Book Title: Mayavi Rani
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org - જવ ર માયાવી રાની बच्चों की कहानियाँ श्री प्रियदर्शन For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org मायावी रानी (बच्चों की कहानियाँ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री प्रियदर्शन [आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज ] For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुनः संपादन ज्ञानतीर्थ-कोबा द्वितीय भावृत्ति वि.सं.२०६७, ३१ अगस्त-१००९ मंगल प्रसंग राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेवश्री पद्मसागरसूरिजी का ७५वाँ जन्मदिवस तिथि : भाद्र, सुद-११ दि. ३१-८-२००९, सांताक्रूज, मुंबई मूल्य पक्की जिल्द : रू. १२०-०० कच्ची जिल्द : रू. ७०-०० आर्थिक सौजन्य शेठ श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ ह, शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार प्रकाशक श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, ता. जि. गांधीनगर - ३८२००७ फोन नं. (०७९) २३१७६१०४, १३२७६१७२ email : gyanmandir@kobatirth.org website : www.kobatirth.org मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टर्स, अमदावाद - ९८२५५९८८५५ टाईटल डीजाइन : आर्य ग्राफीक्स - ९९२५८०१९१० For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पूज्य आचार्य भगवंत श्री विजयभद्रगुप्तसूरीश्वरजी श्रावण शुक्ला १२, वि.सं. १९८९ के दिन पुदगाम महेसाणा (गुजरात) में मणीभाई एवं हीराबहन के कुलदीपक के रूप में जन्मे मूलचन्दभाई, जुहीं की कली की भांति खिलतीखुलती जवानी में १८ बरस की उम्र में वि.सं. २००७, महावद ५ के दिन राणपुर (सौराष्ट्र) में आचार्य श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराजा के करमकमलों द्वारा दीक्षित होकर पू. भुवनभानुसूरीश्वरजी के शिष्य बने. मुनि श्री भद्रगुप्तविजयजी की दीक्षाजीवन के प्रारंभ काल से ही अध्ययन अध्यापन की सुदीर्घ यात्रा प्रारंभ हो चुकी थी.४५ आगमों के सटीक अध्ययनोपरांत दार्शनिक, भारतीय एवं पाश्चात्य तत्वज्ञान, काव्य-साहित्य वगैरह के 'मिलस्टोन' पार करती हुई वह यात्रा सर्जनात्मक क्षितिज की तरफ मुड़ गई. 'महापंथनो यात्री' से २० साल की उम्र में शुरु हुई लेखनयात्रा अंत समय तक अथक एवं अनवरत चली. तरह-तरह का मौलिक साहित्य, तत्वज्ञान, विवेचना, दीर्घ कथाएँ, लघु कथाएँ, काव्यगीत, पत्रों के जरिये स्वच्छ व स्वस्थ मार्गदर्शन परक साहित्य सर्जन द्वारा उनका जीवन सफर दिन-ब-दिन भरापूरा बना रहता था. प्रेमभरा हँसमुख स्वभाव, प्रसन्न व मृदु आंतर-बाह्य व्यक्तित्व एवं बहुजन-हिताय बहुजन-सुखाय प्रवृत्तियाँ उनके जीवन के महत्त्व चपूर्ण अंगरूप थी. संघ-शासन विशेष करके युवा पीढ़ी. तरुण पीढी एवं शिश-संसार के जीवन निर्माण की प्रकिया में उन्हें रूचि थी... और इसी से उन्हें संतुष्टि मिलती थी. प्रवचन, वार्तालाप, संस्कार शिबिर, जाप-ध्यान, अनुष्ठान एवं परमात्म भक्ति के विशिष्ट आयोजनों के माध्यम से उनका सहिष्णु व्यक्तित्व भी उतना ही उन्नत एवं उज्ज्वल बना रहा. पूज्यश्री जानने योग्य व्यक्तित्व व महसूस करने योग्य अस्तित्व से सराबोर थे. कोल्हापुर में ता.४-५-१९८७ के दिन गुरुदेव ने उन्हें आचार्य पद से विभूषित किया.जीवन के अंत समय में लम्बे अरसे तक वे अनेक व्याधियों का सामना करते हुए और ऐसे में भी सतत साहित्य सर्जन करते हुए दिनांक १९-११-१९९९ को श्यामल, अहमदाबाद में कालधर्म को प्राप्त हुए. For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir "प्रकाशकीय - पूज्य आचार्य श्री विजयभद्रगुप्तसूरिजी महाराज (श्री प्रियदर्शन) द्वारा लिखित और विश्वकल्याण प्रकाशन, महेसाणा से प्रकाशित साहित्य, जैन समाज में ही नहीं अपितु जैनेतर समाज में भी बड़ी उत्सुकता और मनोयोग से पढ़ा जाने वाला लोकप्रिय साहित्य है. पूज्यश्री ने १९ नवम्बर, १९९९ के दिन अहमदाबाद में कालधर्म प्राप्त किया. इसके बाद विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट को विसर्जित कर उनके प्रकाशनों का पुनः प्रकाशन बन्द करने के निर्णय की बात सुनकर हमारे ट्रस्टियों की भावना हुई कि पूज्य आचार्य श्री का उत्कृष्ट साहित्य जनसमुदाय को हमेशा प्राप्त होता रहे, इसके लिये कुछ करना चाहिए. पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी महाराज को विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्टमंडल के सदस्यों के निर्णय से अवगत कराया गया. दोनों पूज्य आचार्यश्रीयों की घनिष्ठ मित्रता थी. अन्तिम दिनों में दिवंगत आचार्यश्री ने राष्ट्रसंत आचार्यश्री से मिलने की हार्दिक इच्छा भी व्यक्त की थी. पूज्य आचार्यश्री ने इस कार्य हेतु व्यक्ति, व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व