्टितणो पुण राग। ते परिहरवो धरी वैराग ॥१७॥ पडे पतंग अगनिने संगे। दृष्टिरागने रातो रंगे ॥ ॥ १७ ॥ दृष्टिराग वलि अवर विचारो । कुमति क. दाग्रह मनथी वारो ॥ १५ ॥ सं० ॥ बीजा राग सुखें जीव मे । दृष्टिराग मूंकवा न हीमे ॥ २०॥ सं०॥ दृष्टिराग जाणी जे करस्य । ते जमालि जिम लव माहे फरस्ये ॥ २१ ॥ सं० ॥ दृष्टिरागे धर्म न सहे कोश् । नबाह बंधव जिम जो ॥१२॥ सं॥राग रंग एक अरथ बोलाय । उपम कविवर वचनें थाय ॥२३॥ सं० ॥ जोश्ने जीव कुसुंनो अंगे। आपद पामे रंग प्रसंगे ॥ २४ ॥सं० ॥ श्म अनेक उपम संजारी । राग तणी मति तजो विचारी ॥ २५ ॥ सं०
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१४२ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. ॥ धर्म राग टलतां जे होश । पाप राग ते सघला जो ॥ २६ ॥ सं० ॥ श्म जाणी जे राग निवारे । श्री ब्रह्म कहे ते आप ऊतारे ॥२७॥ संन० इति.
॥ष परिहार सज्जायम् ॥१९॥ (सीखन सोखन चेलणा-ए देशी (अथवा) प्रभु पद्मप्रभ विनवू-ए ढाल)
. जिनधर्म साचो आदरी । मन माणो द्वेष ॥ तेह थकी विणु उसर्या । निफलो हुवे वेष ॥१॥ द्वेष म बाणिस जीवमा । वाधे वेषे संसार ॥साचो धर्म तिण उलख्यो । द्वेष न जासु लगार॥ द्वेषण ( आंकणी)॥ शब्द रूप रस गंधए । वलि फरस विचार ॥ अणगमता पामी करी । मनि रोष निवार ॥२॥ द्वेष०॥ द्वेषे ऋषि निंदा करे । वलि हीले धर्म ॥ शेष तणे वश जीवमो । संचे घणा कर्म ॥३॥ वेषण ॥ शेष वशे धर्म नवि लहे। जिम नमुचि विमास ॥ पालके पाप बहुल कयु । बहु साधु विणास ॥ ४ ॥ द्वेष० ॥ गुण अवगुण नवि उलखे । वेषी नर को ॥ष तजी समके सहू । जितशत्रु जिम जोर ॥५॥छे.
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो.
१४३
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० ॥ वाद कलह द्वेषें करें । बोले पर अपवाद ॥ द्वेष चयो कुलवट तजे । लोपे मर्थ्याद ॥ ६ ॥ द्वेष० ॥ आशातन जिननी करी । ऋषि हत्या कीध । गोसाले वश द्वेषने । घणा पातक लीध ॥ ७ ॥ द्वेषण ॥ एक संसारी प्राणीया। जां हुई अंतकाल ॥ तां लग द्वेष तजे नही । पमे नरक जंजाल ॥ ८ ॥ द्वेष० ॥ - धिकारी बे गामना । तसु चरित्र संचार ॥ द्वेष थकी मन नवि वल्युं । जभ्या बहुल संसार ॥ ए ॥ द्वेष० ॥ सासू नादें द्वेषथी । मन गूंथी काल || सती सुनजाने दियुं । जू मोटुं श्राल ॥ १० ॥ द्वेष० ॥ द्वेषी वात घणी करे । माने अजाण ॥ चतुर विचारे संजली | केलवण विन्नाय ॥११॥ द्वेष० ॥ क्रोध मान बेहु मिली । हुवे द्वेष निदान ॥ तेथी जीव रुले घं । नवि पामे ज्ञान ॥ १२ ॥ द्वेष० ॥ श्म जाण । मन वश करी । परिहरिये द्वेष ॥ श्रीह्म कहे एं मनें । सुख लहे विशेष ॥ १३ ॥ द्वेष ॥ इति ॥
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१४४ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो.
। कलह परिहार सज्जायम् ॥ १२॥ (परह पुरुष वातलडी रे तातडली परिहरज्यो-ए देशी.)
राम कलह सवि मूल निवारो। वींध्या बोल म बोलो ॥ कलह करंतां जलपण जाइ। मर्म गांठ मम खोलो रे ॥१॥ वचन बि चार खमोरे ना। खमतां जल पण था ॥ खमतां दोष न कोई चमावे । विघन विले सवि जा रे ॥ वच० (आंकणी)॥ जिम तिम कलह करंतो बोले । रोष वशे जीव वाणी ॥ बंध निकाचित तेथी पामे। तेहवा फल लहे प्राणी रे॥२॥ वचन ॥ नले तिम नीच लवे अणजाण्यु। उत्तम हियके नाणे ॥ पान तमफमे वाए अति घण। थम निश्चल निज प्राणे रे ॥३॥ वचन ॥ श्राप म द्यो करमका म मोमो । कलह करता रीसें ॥ वचमें तिण अवसर बोलास्ये । ते अंगे नोगवीस्ये रे ॥४॥ वचन ॥ लोह तणा कांटा जिम खूचे । तेहवां मर्म वचन ॥ साल न सकस्ये ते को काढी। खमस्ये ते धन धन्न रे ॥ ५॥ वचन ॥ हलू नावें अति बोखं
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श्री अठार पापस्थान परिहारनो सज्झायो.
१४५. तो । खमतो थाय गंजीर ॥ खिमा करे जे नरने नारी ते देवाय धीररे ॥ ६ ॥ वचन० ॥ रीस वसें जो वचन बोलाय । तो पगे लागी खमावो ॥ क्रोध अगनि परजलतो जाणी । खिमा नीर उल्हावो रे ॥ ७ ॥ वचन० ॥ तप जप संजम खीजरुपानें । दोहिले घमो जरीजे ॥ कलह करंतां साग पानमे । कहो कांठालो कीजे रे ॥ ८ ॥ वचन० ॥ जिए मुख रुमां नाम लेवाय । ति कां विरुत्र्यालीजे ॥ क्रूर कपूर अमी जिल जमिये । तिकां पवित्र पीजे रे ॥ ए ॥ वचन० ॥ कलह करंतां लखमी नासे । कारु नाम धरावे ॥ जस कीरति सोजाग न थावे । मूंगां नाम कहावे रे || १० ॥ वचन० ॥ सूत्र वचन सुहगुरु मुख संजलि । जे कोइ कलह निवारे || तेहतणा गुण मन माहि ब्रह्म । वारंवार संजारे रे ॥ ११ ॥ वचन० ॥ इति ॥ ॥ अन्याख्यान परिहार सज्जायम् ॥१३॥ (थूलभद्र मानोरे मुझ बोल - ए देशी ) खाल न दीजे केहने रे । ते बे मोटू पाप । जे
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१४६ श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झायो. देस्ये तसु थास्ये रे । जवनव बहु संताप ॥ १ ॥ सुंदर मत द्यो केहने आल । श्रागमवचन संजाल (आंकणी)॥ जाण्युं दीतुं सांजदयु रे । जे हुवे घणे प्रकार ॥ ऊतावलु ते मत कहो रे । आणो चित्त विचार ॥२॥ सुंदर ॥ हूं देखुं बुं एहवो रे । अथवा कारण एह ॥ न हुवे पर पीमा जिणे रे। बोलो वाणी तेह ॥३॥ सुंदर ॥ जगवर अंगे संजलो रे । वीर वचन सुविशाल ॥ परजव तेहबुं पामस्ये रे । जेहQ देस्ये बाल ॥ ४ ॥ सुंदर ॥ एक आल देस्ये जिको रे। जव जव लहस्ये आल॥तसु फल थोमुदसगणू रे। बोले उपदेश माल ॥ ५॥ सुंदर ॥ ऋषिदत्ता - दिकतणा रे । जे दृष्टांत अनेक ॥ ते संजलिने आणज्यो रे । हियमा माहि विवेक ॥६॥ सुंदर ॥ जिह्वा वस आणी करी रे । रागद्वेष बेवारि॥ आल न देस्ये ब्रह्म कहे रे । धन धन ते नरनारी ॥७॥सुंदर॥इति॥ ॥ पैठान्य पारहार सकायम।।११।।
__ (मेघमुनि कांइ डमडोलेरे-ए देशी) . पातक पिशुनपणातणूं रे । नारी के मन जोश
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १४७ ॥ पिशुन तणे पासे रही रे । वात न पूढे कोई ॥१॥ चतुर नर पिशूनपणूं करो कां । ए मोटूं पाप कहा चतु (आंकणी)॥ चाम कहाश्मन माहि खीजे। पुण न तजे ते काम ॥ जिम हवाए पापी मन माहि। कहतां पापी नाम ॥ २॥ चतु० ॥ सगा सणीजा बांधव सहूको । न रहे तेहने पास॥न्यायवंतराय तेहने दंगे। काली बल वेसास ॥३॥ चतु ॥ हिंसा रस राति मंजारी । जोए चिहुं दिसि जीव ॥ चेजु मांझी घणूं वेसासी । तेहने हणे सदोव ॥ ४ ॥ चतु॥ तिम नर पिशून लोजरस रातो। न गणे साधु असाध। बिछ जो बल काई पामघाले कष्ट अगाध॥५॥चतु॥ बिहु बंधव दृष्टांते जोज्यो। पिशूनपणानो दोष ॥ नव जव ते फल साथे लागु । कयों पापनो पोष ॥ ६॥ चतु ॥ दसनव वैर कमठ मरुनूतिए। चाल्यो चामी प्राणि ॥ नेटि खमाव्यो चारित्रने बल । तप संयम विनाणि ॥ ७॥ चतु ॥ जे नरनारि हुवे रंग राता। तिण पण करे विरोध ॥ अधिका बां बिन जणावो।
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१४८ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो.
aur वधारे क्रोध ॥ ८ ॥ चतु० ॥ स्त्री जरतार कथा संजलज्यो । धूरत पाकी राय ॥ बोट्या बोल विनोद विषादे । ते नवि पावा थाय ॥ ए ॥ चतु० ॥ नरथ दंग सबल ए भूषण | जाणी टाले जेह ॥ श्रीब्रह्म कहे सदा वखा । पुरुष शिरोमणि तेह ॥ १०॥ चतु०॥ || रति रति परिहार सज्जायम् ॥ १८ ॥
॥
( सुरतरुनी परे दोहिलोरे - ए देशी )
पंच विषय रति परिहरो रे । ढंको मोह मिथ्यात ॥ धर्मे रति न आणीये । परिहरिये रे विकथा ने वातके ॥१॥ सीख सुणो जीव सारी । मन चिह्न दिसिरे
तूं करवाम ॥ रति ने रति वारी । एक राचो रे जिवरने नाम के । सीख सुखो जीव सारी (क) ॥ समकाले दोहिलारे । मन बंबित संयोग ॥ काम जोग सुख थोमिलुं । मायावीरे कपटी बहु लोग ॥ २ ॥ सीख० ॥ थर नवि थास्ये अति वो रे । जे उपनुं पुख्ख ॥ नीचलोक घणुं हीलस्ये ।
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श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झायो. १४९ धर्म मूकी रे किम वंडे सुख्खके ॥ ३ ॥ सीख० ॥ वम्यो आहार न वंबीये रे ।तिम म करो व्रत जंग ॥ नरकतणी गति पामीए । व्रत संजम रे मूकीने चंगके ॥४॥ सीख ॥ गृहवासे धर्मदोहिलू रे। चिंताआरति व्याप ॥ कर्म आठ बंधे सही। करि आरंज रे परिग्रह बहु पापके ॥ ५॥ सीख० ॥धन संपति थिर नवि रहे रे । जोखिम तासु अनेक ॥ पुण्य पाप जीव एकलो । जोगवस्येरे परजव प्रत्येकके ॥ ६॥ सीख॥ चंचल जीवित नरतणू रे । मान अणी जिम नीर ॥ जलबुद बुद जिम वोजली । जिम लहरी रे जलनी गंजीरके ॥ ७ ॥ सीख ॥ विणु जोगव्ये न बूटीए रे। जे हुवे कीधां कर्म ॥ श्म जाण। मन थिर करो। आराधो रे जिणवरनो धर्मके ॥ ७ ॥ सीख ॥ देवसमाणा सुखवेए रे। मुनिवर चारित्र लीण ॥ नरक वेद नाथी घणा। मुख देखे रे जे कायर दीणके ॥ ५ ॥ सीख ॥ जीव पुरोहित पुत्रनो रे। मुंक बंधव सुविचार ॥ पुलनबोधि ते अवतयों । चारित्र धमें रे ते
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१५० श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. अरति जंमार के ॥ १० ॥ सीखण् ॥ मेघकुमर मन वालीयू रे । रति आण। जिनमाग॥चारित्र सूधू पालियूं। जिनवरने रे चरणे जे लागके ॥११॥ सीख०॥ धर्मे अरति न आणीए रे। पापतणी रति टाल ॥ अरति विषय उपर धरो । धर्म मारग रे रतिरंग संजाल के ॥ १२॥ सीख ॥ अरति अने रति बिहु परे रे। पाप हेतु मन माण ॥ श्रीब्रह्म कहे नर ते नला। जिनवरनी रे जे पाले आणके ॥ १३ ॥सीखाति॥
॥ परपरिवाद परिहार सज्जायम् ॥१६॥ ( अयोध्या उत्तम नयरी रे जिहां जिणवर जाया-ए देशी.)
परपरिवाद न मुखें उच्चरीये । ए ले पातक मोटुं रे ॥ परनिंदा जो करे निरंतर । तो तप संयम खोटुं रे ॥१॥ वाणी जिनतणी सम नावें । संनल रे मन
आणी ॥ अनरथ दंम महा पातक । परिहर रे तुं प्रांणी (आंकणी ) ॥ करतो पुण्य तणो घण संचय। खिण मात्र थाए रीतो रे ॥ श्री उपदेश माल माहे जोठं । दीसे अरथ वदीतो रे ॥२॥ वाणी० ॥ बीजे
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १५१ अंगे अध्ययने बीजे । श्री जिनराज वखाणे रे ॥ परनिंदा करतो बहु प्राणी । परनूं पातक ताणे रे ॥३॥ वाणी ॥ दशवकालिक जगवंत नाषे । पूति मंस न जखीजे रे ॥ अरथ अछे अपवाद तणो ए। एवमो
न कीजे रे ॥ ४ ॥ वाणी ॥ लोकिक ग्रंथे एम वखाणे । निंदक सर्व चंकाल रे ॥ मातंगी ब्राह्मण दृष्टांतें । निंदा झूषण टाल रे ॥ ५ ॥ वाणी॥ गणांअंगें पंचम गणें । जिनना अवगुण दाखे रे ॥ समोसरण रचना जोगवतां । आधाकर्मी जाये रे ॥६॥ वाणी ॥ निंदे आचारिज उवकाया। साचो धर्म विखोमे रे ॥ संघ चतुरविध निंदे कुमती । सुर स. मकितधर जोमे रे ॥ ७ ॥ वाणी ॥ ते प्राणी समकितथी चूके । नवं नविहर्बु पामे रे ॥ श्म जाणी अपवाद निवारो । वेषतणे परिणामेरे ॥ ॥ वाणी ॥ निंदक अरथ अनें जस न लहे । ए ले अविचल वाणी रे ॥ श्रीब्रह्म कहे अपवाद म बोलो । सुषिजो नवियण प्राणी रे ॥ ए॥ वाणी ॥ इति.
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श्री अढार पावस्थान परिहारनो सज्झायो.
॥ माया मृषा परिहार सज्जायम् ॥ १७ ॥
( राजमती कहे नेमिने-ए देशी.) वचन जिनना उलखी । माया मृषा म नाष ॥ करणी अनेरा आचरी । वेसास वचन म दाख रे॥१॥ वचन विचारी बोलीये । व्यापक वाणी दोष रे ॥मा. यासू मिरखा मिल्यो । करे अधर्मना पोषरे (आंकणी)॥ चोर मंमिकनी परें । पामस्ये मरण अकाल ॥ केसरी जिम समता धरी । सत्य वचन सूंबूं पाल रे ॥२॥ वच० ॥ वंकचूल तणी परे । सत्यवंत शील श्राधार रे ॥ इहलोक पूजा पामस्य । परलोक सरग ज्वार रे ॥३॥ वच० ॥ एक गमे पातक सर्वनें । अवर एके पास ॥ हुवे जार जारी असत्यनो । तिण सत्य बोल विमास रे ॥४॥ वच० ॥ कालमां कायक भूषणें । वाचकें व्याप अनंत ॥ तिण वचन दोष निपारीये । श्म कहे श्रीअरिहंत रे ॥ ५ ॥ वच० ॥ विष करे सहजे बल घणूं। वलि जो वधार्यु तेल ॥ फल विकट वांणी असत्यना । माया तणे पुण मेल
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श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १५३ रे ॥६॥ वच० ॥ अरिहंतने वचने करो। माया मृषा परिहार ॥ कहे सीख श्रीब्रह्म एटली। आचरी लहो मुख पार रे ॥ वच॥ ॥ इति ॥ ॥मिथ्यात्वशल्य परिहार सज्झायम् ॥ १७ ।।
(वलि वलि जणणी इम भणे-ए देशी.) जाणे जीव अजीवने १. । जीवने गणे अजीव २॥ श्म कहे धर्म अधर्मने ३ । धर्म अधर्म सदीव ४॥ १ ॥ आगम वाणी संचलो । हियमे करी विचार ॥ शल्य मिथ्यात्व निवारीये । जो दसे प्रकार (आंकणी) ॥ राता आरंज परिग्रहे । एहवा जेय असाधु ॥ मति मिथ्यात तणे वशे । तेहने नाषे साधु ॥२॥ आगम ॥ शील सदा जे निर्वहे, आरंज मे साधु ॥ कुगुरु वचन मति घंघलें । तेहने कहें असाधु ६॥३ण्यागम॥मति कलपित मत थापवा । उन्मारग कहे माग॥ सूत्र वचन अण मानतो । माग नणे उनमाग ७॥ ॥ आग ॥ मुगति नथी मया तेहनें । मुगतें गया पजणेश ए ॥
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१५४ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. मुगति गया कर्म खयकर। । अमुगत तासु कहे। १७ ॥५॥ आग ॥ ए दस नेद मिथ्यात निवारो। त्रीजे अंगें जो॥ जे निरता जाण। कहे । तसु समकित गुण हो ॥ ६ ॥ आग०॥ उपम उह समकितने । मूल ? पश्हाण ५ आधार ३ ॥ छार ४ नि: धाने ५ जाजने ६ । ए आगम संजार ॥ ७॥ आ॥ जां मिथ्यात तजे नही । तां गिण मोटुं साल ॥ चारित्र तरुवर तां लगें । न करे अतिघण फाल ॥७॥
आ ॥ समकितसूं थोमी क्रिया। फल आपे सुविशाल ॥ करे प्रकाश सुहामणो। सूरिज जिम ततकाल ॥ए॥ आग समकितना अहिनाण ए । समता १ सिछि अभिलाष २॥ वेराग ३ करुणा ४ अतिघण। । सूत्र वेसास सुनाष ५ ॥१०॥ आग ॥ केवल चारित्रनो धणी। मुगति न साधे सार ॥ समकितसूं चारित्र लही। पामे नवनो पार ॥ ११ ॥ आग ॥ समकितधर वे थोमला । नही मिथ्याती
॥ देखी घणा म राचस्यो । परखो समकित सार
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श्रा अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. १५५ ॥१५॥ आग ॥ दोष अढार रहित जला । परखो अरिहंत देव ॥ समकित व्रत तप गुण नर्या । साधु तणी करो सेव ॥ १३॥ आग०॥ नाषो सूत्र परंपरा। ते आराधो धर्म ॥ तत्व खरं त्रण ए अ । समकित मूल मर्म ॥ १४ ॥ आग पाप सतर हलूया गिणो । मोटो जार मिथ्यात ॥ जीव तणे पोते अ । काल अनादि विख्यात ॥ १५॥ याग० ॥ पांच संवर मांहे पहिलहुँ। कहे समकित जिनराज ॥ आश्रव धुर मिथ्यात । बंमी लहो शिवराज ॥१६॥ आग०॥ अरहन्नक दृढपणे रडुं। घणू चलाव्युं देव ॥ समकित सुलसा पालियूं। श्रावक वलि कामदेव ॥१७॥ आग ॥ श्म समकित परवी करी। पाले अरिहंत आण ॥ श्रीब्रह्म कहे सुरनर सहु । तिहनूं करे वखाण ॥१७॥ आग ॥ इति
(कलशः-सकल मुख पूरे-ए देशी.) जीव वध असत्य वचन अने चोरी । नारिनी संगति पाप नीनरी ॥१॥ संजलो प्राणिय एह वि
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-१५६ श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झाया.
