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श्री ज्ञातासूत्रनी सज्झायो.
एवर, नविक जन नुवि जगवे ॥२॥ नेमि जिणंद समोसर्या, गिरनारे लगवंतो रे ॥ चतुरंग सेनस्युं परवयों, वांदे हरि गुणवंतो रे॥-जगवंत आव्या निसुणि हर्षे, थावच्चा पुत्र आविया । धर्म देसण संजलीने, संयम लेवा नाविया ॥ घरे आवी माय सुणावी, संयम अनुमति मागए । वचन सांजलि पुत्रना ते,लही मूर्ग जागए ॥३॥ उठी वासुदेव नेटीया, कडं पुत्र सरूप रे; वासुदेव पण घरे आविया, कुंवर प्रते कहे नूप रे ॥-नूप पत्नणे वायु नवरे, शेष बाधा टालस्युं । जोगवो नपे ज्वर उपां सुख, रुमीपरे अम्हे पालस्युं ॥ सुखार का जब न गया, कांश संयम आदरो, वलतुं विमासी कहे कुंअर, जनम मरण यूरें करो ॥४॥ तव वासुदेव वलतुं कहे, ए निज करम विणासे रे ॥ जनम मरण परहां टले, बोले कुमर उदहासे रेःउल्हासथी एम कुंअर बोले, देव अनुमति दीजीए। नेमि जिणवर पाय सेवी, उत्तम कारज कीजीए ॥ उदघोषणा पुरि हरि करावें, जिको संयम बादरे। पढ़ें