के आधार पर सहर्ष अपनी सहमती प्रदान की. उनका आशीर्वाद प्राप्त कर कोबातीर्थ के ट्रस्टियों ने इस कार्य को आगे चालू रखने हेतु विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के सामने प्रस्ताव रखा. विश्वकल्याण प्रकाशन ट्रस्ट के ट्रस्टियों ने भी कोबातीर्थ के ट्रस्टियों की दिवंगत आचार्यश्री प्रियदर्शन के साहित्य के प्रचार-प्रसार की उत्कृष्ट भावना को ध्यान में लेकर श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबातीर्थ को अपने ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित साहित्य के पुनः प्रकाशन का सर्वाधिकार सहर्ष सौंप दिया. __इसके बाद श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा ने संस्था द्वारा संचालित श्रुतसरिता (जैन बुक स्टॉल) के माध्यम से श्री प्रियदर्शनजी के लोकप्रिय साहित्य के वितरण का कार्य समाज के हित में प्रारम्भ कर दिया. श्री प्रियदर्शन के अनुपलब्ध साहित्य के पुनः प्रकाशन करने की शृंखला में मायावी रानी ग्रंथ को प्रकाशित कर आपके कर कमलों में | प्रस्तुत किया जा रहा है. For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शेठ श्री संवेगभाई लालभाई के सौजन्य से इस प्रकाशन के लिये श्री निरंजन नरोत्तमभाई के स्मरणार्थ, हस्ते शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार की ओर से उदारता पूर्वक आर्थिक सहयोग प्राप्त हुआ है, इसलिये हम शेठ श्री नरोत्तमभाई लालभाई परिवार के ऋणी हैं तथा उनका हार्दिक आभार मानते हैं. आशा है कि भविष्य में भी उनकी ओर से सदैव उदारता पूर्ण सहयोग प्राप्त होता रहेगा. _ इस आवृत्ति का प्रूफरिडिंग करने वाले डॉ. हेमन्त कुमार तथा अंतिम प्रूफ करने हेतु पंडितवर्य श्री मनोजभाई जैन का हम हृदय से आभार मानते हैं. संस्था के कम्प्यूटर विभाग में कार्यरत श्री केतनभाई शाह, श्री संजयभाई गुर्जर व श्री बालसंग ठाकोर के हम हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने इस पुस्तक का सुंदर कम्पोजिंग कर छपाई हेतु बटर प्रिंट निकाला. आपसे हमारा विनम्र अनुरोध है कि आप अपने मित्रों व स्वजनों में इस प्रेरणादायक सत्साहित्य को वितरित करें. श्रुतज्ञान के प्रचार-प्रसार में आपका लघु योगदान भी आपके लिये लाभदायक सिद्ध होगा. पुनः प्रकाशन के समय ग्रंथकारश्री के आशय व जिनाज्ञा के विरुद्ध कोई बात रह गयी हो तो मिच्छामि दुक्कड़म्. विद्वान पाठकों से निवेदन है कि वे इस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करें. अन्त में नये आवरण तथा साज-सज्जा के साथ प्रस्तुत ग्रंथ आपकी जीवनयात्रा का मार्ग प्रशस्त करने में निमित्त बने और विषमताओं में भी समरसता का लाभ कराये ऐसी शुभकामनाओं के साथ... ट्रस्टीगण श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कहानी-अनुक्रम . . Do ............ १. मायावी रानी और कुमार मेघनाद .............. २. राजकुमार अभयसिंह. .......... ३. श्रेष्ठिकुमार शंख ......... ४. विद्या विनयेन शोभते ५. बड़ों का कहा मानो. ६. चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! ७. जीव और शिव ८. पराक्रमी अजानन्द .... For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धर्म कला व श्रुत-साधना का आह्लादक धाम श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा तीर्थ अहमदाबाद-गांधीनगर राजमार्ग पर स्थित साबरमती नदी के समीप सुरम्य वृक्षों की छटाओं से घिरा हुआ यह कोबा तीर्थ प्राकृतिक शान्तिपूर्ण वातावरण का अनुभव कराता है . गच्छाधिपति, महान जैनाचार्य श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी म. सा. की दिव्य कृपा व युगद्रष्टा राष्ट्रसंत आचार्य प्रवर श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी के शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की स्थापना २६ दिसम्बर १९८० के दिन की गई थी. आचार्यश्री की यह इच्छा थी कि यहाँ पर धर्म, आराधना और ज्ञान-साधना की कोई एकाध प्रवृत्ति ही नहीं वरन् अनेकविध ज्ञान और धर्म-प्रवृत्तियों का महासंगम हो. एतदर्थ आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी की महान भावनारूप आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का खास तौर पर निर्माण किया गया. ___ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र अनेकविध प्रवृत्तियों में अपनी निम्नलिखित शाखाओं के सत्प्रयासों के साथ धर्मशासन की सेवा में तत्पर है. (१) महावीरालय : हृदय में अलौकिक धर्मोल्लास जगाने वाला चरम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी का शिल्पकला युक्त भव्य प्रासाद 'महावीरालय' दर्शनीय है. प्रथम तल पर गर्भगृह में मूलनायक महावीरस्वामी आदि १३ प्रतिमाओं के दर्शन अलग-अलग देरियों में होते हैं तथा भूमि तल पर आदीश्वर भगवान की भव्य