चार | मन शुद्ध परिहरो पाप अढार (कणी )| परिग्रह क्रोध वलि मानने माया । लोज बे सयल डूषण ता पाया ॥२॥ संरागने द्वेष गिए कलहने आल | पिशुनपलूं रति रति विशाल ॥ ३॥ संज० ॥ परिवाद माया मृषा वाणी । वलिय मिथ्यात शब्य परिहरो जाणी ॥ ४ ॥ सं० ॥ एहत बल जीव अनादि । ख घणा सह्या पमे प्रमादि ||५|| संज०॥ एहनो जेय करे परिहार | मुगति तणां सुख ते लहे सार ॥ ६॥ संज०॥ श्रीब्रह्म कहे इम आणंद आणी । साधुने वंदज्यो जवियण प्रांणी ॥ ७ ॥ संज० ॥
॥ इतिश्री ब्रह्मर्षिणात अष्टादश पापस्थान स्वाध्याय संपूर्णेति भद्रम् ॥ ग्रंथाग्रम् ३५० ॥
श्री एकादश गणधर सज्झायम्.
|| श्री इंनूति गणधर सज्झायम् ॥ ( अष्टमो जिणवर जगजयो - ए देशी. )
गणधर इंद्रभूति गुण निलो । गुब्वर पुरि कावतार रे ॥ वसुभूति तात सोहे सदा । मात पृथवी
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. १५७ सणगार रे ॥ १॥ हरष धरी गुण गावस्यां। पावस्यां परम आणंद रे ॥ प्रथम गणधर बहु सुखकरु । मुख जिसो पूनम चंद रे हरण(आंकणी)॥२॥जेष्टा नक्षत्र ने जनमर्नु । गौतम उत्तम गोत्र रे ॥ वरस पंचास गृहोपणे रह्यो । पांचसे शिष्य संजुत्त रे॥ हरष धरी ॥३॥ चारित्र लीध उमथपणे । त्रीस वरस सुप्रमाण रे ॥बार वरस ज्ञान निर्मलो । राजगृह नगर सुगण रे॥ हर ॥४॥ वरस बाणू सर्व आउखं । पालिय सार सुजाणि रे ॥ जीव शंसय समज्यो सही । धनधन वीरजी वाणि रे ॥ हर ॥५॥ गौतम महावीर नेहलो । सत्तावीस नला जो रे ॥ गणपति शिष्य गुण वर्णवे । मंगल आणंद हो रे ॥६॥ इति ॥श्रीअग्निनति गणधर सायम् ॥२॥
(तोरा चरण कमल सेवता हो जिनजी-ए देशी.)
गणधर बीजो सवि सुखदायक । वंबित फल दातार रे ॥ अग्निजूति गुवर पुरि जनमियो। वसुन्नूति ताय मल्हार रे ॥१॥ वीर जिणेसर केरो गण
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१५८ श्री एकादश गणधरनी सज्झायो .
" । त्रिपदी बधि निधि जाणि रे ॥ गौतम चारित्र धा जाणी । यो बहु मंमाणि रे ॥ २ ॥ वीरजि० ॥ (कणी०) माता पृथ्वी कृतिका नक्षह | गौतम गोत्र पवित्र रे ॥ वरस बेतालीस ग्रहस्थपणे रह्यो । पुनरपि लिये चारित रे ॥ ३ ॥ वीर० ॥ पंचसयांनी वे शिष्य संख्या । बजमथ्यपणे वरस बार रे ॥ सोल वरस केवलनी परिया । चिहुंत्तर वरस सविसार रे ॥ ४ ॥ वीरजि० ॥ कर्म संशयनो संदेह टाल्यो । पालिया जिवर धर्म रे || गणपति शिष्य गणधर बोले । ते पाने शिवपद शर्म रे ॥ ५ ॥ वीरजि० ॥ इति ॥ श्रीवायुभूति गणधर सज्जायम् ॥ ३ ॥
( मालीजी फूलडे चंगेरील्याओ - ए देशी. ) त्री जो गणधर वायुभूति है। गुवर गाम सुठाम ॥ वली वसुभूति ताय माय जेहनी पृथ्वी | दरसण बहु सुखधाम ॥ १ ॥ वीरजी वंचित फल देह | थारो बीजो गणधर जेह ॥ वीर० ॥ ( आंकणी ) २ ॥ नस्वाति जनमनुं कहीये । गौतम गोत्र कहाय ॥
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. १५९ वरस बेतालीस गृहीयपणे । वसि चारित्र लिए मन जाय ॥ ३॥ वीर ॥ अतिहि अनोपम शिष्य पांचसें। दस वरस बउमथकाल ॥ वरस अढार लग केवलपणे । सर्वायु सत्तरि संचार ॥४॥ वीर०॥ देह रूप जीव संशय समझियो । महावीरे देव संयोग ॥ गणपति शिष्य गणधर गुण बोले । पामे सुजस ह लोग ॥ वीर ॥ इति
गणधर सज्कायम ॥४॥ (चंपापुरि पालक नामें-ए देशी.) चोथो गणधर जाणिये । व्यक्त नाम मुनि सोहे । नाइ मदतें आवीयो । ततखिण जिण पमिबोहे रे ॥ १॥ चोथो गणधर जाणीये। (आंकणी ) कैलाश संनिवेश जनमीयो ॥ धनमित्त तात महार रे ॥ वारुणी जणणी जग जयो । श्रवण नक्षत्रह सार रे॥॥ चोथो० ॥ गोत्र उत्तम नाराज । वरस पं. चास गृह वास रे ॥ बात्र सहित चारित्र लिये । पांचसे शिष्य उदहासरे ॥३॥ चो ॥ बार वरस -
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो.
ढारसुं
उमथपणे । निर्मल केवलनाण रे ॥ वरस शोजतो । अस्सी वरस आय प्रमाण रे ॥ ४ ॥ चो० ॥ संशय नूत तो टल्यो । मिल्यो जब वीर जिणंद रे ॥ गुणवंत शिष्य तुम गुण जये । पामे परम - द रे ॥ ५ ॥ चो० ॥ इति ॥
॥ श्रीसुधर्मा गणधर सज्जायम् ॥ ८ ॥ ( कपूर हुवे अति निर्मलू रे - ए देशी ) पंचम गणधर सुखकरु रे । सोहम नाम विख्यात ॥ कैलाश संनिवेश उपनो रे । धम्मिल विप्र सुजातरे ॥ १ ॥ तीरथपति वीर जिणेसर देव । जे हनी सुरनर सारे सेव || ते तो वंडुं हरष धरेव ॥२॥ तीरथ० ॥ सतीय शिरोमणि जहिला रे । उत्तरा फाल्गुनी जेह ॥ नक्षत्र जोग सुत उपनोरे । धन धन जणणी तेह || ३ || तीरथ० ॥ गोत्रज जेहनो निर्मलो रे । निवेश्यायन जाण ॥ वरस पंचासें संवस्यो रे । संजलि वीर जिन वाण ॥ ४ ॥ तीरथ० ॥ पांचसे विप्रसुं परवर्यो रे । चारित्र ले वरजाय ॥ बयालीस
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वरस मथपणेरे, वरस आठ लगें केवल थाय ॥५॥ तीरथ० ॥ सो वरसनुं सरव श्राखुरे । इहलोक परलोक साध । गणपति शिष्य हरजी जणे रे । कर चिंतामणि लाभ ॥ ६ ॥ तीरथ० ॥ इति ॥
| श्री मंमित पुत्र गणधर सज्जायम् ॥ ६ ॥ ( अइय अनंत चोवीसी - ए देशी. )
asो गणधर जाणो । मंमित पुत्र वखाणो ॥ मौरिज संनिवेशे जायो | धनदेव तात कहायो ॥ १ ॥ विजयादेवीय मात । मघा नखत्र विख्यात ॥ गोत्रज वासिष्ट गायो । मन वंबित फल पायो ॥ २ ॥ वरस पन ते घर रहियो । पुनरपि चारित ग्रहियो ॥ त्रसे शिष्य पचास | पूरे वंबित खास ॥ ३ ॥ वरस चौद द्मस्थकाल | सोल वरस केवल पाल ॥ सर्व आयु वर्ष सत्यासी । थासे शिवसुख वासी ॥ ४ ॥ बंध मोक्ष संशय टलीयो । वीर जिणेसर मिलीयो ॥ गणपति शिष्य गुण गावे । मन वंबित फल पावे ॥ ५ ॥ इति
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१६२ श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. ॥ श्री मौर्यपुत्र गणधर सफायम् ॥७॥
( हरिकेशी बलिनी-ए देशी.) सत्तम गणधर साधु शिरोमणि । मौर्यपुत्र सु. जाण ॥ मौर्य संनिवेश साहिब । मौर्य विप्र नित नित होइ कल्याण ॥१॥ सुगुण नर सत्तम गणधर सार । नामें नवनिधि संपजे । महावीर शिष्य उदार ॥२॥ सुगुण ॥ (आंकणी) विजयादेवी मा तसु जणणी। नक्षत्र रोहिणी जास ॥ काश्यप गोत्र उत्तम जाणो । पांसठ वरस गृहवास ॥३॥ सुगुण ॥ अउठसे बात्रसुं दीक्षा लीधी। वरस चौद रह्या उमथ्थ ॥सोल वरस केवलपद वास्यो । अनुक्रमे लहेसे परमथ्य ॥४॥ पंचाएं वरस आयु सघलु । देव संशय सफलो कीध॥ मणपति शिष्य गणधर श्म बोले । कार्य सघलां सिक ॥५॥ सुगुण ॥ इति. ॥श्री अकंपित गणधर सज्जायम् ॥॥
(माइ तुंमीयागिरि शिखर सोहे-ए देशो.) अहम गणधर अति अनुफ्म । अकंपित मुनि
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. १६३ राय रे । वीरजिणवर वंदण श्राव्यो । उलट ते अति घण थाय रे ॥१॥ अहम गणधर अति अनुपम (आंकणी) नाम नगरी अ मिथुला । जनम थानक हो रे॥ देव विप्र जसु जनक जाणो। मात जयंती जो रे॥२॥ अहम ॥ उत्तराषाढ नखत्र योगे। चंडसम अवतार रे॥ गौतम गोत्र पवित्र जेहन। गृही. पणे वर्ष अमताल रे ॥३॥ अहम ॥ शिष्य त्रणले अति विचरण । वरष नव उउमथ्य रे। वरस एकवीस केवल परिया। कर्म दय परमथ्य रे ॥४॥अहम०॥ वरस अठोत्तर सरव आयु। नरक संशय टालि रे॥ गणपति शिष्य गणधर सोहाकर। आण जिणनी पालि रे ॥५॥अहम॥ इति ॥ ॥श्री अचलभ्राता गणधर सज्जायम् ॥॥
(पांचे इंद्री अहनिशि वस करे-ए देशी) नवमा गणधर जगमांहि जाणीये । अचल जाता जसु नामोजी॥ कोसला नगरी सकल सोहामणी। जनम थयो शुन गमोजी ॥१॥ अचल जाता मुनि
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१६४ श्री एकादश गणधरनी सज्झायो. गणधर वंदिये। नामे शिव सुख थायजी॥ नर नारी जे तुम्हचा गुण थुणे। ते वंडित फल पायजी ॥२॥ अचलत्राता (यांकणी) वसु विप्र कुल मंगण जगतिलो। नंदा उर सिणगारोजी ॥ नत्र जनम मृगशिर जोवज्यो। गोत्र सुहारिद सारोजी ॥३॥ अचल जाता ॥ वरस बेतालीस गृहस्थ पणे रह्या । पुनरपि चारित्र लीधोजी॥ शिष्य त्रणसेंस्यो सोहे परवयों। जनम सफल जिण कीधोजी ॥॥अच॥ बार वरस लगें उमथ्थ विचरीया। चउदस वरस निर्मल नाणोजी॥ लोकालोक प्रकासे मुनिवर। जाण के उदय नाणोजी॥ अचल ॥५॥ वरस बहुत्तर सर्व आयुस सही। पुन्य फल्यो मुज आजोजी॥गणपति शिष्य कहे वीरजिण दंसणे। सीधा सघला काजोजी॥६॥अचाइति॥ ॥श्री मेतार्य गणधर सज्जायम् ॥१०॥
(गुजराती फूलडांनी-ए देशी.) गणधर गुण हियमे धरो रे। पामो हरष अपार ॥ गणधर मेतारज जलो रे। एक एक मांहि सार रे॥१॥
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श्री एकादश गणधरनो सज्झायो. १६५ गणधर गुण हिय धरोरे (आंकणी)॥ जनम थयो तुंगीया पुर रे। विप्रदत्त सुजात॥ वारुणी दवी उर ऊपनो रे । अश्वनी नक्षत्र विख्यात रे ॥२॥ गण ॥ कोमिन गोत्र शोजाकर रे। गृहपणे वरस बत्रीस रे ॥ अनुक्रमे चारित्र आदर्यो रे। त्रणसें शिष्य सुजगीसरे ॥३॥ गण॥ दश वरस उमथ्थपणेरे ॥ केवलज्ञान वरस सोल रे। नवियण जण प्रतिबूझवे रे । सहु बासठ वरस रंगरोलरे ॥४॥गण ॥ परलोक संशय तसु
वीयो रे। जावीयो वीर जिणंद रे ॥ मेतारज प्रनु गणधरु रे । गणपति शिष्य आणंद रे॥५॥ गण॥ ॥श्री प्रनास गणधर सज्जायम् ॥११॥ (आपेआप संभालिये-ए देशी अथवा भरतरीनी.)
गणधर गुण संथवकरो। नामे मुनि सुप्रनास ॥ वसु संनिवेषे अवतयों। पूगी वंच्छित आस ॥ १ ॥ वीर गणधर सोहे सदारे। पाप पलाये पूर॥ अग्यारम गणधर सूरि। आपे सुख नरपूर ॥२॥ वीर गण ॥
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो.
बलिविप्र तात विख्यात जे । तिनद्रा जसु माय ॥ पुष्प रिखें जन मियो । कोमिन्ना गोत्र कहाय ॥ ३ ॥ वी० ॥ सोल वरस गृहपणे रह्या । त्रणशें शिष्य परिवार ॥ हरषजरे संयम धर्यो । जाणि जिन धर्मसार ॥ ॥ ४ ॥ वी० ॥ आठवरस बमथ पणे । सोल वरस वरना ॥ चालीस वरस सघलां मिली। महिमा मेरु समान ॥ वी० ॥ ५ ॥ मुगति संशय समय सही । वीरजिन वचन विचार ॥ जाव धरि जगतें जये । गणपति सुत सुख सार ॥ ६ ॥ वीर गणधर ॥ इति ॥
॥ इति गणपतिशिष्य हरजीमुनिना कृत एकादश गणधर स्वाध्यायं संपूर्णम् ॥ श्रीरस्तु ||
महामहोपाध्याय श्री मेघराज मुनिराज कृतः -
श्री साल सतियोनी सज्झायो.
||१|| श्री सुजासत्तीनी सजाय ॥ ( सिद्धारथ वर कुले - ए देशी )
जिनगुरु गौतम पाय नमी । कहीशुं सति चरित्र | जिनधर्मी चंपापुरे । जिनदत्त शेठ पवित्रो
॥
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १६७ ॥ त्रूटक॥ पवित्र बेटी रूपें रंना सुनना नामे सती। बुधदास बोधे कपट श्रावक थर परणी गुणवती ॥ पोषह सामायिक जैनधर्मे देवगुरु राती रहे । महा मिथ्यातणी नणंद सासू अहो निशे महर वहे ॥१॥ चाल॥-एहर्बुजाणीजोकही। बुधदासे निज नारी॥ मुनि आवे जल व्होरवा। बंदर जिम मंजारी ॥त्रूटक॥ बिन ताके तेम सासू पुत्रने माता कहे । यतिय साथे वह विलसे एम शोना किम रहे ॥ पुत्र बोले मात म कहो कनक मल कुण नाखए । सतीश मांहे ए शिरोमणी दोषी भूषण दाखए॥२॥चाल ॥ पारण काजे सती घरें। कोश् मुनिश्राव्यो तप गाढे॥ आहार देतां ऋषि लोचने । तृण जीने करी काढे ॥ ॥ त्रूटक ॥ काढतां तृण शीश सिंदूर लागे कृषि निलामए । ते देखी सासु वहू करणी पुत्रने देखामए ॥ व्यनिचारिण। निज नारी जाणी प्रेम पतिनो उतरे । सासुए दीध कलंक जाणी सुनता बहु उख धरे ॥३॥ चाल ॥-देहरासरें काउसग रहे । शासन
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. देव तिहां आवे॥ पुत्री खेद काश्मत करो।श्म कहीने बोलावे । (त्रूटक) सुनता कहे मातवेगे जिनशासन शोना चमे। तिम कोजे देवि ततदण चंपापोल चिहु जमे ॥ मांहे बाहिर पशुपंखी बहु नरनारी मिली । नगर रोहे सकल चंपा हुश् आकुल व्याकुली ॥४॥ (चाल )-गयण रही कहे देवता। कोई सति उत्नी कुवा कांठे ॥ तंतु काचे बांधी चालणी । जल काढी पोले गंटे (बटक) पोले बांटे तोज उघमे एहव उत्सुक थ। घणी नारी बहु खप करि विलखाणीलाजी ग॥ श्म सुणिने ते सुनमा सासुने जश् विनवे । मा तुमारी आझा पामुं पोल उघासु हवे ॥ ५॥ चाल ॥ मुह मचकोमी श्म सासु कहे । हुं तुज चरित्र सवि जाणु ॥ लोक जणाव्या मांकिशुं । तुज सत केहुं वखाणुं ॥ (चटक ) वखाएं हवे कहे सुनमा मात मुज सत जोश्ये । श्म कहि चाली कूप कंठे चंड वदनी सोहिये ॥ चालणी जल काढी तीने पोल बांटी ऊघमे । कुसुम वरसे जय जयारव करे सहु
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १६९ बादरवमे ॥ ६॥ चाल ॥ चोथी पोल उघामीये । कर जोमी नूप नाखे ॥ बीजी सतीअ उघामशे । श्म सुनमा दाखे ॥ (Jटक) सुन्नमा परिवारशुंरे राय राणी परिवरी । घरे आवी कुटुंब बोधी हमे संयम वरी ॥ लही सद्गति शील समकित कीरति वाधी अनिनवी । मुनि मेघराज आणी उबट सती पहेली वर्णवी ॥७॥ श्श्रोशील वि० महासती मयणरेहानी सज्जाय.
