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१० श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायों. से पहुता गिरनारि ॥ श्ह ॥७॥ संजलि राजल नेमि सणी परे। धिग धिग चिंते ए संसार ॥ रुप अने लावन्य तनु सुंदर ।नेमि विना ए सहु असार ॥श्ह ॥७॥ मन वैरागे राजल पूर्यु। चारित्र ब्ये करि मस्तक लोच॥ अविहमरंग नेमिसूराती। विषय कषाय करी संकोच हि ॥ए॥नेमि वंदण गिरि राजल चाली। पाउस जीना संघला चीर ॥ गुफामांहे जा सूकवती। रहनेमि दीगी नगन सरीर ॥ इह ॥१०॥ विषय तणा सुख सुंदरिलोगवि।मानवनो नव सही मुलंन॥चोथे धाश्रम चारित्र लेसुं। बंमी मननो मिथ्यादंन ॥श्हण ॥११॥ सती कहे सुंदर सुर रुपे। तो पण तुमसुंअम नहीं काज ॥ गंधन कुल सरिखो कां थाय ॥ बंधवनी कांश लोपे लाज ॥ श्हण ॥१२॥ चित्त वदयुरहनेमि खमावे। त्रणे केवल पामे सार॥ मुगतें पहुता तसु पय श्रीब्रह्म। लगतें वंदे वारंवार ॥ इह० ॥ १३ ॥ इति रहनेमी संज्जाय ॥ ..........