प्रतिमा, माणिभद्रवीर तथा भगवती पद्मावती सहित पांच प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं. सभी प्रतिमाएँ इतनी मोहक एवं चुम्बकीय आकर्षण रखती हैं कि लगता है सामने ही बैठे रहें. ___ मंदिर को परंपरागत शैली में शिल्पांकनों द्वारा रोचक पद्धति से अलंकृत किया गया है, जिससे सीढियों से लेकर शिखर के गुंबज तक तथा रंगमंडप से गर्भगृह का हर प्रदेश जैन शिल्प कला को आधुनिक युग में पुनः जागृत करता दृष्टिगोचर होता है. द्वारों पर उत्कीर्ण भगवान महावीर देव के प्रसंग २४ यक्ष, २४ यक्षिणियों, १६ महाविद्याओं, विविध स्वरूपों में अप्सरा, देव, किन्नर, पशु-पक्षी सहित वेल-वल्लरी आदि इस मंदिर को जैन शिल्प एवं स्थापत्य के क्षेत्र में एक अप्रतिम उदाहरण के रूप में सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं. महावीरालय की विशिष्टता यह है कि आचार्य श्री कैलाससागरसूरीश्वरजी For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म.सा. के अन्तिम संस्कार के समय प्रतिवर्ष २२ मई को दुपहर २ बजकर ७ मिनट पर महावीरालय के शिखर में से होकर सूर्य किरणें श्री महावीरस्वामी के ललाट को सूर्यतिलक से देदीप्यमान करे ऐसी अनुपम एवं अद्वितीय व्यवस्था की गई है. प्रति वर्ष इस आह्लादक घटना का दर्शन बड़ी संख्या में जनमेदनी भावविभोर होकर करती है. (२) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि स्मृति मंदिर (गुरु मंदिर) : पूज्य गच्छाधिपति आचार्यदेव प्रशान्तमूर्ति श्रीमत् कैलाससागरसूरीश्वरजी के पुण्य देह के अन्तिम संस्कार स्थल पर पूज्यश्री की पुण्य-स्मृति में संगमरमर का नयनरम्य कलात्मक गुरु मंदिर निर्मित किया गया है. स्फटिक रत्न से निर्मित अनन्तलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामीजी की मनोहर मूर्ति तथा स्फटिक से ही निर्मित गुरु चरण-पादुका वास्तव में दर्शनीय हैं. (३) आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमन्दिर (ज्ञानतीर्थ) : विश्व में जैनधर्म एवं भारतीय संस्कृति के विशालतम अद्यतन साधनों से सुसज्ज शोध संस्थान के रूप में अपना स्थान बना चुका यह ज्ञानतीर्थ श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र की आत्मा है. ज्ञानतीर्थ स्वयं अपने आप में एक लब्धप्रतिष्ठ संस्था है. आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर के अन्तर्गत निम्नलिखित विभाग कार्यरत हैं : (i) देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण हस्तप्रत भांडागार (ii) आर्य सुधर्मास्वामी श्रुतागार (मुद्रित पुस्तकों का ग्रंथालय) (iii) आर्यरक्षितसूरि शोधसागर (कम्प्यूटर केन्द्र सहित) (iv) सम्राट सम्प्रति संग्रहालय : इस कलादीर्घा-म्यूजीयम में पुरातत्त्व-अध्येताओं और जिज्ञासु दर्शकों के लिए प्राचीन भारतीय शिल्प कला परम्परा के गौरवमय दर्शन इस स्थल पर होते हैं. पाषाण व धातु मूर्तियों, ताड़पत्र व कागज पर चित्रित पाण्डुलिपियों, लघुचित्र, पट्ट, विज्ञप्तिपत्र, काष्ठ तथा हस्तिदंत से बनी प्राचीन एवं अर्वाचीन अद्वितीय कलाकृतियों तथा अन्यान्य पुरावस्तुओं को बहुत ही आकर्षक एवं प्रभावोत्पादक ढंग से धार्मिक व सांस्कृतिक गौरव के अनुरूप प्रदर्शित की गई है. (v) शहर शाखा : पूज्य साधु-साध्वीजी भगवंत एवं श्रावक-श्राविकाओं को स्वाध्याय, चिंतन और मनन हेतु जैनधर्म कि पुस्तकें समीप में ही उपलब्ध हो सके इसलिए बहुसंख्य जैन बस्तीवाले अहमदाबाद (पालडी-टोलकनगर) विस्तार में आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर की एक शहर शाखा का ई. सं. १९९९ में प्रारंभ किया गया था. जो आज चतुर्विध संघ के श्रुतज्ञान के अध्ययन हेतु निरंतर अपनी सेवाएं दे रही है. For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४) आराधना भवन : आराधक यहाँ धर्माराधना कर सकें इसके लिए आराधना भवन का निर्माण किया गया है. प्राकृतिक हवा एवं रोशनी से भरपूर इस आराधना भवन में मुनि भगवंत स्थिरता कर अपनी संयम आराधना के साथ-साथ विशिष्ट ज्ञानाभ्यास, ध्यान, स्वाध्याय आदि का योग प्राप्त करते हैं. (५) धर्मशाला : इस तीर्थ में आनेवाले यात्रियों एवं महेमानों को ठहरने के लिए आधुनिक सुविधा संपन्न यात्रिकभवन एवं अतिथिभवन का निर्माण किया गया है. धर्मशाला में वातानुकुलित एवं सामान्य मिलकर ४६ कमरे उपलब्ध है. प्रकृति की गोद में शांत और सुरम्य वातावरण में इस तीर्थ का वर्ष भर में हजारों यात्री लाभ लेते हैं. (६) भोजनशाला व अल्पाहार गृह : तीर्थ में पधारनेवाले श्रावकों, दर्शनार्थियों, मुमुक्षुओं, विद्वानों एवं यात्रियों की सुविधा हेतु जैन सिद्धान्तों के अनुरूप सात्त्विक उपहार उपलब्ध कराने की विशाल भोजनशाला व अल्पाहार गृह में सुन्दर व्यवस्था है. (७) श्रुत सरिता : इस बुक स्टाल में उचित मूल्य पर उत्कृष्ट जैन साहित्य, आराधना सामग्री, धार्मिक उपकरण, कैसेटस एवं सी.