(माइ तुंगोयागिरि-ए देशी.) पुर सुदंसण राय मणिरथ । जुगबाहु लघुनाइ रे ॥ मयागरेहा तास घरणी। सती मांहि गवा रे ॥१॥ शील सूधुं जिको पाले । तास प्रणमे पाय रे . ॥ देव दाणव जला नूपति । दसणे मुख जाय रे ॥
॥शी आंकणी॥ मयणरेहा देखि मणिरथ । विषय विकल थाय रे ॥ लघुना हाथे हणियो । कीयो एम अन्याय रे॥३॥ शी॥ सती पतिने नि
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
रजरावी । शील राखण काजरे ॥ वने चाली वाटे जाता । जायो सुत नमिराज रे शी० ॥ ४ ॥ पदमरथ नृप बाल लेइ । गयो मिथिलाराय रे ॥ सति मणिप्रन लेइ विद्याधर । नंदीसरदीपे जाय रे ॥ शी० ॥ ५ ॥ जुगबाहु सुर सतीय वंदे | मेले मिथिला माहिरे ॥ साधवीनी सुणीदेसणा । लीये दीख उबाहि रेशी० ॥ ६ ॥ नमिराज हाथे गयो । मरतो चंद्र यशने राजे रे ॥ सती पहोती पुत्र पासे । जुजवारण काजे रे शी० ॥ ८ ॥ नमिराज कंकण एक खी । हुई प्रतिबोध रे || देवराजे घणुं परख्यो । लही केवल सिद्ध रे शी० ॥ ८ ॥ मयणरेहा शील पाली । सार्थी आपण काज रे ॥ सती बीजी एह जाणो | कहे मुनि मेघराज रे शी० ॥ एए ॥ इति. शीलविषये मृगावती महासतीनी सज्जाय. ३
( असत्य निवारीये - ए देशी. )
कौसंबी पुरराजीयो । सतानीक नृप जाए ॥ पटराणी मृगावती । रूपे रंजसमाणो रे ॥ १ ॥ पुन्ये पाले
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १७१ सुधो । समकित शीलो रे ॥ इहलोके सुखी । परनवे मुगतिसु लीलो रे पुन्ये ए आंकणी.॥२॥ राणी दोहलो पूरतां । पंखी लेई जाय ॥ मूकी तापस उमवे । उदयन सुत तिहां थाय रे ॥३॥ पुन्ये चौद वरषने
हमे । कंकण पामी राय ॥ निज नारी आणी घरे। उबव बहुल मंमायरे पुन्ये ॥४॥ चीतारे एहवु कयु। मृगावतीस्युं डोह ॥ प्रद्योते लंपटपणे । कीध कौसंबी रोहोरे पुन्ये ॥ ५ ॥ शतानीके हीयुं लीयु । सतीय घणुं विभास ॥ मांझी चंमप्रद्योतस्यु । कूमि वात मिगसो रे पुन्ये० ॥ ६॥ ईट अणावी उऊणिथी। कौसंबी गढ कीध ॥ प्रद्योतने एम बेतर्यो । राज्य उदायण दीधो रे पुन्ये ॥७॥ महावीर कन्हे लीये । मृगावती चारित्र ॥ चंदसूर जिन वंदितां । केवल लहे पवित्रो रे पुन्ये० ॥७॥ मृगावती मोटी सती ।राख्यु शील अपार; मुनि मेघराजे वर्णवी, त्रीजी सती उदा. रो रे पुन्ये ॥ ए॥
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
शील विषे महासती अंजनासुंदरीनी सजाय ४
(विनय करीजेरे०-ए देशी.) गिरि वैताढये प्रल्हादनपुरे । प्रल्हादन तिहां राय ॥ राणी रूमी तसु पदमावती । पवनंजय सुत थाय॥१॥शील सदा फल साजण सेवीये । जग जस पसरे जेम ॥ जिणपरिपाले आगे अंजना शील धों तनि तेम ॥ सापशील आंकणी॥अंजनकेते राये निज बेटी। पवनंजयने दीध॥शील सोनागिणि अंजना सुंदरी । जुगता जुगतुं कीध शी० ॥३॥ एक दिन पवनंजय निज मित्रस्युं । कन्या जोवा जाय ॥ देवदत्त कुंअर गुण सांजलि करी । क्रोधे पवन जराय शी॥४॥ मन पाखे ते कन्या परण्यो । मी बार वरीस ॥ रावण साथे चाल्यो कटके । जननी दीये आसीस शी० ॥ ५॥ घरमे बेगी रे अंजना। पवन पंखी वियोग ॥ देखी आव्यो राग जयों । राते मख्यो बिहु संयोग शी० ॥ ६॥ कटके पहुतो माता विणु कहीये।
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १७३ पेट सहित ते देखी नारी ॥ काढे सासू घर थकी। पहुती वनह मजारि शी०॥ ७॥ पाले सतीय शील सु हामणुं । हनुमंत सुत तिहां थाय ॥ सूरिजकेते देखी जाणेजी। निज नगरे लेई जाय शी० ॥ ॥ पवनंजय पण जीती आवीयो । सती न दीगी जाम । करवा लाग्यो आपहत्या घण।। मित्र निवारे ताम शी० ॥॥॥पवनंजय मित्र जोतो सतीयने । सूरिज केतु आवास । पामि तिहाथी लेई निज पुरे । आव्यो मन उल्हास शी० ॥१०॥ बहु परिविलसी राज्य सोहामणु । साधी संयम काज ॥ स्वर्गे पहुती चोथी अंजना । पत्नणे मुनि मेघराज शी० ॥ ११ ॥ शील विषमहासती नर्मदा सुंदरीनी सजाय ।
( जिन चउतीसेंरे अतिशय श्रुत भण्या-ए देशी)
नरमदा कांठे नर्मदपुर वसे। सहदेव श्रावक गुण करि उन्हसे । तसु घर बेटि नर्मदा सुंदरी । रूप लावण्य शील श्रावक गुण जरी-धन जयों आवे महेसर दत्त नाणेजो मामा घरे। गुण रंजी श्रावक होय
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श्री सोल सतियोना सज्झायो.
तिथे नर्मदा परणी वरे ॥ निज नगरे यावे घणे उहवे नारी साथै सुखे रहे । केते काले धन कमावा समुद्र चकवा ऊमहे ॥ १ ॥ नर्मदासुदरी पतिरागे करी । वाहणवेसी साथै संचरी ॥ राग आलावे कोइ ति गणए । तेहना लक्षण नर्मदा जाणए - जाणे लक्षण शास्त्रनें बले जोलि महिपतिने कहे । महेसरदत्त ते सांजलीने संका मन मांहि वदे ॥ एह पुरुष तुं देव लक्षण जाणि तव व्यजिचारिणी । समुद्र वाटे सूती मेल्ही उठी नाठो सु धणी ॥ २ ॥ नारी जागी चिह्न दिसे जोवे । पति ण दीवे गाढे रोवे । कर्म कारण गणि धीरपं धरे । तापस वेसे फल नक्षण करे—करे जिन - धर्म एहवे तिहां पीतरीयो वीरदासए । बब्बरकूले जाय व्यापारे नीरखूटो तासए ॥ नोर काजे तिणे दीपे वाहण उत्तरी आए | देखी
त्रीजी साथे लेइ बब्बरकूले जावए ॥ ३ ॥ सेठ घणो तिहां नृप आदर लहे । पीतरीया घरे ज
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
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त्रीजी रहे । हरिणीवेश्या माने पुरवणी । सहस टंका तसु दीये प्रवहणी सेवकने लेवा वेशदासी एक यावे उमहे । नर्मदा सुंदरी रूप देखी वेश्याने जा कहे || यदा शाहने वस्तु लेवा हरिणि घरे
मावए । तसुहथ वींटी लेइ दासी सतीने देखानए ॥ ४ ॥ दासी जाखे वात सुखो वमी | वींटी सहनाणे पीतये तेी । एहवं सांजली तिहां गइ नमैदा । हरिणी बोली जोग जोगवी मुदा - तदा बोले नर्मदा तिहां एह वयण न बोलीये । शील माहरु कोइ न लोपे मेरुगिरि केम कोलीये ॥ पांचसे नामी सती देतां मुइ हरिणी पापिणी । एह वितक लोक वचने सुणे ते नगरीधणी ॥ ५ ॥ सती अणावा सोवन पालखी । राजा प्रेषे चामर बिहु पखी । शील
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धरेवा वाटे बहु रमी । तिहांथी उबली खालमांहि पमी - घमीमांहि धूलबांटे करे गहेलाइ घणी | मंत्रवादि वाजी आव्या राये वात सवे सुखी । जिपदास नामे एक श्रावक राय तेहने पए । ते
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१७६ श्री सोल सतियोनी सज्झायो. सती लेइ नर्मदा पुरे जइ मातपिताने सुपए ॥ ६ ॥ तिहां पधार्या सुह स्तिकसूरिए । श्रावक वांदे आणंद पूरए ॥ वितरमी जव सांजलि नर्मदा । श्रीगुरु पासे दीख लेश मुदा-एकदा पहोती सासरे ते विहरती गुरुणीसमी । पुरुषलक्षण सक टाली धणी कीधो संयमी ॥ महेसरदत्तसुं संजमपाली नर्मदा स्वर्गे गए । मुनि मेघराजे कथा रूमी पंचमी पूरी कही॥७॥ ॥६॥शीलविषेमहासतीरति सुंदरीनी सज्झाय.
(शील सुहावोरे साजण सेवीये-ए देशी) साकेत नगरे नृप अरिकेसरी । रति सुंदरी तसु पुत्री रे ॥ साधवी संगे हुए श्राविका ।सम कित शील पवित्रीरे ॥१॥शील चिंतामणि रूमे राखीये। जेहथी संपद होरे ॥ इह परलोके सवि संकट टले । रति सुंदर जिम जोरे ॥२॥शी यांकण ॥ नंदनपुर रायचंड नृपे परण। । तेहy सांजलि रूपोरे ॥ महेंजसिंह नृप लेवा भावीयो । फूज करे बिहुं नूपोरे॥३॥ शी० ॥ चंडनरेसर लाग्यो पूंजता । महेंऽसिंहे रति आणोरे ॥ विषधर स वाह्यो कहे नृप हे जजे । तुंथा
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श्री सोल सतीओनी सज्झायो.
मुझ पटरांणी रे ॥ ४ ॥ शी० ॥ एहq सांजलि कहे रति सुंदरी । राजन विषय निवारो रे ॥ परस्त्री सेवा दूषण डे घणां । रावण चरित विचारो रे ॥५॥ शी० ॥ एहवं कहितां राय न उसरे । अवधि मागी मास च्यारो रे ॥ब तप परणि आंबिल करि काया । पुर्बल कीधी अपारो रे ॥ ६॥ शी० ॥ मास चिहुने हमे कहे राजा । सुंदरी ! संनल वयणो रे ॥ तुज लोचन मोह्यो एम सुणी । सती काढे निऊ न. यणो रे ॥ ७॥ शी० ॥ धर्म कथा करि राजा प्रतिबोध्यो । शीले लोचन आवे रे ॥ बहिन कहिने प. हिरावी राये । सतीने घरे वोळावे रे ॥ ७ ॥ शी० ॥ चंजनरेसरस्युं रति सुंदरी । हमे सारे काजो रे ॥ मोद पहुंती ही ए कथा । एम कहे मुनि मेघराजो रे ॥ ए॥ शी० ॥ इति ॥ ७ शीलवि० महासती ऋषिदत्तानी सज्झाय.
(जेम तरु पाकुं० अथवा जेहने जेसुं रंग-ए देसी.)
रथमदन पुर राजीयो रे । हेमरथ राय सुजाण ॥ कनकरथ तसु सुत जलो रे । कला बहुतरि गण
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१७८ श्री सोल सतीओनी सज्झायो. ॥१॥ सोनागी सेवो शील सदा फलवंत । जेहथी सुख अनंत ॥ सिवरमणी हु कंत। सो आंकणी ॥२॥ सुंदरपाणी राजा बेटी रे । रुकमणि परणवा काज ॥ वाटे जातां वनमांहिरे । वांद्या श्रीजिनराज ॥३॥ सो ॥ देहरे एक तिहां श्रावीयो रे । हरिषेण तापसराय ॥ ऋषिदत्ता नामे बेटी रे । कुमरने कीधो पसाय ॥ ४ ॥ सो ॥ज्ञषिदत्ताने ले करिरे । कुमर
आवे निजगाम ॥ रुकमणी तिहां मोकली रे । जो गणि सुलसा नाम ॥ ५॥ सो ॥ दिन प्रति एक बालक हणी रे। दीधुं सतीय कलंक ॥ऋषिदत्ता गणी राक्षसी रे। राये काढी निसंक ॥ ६॥ सो ॥ शील राखवा कारणे रे । ते वनमांहि जाय ॥ तापस वेस करी रही रे ! पूजे श्रीजिनराय ॥ ७ ॥ सो० ॥ कनक कुंअर चाल्यो परणवा रे । पहुतो ते वनमांहि ॥ ऋषिदत्ता साथे लश् रे । रुकमणी परण्यो बाहि ॥ ७ ॥ सो० ॥ रुकमणी गर्वपणे कहे रे । योगिणी जिम बाल दीध ॥ ऋषिदत्ता साची हुश् रे । घरे आवी
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श्री सोल सतीओनी सज्झायो. १७९ राज कीध ॥ ए ॥ सो ॥ जसाचारिज गुरु कन्है रे । पूरवनव संबंध ॥ सांनलिने दीदा लीये रे । बांग्यो सर्व प्रतिबंध ॥ १० ॥ सो० ॥ नदलपुरि मुगति गश् रे । शीले जसु जसवास ॥ मुनि मेघराज कहे मुदा रे। सातमी महासती नास ॥ ११ ॥ सो ॥
श्रीशील वि० महासती दमयंतीनी सज्जाय. (नयरि चंपावती जाणीये अथवा. चालती त्रुटक-ए देसी)
नयरि अयोध्या राजीयो। निषध नरेसर जाणोरे ॥ सुत बे नलवमोने बीजो । कुंवर कूम नीहाणो रे॥-मान मोटे नीमरथ राजा, पुत्री दमयंती दीये। नल कुमरने राज्य देश, निषधराय संयम लीये ॥ जूव रमीया बिहुं नाश, राज्य नल नृप हारए । नारि वचने कुंमनपुर जणी। चाल्या बिहु तिवारए ॥१॥ वाटे थाकी सूती सती । नल चीते मनि एहोरे ॥ सासरे जावू मुझ नवि घटे । सीख लिखी चीर बेहो रे॥-सीख लिषीने वेगे चाख्यो, सती जागी ततहणे॥ चिहुं दिशे जोवे घणो रोवे । पीहर चाली आपणे ॥
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श्री मोल सतीओनी सज्झायो.
वन मांहि तापस पुरी ते रहिती, शांतिजिन पूजा करे । वरिस साते गश् ऋतुपर्ण, राय मासीन घरे ॥ ॥ दांन साला मामी तिहां । नृपनो आदर पावे रे ॥ पिंगल चोर प्रतिबोध्यो। नीमरायतणो पूत आवे रे॥-पूत साथे घणे माने, सती पहोती पोहरे। राय नल पण निषधदेवे, कुबड कीधो संचरे ॥ नगर पहोतो सुसमाइ, राय दधिपन राखए । राधणुं करतो रवि सोये, कला सघली दाखए ॥३॥ नीमरथराये ततणे मुखे। सुण्यो कुबम सरूपो रे॥हरिमित्र
के जे मांमीयो ॥ नल नाटिक बहु रूपो रे ॥-बहू परि मनाव्यो तिहां बटु ए आप नल न जणावए । नीम कुमराये मांमिसयंवर, हुंमक नृपस्युं अणावए॥ घरमांहि आणी दीनवाणी कहि ते प्रेम उमटीन । सुरदीध वस्त्राचरण पहिरी, नले रूप प्रगटील ॥४॥ कटक मेलिने आवी । नयरि अयोध्या तामो रे ॥ कूबर कूमो बेदी । बेश्ठो राज्य सुगमो रे ॥-राज्य वयो अन्यदा तसु, निषध सुरवर बुझवे । धर्मघोष
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श्री सोल सतीओनी सज्झायो. . १८१ मुनिवर तीहां पधार्या । धर्म देसण सूझवे ॥ नलराय पूढे कहो नगवन, पूरव जव कीधो किस्यु । बार वर्षा लगे जेणे सुख पाम्या मे इस्यु ॥५॥ गुरु कहे राय
ठे नवे । मम्मण नूप तुं हुतो रे॥ वीरमतीस्युं परिवर्यो । रामतिवने पहतो रे ॥ वने पहुते एक मुनिवर, देखी घणुं संतापी । बार घटीका साधुने ते, वचन कथने तापी ॥ पडे मुनिवर शांत देखी, पाय लागी खमावी । घरे तेमी सूत्र सांजलि, जैनधर्मे जाविर्ड ॥६॥ तिणे कर्मे तुम्हे पाम्यो। राजन मुख अपारो रे ॥ पड़े धर्म आराधी । तिणि पाम्युं सुख सारो रे ॥-एम सांजलि सती साथे, दोख लेश् सुर थयो । देवी दमयंती चवीने, उत्तम माणस जव लह्यो । वसुदेव परण। शीलयोगे, पामि केवलि सिकि गई। मुनि मेघराजे सती मोटी, आठमी इणिपरे कही ॥७॥ ९ श्रीशीलविण कमला महामतीनी सज्जाय. (शालीभद्र मोह्यो अथवा उत्तराध्ययनें बोल्या सोलमेंजी-ए देशी.)
नरुप नगरे मेघरथ राजीयो रे । बेटी कमला नाम ॥ एहवे सोपारा पाटण राजीयो रे । रति ववन
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१८२ श्री सोल सतीओनी सज्झायो. गुण बाम ॥१॥ शील सोजागी साजण सेवीये रे। जेहथी सुजस वाय ॥ संकट नाजे संपद सवि मिले रे। कमला जेम गवाय ॥ २ ॥ शी० आंकणी कमला परणी रतिवबस नृपे रे। एहवे समुछ मजार ॥ गिरिवर्धनपुर नगरे राजीयो रे । कीरती वर्धन डे सार ॥३॥शी ॥ कमलारूप सुण्यु तिण राजीये रे। काम विव्हल एजं तेह ॥जुगंधरां मंत्रवादिने कहे रे। कमला श्राणो स खेह ॥४॥शी मंत्रवादी कहे राजन ते सती रे। तेहस्युं कोण तुम्ह काज ॥ नृप आग्रहथी मंत्रबले करी रे। आणी पोताने राज ॥५॥ शी० ॥ कमला जागी राजा बोलीयो रे । कीरतिवर्धन मुफ नाम ॥ ए संपद सवि न ! ताहरी रे । सारो वंबित काम ॥६॥शी॥ कमला कहे चिंतामणि का गमे रे । काग उमावण काज ॥ माहरुं शील न लोपी को सके रे । तुंकां आवे राज ! ॥ ७॥ शी॥ रूठे राये लोह पहिरा वियो रे । जाग्यो सती जरतार ॥ किहां न दीनी प्राणप्रिया पणि रे । पाम्युं सुख अ
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श्री सोल सतीओनी सज्झायो. १८३ पार ॥ ७ ॥ शी० ॥ एहवे पधार्या तिहां मुनि केवली रे। कमला सतीय सरूप॥राजा वांदी पूडे वली वली रे। मुनि कहे सांजल नूप ! ॥ ए ॥ शी० ॥ कोरती. वर्धन नृप घरे तुऊ प्रिया रे ।शील अखंमित जाण ॥ मास बेहके ते यहां आवसे रे । मनमे खेद म आण ॥१०॥ शी० ॥ ते ऋषि पहुता गिरिवर्धन पुरे रे । ते मुनिने अनुना॥ कमला चरण अषीललागी परयो रे । नृप ऋषि वंदण जाय ॥११॥ शी० ॥ मुनि प्रतिबोध्ये तेणे राजीय रे । बहिन कहीने सुनाप्ति ॥महा महोडवे कमला पाठवी रे । रतिवबन नृप पासि ॥१२॥ शी०॥ चारित्र लेई हमे ते सती रे। पहुती मोद मकार ॥ मुनि मेघराज कहे गुण तेहना रे । नवमी सतीय विचार ॥१३॥ शी० ॥ इति. १० श्रीशीलविण कलावती महासती सज्काय (गाथापति रे ते मुनिवर देखी करी रे-ए देशी राग मारुणी.)
