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१५८ श्री एकादश गणधरनी सज्झायो .
" । त्रिपदी बधि निधि जाणि रे ॥ गौतम चारित्र धा जाणी । यो बहु मंमाणि रे ॥ २ ॥ वीरजि० ॥ (कणी०) माता पृथ्वी कृतिका नक्षह | गौतम गोत्र पवित्र रे ॥ वरस बेतालीस ग्रहस्थपणे रह्यो । पुनरपि लिये चारित रे ॥ ३ ॥ वीर० ॥ पंचसयांनी वे शिष्य संख्या । बजमथ्यपणे वरस बार रे ॥ सोल वरस केवलनी परिया । चिहुंत्तर वरस सविसार रे ॥ ४ ॥ वीरजि० ॥ कर्म संशयनो संदेह टाल्यो । पालिया जिवर धर्म रे || गणपति शिष्य गणधर बोले । ते पाने शिवपद शर्म रे ॥ ५ ॥ वीरजि० ॥ इति ॥ श्रीवायुभूति गणधर सज्जायम् ॥ ३ ॥
( मालीजी फूलडे चंगेरील्याओ - ए देशी. ) त्री जो गणधर वायुभूति है। गुवर गाम सुठाम ॥ वली वसुभूति ताय माय जेहनी पृथ्वी | दरसण बहु सुखधाम ॥ १ ॥ वीरजी वंचित फल देह | थारो बीजो गणधर जेह ॥ वीर० ॥ ( आंकणी ) २ ॥ नस्वाति जनमनुं कहीये । गौतम गोत्र कहाय ॥