डी. आदि उपलब्ध किये जाते हैं. यहीं पर एस.टी.डी टेलीफोन बूथ भी है. विश्वमैत्री धाम - बोरीजतीर्थ, गांधीनगर : योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी महाराज की साधनास्थली बोरीजतीर्थ का पुनरुद्धार परम पूज्य आचार्यदेव श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा. की प्रेरणा एवं शुभाशीर्वाद से श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र संलग्न विश्वमैत्री धाम के तत्त्वावधान में नवनिर्मित १०८ फीट उँचे विशालतम महालय में ८१.२५ ईंच के पद्मासनस्थ श्री वर्द्धमान स्वामी प्रभु प्रतिष्ठित किये गये हैं. ज्ञातव्य हो कि वर्तमान मन्दिर में इसी स्थान पर जमीन में से निकली भगवान महावीरस्वामी आदि प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरजी महाराज द्वारा हुई थी. नवीन मन्दिर स्थापत्य एवं शिल्प दोनों ही दृष्टि से दर्शनीय है. यहाँ पर महिमापुर (पश्चिमबंगाल) में जगत्शेठ श्री माणिकचंदजी द्वारा १८वी सदी में कसौटी पथ्थर से निर्मित भव्य और ऐतिहासिक जिनालय का पुनरुद्धार किया गया है. वर्तमान में इसे जैनसंघ की ऐतिहासिक धरोहर माना जाता है. निस्संदेह इससे इस तीर्थ परिसर में पूर्व व पश्चिम भारत के जैनशिल्प का अभूतपूर्व संगम हुआ है. For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra मायावी रानी १. कुमार मेघनाद www.kobatirth.org १. मायावी रानी और कुमार मेघनाद नगरी का नाम था रंगावती ! राजा का नाम था लक्ष्मीपति ! रानी का नाम था कमला ! Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार का नाम था मेघनाद ! यह कहानी है राजकुमार मेघनाद की ! राजा लक्ष्मीपति ने बृहस्पति जैसे पंडितों को रखकर मेघनाद को विद्याभ्यास करवाया था। मेघनाद ने चौदह विद्याएँ सीख ली थी। छत्तीस तरह के दंड - आयुध की कलाएँ उसने सीखी थी। अर्जुन को भी भुला दे, वैसा वह धनुर्धारी बना था। मनुष्यों की सभी भाषाएँ तो वह जानता ही था... पशु-पक्षियों की भाषा में भी वह निष्णात था। शिल्प कला में तो विश्वकर्मा को भी पराजित करे वैसी निपुणता उसने प्राप्त की थी । अष्टांग निमित्त में वह पारंगत बना था । निमित्तशास्त्र के ज्ञान से वह भूतकाल की, भविष्यकाल की और वर्तमान की गहन-गंभीर बातें भी जान लेता था, कह सकता था । लोग उसे 'त्रिकालज्ञानी’ के नाम से भी जानते थे! १ वह जितना रूपवान था, ज्ञानवान था... और कलाकार था... उतना ही वह गुणवान था... विनम्र था। इन्सान की जिन्दगी में कभी-कभार अनहोनी - असाधारण घटनाएँ हो जाती हैं। छोटा सा भी निमित्त या प्रसंग आदमी के जीवन में अनेक घटनाओं की भरमार कर देता है । मेघनाद ने पूछा : 'हे पथिक... तू अपना परिचय देगा क्या?' ‘मैं चंपानगरी के श्रेष्ठि धनदत्त का पुत्र 'सुधन' हूँ।' एक दिन मेघनाद अपने मित्रों के साथ नगर के बाहर बगीचे में बैठा था । मित्र लोग आपस में आनंद-प्रमोद की बातें कर रहे थे। इतने में मेघनाद ने कुछ दूरी पर बैठे हुए एक यात्री को देखा। यात्री और मेघनाद की आँखे मिली। मेघनाद ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया । For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद 'सुधन... अब तुझे मैं अपना परिचय देता हूँ... इस नगर के राजा लक्ष्मीपति मेरे पिता हैं... मैं यह जानना चाहता हूँ कि तू कहाँ जा रहा है? और तूने यात्रा में यदि कुछ अजीब-सा देखा-सुना हो तो मुझे बतला!' __'महाराज कुमार... आपकी महेरबानी है मुझ पर, जो आप मुझ जैसे छोटे आदमी से बात कर रहे हो! ___ मैं तो परम पावन महातीर्थ शत्रुजय की यात्रा करने निकला हूँ... आप जानते ही हो कि शत्रुजय गिरिराज के एक-एक कंकर पर अनंत आत्माओं ने मुक्त दशा प्राप्त की है। ____ मैं जिस चंपानगरी का रहनेवाला हूँ... उस चंपानगरी के राजा का नाम है मदनसुन्दर! रानी का नाम है प्रियंगुमंजरी। उनकी इकलौती राजकुमारी है मदनमंजरी। मदनमंजरी यौवन में प्रवेश कर चुकी है...| उसका रूप अद्भुत है...। उसका लावण्य अद्वितीय है। उस पर माता सरस्वती की कृपा बरसती रही है। इसलिये तो वह अनेक प्रकार की कलाओं में निपुणता प्राप्त कर चुकी है। देवी लक्ष्मी के वरदान से उसे अपूर्व सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मदनमंजरी ने एक प्रतिज्ञा कर ली है कि 'जो आदमी व्याकरण, ज्योतिष और शिल्पशास्त्र में सूक्ष्म प्रज्ञावाला और इन विषयों का निष्णात होगा, सभी भाषाओं को जो जानता होगा, धनुर्विद्या इत्यादि कलाओं में पारंगत होगा... वैसे पुरुष के साथ ही मैं शादी करूँगी।' राजा मदनसुन्दर ने चारों तरफ वैसे राजकुमार की तलाश करवायी, पर वैसा राजकुमार कहीं पर भी मिला नहीं। मंत्रीमंडल के साथ परामर्श करके अब राजा मदनसुन्दर ने राजकुमारी के लिये स्वयंवर का आयोजन किया है। स्वयंवर का मुहूर्त आज से ठीक एक महीने के बाद है। राजा