देवसाल रे नगरे विजयसेन राजीयो रे। कलावती तसु हो ॥ पुत्री रे परणावी संखरायने रे। शील
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श्री सोल सतीओनी सज्झायो.
सोनागणी सोइ ॥१॥ सूधुं रे समकित शील सदा धरो रे । जेहथी संपद थाय ॥ पातक रि पुलाय । सघले सुजस गवाय ॥२॥ सू० (ए आंकणी०) बापे रे पुत्री जाणी गुर्विणी रे। मोकलीया परधान ॥ ते साथे रे नाश् मोकले बहिरखा रे । बहिनी लीये बहु मान ॥ ३ ॥ सू० सतीयेरे बांहे बांध्या बहिरखा रे । सखी प्रीते कहे सोश ॥ बहिरखा रे प्रेषणहारो दषस्युं रे । सो वला कही हो ॥४॥ सू० एहवं र वचन सुण्यं संखराजीये रे । मनमें थयो संदेह ॥ ते कुणरे एह जेहने मनमे धरे रे । परनर राती एह ॥५॥ सू० तेणे रायरे वनमे मेव्हावी सती रे । बेदाव्या बे हाथ ॥ तिण मुखेरे विलवे नारी एकली रे । तेमज वन मृग साथ ॥६॥ सू० प्रसव्यो रे पुत्र हवे कहे महासती रे। जेहथी लहीये लील ॥ एहवुरे जिनधर्म में आराधीयु रे। त्रिविधे पादयुं शील ॥ ७॥ सू० ॥ तो मुझ रे रूमा बेकर आवज्यो रे । समरे श्रीजगनाथ ॥ ततक्षणरे कनक चूमि मंमित जला रे। प्रगट हुआ
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो. १८५ बे हाथ ॥॥सू०॥ अनुक्रमे रे पहुती तापस उमवे रे । हवे राए तिणे दीठ ॥ बहिरखे रे नाम सती नाश् तणुं रे । पाम्युं सुख अदीच ॥ ए॥ सू० ॥मंत्री रे राजा ऽख देखी करी रे । संघले जोवा जाय ॥ तापसरे उमवे तिणि पामी सती रे । आणी सघले उबाहि ॥१॥ सू० ॥ राजा रे सघलो लोक आणंदीउ रे । श्राव्या मुनिवर कोइ ॥ नूपति रे वांदी पूछे मुक प्रिया रे । कर बेदनस्ये होश ॥११॥ सू०॥ श्री गुरुरे कहे नूपति पहिले नवे रे । तु हुंतो सुकसार॥ मुक प्रियारे राजपुत्री सुलोचना रे । सुकस्युं प्रेम अपार ॥१२॥ सू०॥ सूमोरेश्रीजिन प्रतिमा वांदीवारे। उमी वनमें जाय ॥ तेहनें राखवा रे । उपामी विश् पांखमी रे। सूमो मुखीयो थाय ॥१३॥ सू ॥ ते पोपट रे अणसण लेश सुरवर थयो रे । तिहाथी तुं नृप होश ॥ कुमररे अणसण करि देवी थश् रे । कलावती एह जो ॥१४॥ सू॥ पातकरे पाखतणुं करने थयुं रे। एहवी सांजलि वाणि ॥ बिहुजणरे संयम लेश
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो.
रूको रे । पहुतां बेहुं निरवाणि ॥ १५ ॥ | सू० || मोटी सुधी सती कलावती रे | नामे सीके काज ॥ दसमी रे जा जो सुदामणि रे । पजणे मुनि मेघराज ॥ १६ ॥ सू० इति
११ शीलवि० शीलवती महासतीनी सज्जाय
( देशी - चालती तथा घुटकनी )
नंदपुर रे रत्नाकर सेठ जालीये । अजीत सेन रे बेटो तास वखाणीये ॥ तेथे परणी रे शीलवती नामे सती । सेठ जिनदत्त रे श्रावक बेटी गुणवती ॥ - रातीपति स्युं सती अन्यदा, रात्रि अर्धे सांजले | शिवा बोले तेहनो स्वर, सुकन सास्त्रे खटकले ॥ घमो लेइ जिस्युं चाली, देखि सुसरो पुत्रने कहे । कुलटा बहु माटे, पुत्र बांको पहने कुछ संग्रहे ॥ १ ॥ तेहने पीहरे रे सुसरो चाल्यो मेल्हवा | मारगि नदी रे देखी लाग्यो बोलवा | पाय जुती रे बहु उतारन जींजीये | वहू तेमज रे चाली तिमर खीजीये ॥ - रीजीये एहवं नगर देखी, कहे सुसरो उतरां । वहू बोलि सूनुं न
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो. गरे इहां रहीने स्युं करा ॥ वाप्ये वमलो एक देखी सेठ बाया वीसमे । वह तमके जर बेठी, शाह रीसें धम धमे ॥२॥ गाम सूनुं रे वाटे घर पांच ब बसे । ते देखी रे वहअरनुं मन उन्हसे ॥ सेठ बोले रे सूने गामि नहीं रहां । कहे वहूअर रे पिताजी हां रहाः-एम कहतां मामाने घरे, भक्ति पूरवक ते जम्यां । वली चाट्यां वृदा देखी, बिपहुरे जश् विसम्या ॥ वहू रोटीने करंबो, जिमत देखी कागलो । करे कर रख बहू बोले, मांगे स्यु करंबलो ॥३॥ धन राखो रे माहरे काम न तसु तणुं । आगे सिवा रे बोलीने दी सूषण पणु ॥ एहवं सांजलि रे सुसरो पूढे वहूयने । एह वायसरे सुं कहें डे तुहनेः-कहे वहूअर सुणो सुलरा, गुण सहु मुज अवगुण थया ॥ बालनाव गुरुए मुऊन, शकुन नाव सवे कह्या ॥ तेणे जाणुं शिवा बोली, ते शब्द अनुसारथी। घमे बेसी नदी उतरी, मृतक काढयो नीरथी ॥ ४ ॥ तेहनी कमीथकी रे आजरण हुतां
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो.
रे बांणहरांमाइ ते दीयां ॥
मेलीयां । घर कुण वांके रें हु बंकी जोवो इसु । पूढे सुसरो रे वायस बोले वे किस्ः - कहे वायस वृक्ष देवे, सोनुं दस लख । ते काढि कल हल तेज देखी, विबे
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हस्युं मन सुसरात ॥ वली पूढे नयर जवस, वास वसतुं किम कछु | बहू बोले तेहज वस्ति, जिहां आपण साजण लघु ॥ ५ ॥ वम मूंकी रे तरुके बेठी ते कि । कहे वहु र रे तुमे न जाणो वो इस्यु ॥ वरु बेठो रे वायस विष्टा जो करे । स्त्री माथे रे बह मास मांहि पति मरे:- कहो वस्ति नयर जवस कहि केम थापणुं । सती बोले स्युं किजे जिहां को नही आपणं ॥ पहिर जुती नदी मांहि उतरी कारण किस्युं । जल सर्प कांटादिक न पीछे सेवनुं मन उलस्युं ॥ ६ ॥ लेइ सोवन रे पाठी आणी कुल वहू । घर स्वामिनी रे कधी हर्ष्या तिहां सहू ॥ सती पति राए दीठो गुण जर्यो । तूठे नृपरे जितसेन मंत्री कर्योः - थयो मंत्री कटक जातां, घरे नारीने कहे ।
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो.
जले रहिज्यो । तेम करिज्यो, जेम आपणपुं रहे ॥ सती बोली फूलमाला, कंठे स्वामी घालज्यो । शील जावे सरस रहस्ये, एम चितमु वालज्यो ॥७॥
... ढाल बीजी. __ (माइ तुंगियागिरि-ए देशी) राय साथे मंत्री चाख्यो । पूढे अन्यदा रायने॥ मंत्रि तुम्ह गल फूलमाला । कहीए नवि कमलाय रे ॥ ॥ शीलवतीए शील पादयुं । पाल्यो तेम जाण रे ॥ अमर नरवर पाय प्रणमे । महिमा मेरु समाण रे ॥ ॥ शील आंकणी कहे मंत्रीरायनि नीसुणो। सती मुऊ घर नार रे ॥ तास समकित शील जोगे । माला सरस विचार रे ॥१०॥ शीलण ॥ एम सांजलि राय हसीयो । नारी केहुं नाम रे ॥ अव्य देश चार नरने । मोकल्या तिण गाम रे ॥११॥ शील० ॥ एक पुरुषे सती साथे । मांझी प्रीति अपार रे ॥ लाख टका लेइ सतीए । घाख्यो कूप मकार रे ॥ १२ ॥ सीलएम चारे एक मिख्या । सीके पाणी नातरे
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श्री सोल सतीयोनो सज्झायो.
नारकीनी परे वेदना । जोगवे दिन रात रे ॥ १३॥ शील ॥ कूप पनीया चार बोले । काढो मोरी माय रे॥ नूप जीती घरे आव्यो । मुहूर्ते तेमयो राय रे ॥१४॥ शील॥ रसवती बानी नीपाश् । कहे राय विचार रे ॥ सामग्री का जिमण केरी । दीसे नही तुम्हा वार रे ॥ १५ ॥ शील ॥ मंत्री बोले जद अम घरे । पूरे वंडित सिद्धरे ॥ जिमी राय मंत्रिपासे । यद मांगणी धरे ॥ १६ ॥ शील ॥ चिहुं पूरी मंजूस मांहि । घाली नृपने दीधरे ॥ रांक सरीखा चिहूं देखी । कहे नृप स्युं कीधरे ॥ १७ ॥ शील० ॥ शीलवतीना गुण वखाणे । अरिमर्दन तिहां रायरे ॥ बहिन मानी पगे लागी । कीधो घणो पसाय रे॥ १७ ॥ शील ॥ अजितसेने सती साथे । सार्यो आतम काज रे ॥ नास एणीपरे हुए अग्यारे । पत्नणे मुनि मेघराजरे ॥ १५ ॥ शील० ॥
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो.
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१२ श्री शीलवि० महासती नंदयंतीनी सज्जाय ( सोरि पुरवर वसुदेवराजा - ए ढाल. )
पोतन पुरवर सागर श्रेष्ठ । समुद्रदत्त बेटो तसु जाण ॥ नागर दत्तशेठ केरी बेटी । नंदयंती परणी गुण खाण ॥ १ ॥ शील० ॥ सोजाकर हार अनोपम । पहेरो नर नारी मनरंग ॥ इहलोकें सुख संपत्ति ल हिस्य | परजवे विलसे मुगति निसंग ॥ २ ॥ शी० (कणी०) कुंवर चिंते बाप कमायुं । धन विलसे अधम सुत तेह ॥ पिता पूठी लइ क्रियाएं । मित्र संघातें चाल्यो एह ॥ ३ ॥ शी० रात्रिए निज नारी चित्ते खावी | पाठो वे निज घरबार || द्वार पानेपजावी । वे ति घर जिहां ते नार ॥ ४ ॥ शी० प्रिय विरहै जूरे ते नारी । माबलम थोमे जले जेम ॥ रात्री रही प्रिया प्रासासी । समुद्रदत्त बानो वली तेम ॥ ५ ॥ शी० सासू ससरा वहु गर्भ देखी । पुत्र थकां न हुतो धांन ॥ इम संकल्प करीनें वनमे । मेल्हि वहूने देश अपमांन ॥ ६ ॥ शी०
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श्री सोल सतोयोनी सज्झायो.
एहवे जरुअब नगरी हूंती । रामति मसि आव्यो नूपाल ॥ बहिन करीने तिणि घर आंणी । सतीए मांमी तिहां दानसाल ॥ ७॥ शी० ॥ समुदत्त व्यापार करीने । निज घर आव्यो सती न दो ॥
आपहत्या करवाने लाग्यो । मित्रे वार्यों ते कर नीठ ॥ ॥ शी० ॥ मित्र सहदेव लमंत जमतो। आव्यो मांमी दानसाल ॥ सती उलखी लेइ घरे आव्यो । हर्षा साजण बाल गोपाल ॥ ए॥ शी० ॥ चारित्र लेश्ने नंदयंती। तिहांथी विलसे अमर विमान ॥ मोदे जास्ये बार सतीनां । मुनि मेघराज करे गुणगान ॥ १० ॥ शी० ॥ १३ शीलवि० महासती राहिणीनी सज्जाय
( ज्ञात क्षत्री कुले दीपतोजी-ए ढाल. ) पाटलीपुरे नंदराजीयोजी । शेव धनावो नाम ॥ प्रिया तसु रोहिणीजी। शीलगुणे अनिराम ॥१॥ धन्य धन्य ते जगमे । जीव्यो तास प्रमाण ॥ शीला
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १९३ जरण अलंकर्याजी। तसु दरिसण सुविहाण ॥२॥ धन्य० ॥ आंकणी॥ धनावो वाहण चमयोजी। सती निरवाहे एशील ॥ अन्यदा गोखे बेनी थकीजी। राए दीव सलील ॥३॥ धन्यः॥मोह्यो नृपती मुखेजी। पहिलो संदेसो दीध॥आव्यो रोहिणीने घरेजी।आगत स्वागत कीध ॥४॥ धन्यः ॥ एक जवानी रसवतीजी हामी तो घणिनाति॥ बेगे राजा जीमवाजी। स्वाद लहे एक जाति ॥५॥धन्य॥राजा पूडे ए किस्युंजी?। सघलो एक आस्वाद ॥राजन! वर्षे अंतरंजी। सघली एकज स्वाद ॥६॥धन्य॥सतीये नृप बोध्यो थकोजी। बहिनकरि धरि पत्त ॥ एहवे सेठ धनायहोजी । श्रापणे घरे संपत्त ॥७॥धन्य॥ दासी मुखे राजा तणुजी। सांजलि सर्व वृत्तांत ॥ राय छागले किम उगरेजी। नारि मिली एकांत॥॥ धन्या सेठ करे मन मपुंजी। एहवे वुगे मेह ॥ गंगा बिहु कांठे वहिजी। नगरतणाए तेह ॥ ए॥ धन्यः॥ तेहिज तटे आवी रोहिणीजी, बोले अमृतवाणी ॥ त्रिविधे में शील पाली
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१९४ श्री सोल सतियोनी सज्झायो. युंजी। तो जल पहुतुं गमि ॥१०॥ धन्य० ॥ गंगाजल वाटे वयंजी। उबव करे नर राय ॥ मुनि मेघराज कहे ए सतीजी । तेरसमी सुर थाय ॥११॥ धन्य ॥ १४ श्रीशील विषमहासतीशेपदीनी सकाय.
(ब्रह्मदत्त कंपिलपुर राजीयोजी-ए ढाल.) कंपिलपुर छपदराजीयोजी। बेटी अपदी जाण ॥ तेहने अर्थे स्वयंवर मांगीयोजी । मिलीयाराणो राण ॥१॥ उत्तम आदर दीयोजी। शील रतन जगसार॥ जेहवी सुरनर संपद जोगवीजी। लहीए जवनो पार ॥२॥ उत्तम ॥ पहिलूं स्नान करिनृप कुंअरीजी। ते पूजे जिणवर देव ॥ पले सार श्रृंगारे सोचतीजी। आवे जिहां वासुदेव ॥३॥ १० ॥ अनुक्रमे जोती गयराणा सवीजी । आतमन्नाव रसेण ॥ पांमव पांचे परणे पदीजी । पूरवकर्म वसेण ॥ ४ ॥ 3 ॥ पांमव आव्या सवि हथणाउरेजी । अन्यदा तिहां ऋषिराय ॥ नारद सतीये बहु अपमानीयोजी अमर कंकाये जाय ॥ ५॥ उ० ॥ पदमनाज नृप आगल
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
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नारदेजी । वर्णवी सती प्रकास || देव आराधी तेणे राजीयेजी। सती आणी निजगाम ॥ ६ ॥ उ० ॥ बल तप करती थकीजी । पाले निर्मल शील ॥ कृष्ण नरेसर पांगवने मलीजी । श्राव्या तिहां सलील ॥ ७ ॥ उ० ॥ ऊ करिने पद्मने देदीयोजी । नारायो जस लीध ॥ सती शिरोमणी नृप द्रूपद सुताजी | पांच पांव दीध ॥ ८ ॥ उ० ॥ कृष्ण पधार्या जिहां द्वारामतीजी । तेहनी आणी पामि ॥ पांगव वासी पांगुं मथुरापुरीजी । विलसे राज्य सुवामि ॥ एए ॥ उ० ॥ थेरा पासे अन्यदा पांगवेजी । लीधो संजम सार ॥ श्रीसेगुंजे केवल पामिनेजी । पहुता जवने पार ॥ १० ॥ ० ॥ संजम पाली लीध डूपदी जी | पंचम स्वर्गेवास ॥ मुनि मेघराज कहे चौदमी सतीजी । विस्तरीय जसवास ॥ ११ ॥ ज० ॥ १५ श्री शील विषे सीता महासतीनी सज्जाय ॥
( कोइ राखों रे मेघरथराय - ए ढाल. )
दशरथ नृप कोसल धणी । कुल इखाग पवित्रो
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
रे || राणी चार हुइ वमी | चार थया तसु पुत्रो रे ॥ ॥ १ ॥ राम राज रे अयोध्याराय । सीतापति राम राज रे || सूर्यवंशी राजीयो दशरथ । पुत्र विराजे रे ॥ २ ॥ राम० क० कोशल्या सुत दीपतो । -
म बलदेव रामो रे || सुमित्रा सुत जाइयो । वासुदेव लक्षण नामो रे || ३ || राम० रावण राये सीता हरी । सागर बाबी पाल रे ॥ ऊऊ करी रावण दणी । रामे सीता बाली रे ॥ ५ ॥ राम० ॥ जनकसुता सीता सती । रामती शण प्रिया रे || दशरथ - पा पामीने। दंडकारण जइ रह्या रे ॥ ४ ॥ राम० ॥ राज्य ले आया घरे रे । प्रजासुं प्रीति मांगी रे ॥ लोक वचन श्रवणे सुखी । रामे सीता बांकी रे ॥ ६ ॥ राम० ॥ लवकुश - सुत जाया वने । मुसाले वृद्धि पावे रे । जीत्या जूकता तेसुं । सोता शील प्रजावे रे ॥७॥ राम० ॥ पुत्र बिहुंसु परिवरी | सती अयोध्या आवे रे | अंगारे खाइ जरी । सीता साच जणावे रे ॥ ८ ॥ राम ॥ त्रिविधे में शील पाली युं । तो सहु सुर साख
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श्री सोल सतियोनो सज्झायो.
