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६८ श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो. निश्चे सवि मुगतें सरिखा रे। हिव कहुं विगतनी संख्या ॥ एकसो अम पुरुष संजारी रे। दस पंक बीसे नारी ॥ जिन ॥ ५॥ गृहलिंगे सीके चार रे। परलिंगे दसय विचार ॥ अठोत्तरसो जिन वेसें रे। एक समय मुगति सवि ससें ॥ जिन ॥ ६॥ अववाहन जघन्ये चार रे । उत्कृष्टी दोय अवधार ॥ अठोत्तरसो मध्य जाणो रे । एक समय सिद्ध वखाणो । जिन ॥ ७॥ ऊरध लोकें गिण चार रे । दोय समु त्रण सेसवार ॥ वीस अधोलोक ते जाणुं रे। एकसो अम तिरिय वखाणुं ॥ जिन ॥ ७॥ सर्वारथ सिद्ध विचार रे। तसु उपर जोश्रण बार ॥ पणयालीस लख जोयण माण रे। सिह नत्र जिसं उत्ताणजिन ॥ए ॥ अमजोयण जाम विचालें रे।रुपा जिम उऊल पालें। सिक जोयण चोवीस नागें रे । रहे अखय अनंत विरागें ॥ जिन ॥ १०॥ सुख सागर मांहे कोले
। मुख संग नही जसु मीले ॥ ए सिह सरूप विचार्यो रे । संखेपे जे गुरु मुख धार्यों ॥ जिन ॥११॥