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________________ श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो. ९५ उतरी जल वावे पीधुं, रयणादेवी जांणीयां । तिहां वि तत क्षण घणे मांने, बे बंधव घरे आणीया ॥ २ ॥ अमृत फलें करी पोषीया, विलसें देवी स्युं बेहवें; अन्यदा इंद्र आदेशथी, समुद्र सोधन चाली तेहवें: - समुद्र सोधन देवी चाली, जाती कहे वे जोमुदा । सुखे रहेज्यो निज श्रावासे, त्रणें वनें रमजो सदा ॥ पण दक्षिण वनि तुम्हे म जाज्यो, तिहां एक काल जुजंग ठे । ते तुम्ह जीव विणास करस्ये, एम कही जाए पढे ॥ ३ ॥ घरे ते बेन विरति लहे, त्रण वन जोए उल्हासो; दक्षण वायु के कारणे, परस्त्रीनो स्यो विसासोः - विश्वास स्यो परदार केरो, चिंतवि दक्षण वन गया । सूली विध एक पुरुष देखी, बे बंधव जयजीत थया ॥ हाम ढगलो देखिने रे, सूली विध नर पूढीयो। ते कहे काकंदीपुर निवासी, हुं एणी देवी एम की यो ॥ ४ ॥ ए देवी महा पापिणी, तु अपराधें मारें; तव बे पूबे तेहने, म्हने कहो कुण तारें; -तरों तवही ज ते कहेरे, सेलगयक्ष सेवा करो । ते करे सेवा सेलग
SR No.032735
Book TitleSazzay Sangraha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarchandrasuri
PublisherGokaldas Mangadas Shah
Publication Year1922
Total Pages264
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size17 MB
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