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देज्यो रे । जो हुं राघवी एक मनी । तो आग फाटी जल होज्यो रे || || राम० ॥ एम कही पग मुकता । खाइ नीरे नराय रे || (चहुँ दिसि पंकज प्रगटीयां । कुसुम वृष्टि तिहां थाय रे ॥ १० ॥ राम० ॥ कलंक उतारी महा सती । संजमसुं मन जावे रे । देवलोक ज बारमे । इंद्र पद पावे रे ॥ ११ ॥ राम० ॥ श्री रामे संजम ग्रह्यो । सोल सहस नृप साथे रे ॥ केवल लहि मुगते गया । तार्या बहु जीव हाथे रे ॥ १२ ॥ राम० ॥ शील प्रजावे विस्तर्यो । सीतानो पक्ष साचो रे । मुनि मेघराज कहे सती । पनरमी गुण राचो रे ॥ १३ ॥ राम० ॥
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१६ श्री शील विषे धनश्री महासतीनी सज्जाय. ( एणे ए अवसरे कुमर सकोमल पूछे - ए ढाल. ) नयरी उजेली मालवदेश पसिद्ध । सागरचंद श्रेष्टि तिहां वे गुणे समृद्ध ॥ समुद्रदत्त बेटो उत्तम कुलाचार | अन्यदा तेणे दोगे मायतणो व्यनिचार || आचरे माठी माय देखी कुमर हूने विरत ।
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श्री एकादश गणधरनी सज्झायो.
वोली मुख घाग्यो जेहनुं राणी न धरे चित ॥ मनमे जाण्युं सघली नारी शोल रहित अविचारि। तो हु एहनी संगति न करूं घरे न आणु नारी ॥१॥ वळ नगरे श्रेष्ठि धन नामे एक होय । धनश्री बेटी शील सोनागिणी सोय ॥ समुदत्तकुअरनो मातपिता हठ देखी । धनश्री परणी तेणे लीहो उवेखीः-उवेखीने गयो परदेशे बार वरसने लेह । रूप फेर करिने आव्यो सुसराने घरे तेह ॥ घरनुं काम सर्वे ते सारे सहुए दिए तसु काम । विनय करिने सहुए माने विनीत कही ए नाम ॥३॥ ते पण धनश्री शील सुचंगोपाले । देव गुरु आराधे समकित मणी उजवाले ॥ निज गोखे बेठी अन्यदा धनश्री नारी । देवी समरूपे दीठी गाम तलारिः-गाम तलारे तेमी विनीय तरंग रतिचिंते नेल । कहे कोटवाल सुणो मुक बंधव धनश्री मुजने मेल ॥ ते पण जर धनश्री आगले बोले धरि उगह ॥ जोग संयोग करोने जझे ! लि मानवजव लाद ॥ ३ ॥ धनश्री बोली
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. १९९ पापी मुह म देखामीए । एह वात चलावे मुझ सत केहने पानीए ॥णीपरे निबंडयो उठी गयो विनीत। तलार न मुके रागतणी मति चित्त ॥-चिंते मनमे ते धनश्री साचो ए रागांध । नीति नटके जांन विमावे चेते नहि जो बंध ॥ एम विमासीने तेमाव्यो विनीयत पाहितलार । वामीमांहि लेश विसार्यों रंज्यो वचन गमार ॥ ४ ॥ अणगमति प्रीति कारिजन हुवे सिह। पाणीने गमे कुसुमासव मद दिध ॥ परवस ते जाणी निज घर लेश पहुचाव्यो। तिति विनीयत पांहि तु तेस्यो तेकहाव्यो॥-पाव्यो हर्ष समुदत्त चीते एहनुंशील अपार। तिहांतोते उफेणी जश्कीधो तात जुहार ॥ किते दिवसे तेह समुदत्त सुसराने घर आवे । इंसी पंचतणा सुख विलसे हीये हर्ष न मावे ॥५॥ निज नारी लेश नयर उकेणी जाए। सुख संपति विलसे जाणो शील पाट्ये पसाए ॥अन्यदा गुरु पासे सांजलि जिन वाणि । धनश्री पतिसुं संजम लिए निरवाणी ॥-पालि संयम सूधो ते बे
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
पहोचे स्वर्ग मकारि । तिहांथी चवीने मोदे जासे एकणनव अवतारि ॥ मुनि मेघराजे एह प्रकास्यो सोलमी सती चरित्त । लणज्यो मन आणंदे करज्यो मन पवित्त ॥६॥
॥ श्री सोले सतीनी समाय. ॥ (मूल अनादि ज्ञान गुण अविहड०-ढाल.)
सती सुत्नडा मयणरेहा धन । भृगावती गुण पुरीजी ॥ अंजना नमया सुंदरी साची । रति सुंदरी शील सूरीजी ॥१॥ श्रीजिन शासन मान सरोवर। समकित शील जल सोहेजी ॥ तिणि जल स्नान करी सुझ हुया ते । नवियणना मन मोहेजी ॥२॥ श्रीजिनए (ए आंकणी ) शषिदत्ता दमयंती कमला। कलावती शीलवंतीजी ॥ नंदयंती रोहिणी खूपदीजी सीता धनश्री ए सतीजी ॥३॥ श्रीजिन ॥ शीलोपदेस मालादिक ग्रंथे । सोल सती गुण कहीयाजी॥ जणतां गुणतां जेहने नामे । अष्ट महासिफिलहीए जी॥४॥ श्रीजिन ॥ श्रीपासचंदसूरि पाट पटो
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श्री सोल सतियोनो सज्झायो. धर। राजचंधसूरि रायाजी ॥ श्रवण शषि शिष्य मुनि मेघराजे । सोल सती गुण गायाजी ॥५॥ श्री जिन ॥ (कुल गाथा ३५०)
श्री जिनप्रतिमा स्थापन सज्जाय. ( आदि अजित श्री शांतिनो, दीठो०-ए देशी.)
श्रीवीरजिणेसर पय नमी । बाराही गोयम गणराय ॥ रास नणिसु प्रतिमातणो । जिम आगम बोल्यो जिनराय ॥ १॥ प्रश्चन वचन संजालज्यो । जिनवरनी वहिज्यो सिर आण ॥ मन सुके जिन पूजज्यो । ए तुम्ह करिज्यो वचन प्रमाण । सुखें करी सुख पामज्यो ॥२॥ आंकणी ॥ आगम माहे जाषियो । धर्म तणा ले दोइ प्रकार ॥ आगारी श्रावक कह्या । अणगारी बोल्या मुनिसार ॥ ॥३॥ प्रवचन ॥ साधु मारग श्रावक करे । साधु करें श्रावकनो धर्म ॥ ते विराधक जिण कया । हिये विमासी जोज्यो मर्म ॥४॥॥ जरत देनेजे मुनि हुधा । थाझालोपी थया जिन चोर ॥ पाखंगी मुनि
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श्री सोल सतीयोनी सज्झायो.
मयलधर । पुरगति सहिस्य मुख कठोर ॥५॥ ॥ एक मानी ने नंदकी। एक क्रोधीने रातारामि ॥ नायक विषु उपजे । संनल उठी जिण सासण धामि ॥ ६॥ ॥ एक पाखंनी संयनी । प्रतिमाने ते कहे अनाथ ॥ तेहनो मस्तक वज्रम । तेहनो मंमयो जग सुं ? साथ ॥७॥ ॥चित्रमा लिखी जे पूतली। ते तो दृष्टे ते न रखे साध ॥ तिण निरखे जो पाप ले । तो प्रतिमा दीठे पुन्य अगाध ॥७॥ प्र० ॥ महानिप्तीथे परुपियो । जिन पूजा विविध प्रकार ॥ वृहत्कल्प माहें कह्यो । उते पेखता न बूजे गमार ॥ ए ॥ ज्ञातामाहे जिने कह्यो । राय सुता दोवर सुजाण ॥ जिनप्रतिमा नित पूजते। जिणे पाभ्यो छे अमर विमाण ॥ १०॥ ॥ एक ५ कुमती एम कहे । दोव पूजे आरति काज ॥ सावर ते पण नवि हु । कुमती एम देखाले आज ॥१९॥ प्र० ॥ प्रतिमा तो बहुली हती। हरि हर ब्रह्मादिक खेत्रपाल ॥ आरति तेहने पूजिये । जं पूगे आसा
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श्री सोल सतीयोनो सज्झायो. ततकाल ॥१५॥ प्र० ॥ दोवर जे सावइ नही । चैत्यवंदन किम जाण्यो नेय ॥ शक्रस्तव तो कां कहे? । पूजे नितु कांश जिणवर देव ? ॥१३॥ प्र० ॥रायपसेणी बोलियो । सतर भेद पूजा विधान ॥ सूरियाज देवता करे । जेहनी प्रसंसा करे वर्षमान ॥ ॥ १४ ॥ प्र० ॥ जीवानिगम तीजो । विजयदेवतणे दिहंत ॥ जंबुदीपे पांचमे । प्रतिमास्थान कही निव्रत ॥ १५ ॥ प्र० जगवति अंगे प्ररुपियो। नंदीसर चे विख्यात ॥ जंघाचारण संजती । विद्याचारण वंदे नली नात॥१६॥प्र०॥सातमो उवासगदसा । प्रतिमा बोली त्रिजुवन नाथ ॥ आणंद श्रावक श्रादरी। आराधी दीधो सिव हाथ ॥१७॥ प्र० श्रीमुख जिणवर कह्यो । पालिज्यो दस विनय विचार ॥ ते
आराधक बोलियो। पन्हावागरण अंग मकार ॥१॥ अष्टापदनी थापना । उत्तराध्ययन मकार ॥ सेतुंज नेमिगिरि थापना । ज्ञाता धर्म कथा संचार ॥१॥ प्र० ॥ अष्टापद गोयम जश् । करजोमी जिणे स्तुव्या
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२०४ श्री सोल सतीयोनी सज्झायो. सुभाख ॥ ए निश्चे करि मानज्यो । आवश्यक सूत्र दिवरावं साख ॥ २० ॥ प्र० ॥ एता जे अंग मानस्ये । ते प्रतिमानो ल हिस्ये नेद ॥ जे ए अंग न मानस्ये । ते करस्ये प्रतिमा निषेध ॥ २१॥ प्र० ॥ जो ए अंगज सदहे ? । तो प्रतिमा बती नमाने का ?॥ अनंत संसारी जे कह्या । ते निश्चे पुर्गति जाय ॥६॥ ॥प्र०॥ जिण कारण जिन जाषियो । आध पचाध मानो सूत ॥ जो जिनवचन खरा अजे । तो ते कुमती सह। विगत ॥ २३ ॥ प्र० ॥ जीवदया मूखे उचरे । आज्ञातणो नवि जाणे मर्म ॥ जीवदया कीजे किस्युं । आज्ञा पाखे नवि दीसे धर्म ॥२४॥प्र॥ जीव घात जे नर करे । तेहने गति बोली जिणराय ॥ जिन आज्ञा जे लोपसे । नवोनव ते नर मुखियो थाय ॥२५॥ प्र० ॥ प्रतिमा पाहाण सारिखी। एक ५ एम दाखे डे अंध ॥ आक फूध सुरही समो । समवम किम कीजे जात्यंध ! ॥ २६ ॥ प्र०॥ चिंतामणि ने कांकरो । ए बिहुंनी हे एकी जात ॥ मोलें तो अंत
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो. रं घणो । जैवमो अंतर उन्नति नात ॥ २७ ॥प्र॥ चिंतामणि नामे जलो। तेहनो किमे न थाए मोल ॥ काच कथीरज बापमो । उँडो गरथ आपिजे तोल ॥ २७ ॥ प्र० ॥ कुमती कहे ए थापना। एहने अम्हे न नामिये सीस॥ सूत्रना वचन जो मानिस्यो। तोमानसो विश्वावीस ॥ श्ए ॥ प्र॥ पंचमिली जे थापियो। ते सघलो जाणवो साच ॥ साचो करिने मानज्यो । गकुर तो जे माने पांच ॥३०॥प्रवचन॥ केहने की चिंता पमी । ऊगमानी अथवा धन पीम॥ तेहने ते आवी कहे। पांचां पाखे नवि नांजे नीम ॥३१॥ प्र०॥ जिण मुख हूंती संचल्यो। श्रावक योग प्रतिमा प्रासाद ॥ पांचे होइ थापिया। हिवस्या माटे कीजे वाद ? ॥ ३५ ॥ प्र ॥ पांच मिली पुस्तक कीया।ते किणही हिव मान्या जाय ॥प्रतिमा ते किम मेटीये । आगम माहि बोले जिनराय॥३३॥ प्र० ॥जेहारनो एसंसार । प्रहगण तारा सूरिज चंद ॥ तेदिनी जिनप्रतिमा जणुं। आगम नाष्युं चरम
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
जिणंद ॥ ३४ ॥ प्र० ॥एम जाणीने बापमा।प्रतिमाने मत करो अनाथ । निरती आज्ञा पालज्यो। सूत्रे जिन जाप्युं जगनाथ ॥ ३५ ॥ प्र० ॥ आज्ञा पाखे सवि कारिमुं । चारित क्रिया सहु असार । जो जे आणा विणु करे । धर्मधुरि डे आशा सार ॥ ३६ ॥ प्र० ॥ प्रतिमा पूजा इण नवे । रोग सोग मुख दारिज जा ॥ राज झद्धिने संपदा । मनवंडित परजव सुख था ॥३७॥प्र० ॥ सम्यक्त्व निरमल उपजे । पाप जाइ निर्मल हुश् देह ॥ सम्यक्त्व जो निर्मलो। मुगति तणो किसो संदेह ? ॥ ॥ ३० ॥ प्र॥ पूरव रीति तिम मिज्यो । प्रतिमा उपर धरज्यो नाव ॥ करजोमी पासचंद कहे। जिम पामो शिवपुरनो गव ॥ ३ए॥प्र॥ । श्री यूलिन मुनिवर सज्जाय, . ( रागः-पाहुडीयो श्रेणिक रयवाडि चडयो, पेखियो०)
एक दिन सारथपति नणे । कोशा तुम्ह थावास ॥ कवण पुरुष नितु गाश्ये । ते मुफ आगले
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
प्रकासरे ॥ १ ॥ जसु गुण गाइये । अति रलियामणा रासो ॥ सकल सुहामणी जासोरे । अति उलट धरी | नयण ऊरंतमे नीररे ॥ जसु० ॥ कणी० ॥ कइ कोइ राजकुमर नवो । कइ विद्याधर वीर ॥ कइ सुर कइ किन्नर वली । कइ कोइ नूचर धीरोरे ॥ जसु० ॥ २ ॥ कइ हरि क ब्रह्मा वली । कई ईसर कई इंद ॥ क रविकर क नागसुर । कइ चक्री बे चंदोरे ॥३॥ ज० ॥ सिर धूणी कोशाजणे । वलतो वयण विलास ॥ ते नर किसुं बखाणिये । जे नर नारीना दासोरे ॥ ४ ॥ जसु० ॥ ते किम गाइये | नयण बाण में वींधीयारे ॥ राजकुमरनी कोमि । विद्याधर में मोहीयारे | पाय पके करजो मिरे ॥ ५ ॥ ते० ॥ ते किम गाइये। सुर सेवा माहरी करे रे || किन्नर केहामादि । नूचर जला जमामीया । फूंके फाटीय ते जाइरे ॥ ६ ॥ ते ॥ हरिवंसली वजावतोरे । माने माहरी आए | ब्रह्मा चिंहुं वयणे करी । करे अम्हारकां वखाणोरे ॥ ७ ॥ ० ॥ ईसर हे नचावियो । इंद्र मनाव्यो
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श्री सोल सतियोनी सज्झायो.
मीन ॥ रमणीरूपें चोलव्यो । दिनकर तात्यो तन्नरे ॥७॥ ते ॥ काने नाग विलाश्या । चहुम्यो चंड निलाम ॥ शास्त्र सवे मूकी मिट्या। चक्रवर्ति करे विलाप रे ॥ ए ॥ ते॥ ते किम गाश्ये ए। तो सारथपति एम जणे । ते कुण गुण नंमार॥जे तुम्ह थागले गर्यो । कहे तसु चरिय विचारोरे ॥ १० ॥ तसु गुण गाश्ये ॥ कोश नणे नाची गयोरे । मीनीमाथे हंस ॥ गलो बाघणिस्युं विद्यो । उजूवाल्यो निज वंसोरे ॥ ११ ॥ तसु० ॥ सूझे सापण बस करी। विषनो टाच्या संग ॥ सोहण सरिसो ऊतो। मयगल माच्यो अंगोरे ॥ १५ ॥ तसु०॥ कालकूटना कोलिया। देतां वाध्यो वीर ॥ बलतो दावानल वसी। अमीये सींच्यो सरीरोरे ॥ १३॥ तसु०॥ बारकोमि धन जोगवी । पहिलो मुफ आवास ॥ मुणिवर पणे पठे रह्यो। विषय विहुणो चोमासे रे ॥ १४ ॥ त० ॥ शूलिनड गुण गाश्ये । श्री जिनशासन मांहि ॥ चरिय सुणंता जेहनो । चमके सुरनर रायरे ॥ १५ ॥
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २०९ त ॥ बूझयो सारथपति जणे । सेवीये तेहना पाय॥ धणकण कंचण परिहरी । हुन मुनीसर रायरे ॥१६॥ तसु० ॥ थूलिज गुण गाश्ये । शीलतणो उपदेस ॥ जणे गुणे जेसनले। तेहनाटले किलेसोरे॥१॥तसु॥
श्रीके शिप्रदेशिप्रबंध-स्वाध्याय..
प्रणमुं सिरि जिण पास आस पूरण जगतारक। वामा उर सिरिहंस वंस इखागह नायक ॥ तासु तणो संतान हु गुरुङ गुण केशी । प्रतिबोध्यो जिण हेले सबल राजा परदेशी । तसु सरूप संखेप हिव कहिस्युं गुरु आधार । रायपसेणी नाषियो ते निय चित्त विचार ॥१॥ केकयझ देसंमि नयरि सेयविया नामे । तिहां परदेशी राय हुन नास्तिक परिणामे ॥ जीव देवगुरु धर्म सुगति पुर्गति नहु माने। नाय मित्र तसु चित्र नामे सारथि परधाने ॥सावथ्थी नगरी गयो राजा जितसत्रु नरेश । व्रतधारक श्रावक थयो केशी गुरु उपदेश ॥ २॥ गुरु निमंत्रि करि रङकङ सोनिज घर आव्यो । पहुता केशिकुमार जाणि वनपाल
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२१० श्री केशिप्रदेशीपबंध-स्वाध्याय. वधाव्यो ॥ वंदिय गुरु विनविय बुद्धि बले कारण जाणिय। तुरंग परिख्खण मिसें राठ तेमिय तेह थाणिय ॥ धर्म कहंता संजलिय मबर धरें अपार । जउ मुंभ ए कुण अडे न लहे कोइ विचार॥३॥ चित्र नणे सुण सामि ! पास संतानी मुनिवर । कहिये केशि कुमार जीव तनु नासे अवर॥एम संजलि तेह थावि राउ पूडे अनिमाणे । तेह तणो मन नाव प्रगट कीधो मणनाणे ॥ चित्त चमकिय चिंतवे एह चतुर नर कोश । आश्स मागे बेसवा उत्तम अधम न होय ॥४॥ जणे केशि परदेशि ! एस नूमी उजाणह।मुनि न कहे सावद्य तेण इम तुम्हे जाणह ॥ बेसी करे विचार जीवने नास्ति वखाणे । जे मन्ने जग जीव ते पाखंगी जाणे ॥एम कल्पित जंपे बहु असुह उथापेजेय।जोवो महिमा गुरुतणी किम प्रतिबोध्यो तेय॥५॥राय जणे संजलोअम्ह लगवंत ! पियामह ।इण नयरी नूपाल हु तो हूं तसु अति वजह ॥ नहू सदहतो जीव तेय तुम कथने पुर्गति । पहुतो ते जो आवि कहत तो मार्नु तु.
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श्री केशिप देशीमबंध - स्वाध्याय.
