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________________ १५४ श्री अढार पापस्थान परिहारनी सज्झायो. मुगति गया कर्म खयकर। । अमुगत तासु कहे। १७ ॥५॥ आग ॥ ए दस नेद मिथ्यात निवारो। त्रीजे अंगें जो॥ जे निरता जाण। कहे । तसु समकित गुण हो ॥ ६ ॥ आग०॥ उपम उह समकितने । मूल ? पश्हाण ५ आधार ३ ॥ छार ४ नि: धाने ५ जाजने ६ । ए आगम संजार ॥ ७॥ आ॥ जां मिथ्यात तजे नही । तां गिण मोटुं साल ॥ चारित्र तरुवर तां लगें । न करे अतिघण फाल ॥७॥ आ ॥ समकितसूं थोमी क्रिया। फल आपे सुविशाल ॥ करे प्रकाश सुहामणो। सूरिज जिम ततकाल ॥ए॥ आग समकितना अहिनाण ए । समता १ सिछि अभिलाष २॥ वेराग ३ करुणा ४ अतिघण। । सूत्र वेसास सुनाष ५ ॥१०॥ आग ॥ केवल चारित्रनो धणी। मुगति न साधे सार ॥ समकितसूं चारित्र लही। पामे नवनो पार ॥ ११ ॥ आग ॥ समकितधर वे थोमला । नही मिथ्याती ॥ देखी घणा म राचस्यो । परखो समकित सार
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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