ने दूर के और निकट के सभी राजाओं को स्वयंवर में उपस्थित होने के लिये निमंत्रण भेजे हैं।' सुधन से मदनमंजरी का वृत्तांत जानकर मेघनाद बड़ा खुश हुआ। उसने सुधन को अपनी कीमती अंगूठी भेंट की। राजकुमार मित्रों के साथ राजमहल में गया। मित्र अपने-अपने घर पर चले गये। राजकुमार भोजन करके अपने शयनखंड में गया। उसके दिल-दिमाग पर राजकुमारी मदनमंजरी के विचार छाये हुए हैं। वह सोचता है : 'राजकुमारी ने सचमुच बड़ी कठोर प्रतिज्ञा कर ली है। पति की पसंदगी करने में उसकी कुशलता गजब की है। उसका स्वयंवर सचमुच देखने जैसा होगा! मुझे भी For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद जाना चाहिए उस स्वयंवर में! किस्मत की परीक्षा ऐसी घटनाओं में ही तो होती है!' कुमार सोच रहा है कि 'यदि मैं अपने माता-पिता को पूछने के लिये जाऊँगा तो वे मुझे मना ही करेंगे। उन्हें मुझ पर अतिशय प्यार है। एक दिन भी मुझे वे अपनी आँखो से अलग करना नहीं चाहते! इतनी दूर मुझे भेजने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता!' ___ मध्यरात्रि के समय राजकुमार मेघनाद अकेला ही राजमहल में से गुपचुप निकल गया। चंपानगरी की दिशा में उसने प्रयाण किया। वह आगे कदम बढ़ाने लगा। उसे सुन्दर-बढ़िया शुकन होने लगे। शकुनशास्त्र में वह निष्णात था। उसके मन में अनेक अव्यक्त आनंद उछलने लगा। ___ अनेक गाँव-नगरों में से गुजरता हुआ वह आगे बढ़ता रहता है। भूख लगती है, तब उसे कहीं से भोजन मिल ही जाता है, प्यास लगती है, तब पानी मिल जाता है! पुण्यशाली को क्या नहीं मिलता? सब कुछ स्वाभाविक रूप से मिल जाता है उसे! चलते-चलते पन्द्रह दिन बीत गये। कुमार एक भयंकर जंगल से गुजर रहा था। रात घिर आयी थी। रास्ता डरावने जंगल में से होकर गुजरता था। अंधेरे में रास्ता नहीं सूझ रहा था। कुमार ने सोचा : 'थोड़ी देर आराम कर लूँ... वैसे भी काफी थकान लगी है।' एक वृक्ष के नीचे मेघनाद लेट गया । थकान के कारण वह गहरी नींद में सो गया। आधी रात का समय हुआ । कुमार के पास एक भयंकर राक्षस प्रगट हुआ! बड़े-बड़े दाँत । लम्बे-लम्बे और पीले-पीले बाल! लाल-लाल आँखे! लम्बेलम्बे नुकीले नाखून! और चट्टान जैसा ऊँचा लम्बा शरीर! उसने सोये हुए मेघनाद को उठाया और कहा : 'ए लड़के... तू तेरे भगवान को याद कर ले!' कुमार सहसा जाग उठा। उसने राक्षस को देखा। उसे डर तो बिल्कुल नहीं लगा...क्योंकि वह निडर था... पराक्रमी था। वह खड़ा हो गया और दोनों हाथ जोड़कर सर झुकाकर नमस्कार करके बोला : 'कहिए राक्षसराज! मैं आप की क्या सेवा करूँ?' ___ 'अरे... लड़के... मुझे जोरों की भूख लगी है... मेरे पेट मे आग लगी है, मैं तुझे अभी ही खा जाऊँगा... मैं तेरी चटनी बना डालूँगा। मुझे तेरी मीठीमीठी गंध आ रही है...।' For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद मेघनाद ने घबराये बगैर धीरज के साथ मीठी जबान में कहा : 'राक्षसराज, यह शरीर तो वैसे भी एक दिन जल जाना है। इस शरीर से यदि आपकी भूख शांत होती हो तो ठीक है, आप मुझे खा जाइये! आपको तृप्त करके यदि मैं पुण्य कमाऊँगा और मरूँगा तो मुझे अवश्य अगले जन्म में अच्छी गति मिलेगी। पर मेरी एक बात आप सुन लीजिए। फिर आपको जैसा उचित लगे वैसा आप करना...| अभी मैं चंपानगरी जाने को निकला हूँ...। वहाँ की राजकुमारी मदनमंजरी का स्वयंवर है। मदनमंजरी की प्रतिज्ञा पूरी करके... उसके साथ शादी करके मैं संतोष पाना चाहता हूँ...। राजकुमारी को लेकर मैं इसी रास्ते से वापस लौटूंगा। तब मैं आपके पास आऊँगा और आपकी इच्छा पूरी करूँगा! यह मेरी प्रतिज्ञा है... और ली हुई प्रतिज्ञा का पालन मैं जान की बाजी लगाकर भी करूँगा।' ___ राक्षस तो राजकुमार की बात सुनकर आश्चर्य से ठगा-ठगा सा रहा गया! कुमार की निडरता, धीरता और मीठी वाणी से राक्षस खुश-खुश हो उठा। उसने कहा : 'लड़के... ठीक है... तू जा तेरे रास्ते पर! मेरा वरदान है कि तेरा कार्य अवश्य सिद्ध होगा। यहाँ निकट में ही मेरा निवास स्थान है, तू जब वापस लौटे तो वहाँ जरुर आना।' । राक्षस को प्रणाम करके मेघनाद आगे बढ़ा। पाँच-सात दिन में तो वह चंपानगरी में पहुँच गया। मेघनाद नगर के बाहर नदी के किनारे पर गया। वहाँ उसने आराम से स्नान किया और साथ लाये हुए स्वच्छ-सुन्दर कपड़े पहन लिये । पुराने कपड़े उसने नदी में बहा दिये। __नगर में आकर वह सीधा एक नृत्यांगना के घर पर गया, जहाँ पर कि ठहरने के लिये कमरों की व्यवस्था थी। परदेशी राजकुमार को अतिथि के रूप में आया देखकर नृत्यांगना ने उसका स्वागत किया। राजकुमार ने उसके हाथ में पाँच सोनामुहरें रख कर कहा : 'बहन, मुझे भोजन करना है। भोजन करने के पश्चात मैं दो-चार घन्टे आराम करना चाहता हूँ।' नृत्यांगना ने कुमार के लिये एक सुन्दर कमरा खुलवाया। उसे बढ़िया स्वादिष्ट भोजन कराया। कुमार ने मखमल-सी मुलायम शय्या पर आराम