म्ह मति ॥ ति मुऊ आगल नहु कहिय एम एक जीव शरीर | जीव काय जुया नही जे मानें ते धीर ॥ ६ ॥ केशि कहे नरराय ! तुम्ह घरे सूरीकंता । नामे रमणी बे घरणी निपुण गुणगण पतिकंता ॥ तेह सरिस पर पुरिस कोइ जोगवतो देखे । तेहनें तुं स्युं करे हणे किंवा ? उवेखे । तो वलतो राजा जणे बहु विमंब देखा कि । प्राणथकी ते चूकवुं ए मुज मनह रुहामि ॥ ७ ॥ तुम्हने ते विनवे एक मुहूरत मुज मूको । जइ स्वजनने सीखतुं एणि कीधे सुखचूको ॥ तुम्हे पण मकरस्यो एहवी करणी कोइ । एम कहिव ते लहे ? जणे नृप एम न होइ ! ॥ इण दृष्टांतें चोरने तुम्ह पितामह जाणि । परमाहम्मी वसि पयो आवी न सके प्राणि ॥ ८ ॥ ए उपमा बे सत्य ए कारणे मन नावे | इषिपरे मऊ पितामहीय म्ह धर्म न जावे ॥ ते हूंती श्राविका वारव्रत पूरा धरती | सामाइक पकिम पर्वि पुण पोसह करती ॥ तुम्हारे जाषा बले ते पहूती सुरलोइ । तिपुण श्रावी
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२१२ श्री कैशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. नवि कह्यो तसु मुझ समो न को॥ ए ॥ कहे केशि परदेशि ! एह अनुमान न कीजे, गुरु उपदेश विमासी शुष्मति हिये धरीजे ॥ न्हाण विलेप विजूष अब्बसाटक पहिरेवी । धूप कमलुय गंध पुष्फ बहु हथ्थे धरेवी ॥ देनल माहे पेसतां को तेमे तुम्ह । संचारे वेसो सुन मिलवा आवो अम्ह ॥ १० ॥ तिहां राज ! तुम्ह जाउँ ? कहो अन्ह आगल साचो । बोले नृप क्षण एक तेहने वचने न राचुं ॥तिम जाणो नरगंध चार शत पंचय जोयण । जाइ देव नावंति अहव उपजे पळयण ॥ हिवां अमोरेमो जाश्सुमन चिंते ध। आज पहुचे नरतणो आवी किसुं? करे ॥११॥ जश् पुण अ सत्य तो पण हियमे मुफ नाव्यो। चोर एक निग्रही निविम बंधण बंधाव्यो ॥ माहे कुंनी लोह खिपी कीधो त्रपु मधित । जोयो मृत जखमी पात्र दीगे नहु लिजित ॥ चोर जीव किन नीसयों ? कहो मुक एह विचालि। कृत्रिम बागमे दाखव्यो नहिय जीव संसारि ॥ १२ ॥ गुरुनाषे परदेशि ! बार मुजित
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २१३ घर नीतर । कोई वजावे नेरि सद्द तसु सुणिये बाहिर ॥ ते कहो किम नीसर्यो ? तेम तुम्ह जीव विचारो। एहनी गति अस्खलित ललित मति चित्तें धारो ॥ जुया जीव शरीर गण ! तव बोले नूपाल । चोर एक ले श्राविया अन्य दिवसे कोटवाल ॥ १३॥ ते विणासि अयकुंनि खिवी मुखी रखवाल । पाउलि मूंक्या बहुल बारि करि दीधा ताल ॥ केतादिन अंतरे तेय कुंनी उखेमी । सल सलंत तेह दिह घणी श्यलनी कोमी ॥ विज राइ नहु दिल में किम ते याव्या जीव ? । तेह विना किम मानिये अवर अवर तनु जीव ॥ १४ ॥ नणे केशि संनल नरेश ! तुम्हे लोह धमंतो। दिगे केणे काल अगणि सरिस जल जलंतो ॥ तेह किम पेठो अगणि कहो ए सहुए देखे। तेम जीवह परवेस तुम्हें जाणो इण लेखे ॥ एम जाणी ते सदहो जीव म आणो व्रत । लणे राउ आवे नही एह नाव मुफ चित्त ॥१५॥हा॥कोश नर तरुणो धनुषधर । पंचबाण समकाल ॥ मेल्हे
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध - स्वाध्याय.
काय वसें १७ ॥ (चो
जिम समरथ थ । तिम जे मूंके बाल ॥ १६ ॥ तुम्ह वचनतो सहुँ । बिहुंना जीव समाय ॥ बल अंतरे । एम म्ह वचन प्रमाण ॥ पा5) ॥ जो केशि संजल नूपाल ! । जीव देत ए मनपिस आ । धे धनुषपणच याधली । घोघा बाण सहित सांधली ॥ १८ ॥ इणिपरे कांइ न मूके बा | कांइ न चाले प्राण विना ॥ पूरा नहु उपगरण प्रकार | जण राउ ! एह एह विचार ॥ १९ ॥ तिम एह पुण जावो प्रमाण । बिहुना अबे जीव समाए ॥ एक जाण काया आंतरो । माह्या ने ए स्यो पांतरो ॥ २० ॥ वलतो राज कहे परदेशि । जइ एम तो संजलो महेसि ! ॥ एक तरुणो बलवंत अपार । कावम बहु उपाने जार ॥ २१ ॥ गरढो ते जार न वदे कां । बिहुंनी काया पूरी थाइ ॥ तरुणो गरढो जे संचार ।
ते कीजे जीव विचार ॥ २२ ॥ कहे केशि एह संस्य किसो ? | एह कारण जोवो ने जिसो ॥ घुषि खाधी जूनी लाककी । जुना सीका जूनी पिमी ॥ २३ ॥
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. तिण तरुणो कां न वहे नार । जूनानो एह अडे विचार ॥ नवी पुराणीकाया जाण ।यहांजीवनी ब्रांतिन आण॥२॥वलतो राज वलि बोलियो।जीवत चोर एक तोलियो॥ विना बेदहण तोव्योजो। ऊण अधिक पुण किसो न होइ॥२५॥ कहोजीव हुं किम सद्दहुं। जीव तोल जून नवि लहुं ॥ केशी कहे नृप! वाहिं करी । चर्म दीवमी वाली जरी ॥२६॥ अधिकी उनी न हुए तिहां । नाव अगुरुलघु जाणो हां ॥ तिम जोवो मन करी विचार । जीवमाहि नहु का चार ॥२७॥ तो न माने राजा जणे । एक दिन सना आमंबर घणे ॥पूरी बेगं आएयो एक। चोर देखि हुन जीव विवेक ॥२॥ तासु सरीर सर्वमें दिव। कहिये जीव ते किहां पश्च॥ एम जाणी कीधा बे खंग। चार अठ एम बहुला खंग ॥ शए ॥ किंबह तिल तिल मात्र ते किछ ।जीव वस्तु पुण किहां न लक ॥ इणि अवसरे रीसाणा जेम । गुरुपत्नणे बोलें डे केम ॥ ३० ॥ (ढाल पाबली) मूढ तुबतर तुं पएसि ! ते नरथी जाणुं । कवण ? तेय
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२१६ श्री केशिप्रदेशीपबंध-स्वाध्याय, पूढे नरेस! संजल वख्खाएं ॥ केश पुरुष वणकज वने जते आएस्यु । एक नर नोजन हेत काष्ट लेश् श्रावेस्युं ॥ करिस्युं जोजनतणि नणिय अगणि करथी लेइ । अन्नपाक करि मुंके जेते नर तहत करे ॥३१॥ कविन दिगे अगणि जोश् कीधो बिहुँ खंभे । चार अठ तह सोल एम तिल तिलमित खमे ॥ तो न देखे कहिय अगनि मने ते ड्रमाणो । तेणे वंच्यो हुँ अपार एम चिंते नराणो ॥ बीजे आवि परी विय अगनि सिझ जिम हो । तेह सरिस तुं एह अडे मूरख अवर न कोई॥३२ ॥ एम संजलि मन खेद राज धरतो समकाव्यो। चिहुं परषदने न्याये विनय मारग वलि आव्यो ॥ जाये तुम्हे समथ्थ सथ्य परमारथ जाणो । करतल जिम आमलो जीव तनु जूश्रा आणो ॥ तिण अवसरे पवने करी कंपततरु पेखे । राउ प्रते केशी कहे ए कह किम ? कंपे ॥ ३३ ॥ देव नाग गंधव अहव किन्नर कंपावे? । जणे राउ ए वाउ अवर मुक मन नहु आवे॥ ए सरूप वपु वेद
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २१७ लेस रागादिक सहियो । देखिस एहनो रूप रूप! नहुं देखुं कहियो ॥ एम अरूप पुग्गल रहिय किम देखाउँ हेव । जीव वस्तु बदमस्थ हुं देखे अरिहंत देव॥३॥ राउ कहे जगवंत ! जीव कुंथु अने हथिय । सरस सुगुरु एम कहे एह एम जाण महथिय! ॥ जश् एम? तो कुंथुन कम्मबल हथ्थि समाणो । का? न करे गुरु जणे दोव दिवंत वियाणो!॥ गुरु लहु थानक थापिये तेह तेतलो प्रकास। जीवतणो पुण तिम गिणो जश्होइतने संवास ॥ ३५॥ नरपति शुन मति बतो जीव गुरुवचने जाएयो । अनिनिवेस सविसेस कुलह क्रमनो मन आएयो ॥ पिता पितामह पमुह पुव पुरिसांह परंपर । लोक हास्य मूकतां होश किम करुं मतंतर ॥ण अवसरे सुहगुरु नणे नृप ! पठिताव पके सी। लोह नारवाहक तणी परे निरतीम करेसी ॥३६॥ कहे कवण ते कहो लोह वाहक मुफ आगल । केश्धनने कऊ वणिक चाल्या साथे मिल ॥ जतांबागले अमविमाहि देखी लोहागर । सकति सीम बंधेवि वलिय
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय.
पहुता देसंतर ॥ त्रपु देखी घण लाल गिणि बंमि लोह व्ये तेय । एक न मुंकर लोह नरमें दृढ बको एय ॥ ३७ ॥ त्रंब रुप सोवन्न रयण वयराग देखी। आगले जातां लिंत चमत पमतो उवेखी ॥ लोह वणिक एम कहे एह मुरख जाणिके । वलि लेश् मेव्हंत अवर नव नव किम लिज्के ॥ हुं लीधो मुंको नहिय एम घरे श्राव्यो हीण । पाडे पलितावे पमयो दीण खीण मतिहीण ॥३०॥ बीजा बुझिनिधान चात चमते व्यापारें । कुमति डोमि धन कोमि ले
आव्या श्रागारें॥ जिम ते हुया सुखी तेम तुम्हे मी कुग्रह । आदरि दरिसण जैन करो अक्षयसुख संग्रह ॥ प्रतिबुद्धो श्रुतसंचली पमिवज्की ब्रतवार । घरे जातां ते पूडियो गुरु आयरिय विचार ॥३॥ कहे त्रण यायरिय शहां परनव उपगारी। शिल्पकला धर्माधिकारि जाणज्यो विचारी ॥ कवण तसु विनय तेय पुण निरतो नाखो। एम जाणंते कांश अम्ह अविनय मन राखो ॥ जगवन् ! बहु अविनय
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २१९ कयों में तुम्ह तणो आवेसु । सुप्रजाते परिवारसुं बंदी गुरु खामेसु ॥ ३० ॥ गुरु नहु बोख्या किंपि राज निय घर संपत्तो । चतुरंग दल मेलेवि सयल अंतेडर जुत्तो ॥ बीजे दिन आवेवि सुगुरु वंदेवा कारण । धर्म कथा संनजी पमतनवजलनिधितारण ॥ वांदी खामी उठतां केसि कहे परदेसि!। पहिलो रुमो पासु
पडे तुं म हवेसि ॥४१॥ करुणाकरि ते केम ? कहो । जगवन! अम्ह उपरि । नट्टसाल वनखंग - ख्खु खल वामतणी परि ॥ ते पहिला रमणीय पडे तेहवा नहु दीसे । जिम पहिलो तिम पड़े धर्म दृढ करि सुजगीसे ॥ एम संजलि नूपति जणे सात स. हस के गाम । तेहवि चिहुं जागें करिसुं पहिलो निधिनो गम ॥ ४२ ॥ बोजो बलवाहणे त्रीय अंतेउरि गविस । चोथे नागें दानशाल सविशाल कराविसु ॥ तिह मुश्थिय जणदाण आणि अणुकंपा दि स्युं । पोसहपमुहा व्रत विशेष सविशेष करेस्युं ॥ टालि चिंता एम घर तणिय नियवय चमते नाश् ।
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध - स्वाध्याय.
पहिलं पढ़े जलियपरि पालिसु तुम्ह पसाई ॥ ४३ ॥ (चौपा5) ॥ व्रत पालतां सूरीकंत । राणी जाणी विरतो कंत ॥ अन्न दिवसे मन चिंते इसुं । इस राजा हिव करिवो किसुं ? ॥ ४४ ॥ धर्म गहिलो थयो - विचार | राजतली न करे कलवार ॥ म्ह सहित नहु बने जोग | जोग विघन एहनो संजोग ॥ ४५ ॥ निचे सगपण स्वारथ लगे । श्रहह ! मोह जोवो किम
गे ॥ मी कुमर कहे ते वात । विकल थयो वब ! ए तुम्ह तात ॥ ४६ ॥ ए विणासि पाल्हो तुम्हे राज | सारो म्ह मनवंबित काज ॥ कुमर न बोल्यो उठी गयो । राणीनो मन दिलखो थयो ॥ ४७ ॥ मंत्र नेदे मुऊ हुस्ये विषास | वहिलो त्रोऊं ए गल पास || अन्न पान वस्त्रालंकार । विष वास्या बहु जोग प्रकार ॥४८॥ राजा तेकि कूक मन धरे । जोजन जगति विशेषे करे जिमतां जाणी विष परिणम्यो, शुज ध्यान आणी मन खम्य ॥४॥ धिग ए संसार असार, केहनो कोइ नही परिवार, स्वार थियो सहु को अबे, विहमे धर्म न
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध - स्वाध्याय.
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विहमे पढे ॥ ५० ॥ इसुं जाणि असण दरी, पावठाण सहुए परिदरी, सूरियान पाम्यो विमाण, पहिले कल्पे एहनो ठाण ॥ ५१ ॥ सना उववाय सेज उतपात, तेह उपनो विश्व विख्यात; अंतमुहूरते पूरो देह, मुखि कमाणि थयो गुणगेह ॥५२॥ उठी सेजे वेगे थइ । चित्त चिंतवे देवगति लह| || पहिलो मुऊनें करिवो किसुं ? । पबे किसुं ? ते त्रिमासे इसुं ॥५३॥ किं मुऊ ? पहिलं पले श्रेय । हित सुख निश्रेयस थए जेय || ते मुऊ पहिलं पत्रे हुस्ये । स्युं शुभ मुऊ पूवें
ये ॥ ४ ॥ इण अवसर सामानिक देव । चार सहस तसु करता सेव ॥ चिंतित जाणी यावी तिहां । विनय वचन बोले प्रजु ! इहां ॥ ५५ ॥ तुम्ह विमाण सासय प्रासाद । नित जिहां डुहि गीत निनाद ॥ जिनप्रतिमा महिय शत एक । तिहां वे जाणो तुम्हे बेक ॥ ५६ ॥ वली स्वामि ! सोहम्मी सना | सना माहे जसु मोटी प्रजा | माणवक नामें चेईय थं । समकित शील तो अवगंज ॥ ५७ ॥
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श्री केशिमदेशीमबंध - स्वाध्याय.
उंचा मणिमय बे खूंटिला । मणिमय सीके तेह कूं पिला || जिन सकहा खेवी बे तिहां । मेहुण न सेवे सुरवर जिहां ॥ ५८ ॥ वंद्य पूज्य जिनराग ते जाए | मन आणे सकार समाए ॥ पुछिं: पहा करिवो एह । पहिलं पठे एहज मुऊ श्रेय ॥ ५७ ॥ सुख निश्रेयस तणो नियाण । हित अणुगामि एहज वे ठग ॥ एम संजलि हियमे गह गह्यो । समकित परिमल बहु महमो ॥ ६० ॥ इंद्रतणो हू अभिषेक | पुस्तक वाची धर्मविवेक || पामि चित्त प्रमोद न माय । जिन प्रतिमा पूजे समजाय ॥ ६१ ॥ सतर जेद कीधा तेहना । विस्तर सूल सूत्रे एहना ॥ उर्जा अठोत्तरसो श्रुति करे | बेसी श्रुति मंगल उचरे ॥ ६२ ॥ दंसण नाण चरणनो लाइ | अंत क्रियानो तेण उहाह ॥ उत्तरयणे गुणत्री समे । ए फल उत्तम मन वीसमे ॥ ६३ ॥ चिय वंदण एम अंग जवंग | जाणी करवो मनने रंग || घणा जाव पूज्या एकवार। ए हूइ करणी वारंवार ॥ ६४ ॥ इण विमा लहि अधिपति
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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २२३ जोग । जोगवे सुर संबंधि नोग॥ण अवसरे आव्या श्रीवीर । आमलकप्पा पुर गिरिधीर ॥ ६६ ॥ नाणि जाणि बहु उबव करी। आव्यो अधिक जगति चित्त धरी ॥ वंदन प्रमुख वचन नव कह्या । स्वामी निरवद्य बे संग्रह्या ॥६६॥ बिहुँ उपरे बोल्यो विधिवाद। एह विषे एम म करो प्रमाद ॥ ए पुराण कर्तव्य विचार । करवा चरणा चित्तधार ॥ ६॥ आचरवी अम्ह अनुमति श्हां । प्रजु वचने सावध हु किहां? ॥ वंदि प्रजु देसण संनले। तहत्त करत मिथ्या मत टले ॥६॥ मिथ्याति वा समकित धार।मुलह सुलह बोही संसार ॥ बहू अथवा थोमो मुऊ तणो । विराधक राधक ते सुणो ॥ ६ए ॥ अचरिम चरिम के हूं केहबुं। एम पूरे प्रजु ! बुंजेहबुं ॥ ते प्रसाद करि मुझने कहो। वीर नणे बीजो पद लहो ॥ ७० ॥ सुणि हरषित थ्यो नाटक जण। पूछे जगति प्रजु तुम्ह तणी॥ गौतम प्रमुख श्रमण मंमली । बागल नाचूं निज मन रली ॥ १ ॥ न आढे परियाणे नही। परिणा
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२२४ श्री सुप्रभाति मंगलनी सज्झायोः मिक मति निरतुं लह। ॥ जगन्नाथ जुगतो आचरे। जगतो जगति ते हरखे करे ॥७॥ नाटक करि पहतो सुर लो। गौतम पूढे पंजलि हो ॥ प्रनु परदेशि युव नव कह्यो। वीर वचने ते गणधरे ग्रह्यो ॥ ३॥
आउ तासु पढ्योपम चार । तिहां थकी ते विदेह मकार ॥ पामी चतुरंग पूरो गण। बीजे नव लहिस्ये निर्वाण ॥ १४ ॥ केशी गुरुनो ए अवदात । महि मंगल मोटो विख्यात ॥ जणतां गुणतां हुए आनंद । हरष धरी पक्षणे (श्री) पासचंद ॥ ३५ ॥ इति ॥ श्री सुप्रजाति मंगल सज्जाय.
(देशी-चोपाइनी.) प्रह विहसी हुई सुविहाण । वरते सदा श्रेय कल्याण ॥ उठी समरूं श्री नवकार । चौदह पूरवनो उकार ॥१॥ अतीत अनागत ने वर्तमान । त्रण चोवीसी सुगुण निधान ॥ बहतरि जिणवरना ट्यु नाम । सुप्रनाते तसु करुं प्रणाम ॥२॥ संप्रति वि. हरमाण जिण वीस । तेह तणी मन आणि जगीस ॥
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श्री सुप्रभाति मंगलनी सज्झायो.
