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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
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तसु त्रिभुवन सेव ॥ १ ॥ इह परजव वंबित सुख दायक । त्रिविधें निरमल पालो शील ॥ गुण संजारो नेमितणा मन । जिम पामो शिव सुखनी लील ॥ ( ए
क) ॥ जरा सिंधु जय यादव पुहता । द्वाराम ति पुर कीधो वास ॥ सोवन मणिमय नगर वसाव्यं । सुरवर घर सरिखा वास ॥ इह० ॥ २ ॥ वीतल वचने गोपी सवि मिलि । नेमि मनाव्यो बलें विवाह ॥ राजमती कान्हरु जइ मागी । उग्रसेन मन धरे उच्छाह ॥ इह० ॥ ३ ॥ अलंकार पहेरी गज चकियो । पूछें चाले यादव जान ॥ हरिवल चमर बत्र सिर धारे। सोहे नेमिजिन इंद्र समान ॥ २६० ॥ ४ ॥ तोरण बार पधार्या पेखे । सूर संबर ससा कुरंग | मोर हंस बहु बंधण बांध्या | नेमि वदन जोए मनरंग ॥ इह० ॥ ५ ॥ पेखि पुकार करता सावज । रथथी उतरि आप नरिंद ॥ दया जाव धरि जीव तुमाव्या । त्रोमी बंधन कापी फंद ॥ ० ॥६॥ रथ खेमी पाठो घर यावे । समजावे बलदेव मुरारि ॥ दान देश लोकंतिक वचने । संयम