किया। उसकी थकान दूर हो गयी। जब वह जगा तब स्वस्थ था। उसने नृत्यांगना से कहा : For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ___ 'मैं नगर में जा रहा हूँ। दो-चार घन्टे घूम कर वापस आऊँगा।' यों कहकर वह नगर में घूमने के लिये निकल गया। उसने नगर के चारों तरफ फैले हुए सुहाने बगीचे देखे। अलग-अलग तरह के बड़े-बड़े बाजार भी देखे। स्वच्छ और विशाल राजमार्ग देखे। नगर में चारोतरफ उल्लास और खुशी का नजारा दिख रहा था। जहाँ चार रस्ते एकत्र होते थे, वैसे चौराहों पर राजा के आदमी नगारे पीटते हुए जोर-जोर से घोषणा कर रहे थे : 'राजकुमारी मदनमंजरी की यह प्रतिज्ञा है कि जो कोई राजा या राजकुमार व्याकरण, ज्योतिष और शिल्पकला में निष्णात होगा, पशु-पक्षियों की एवं मनुष्यों की सभी भाषाओं को जानने वाला होगा...धनुषविद्या वगैरह चौदह विद्याओं में निपुण होगा... उसके गले में राजकुमारी वरमाला आरोपित करेगी।' ___ घोषणा सुनकर मेघनाद को खुशी हुई। उसे अपने नगर में मिला श्रेष्ठिपुत्र सुधन की याद आई। उसकी कही हुई एक-एक बात सच्ची लगी। मेघनाद मन ही मन सुधन को धन्यवाद देने लगा। ___ साँझ की बेला घिरने लगी थी। मेघनाद नृत्यांगना के घर पर वापस लौट आया। वह सोच रहा था : 'कल सबेरे मुझे महाराजा मदनसुन्दर से मिलना होगा । मेरा परिचय देना होगा...। वरना मुझे स्वयंवर में प्रवेश मिलना मुमकिन नहीं होगा!' रात आराम से कट गयी। सुबह में स्नान-दुग्धपान से निवृत्त होकर, मेघनाद राजमहल जाने के लिये निकला | राजमहल के पास पहुँचा । इतने में उसके कानों पर लोगों का कोलाहल सुनायी देने लगा। घुड़सावार सैनिकों की भाग-जौड़ देखने को मिली । बाहर से आये हुए अनेक राजा और राजकुमारों के चेहरे पर चिंता व उद्ववेग की रेखाएँ उभरी हुई देखी...।' वह जल्दी-जल्दी कदम उठाता हुआ राजमहल पर पहुँचा । २. राजकुमारी का अपहरण राजमहल के विशाल प्रांगण में सुशोभित भव्य स्वयंवर मंडप सजाया गया था। स्वयंवर मंडप में महाराजा मदनसुन्दर, विषाद में डूबा हुआ मुँह लेकर बैठे हुए थे। स्वयंवर के लिये आये हुए करीबन दो सौ जितने राजा एवं राजकुमार भी अपने-अपने आसन पर बैठे थे। सभी के चेहरे पर अनहोनी की आशंका के बादल मंडरा रहे थे। इतने में चंपानगरी के महामंत्री सुबुद्धि ने For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद खड़े होकर, महाराजा मदनसुन्दर को नमस्कार किया। सभी उपस्थित राजाओं का अभिवादन करके अपना वक्तव्य प्रारंभ किया। कुमार मेघनाद भी एक आसन पर बैठ गया था। 'हमारे निमंत्रण से स्वयंवर में पधारे हुए सभी माननीय महाराजा एवं राजकुमार, शायद आप तक समाचार पहुँच ही गये होंगे कि आज सबेरे-सबेरे राजमहल के झरोखे में बैठी हुई राजकुमारी मदनमंजरी का अदृश्यरूप से अपहरण हो गया है। बड़ी दर्दनाक एवं करुणताभरी घटना हो गयी है। महाराजा मदनसुन्दर ने अभी तक पानी का छूट भी मुँह में नहीं डाला हैं। महारानी तो समाचार सुनते ही बेहोश होकर गिर गयी थी...| बड़ी मुश्किल से अनेक उपचार करने के बाद उनकी बेहोशी दूर हुई है... फिर भी उनकी आँखें गंगा-जमुना की तरह बह रही हैं। सभी रिश्तेदार व स्नेही-स्वजन विलाप कर रहे हैं। अकल्प्य आपत्ति ने घेर लिया है हमें। राजकुमारी का इस तरह से अपहरण करने वाला कोई सामान्य मनुष्य तो हो नहीं सकता! कोई देव हो... दानव हो, या कोई विद्याधर राजा भी हो सकता है...। या फिर किसी अंजनसिद्धिवाले आदमी का यह कार्य हो सकता है। आकाशगामिनी विद्याशक्ति के जरिये यह कार्य किया गया हो! हमने घुड़सवार सैनिकों को चारों दिशाओं में तलाश करने के लिये दौड़ाये हैं! ___ महानुभावों! हमारी राजकुमारी ने पति की पसंदगी के लिये जो प्रतिज्ञा घोषित की हैं... वह आप भली-भाँति जानते ही हैं। फिर भी मैं वह प्रतिज्ञा आपके सामने पुनः घोषित कर रहा हूँ...। राजकुमारी की प्रतिज्ञा यह है कि 'जो कोई पुरुष शब्दवेध, धनुर्विद्या, समग्र भाषा, शिल्पशास्त्र व अष्टांग निमित्तशास्त्र का जानकार होगा, वही मेरा पति होगा।' राजेश्वरों, आप में से कोई भी यदि वैसी योग्यता रखते हों तो... वे कृपा करके खड़े हों और यहाँ पर पधारें...। एवं अपने निमित्तज्ञान से हमें बतायें कि राजकुमारी का अपहरण कर कौन उसे उठा ले गया है? और अभी राजकुमारी कहाँ पर-किस हाल में है? निमित्तशास्त्र के ज्ञान से यह बात बतायी जा सकती है। इतना ही नहीं वरन् शिल्पकला से वह महापुरुष लकड़ी का गरुड़ पक्षी बनाकर, उस पर सवार होकर जहाँ पर राजकुमारी है वहाँ जाए। युद्धकला से अपहरण करने वाले को हराकर, राजकुमारी को लेकर वापस यहाँ पर आए। हम उसका भव्य स्वागत करेंगे एवं बड़ी खुशी एवं उल्लास के साथ शानोशौकत से उस महापुरुष के साथ राजकुमारी की शादी करेंगे।' For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ___ महामंत्री की घोषणा सुनकर वहाँ पर उपस्थित सभी राजाओं के चेहरे पर हवाईयाँ उड़ने लगी...