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प्रह व वंडुं निसदीस । करजोमी नामी निय सीस ॥३॥ रुषाने चंद्रापण जाल वारिषेण वर्धमान वखा ॥ चिहुं नामे सासय जिलबिंब । ते नितु वंडुं टालि विलंब ॥ ४ ॥ अधरध तिर जे दिसे । सासय प्रासादें जे बसें ॥ जिनने उंचपणे परिमाण ।
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संख्यात जिन प्रतिमा गए ॥ ५ ॥ शत्रुंजय गिरनार गिरिं । समेत शिखर अष्टापद विंद || आबू प्रमुख ग्रामागर जेय । असासता जिन वंडुं तेय ॥ ६ ॥ चोवीसमो जिणेसर वीर । तीरथ नायक साहस धीर ॥ सन्नो उपगारी जेय । सुप्रजाते मुऊ मंगल तेय ॥ ७ ॥ तसु गणधर श्री गौतम सामि । ऋद्धि वृद्धि जसु लीधे नामि ॥ सुर गौ तरु मणि गुण आगार । नाम तासु ते श्री गणधार ॥ ८ ॥ बीजो मंगल ए सुप्रजात । मुकनें हूज्यो दिवसने रात ॥ जसु कोरति महि महमहे । तसुपय नमवा मन उमड़े ॥ ए ॥ सोहम जंबू प्रजव मुणिंद । सिद्ध जव मुणिवर जस जद्द ॥ जद्रबाहु गुरु गणधार । थूलनड निरुपम - मार ॥ १० ॥ एह प्रमुख उत्तम ऋषिराज । जसु नामें
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श्री आगम सद्दहणा छत्रीमी,
सीजें सवि काज ॥ त्रीजो मंगल ए मुक सही । सुप्रजाते कीधो से ही ॥ ११ ॥ चोथो मंग श्रीजिनधर्म । जसु पसाय लहिये शिव सर्म | आप दया सूधी के जिहां । वेव पदारथ लाने इहां ॥ १२ ॥ चारे मंगल एड्जसार । सुप्रजात दिन दिन आधार ॥ करिये तरिये जवनो पार । द्धि वृद्धि शिव सुखदातार ॥ १३ ॥ श्री प्रागम सदहणा बनोसी. ( राग - भरथरीनो . ) तीरथपति श्रोवीरना । अहनिसि बंडुं पाय ॥ जवसायर तरवा जणी । जिसे कयो धर्म ऊपाय ॥१॥ यागम वचन समाचरो । सुद्ध सदहा जाए ॥ वरस सहस एकवीसजां । जयवंते प्रजु वा ॥ २ ॥ ० ॥ वीर निर्वाण या पछी । वरस सहस दोय ए६ ॥
स्मक ग्रह जिणे लोपियो । मुनिवर पूजा संदेह ॥ ३ ॥ आगम० ॥ तब निज बंदे मंगिया । जूजू या गडाचार || तेणें प्रवाहें वाहिया । न लहे सूत्राचार ॥ ४ ॥
० ॥ यावश्यक पोसह क्रिया । चिहुं पर्व विणु न कहंत ॥ तेय अजाण खरा सही । काच ब्ये रतनद
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श्री आगम सद्दहणा छत्रीसी. २२७ व्रत ॥ ५ ॥ आ ॥ कुमर सुबाहु आदर्या । पोसह त्रण विचार ॥ तो किहां चिहुं पर्व बांधणी । एम वली नंद मणियार ॥ ६॥ श्रा० ॥ बीजे अंगे जाषिया। पोसहसुं उपवास ॥ चिहुं पर्व अधिक सत्तम अंगें। जगवर अंगें प्रकास ॥७॥ आ॥ ॥रियावही विणु पमिकम्या। सामाश्क उच्चार ॥ न करे एम जाणो सही। पंचम अंग विचार ॥ ॥ ॥ रजोहरणने मुहपत्ती । आवश्यक अधिकार ॥ साधु श्रावकनें दाखव्या। श्री अनुयोग जुवार ॥ ए ॥ आ॥ ॥ कुंभ कोलिय श्रावक वली । मूंकी उत्तरासंग ॥ तव तिण करवा मंमियो। आवश्यक मनरंग ॥१०॥आ॥ रजोहरण दस मुहपत्ती। पमिगाहे श्री साधु ॥ दसम अने पंचम अंगें । श्रावकने घर लाध ॥ ११ ॥ आण ॥ एह वचन तेणे नवि लह्यो । वलोय दसासुय खंध ॥ ए उपगरण प्रगट कह्या । श्रावकने संबंध ॥१२॥
आ ॥ पमिकमणो गणधर कह्यो । न कहे श्रावकनें जेय ॥ अतीचार कमतल कहे । बहुल संसारी तेय
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श्री आगम सद्दहणा छत्रीसी.
॥ १३ ॥ आ ॥ सव्व लोय पुख्खरवरदी। सिक बुद्ध थुइ अंत ॥ श्रावकने माने नही । ते लव माहे जमंत ॥ १४ ॥ आ० ॥ जिण कारण जिणवर कह्यो । सपमिकमणो धर्म ॥ साधु श्रावक ने सारिखो। अंतर विरति ए मर्म ॥ १५ ॥ आ॥ श्री अनुयोगें जाषिया । आवश्यक उपधान ॥ साधु श्रावकनें एक विधं । ते माने न अज्ञान ॥ १६ ॥ आ ॥ देसत सर्वत बिहुं परें । पोसहनो उच्चार ॥ देसत जल कलपे कह्यो । सर्वत पण अणहार ॥ १७ ॥ आ० ॥ पछे प्रथम दिन गणि कहे । सत्तरिने पंचास ॥ तेय वचन जे नहु करे । तसु नही जिनमत वास ॥१॥
आ ॥ एम अंगे चोथे कह्यो । पजुसण म म बंम ॥ वीसां पजुसण तण।। कूमी कुमति म मंग ॥ १५॥
आ॥ ( ढाल:-सुफ संवेगी किरियाधारी, पण ए देशीमां. ) होश मंगल ने वश मंगल ए। पाठ सुन्नि जग सार रे ॥ अरथ एक पद दोयनो जाप्यो । अंतर नहिय लगार रे ॥ २० ॥ सुणोश्ने वचन जिनजाषित साचा। कुमत कदाग्रह टालो
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श्री आगम सद्दहणा छत्रीसी. २२९ रे ॥ तेह जे साचं जे जिन बोले । एह वचन संजालो रे ॥१॥ आंचली० ॥ चंदसूर पन्नत्ति उवंगे। जंब पन्नत्ति जाणो रे ॥ श्री समवाय नगवति अंगें। एह वचन मन आणो रे ॥ २२ ॥ सुणोश् ॥ उदयिक तिथि समयादिक बोली। दिन के वलि रात रे ॥ ते बंमी आथमती माने । तो कुण सूधी वात रे ॥ सुणो ॥ २३ ॥ नाव सुदि पंचमि दिन गुरुपर्व । जिन नाषित नवि माने रे ॥ कारण कल्पित मतने केमें। करे ते जिनमत कानेरे ॥२४॥ सुणो० ॥ चोमासो आव्ये पर्व पाखी । लोपे कुल क्रम पमिया रे॥ सूयगमांग नाषित नवि जाणे । कुगुरु वचने ते नमिया रे ॥२५॥सु०॥ पाखी चोमासी पमिकमणां । बे जूया विचारो रे ॥ चोमासो पूनम दिन बोल्यो। पाखी चौदसे धारो रे ॥२६॥सुणो॥दिन प्रति अहव पनरमें दिवसे । खेत्र देवी थुइ बोले रे । जिणवर देव अमरतरु समवम । अविरत सुर केम तोले रे ॥७॥ सु० ॥ मूल करी समकित बत आपे । वली
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श्री आगम सहहणा छत्रोसी.
पहिरावे माल रे । बोजारथें उजमणां मंरुया । ते जाणज्यो जंजाल रे || २८ ॥ सु० ॥ उयविहार बंदि मठ गया । द्रव्य धातु वस्त्र मेले रे । निज २ चैत्य संघनी ममता | करि जव श्रपुं जेले रे ॥ २५ ॥ सुणो० || पासथ्या उसन्न कुशीलिया | संसत्ता अहबंदा रे || उत्तराऊयों कह्या जगनायें | पंचय सही अवंधा रे ||३०|| सु०॥ सावय निरवद्य नेद न जाणे । सचित्त
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चित्त प्रकार रे || हरमे द्राख मरिचनें पीपर | खारिक एलाचार रे ॥ ३२ ॥ सुपो० ॥ एह सचित जिणंदें बोल्या | पण जे ब्ये करी स्वाद रे । प्रकरण जाषित माने साचा । ते न लहे विधिवाद रे || ३२ || सु० ॥ स्यादवाद जिन वचन प्रकाशे । ते हुवे बहुल संसारी रे । जेम कमलप्रन जव मांहे रुलियो । एह वचन अधिकारी रे ॥ ३३ ॥ सु० ॥ बहुला दिवसे साधु पूजानो । हूंतो तिहि विछेद रे । उदय २ पूजा दवे प्रगटी । तो हुवो कुमत निषेधरे ॥ ३४ ॥ सुपो० ॥ तासु वचन संचलिये शुभमति । प्रकरण सूत्र जूआ
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श्री ब्रह्मचरी सज्झाय. . २३१ जाणो रे । बउभथ जिणवर जाषित वचनें । अंतर मेरु समाणो रे ॥ ३५ ॥ सु० ॥ संजलज्यो एक चित्त वचन जनशषि ब्रह्मो कहे विचारी रे। जिणवर वचन सुझ जे पाले । ते होय तुब संसारी रे ॥३६॥ सु० ॥
श्रीब्रह्मचरी स्वाध्याय. (चोपाइ) पहिलुं प्रणमी गोथमपाय । प्रणमी सुहगुरुतणा पसाय॥शीलतणी वाम मन धरूं। जिम संसार सोहेलो तरं ॥१॥पहिली वाम वसतिनीजणी ।सुगुरु पास अबे में सुणी॥ पसुश्रापंमुग स्त्री परिरहित। सेवो उपाश्रय एहवो सहित ॥२॥ जंदर मंजारी वेसास । करतां पामे शील विणास ॥ तेम ब्रह्मचारी नारी संग। करतां न रहे शील अनंग ॥३॥ बीजी वामे स्त्रीनी कथा। शीलवंत नर न करे तथा ॥ विकथा पापतणो ने मूल । बंमो त्रिविध २ ए सूल ॥४॥ त्रीजी वाम जे सय्यातणी । आसण सयण पाटला जणी। स्त्री बेसे बे घमी जाम ॥ शीलवंत न करे विश्राम ॥ ५॥ कणिकवाक जाश् कोहला गंध । पढे
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श्री ब्रह्मचरी सज्झाय. किमे न आवे बंध । स्त्रीने श्रासण बेसे जेह ॥ शील वाक जाइ तसु देह ॥६॥ चोथी वाम नयणे नयण सुं। इंघी नवि निरखे नेहसु ॥ जो निरखे तो नाजे सही। एहवी वात जिणेसर कही ॥ ७॥ सूरज साम्हो वलि र जोय । चख्खुहीण ते मानव होय ॥ जिम २ निरखे नारी अंग। तिम ५ दीपे देहि अनंग॥॥ पंचमवाम कुटी अंतरे । शीलवंत रहिवो नवि करे ॥ जिहां सुणिये स्वर कंकणतणा । हावनाव स्त्रीना घणा ॥ ए॥ अग्नि कन्हेंको मेव्हे लाख । रंग बलीने थाये राख ॥ हासो रुदन करत सांजली। शीलरंग जाइ मन चली ॥ १०॥ पूरव क्रीमा नवि संजारिये। बही एम सदा पालिये ॥ संकल्प विकल्प न करवो किमे। जेम संसार माहे नवि जमे ॥१॥ जरी अगनि उपरे ततकाल । पूले मूक्यो उठे जाल ॥ खाधो पीधो विलस्यो रम्यो । संनार्यों तो शीलज वम्यो ॥ १२॥ सातमी वाम जे हियो धरो। विगे लेवानो अल्पज करो ॥ सरस आहारें उपजे काम ।
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श्री ब्रह्मचरी सज्झाय.
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मोतो ते करे विराम ॥ १३ ॥ संनेपाती खानें को घृत पाय | तेहने नेपात अधिकं याय ॥ म ब्रह्मचारी सरसो जिमे । सूतो सुहिणे शीलज गमे ॥ १४ ॥ नविकरवो यति मात्राहार | आहार करे निद्रा व्यापार ॥ निद्रा मांदे विकलथ्यो परे । शीलवान थकी खमहमे ॥ १५ ॥ सेरनी हांमी बसेर खीचमी । खोरे तो फाटे तोलमी ॥ तेम ब्रह्मचारी जिमे यति मात्र शीलगमे ने विणसे गात्र ॥ १६ ॥ चूत्राचंदन अगर कपूर । सयर सुश्रुषा परिमल पूर ॥ वेढ मूंदमी वेश सफार| शीलवंत न करे सगार ॥ १७ ॥ दालिजी करे च रतन । धोये पखाले करे यतन ॥ जण ने देखा जाए । उमाली तब लीधो राइ ॥ १८ ॥ तेम ब्रह्मचारी देहज धोवे । स्त्री देखीने वाल्हो होवे ॥ जे जे देखी कर जिलाष । होइ खंपण लजावे साख ॥१८॥ उपत्रास उणोदरी बहु तप करो। सूधो शील सहु मन धरो ॥ मनना मेल्दो सहू सवाद । न सुणो गीतवाद ने नाद ॥ २० ॥ एकलो एकली स्त्रीसुं वात । न करे न जाइ
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श्री ब्रह्मचरी सज्झाय.
संघात ॥ पुरुषबे न सुए एकत्र । एम करता रहे शील पवित्र ॥ २१ ॥ बबरस अने बम्मास । पिता न पोढे पत्री पास ॥ सात वरसनो सुत जब थाय । तेहनें पासे न सुए माय ॥ २२॥ सघला जिननी एहज जाष । बे इंत्री बोल्या नव लाख ॥ पंचेंडी नन लाख परमाण ॥ मनुष्य असंख संमूर्जिम जाण ॥ २३ ॥ एटली हिंसा लोगे करे । पापे पिंम सदा ते जरें ॥ दान माहे वमो छानयज दान । व्रतमाहें तिम शील प्रधान ॥ २४ ॥ अग्नि काल पीता सोहिली। ब्रा वाम पालतां दोहिलो ॥ तरुण पणे जे तरुण तजे । तहनी सेवा सुरनर नजे ॥ २५ ॥ नव वान सहित जे शील पालसे । मणुय जनम ते उजुबालते ॥ विजयन कवियण एम नणे । शीलवंतने जाउं जामणे ॥ २६ ॥ ॥श्री थावच्चा कुमर स्वाध्याय. ।
( राग भरतरोनो.) नयर छारामती जाणीये । नरवर गोविंदो ॥ कुमर थावच्चो तिहां वसे। जिस्यो पूनिम चंदो ॥
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श्री थावच्चा कुमर सज्झाय.
