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श्री केशिप्रदेशीप्रबंध-स्वाध्याय. २१७ लेस रागादिक सहियो । देखिस एहनो रूप रूप! नहुं देखुं कहियो ॥ एम अरूप पुग्गल रहिय किम देखाउँ हेव । जीव वस्तु बदमस्थ हुं देखे अरिहंत देव॥३॥ राउ कहे जगवंत ! जीव कुंथु अने हथिय । सरस सुगुरु एम कहे एह एम जाण महथिय! ॥ जश् एम? तो कुंथुन कम्मबल हथ्थि समाणो । का? न करे गुरु जणे दोव दिवंत वियाणो!॥ गुरु लहु थानक थापिये तेह तेतलो प्रकास। जीवतणो पुण तिम गिणो जश्होइतने संवास ॥ ३५॥ नरपति शुन मति बतो जीव गुरुवचने जाएयो । अनिनिवेस सविसेस कुलह क्रमनो मन आएयो ॥ पिता पितामह पमुह पुव पुरिसांह परंपर । लोक हास्य मूकतां होश किम करुं मतंतर ॥ण अवसरे सुहगुरु नणे नृप ! पठिताव पके सी। लोह नारवाहक तणी परे निरतीम करेसी ॥३६॥ कहे कवण ते कहो लोह वाहक मुफ आगल । केश्धनने कऊ वणिक चाल्या साथे मिल ॥ जतांबागले अमविमाहि देखी लोहागर । सकति सीम बंधेवि वलिय