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श्री अढार पापस्थान परिहारनो सज्झायो. १४९ धर्म मूकी रे किम वंडे सुख्खके ॥ ३ ॥ सीख० ॥ वम्यो आहार न वंबीये रे ।तिम म करो व्रत जंग ॥ नरकतणी गति पामीए । व्रत संजम रे मूकीने चंगके ॥४॥ सीख ॥ गृहवासे धर्मदोहिलू रे। चिंताआरति व्याप ॥ कर्म आठ बंधे सही। करि आरंज रे परिग्रह बहु पापके ॥ ५॥ सीख० ॥धन संपति थिर नवि रहे रे । जोखिम तासु अनेक ॥ पुण्य पाप जीव एकलो । जोगवस्येरे परजव प्रत्येकके ॥ ६॥ सीख॥ चंचल जीवित नरतणू रे । मान अणी जिम नीर ॥ जलबुद बुद जिम वोजली । जिम लहरी रे जलनी गंजीरके ॥ ७ ॥ सीख ॥ विणु जोगव्ये न बूटीए रे। जे हुवे कीधां कर्म ॥ श्म जाण। मन थिर करो। आराधो रे जिणवरनो धर्मके ॥ ७ ॥ सीख ॥ देवसमाणा सुखवेए रे। मुनिवर चारित्र लीण ॥ नरक वेद नाथी घणा। मुख देखे रे जे कायर दीणके ॥ ५ ॥ सीख ॥ जीव पुरोहित पुत्रनो रे। मुंक बंधव सुविचार ॥ पुलनबोधि ते अवतयों । चारित्र धमें रे ते