॥१॥ जणणी मन आस्या घण।। पूरे जोग संयोग ॥ बत्रीसे अंते उरी। विलसे सुर जोग ॥२॥ जण ॥ एक दिन बेगे मालीये । नरनां बहु रूप ॥ मामिय पूछे तिहां कहि ? । ए सयल सरूप ॥३॥ जाण ॥ बीजे दिन तसु घरसुणी । बहु सोक अपार ॥ एक नर चिहुं ऊपामीयो । ए कवण आचार ॥४॥ जण ॥ माय हकारी पूबीऊ । नाटक सुं एह ॥ काले तम्हे जे पूबिलं । नर मूवो तेह ॥५॥ जण ॥ लीलापति कुंवर जणे । मरें किम माय ॥ यम धामि
आवी करी । वन ! ले जाय ॥ ६ ॥ जण ॥श्हापोह जागीयो । पामी वैराग ॥ मामी ! अम्ह रहिवा तणु । नही मंदिर लाग ॥७॥ जण ॥ कुमर वचने मा पुख धरे । ग राउलि रावें । केशव वात सुणी सवे । तसु मंदिर आवे ॥ ॥ जण ॥ श्रीकृष्ण खोले लीये । माइ करे विलाप ॥ नयण नीर पाए ढले । वह ! तुं सुकुमाल ॥ ए॥ जण ॥ मुज जीवन तुं लहुयम् । एम कां मममोले ॥ माधव मनावे
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२३६ श्री थावच्चा कुमर सज्झाय. घणुं । तव कुमर न बोले ॥ १० ॥ जण ॥ नयर तु. म्हारे धामिनो। जय रहिण न जा॥ काळ पुरुष ए घर तणो । कहिनें लीधो माश् ॥ ११॥ जण ॥ परि जाणी माधव हसे । ए जग वटि चाले ॥ त्रिजुवन माहे न बटीये । ए नय कुण टाले ॥१२ ॥ ज०॥ कुमर नणे तिहां जाश्सुं । जिहां निरनय थासु ॥ 3जल गिरि सिरि नेमिनाथ । संयम दरिस्युं ॥ ॥ १३ ॥ ज० ॥ तव माधव मामी एम नणे । तिहां विषम आचार ॥ कदली कोमल काय तुझ । किम जालसे नार ॥ १४॥ज०॥ खमग धारे सुखि चालोये । पीजे दवनी काल ॥ पण संयम ने दोहिबुं । वन ! तूं सुकुमाल ॥ १५ जण ॥ कुमर जणे विषमुं सहु । जे धीर न थाय ॥ सिंह तणीपरे आगमे । तेने किसुंय न थाय ॥ १६ ॥ ज० ॥ धन गर्ना तुझ मामली। श्री कृष्ण प्रसंसे । रतन पुरुष तूं जाश्यो। त्रिजुवन पय नमसे ॥ १७ ॥ ज० ॥ सहस पुरुष स्युं परिवयों लीधो संयम नार ॥ चौद पूरवधर नेमिसीस । गयो
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श्री थावच्चा रुषिराज सज्झाय. २३७ मोख पुवार ॥ १७ ॥ ज० ॥ देपु जणे श्री साधुना । रंगे गुण गाय ॥ रात दिवस सेवा करें । ते शिवपुरि जाय ॥ १ए ॥ ज० ॥
॥ श्रीथावच्चा ऋषिराज स्वाध्याय ॥
(राग मारु. वीरजिणंद समोसर्याजी, वैदे०)
नयरि द्वारिका थान अपूरव । कृष्णराय नर नाथ ॥ कुमर थावच्चो वसे गृहपति । कीधो मुगति सुं साथ ॥१॥ माइ हुं लेस्युं संयम नार । नव वि. रतो देखि कुमार ॥ आंकणी ॥ सुख संपति एवमा संजोगें । श्वा जोगवि सात ॥ बत्रीस अंतेजरी सुरपति ऋछि जिम । कां कहे व ! ए वात ॥ २॥ पूत्र मेरा जीवन जग आधार । माहरो किणे बोलव्यो रे कुमार ॥ पूत्र मेरा जीवन जग आधार ॥ आंकणी ॥ एक दिवस चित्रसाले बेठा । व्याहे रम्या नर मार ॥ अन्य दिवसे ते मृत्यु पहुतो। किम रहिये तुम्ह बार ॥ ३ ॥ मा० एम कां बोले माहरा जाया । रुदन करे तसु माइ ॥ निसि तसु नीद
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२३८
श्री थावचा रुषिराज सज्झाय,
नूख दिनि नाठी | घर अंगण न सुहाइ ॥ ४ ॥ पुत्र मेरा ॥ माइ संसार सुख ने थोमा । जरा मरण जय रोग ॥ कलत्र पुत्र सजनादि कारिम | बंधण द हा वियोग ॥ ५ ॥ माइ० ॥ नयणे नीर पावस जिम वरसे । हृदय कमल तन जीजे ॥ बहु दुख करि में पाल्यो रे जाया । दिवे विछोह न कीजे ॥ ६ ॥ ५० ॥ राजऋद्धि सजनादिक सुख ए । अंतेवर परिवार || मरण काल जीव अनाथी होवे । कवण मावण हार ॥७॥ भा० ॥ तुं सुकुमाल कमल जिम जाया ! | चारित विषम पार || दंत मयणका लोह चणा जिम । चाविस केम कुमार ! ॥ ८ ॥ ० ॥ ऊंचे मुख दस मास गरज माहि । ते दुख ज्ञानि जाणे ॥ हु को सुइ गुण वेदन | हुं किम करुं बखाए || मि ॥ ए ॥ माइ० ॥ में दसमास गरज उर धरियो । थान पिवायो आस || यौवन काल रमणी परणायो । मं किस पूत्र ! निरास ॥ १० ॥ पू० ॥ नरहे कुमर किसहीको वार्यो । हुई वैराग सजाए ॥ विनय करीने
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श्री थावच्चा रुषिराज सज्झाय. अनुमति मागे । करि पहुचा रे माश् ॥११॥ पू०॥ उठी माश् कृष्ण घर पहुती । सुणि हो तु नरराय ! ॥ पूत्र एक अम्ह कुमर थावच्चो । दीदा लेवा जाय ॥१॥ पू० ॥ चतुरंग सेना कृष्णे संजोश् । करे महोलव जा ॥ थावच्चा सरसी लिये जे दीक्षा । तांह करूं निरवाह ॥ १३ ॥ पू० ॥ बत्रीसे अंते उरी विलवे । का मुंके निरधार ॥ जर तुम्हे संयम लेहो कुमरजी तो अम्ह कवण आधार ॥१४॥ पू० ॥ कुमर नणे संजल सुकुलोणी !। बहू मुख ए संसार ॥ जनम मरणने चिहु गति माहे । नरनव मुलहो अपार ॥ १५ ॥ पू० सहस पुरुषसुं संयम लीधो। नेमि जिणेसर पास ॥ कुमर थावच्चे कुल अजुवादयुं । सहुए कहे साबास ॥१६॥ ॥ पू० ॥ एम जाण। संसार का रिमो। विच रसे जे नरनार ॥ करजोमी पूनपाल विनवे। ते पहुचे जवपार ॥१७॥पू॥
श्री किरिया स्थानक सज्जाय. (वस्तु बंद ) वीर जिणवर २ पाय पणमेवि ।
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२४० श्री किरिया स्थानक सज्झायो. तिथंकर चोवीसमो तासु सीस सोहम्म सामिय । पंचम गणधर तसु निपुण विनेय वमो जंबूय नामिय। पूडे ते विनय करी गुरुने किरिय विचार । गुरु नाषे जिम संजली। तेहना तेर प्रकार ॥ १ ॥ (हाः-) तिण विण जाणे प्राणियो। नमियो नवह अपार ॥ जवियण जण ते संजली । करे तासु परिहार ॥२॥ तसु संखेप थकी कह्या । नेद धर्म अधर्म ॥ उपशम ते धर्मे मिल्यो । बीय अधम्मि ए मर्म ॥३॥ अधर्म पक्ष पहिलु सुणो । तेहना बहल प्रकार ॥ दिशि विदिशि जे नर अडे । आयरियादि संसार ॥४॥ उंच नीच गोत्रं वली। अंते सुरूवारूव॥कर्म अनारिज जे करे। अर्थे दंम सरूव ॥५॥ चिहुंगति माहें पामिये । तेरह किरिया गण ॥ सामान्ये एम नाषियु । हिवे विशेष विनाण ॥ ६ ॥ बारह किरिया त्रिहुं गतियें । निरय तिरिय सुर माहि ॥ रियावही नर विणु नही । तेह वलि साहु सुसाहि ॥७॥ (ढालःदोढी ) अश्रणछा दंग, हिंसा अकल्याए, दृष्टि त्रम
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
२४१
I
वलि जालिये ए । मोस दत्त अब, माणति नव मिय, मित्रदोस मन पिये ए ॥ मायालोनं निमित्त, बारह किरियाए, साधु ते जाणी टालवीए । तेरम किरिया ठाण, राग रहित तेणे, समे समे संजालवीए ॥ ८ ॥ पहिलं किरियाठाण, यामन्या तीय, गृह परिवार जी करे | मित्र नागवलि भूत, जह हेतेहिं, त्रस यावर प्राणी हरेए | परने ये उपदेश, हणो वधो तुम्हे, वलि कीधो अनुमोदियेए । तसु निमित्त सावद्य, लागे जीवने, इणिपरे जव किम बेदियेए ॥ ए ॥ बीय अण्डा दम, स्वारथ पाखेए, मंद बुद्धि त्रस मारिये ए । देह का जिननें मंस, सोणित हियकुंए, पित्त वसा संसारिये ए ॥ पिठ मुल वलि सिंग, वाल विसाण ए, दंत दाढ नख न्हारुयाए । अस्थि स्थि मादि, विणु पर जोगेहिं, हणे हणावे कारुयाए ॥ १० ॥ दण्यो न हणतो कोइ तसु सयणादिक, हिवमां हणस्यें नहु पढेए । पुत्र पशुय नहु प्रेष्य, गृह समणादिक, तेहनो कारण नवि काठेए || निज शरीर
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२४२
श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
नहु त्राण, तासु वधें हुये, पुण कुंतादिक ने दिये ए । विवेक विकल ति बाल, त्रसह विराधन, नरके फल ते वेदिये ए ॥ ११ ॥ थावर वणसई जाति, इक्कम आए, स्वजनादिक कारण विनाए । बेदे बेदावे आप, वलि अनुमोदए, मूढ वैर जागी जनाए ॥ कहादिक वनमा हि, पर्व्वत उपरे, तृण एकट करि बालिये ए । त्रिविध त्रिविध प्रकारि, कर्म्म इस्या करे, नरके ते उबालिये ॥ १२ ॥ त्रीजो हिंसा दंग, मुऊने इ हणियो, हणस्ये अथवा एह दए । सजनादिकनो वैर, जाणिदणाव, त्रस थावर रोसि घणेए ॥ सपदिकनो घात, परनो की धोए, अनुमोदे रंगे धरीए । इणिपरे की धुं पाप, नरके जोगवे, एकलको कार्य करी ॥ १३ ॥ तुरिय कम्हा दंग, कहादिक विषें, मृग जाणी इषु मेव्हिये ए । अंतर तित्तर यदि, पंखिय जातीय, अथ पशु प्राण तिरे व्हियेए ॥ एह
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कम्हा दंग, त्रस याश्रित थयो, थावरनो दिव मने धरोए । खेत्री करस माहि, पेठो चिंतवे, धान मा
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय. २४३ हिथी तृण हरुंए ॥ १४ ॥ तिहने जोलि मिधान, दातृसु तीखिण, गोधूमादिक कापिये ए। मुख धरे मन माहि, तो पुण पातके, तेहनो आतम व्यापिये ए॥ पंचम विप्परियास, दृष्टि तणो हिवं, मातादिकस्युं घरे वसेए । शत्रु तणे ब्रम तेय, खमंगादिक हणे, अण जाणे मोहने वसेए ॥ १५ ॥ वलि ग्रामादिक घाति, चोरति जाणिय, अचोर हणे अविमासिये ए। तिण निमित्त सावध, लागे जिण जण्यो, संजलि चित्त विमासिये ए ॥ बहो मृषा निमित्त, कर्म जे लागे ए, आतम स्वजनादिक चपीए । त्रिविध करि तेय, टालो नवियण, एम नाषे त्रिनुवन धणीए ॥ १६ ॥ सत्तम करिया गण, ग्रहण अदत्तह, निज स्वजनादिक कारणे ए। ग्रहे ग्रहावे आप, पर अणुजाणे ए, ते नवि बातम तारणे ए ॥ अहम वलि अब्जथ्थ, जिम को मानव, आपणथी दी' हुवे ए। आरति मन संकल्प, चिंता सागर, पमियो नयनोदक श्रवे ए ॥१७॥ भूमी गत वलि दृष्टि, कर मुखे देश्य, चिहुं वान कि
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२४४ • श्री किरिया स्थानक सज्झाय. तसु मन रमे ए। क्रोध मान माया लोन, इण अन्नाणीय, आले नरजव नीगमे ए॥ नवमो किरिया गण, माण निमित्तए, जात्यादिक मद उससे ए । गर्व करी मन माहि, परने निंदेए, गर्दादिक वलि खिससे ए॥१७॥ ए दरिस हुं श्रेष्टि, ए कुल होनोए, हुं अधिको गारव धरे ए । तस फल नीचो गोत्र. परनवे पामेए, नीच तणो कारिज करें ए ॥ गर्न थकी वलि गर्न, जनम थकी जन्म, मार थकी मारज लहे ए। स्वत्र थकी वलि स्वत्र, सूयगमंग सुणी, नवियण मान न मन वहेए ॥१५॥दसमुंकिरिया गण, जिम को मानव, घर कुटुंब साथें वसेए । मातादिक अपराध, देखीय लहुतर, तसु मुख देवा उससे ए॥ सीतोदक सीतकाल, गंटे ग्रीषम, उसण अगणि ते जालिये ए। जोत्रादिक लेइ हाथ, क्रोध घणो करी, पशु पामां उदालिये ए ॥२०॥ दंमादिकना घात, तसु देहिये करें, किं बहुना जीवित हरेए ।मातादिक सवि कोइ, तसु संगति रह्या, उर्म न हुए चालें ठरें ए॥ एहवा नर बहू काल, सजन परानव, पाप कर्म घण आ
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय. २४५ चरीए। मित्र दोष असंतोष, विणु बालोश्य, पुर्गति पामे पाधरीए ॥१॥ माया निमित्त विचार, किरिया थानक, एहवा नर ते जाणिये ए । गूढाचार ऊलूक, पंख वहाए, पर्वत जिम गुरु माणिये ए ॥ आर्य उता अनार्य, जाषा बोलें ए, पूठया सूधुं नवि कहे ए। जिम कोश् सूर ससब, अंतर साले ए, नवि काढेला जे वहे ए ॥ ॥ण दृष्टांते पाप, माया वीकरी, जाणी मनस्युं उलवे ए । बालोवे नहू आप, पमिकमणादिक, विणु कीधे निज बोलवे ए ॥ तसु फल विषम अपार, काल अनंतो ए, पुखियो थाए जीवमो ए। एम संजलि जिन वाणी, माया परिहरे, सुख पाने ते विहलमो ए॥३॥ हिव बारमो संजाल, लोन तणे वसे, किरिया लागे जीवने ए। पुरुष तणो दृष्टांत, आरण्या दिक, परिव्राजक परदर्शने ए॥ त्रस थावर जग जेय, तेहना वध नणी, मिश्र वचन तणे नाषिये ए। हननादिक मुफ मुख, तुम्ह नवि करवो ए, अवर हणो एम दाखिये ए ॥ २४ ॥ सेविय विषय कषाय, वर्ष घणा लगे, प्रव्रज्या
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
पाली वलीए । आयु तो अवसान, काल करी लढे, यासुरीयादिक गति रलीए | तेहथी चवण लदेवि, मूक बधिर हुवे, जिहथी वाणी संजलीए ॥ २५ ॥ ( ढाल ) ( देशी. चालती तथा त्रुटकनी. त्रिभुवन प्रभु रे मह्नि जिणंद जुहारिये, ए रागमां ) इरियावदीरे तेरम यानक जिन कही । जे साहुरे आतम अरथी ति लही ॥ पण समितें रेसमितो त्रिहुं गुपतें जुतो । गोपवियारे इंद्रिय पंच ब्रह्मे तो ॥ - आयुक्त चाले रहे बेसे सुए गुंजे जास ए | वस्त्रादिकतने हे मूके तासु इरिय प्रकासए ॥ सा पढम समए बद्ध फरसी वितीय समए वेदः । त्रीजे समे निर्झरिय इषिपरे कर्म्म लागो बेद ॥२६॥ तसु प्रत्यय रे सावध लागे श्रुते कह्यो । लघु कर्मी रे सम्यग्दृष्टि ते सद्दयो || अरिहंता रे हुआ था वरते जे हुये । तेर किरिया रे नापी जाषे जापिसे ॥ - एक इरियावहिया किरिय जिनवर सेवी सेवसे । कायादि जोगें तेय लागे चौदमे ते निषेधसे । पुए तेहनो उपदेस न दिये करण रूपे जिवरा । उपदेश दीघो
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय. पढम अंगें कर्म टालो मुणिवरा ॥७॥ जे न कह्यो रे पातक किरिया थानकें । ते कहिस्युं रे मिथ्याती नर जे बके ॥ निन्न प्रज्ञारे बंदाशीला दिहिया। रुचि अब्जघारे पाप श्रुत ते संठिया ॥-नूमादि कंप निमित्त नन तनु सरह लक्षण व्यंजणं । थिय पुरुष हय गय गोण कुक्कुम मिंढ तित्तर लरकणं ॥ इत्यादि लकण सुजग पुर्नग गर्न मोहण कारगं । आकर्षणी प्रमुखादि विद्या करवि व्ये असनादिकं ॥२॥ निदाचर रे अनारिज सरिखा थ।मृत्यु पामीरे कइ विसियादिक गति लही॥ चषि तेहथी रे मूक बधिर पदवी लहे। अंध था रे पूरवकृत ते मुख सहे ॥-ते अंध देखत साथे लेइ सजनादिकनी वृत्ति करे। जीवघात अलिय अदत्त परिग्रह पापथानक आचरे ॥ कुल अधम पामी पाप बहु करि वैर तेणे अर्जिए। करिकाल तेहथी नरग पामे सुख लेसे वार्जिए ॥ २ए ॥ अनारिज रे ए थानक पहिलो कह्यो। हिव बीजो रे धर्म पद ते सदह्यो । दिशि विदिसेरे मणुया आरिज जाणिये । कुल यादि रे अंते पुरूप वखाणिये॥-क्षेत्रादि परिग्रह
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
ममत बहुले गृहीय हुंता घरे रहे । सुपि वाणि जिन मुनि तणिय केरो चित्त रंगे सदहे ॥ वैराग्य पामी सिद्धि गामी पंच महद्वय पालए । जक्तादि पचखी सूत्र साखी कर्म्म संगति टालए ||३०|| (ढालः - फाग )
( हवे अवसर जाणी करिये सलेखण सार - ए देशीमां. ) त्री जो मिश्र धर्मस्युं तेहनो कहिसुं विचार । आरण्यादिक तापस जमे घणो संसार ॥ पहिलो पक्ष - धर्म्म जे तेहनो एह आचार | चिहुं दिशि विदिशे
पारि पामे दुख पार ||३१|| आरंभादिक अति घणो माया कूम कपट्ट | हिंसा मृषा प्रदत्त ल्ये कुशीलपणे लंपट्ट || पाप अढार जे पाऊच्या तेह थकी
विरत | करिय कुकर्म ते पामिये निरय दुख संतत्त ॥ ३२ ॥ हिव बीजो ते सुसाधुनो धर्म्मपद ते जाण । समिति गुपति यादें घणा सुगुणतणी मुणि खाए || विरत्या पाप अढारथी बेद्यो सवि प्रतिबंध । केइ मुगतिल के स्वर्ग संबंध ॥ ३३ ॥ थोमे काले ते सिव लहें जिह पण सुरक अनंत । त्रीजो मिश्र हिवे सुपो देस विरति ससंमत्त । एक थकी विरत्या
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
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एक थकी अविरत ॥ प्राणहनन यादें वली अंते जासु मिहन्त ॥ ३४ ॥ आरिज ते पुण जि नएया समकित दृष्टी जेय । अणसण करि बेने मरे बाराधक ति तेय ॥ देवलोक सुख जोगवे अनुक्रमे मोह लहे | जंगा जे जिए माहे मिले हिव तसु नेद द कहे ॥ ३५ ॥ सर्व थकी जे अविरत तेय अनारिज हो । सर्व थकी जे विरतीय खारिज कहिये सोइ ॥ विरताविरती श्रावक ते पुण खारिज जोइ । एसघला एकठ करी थानक गणिये दोइ ॥ ३६ ॥ धर्म अधर्म्म उपशमवली अनुपसंतने नेद् । अधर्म्म पक्षमा हि त्रण से त्रेसठ अधिक प्रजेद ॥ किरिया एकसो अस्सीय क्रिय चउरासी मान । सत सव अन्नाणिय वेणिय बत्तीय मतगान ॥ ३७॥ प्रज्ञादिक जू जूा वदे बेठा मंगलिबंध | गनि पात्र लेइ या वियो च्यारिज तसु संबंध ॥ समासे ही बोले धरो प्रवाक हाथ । निजादिक मत करो एम सुणि मंगयो हाथ ॥ ३८ ॥ ततखिए ति पाठो कर्यो कर तब बोल्यो आर्य । तुम्हां पाठो खांचियो जाषे तदा नार्य ॥
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२५० श्री किरिया स्थानक सज्झाय. पाणि बले तिण कारणे तेहथी अम्ह बहु पुस ।
आर्य लवे एम जाणो सवि हूं जीव सम पुरक ॥३॥ एम जाणी नवि हणवा त्रस थावर सवि जीव । जे हणस्ये ते पामस्ये चिहु गति बहु सुख कीव ॥ राखे जेय रखावस्ये प्राणी सुगुरु सुसाध । सकल कर्मनो खय करी लहसे सुख निरबाध ॥ ४० ॥ (कलश:-) एम बितीय अंगें बीय खंधे बीय अऊयणे जिण कह्या । तेर किरिया गण साधु श्रावक तहत्ति करि मन सद्दह्या ॥ अर्थादि तेरह किरिया टाले शीघ्र ते शिव गति लहे । उवकाय श्री पासचंद सेवक समरसिंघ मुनि एम कह ॥ ४५ ॥
__ (क्रिया स्थानकना १३ नामः-१ अर्थदम, १ अनर्थदंझ, ३ हिंसादंक, ४ अकस्मात्दंम, ५ दृष्टि विपर्यासदंग,६मृषा क्रियादम, ७ अदत्तादानदंग, अन्न बियदंग, ए मानदंग, १० मित्रदोस, ११ माया क्रियादंग, १२ लोन क्रियादम, १३ शरियावहीदंग ॥ इति)
(६
श्री सज्झाय संग्रह प्रथम भाग समाप्त
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________________ TEACKED .-8-0 0 -8 - 0 per28scered adi अत्रे मलता पुस्तको. मुर दीपिकादि प्रकरण संग्रह .1-0-0 षद् द्रव्यादि प्रकरण संग्रह 1-0-0 पंच प्रतिक्रमण मूत्र मूल शास्त्री 0-8-0 * पंच प्रतिक्रमण सूत्र मूल गुजराति सज्झाय संग्रह शास्त्री वे प्रतिक्रमण सूत्र मूल शास्त्री सुधर्मागच्छ परीक्षा -2-0 श्री पाचचंद्र मूरिसंक्षिप्त जीवन चरित्र -0-1-0 श्री दशवैकालिक सूत्र मूल अर्थ सहित भेट मूरिपद लाभ प्रशस्ति स्तवन संग्रह पूजा संग्रह गहुंलि संग्रह पोसह विधि का[-श्री जैन हीसिंग सरस्वति सन्ना सामळानी पोळ, अमदावाद. *CRORE CIDCOM AN