| सभी हाथ मसलने लगे...| जमीन पर नजरें टिका कर सभी सर झुकाये बैठे रहे। मूंछों पर ताव देने वाले बड़े-बड़े शूरवीर राजकुमारों के चहेरों पर कालिख-सी पुत गयी...! दो-पाँच मिनट तक सारी सभा में एकदम खामोसी का आवरण उतर आया। पर यकायक राजकुमार मेघनाद अपने आसन पर से खड़ा हुआ और...बड़ी दृढ़ता के साथ धीमे-धीमे कदम बढ़ाता हुआ...वह महाराज मदनसुंदर के पास आकर खड़ा हो गया । महाराजा को प्रणाम करके उसने कहाः __'महाराजा, रंगावती के महाराजा लक्ष्मीपति मेरे पिता हैं | महारानी कमलादेवी मेरी जनेता हैं | मेरा नाम मेघनाद है। मैं राजकुमारी की प्रतिज्ञा पूरी करने की ख्वाहिश रखता हूँ। यहाँ उपस्थित आप सभी के समक्ष मैं निमित्तशास्त्र के आधार पर राजकुमारी का वृत्तांत आपको कहना चाहता हूँ।' महाराजा मदनसुन्दर सिंहासन पर से खड़े हो गये। उन्होंने मेघनाद को अपने बाहुपाश में जकड़ लिया। उनकी आँखो में खुशी के आँसू भर आये। उनका गला भर आया । भर्रायी आवाज में वे बोले : 'कुमार, महाराजा लक्ष्मीपति तो मेरे परम आत्मीय हैं। उनके साथ मेरा प्रेम का संबंध है। मुझे लगता है वत्स, अभी मेरी किस्मत जाग रही है... वरना तू यहाँ नहीं आता! तेरी आकृति ही तेरे पराक्रम का परिचय दे रही है कि तेरी शक्ति विश्व में अजेय है...! कुमार, मुझे क्षमा करना... मैं इतने सारे राजाराजकुमारों की भीड़ में न तो तुझे पहचान पाया... न ही तेरा उचित स्वागत कर सका! बेटा, पुत्री के विरह से हम माता-पिता अत्यंत व्यथित हैं...। पुत्री के बगैर हमारी जिन्दगी का कोई मतलब ही नहीं रहा है...। कुमार, तू जल्दी कह बेटा! मेरी वह लाड़ली राजकुमारी जहाँ है वहाँ कुशल तो है ना? उसे कुछ हुआ तो नहीं है ना?' ___ अन्तःपुर में महारानी प्रियंगुमंजरी को कुमार मेघनाद के समाचार मिल गये थे। महारानी बावरी-सी होकर दौड़ती हुई आकर स्वयंवर मंडप में परदे की ओट में आसन पर बैठ गयी थी। राजमहल के एक-एक स्त्री-पुरुष आकर मंडप में जमा हो गये थे। सभी राजा व राजकुमार भी राजकुमारी के बारे में जानने के लिये उत्सुक होकर मेघनाद को ताक रहे थे। For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ८ महाराजा मदनसुन्दर ने अपने राजसिंहासन के निकट ही एक सुन्दर सिंहासन रखवा कर उस पर मेघनाद को बिठाया । मेघनाद ने कुछ क्षणों के लिए आँखें मूँद ली... फिर उसने वक्तव्य चालू किया : 'हेमांगद नाम का एक विद्याधर आकाशमार्ग से जा रहा था। चंपानगरी के ऊपर से उसका विमान गुजर रहा था। उसने राजमहल के झरोखे में बैठी हुई राजकुमारी को देखा। वह राजकुमारी के सौन्दर्य पर मुग्ध हो उठा। विमान को आकाश में ही रोक कर सहसा वह नीचे आया... । राजकुमारी को उठाया और अपने विमान में सवार हो गया । और फिर विमान लेकर वह 'रत्नसानु' नामक पर्वत पर गया है। 'रत्नसानु' पर्वत यहाँ से एक हजार योजन जितना दूर है। उस पहाड़ पर एक गुफा में उसने राजकुमारी को रखा है। उस विद्याधर ने राजकुमारी को मीठी-मीठी बातें करके उसे समझाने की भरसक कोशिश की कि 'तू मेरे साथ शादी कर ।' उसने काफी अनुनय किया। पर राजकुमारी ने उसकी बात का स्पष्ट इन्कार कर दिया। उसने कहा : 'जो आदमी मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करेगा वही मेरा पति बनेगा । तू तो घोखेबाज है ! तूने कपटपूर्वक मेरा अपहरण किया है... मैं तेरा काला मुँह देखना भी नहीं चाहती!' विद्याधर ने सोचा कि 'अभी तत्काल शायद यह मेरी बात नहीं मानेगी । कुछ दिन बीतने पर मैं उसे मना लूँगा । वह मान जायेगी ! फिर मैं उसे शादी के लिये राजी कर लूँगा। अभी उसे यहीं पर रख कर .... पूरा चौकी- - पहरा रखकर मैं अपने घर जाऊँगा ।' उसने उस गुफा के द्वार पर राक्षसी विद्या को सुरक्षा के लिये रखा है और स्वयं अपने नगर में चला गया है। राक्षसी विद्या ने गीध पक्षी का रूप बनाया है। वह हमेशा कुछ न कुछ बोल रही मैं उसकी भाषा जान सकता हूँ...! समझ सकता हूँ। वह कभी कहती है : 'तुम कुशल हो...!' कभी बोलती है... ओह, तुम यहाँ क्यों आये ? भाग जाओ यहाँ से...!' जो मनुष्य इस राक्षसी विद्या के वचन सुनता है उसे शीघ्र खून की उल्टी होती है! वह जमीन पर लोटने लगता है और तुरन्त मौत का शिकार बन जाता है। ऐसी राक्षसी विद्या को सुरक्षा - पहरे के लिये रखा गया है। इस राक्षसी विद्या को जब तक वहाँ से हटाया न जाय तब तक राजकुमारी को वापस लाना संभव नहीं होगा । उसे दूर करने का उपाय है-शब्दभेदी बाणों For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ९ के द्वारा उसका मुँह भर देना ! उसका मुँह बन्द हो जायेगा ! तब अपने आप उसकी शक्ति नष्ट हो जायेगी... शक्ति नष्ट होते ही वह वहाँ से भाग जायेगी... और इस तरह राजकुमारी को वापस लाया जा सकेगा। महाराजा मदनसुन्दर और सभी लोग ऊँची साँस में सारी बाते सुनते रहे । उनके विस्मय की सीमा न रही । महाराजा ने कहा : 'कुमार, तेरा ज्ञान अद्भुत है! तेरी जितनी प्रशंसा करूँ उतनी कम है ! राजकुमारी का वृत्तांत कहकर तूने हमें आश्वस्त किया है । हमारी आधी चिन्ता तो दूर हो ही गयी है... । वत्स, अब तू ही उस रत्नसानु पर्वत पर जाकर राजकुमारी को वापस ले आ! हमारे मुरझाये हुए प्राणों को प्रफुल्लित कर । सभी कलाओं में तू निपुण है! तेरे सिवा और कोई आदमी इस काम को करने में समर्थ है कहाँ!' मेघनाद ने कहा : ‘महाराजा, आप तनिक भी चिंता न करें। मैं राजकुमारी की प्रतिज्ञा पूरी करके ही रहूँगा । आप एक सौ श्रेष्ठ सैनिक तैयार कीजिये । मैं लकड़ी के गरुड़पक्षी तैयार करता हूँ । उन पर सवारी करके उन सौ सैनिकों के साथ मैं रत्नसानु पर्वत पर जाऊँगा ।' राजा ने सौ चुनंदे सैनिकों को शस्त्रसज्ज होने की आज्ञा दी। मेघनाद ने अपनी अपूर्व शिल्पकला से लकड़ी के एक सौ एक गरुड़ बना दिये। उन सब में ऐसी यंत्र रचना की कि वे आकाश में उड़ सकें! मुख्य गरुड़ पर खुद मेघनाद बैठा। उसने अपने साथ एक हजार बाण लिये और प्रचंड धनुष भी अपने कंधे पर लटका दिया। महाराजा को प्रणाम करके उसने अपने गरुड़ को आकाशमार्ग में गतिशील किया। उसके पीछेपीछे सौ सैनिकों के गरुड़ उड़ने लगे। देखते ही देखते वे सब गरुड़ आकाश में अदृश्य हो गये। राजा को, रानी को और सभी को पूरा भरोसा हो गया था कि 'मेघनाद जरुर राजकुमारी को लेकर ही वापस आयेगा ।' उन्होंने मेघनाद की कला और उसका ज्ञान नजरों से देखा था! समग्र नगर में आनन्द की लहर छा गई थी । परंतु वे बेचारे राजा और राजकुमार जो कि बड़ी आशा लेकर आये थे राजकुमारी के स्वयंवर में, उनकी खुशी तो कपूर बन कर उड़ गयी। फिर भी मेघनाद के ज्ञान से, उसकी कला से, उसके पराक्रम से वे सब काफी प्रभावित हुए थे । इसलिये वे अपने-अपने For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १० घर वापस न लौटते हुए वहीं पर रुके। राजकुमार मेघनाद राजकुमारी मदनमंजरी को वापस लेकर आये उसके बाद ही वहाँ से जाने का निर्णय किया। ___ मेघनाद सौ सैनिकों के साथ कुछ ही समय में रत्नसानु पर्वत पर पहुँच गया। उसने अपने निमित्तशास्त्र से राजकुमारी किस गुफा में है...यह जान लिया था। सैनिकों के साथ वह गुफा के पास गया । इतने में तो वह राक्षसी विद्या जो कि गीध का रूप लिये खड़ी थी, जोर-जोर से चिल्लाने लगी। राक्षसी विद्या की आवाज सुनने के साथ ही कुमार मेघनाद के साथ आये हुए सौ सैनिक बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गये! ३. मेघनाद मौत के मुँह में! राक्षसी विद्या के प्रभाव से अपने सैनिकों को बेहोश हुआ देखकर कुमार मेघनाद गुस्से से तमतमा उठा | उसने एक पत्थर की चट्टान की ओट में खड़े होकर धनुष हाथ में उठाया । धनुष पर शब्दवेधी बाण चढ़ाया और तीर चलाना शुरू किया। इतने तीव्र वेग से वह तीर फेंकने लगा कि पाँच-दस पल में तो गीध पक्षिणी का मुँह तीरों से भर गया। राक्षसी विद्या का प्रभाव उतरने लगा और वह राक्षसी वहाँ से दूम दबा कर भाग गई। कुमार के सैनिक अब धीरे-धीरे बेहोशी में से बाहर आ रहे थे। इधर राजकुमारी तो विद्या के चले जाते ही मेघनाद के पास आकर खड़ी हो गई थी। राजकुमारी मेघनाद को जानती नहीं थी। वह जाने भी कैसे? वह तो पहली बार ही मेघनाद को देख रही थी। बेहोशी दूर होते ही सैनिक खड़े हो गये। उन्होंने राजकुमार को प्रणाम किया। फिर राजकुमारी की तरफ मुड़कर उसे प्रणाम करके बोले : 'राजकुमारीजी, इन राजकुमार मेघनाद ने तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी की है। इन्होंने अपने निमित्तशास्त्र से तुम्हारा सारा वृत्तांत महाराजा के समक्ष भरी राजसभा में कह बताया था। इन्होंने अपनी अद्भुत शिल्पकला का परिचय देते हुए ये लकड़ी के गरुड़ बनाये, जिन पर सवार होकर हम सब यहाँ आ सके। इन्होंने ही शब्दवेधी तीरों की वर्षा करके उस मायावी गीध पक्षीणी को यहाँ से मार भगाई। For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११ मायावी रानी और कुमार मेघनाद देवी, यह कुमार महाराजा लक्ष्मीपति के सुपुत्र हैं। ज्ञान-बुद्धि और कलाओं के खजाने जैसे हैं। तुम्हारे महान् भाग्य से प्रेरित होकर ही वे स्वयंवर में बिना निमंत्रण भी पधारे थे। यदि ये न आते तो तुम्हें ऐसे भयंकर स्थान से छुड़वाता कौन?' राजकुमारी का अंग-अंग सिहर उठा! उसने शरम से नीची झुकी निगाहों से राजकुमार को देखा | मन ही मन उसने कुमार को अपने पति के रूप में मान लिया। उसका हृदय खुशी से नाचने लगा था। अपनी पीड़ा, अपना दुःख, अपनी परेशानी... सब वह जैसे भूल चुकी थी। उसके दिल-दिमाग पर राजकुमार मेघनाद ने कब्जा जमा लिया था। सैनिकों के सेनापति ने कुमार को नमन करके विनती की : 'महाराजकुमार, अब हमें तनिक भी विलंब किये बगैर चंपानगरी पहुँच जाना चाहिए। यदि देर होगी तो महराजा और महारानी हमारा सबका अपहरण हुआ जानकर, शायद अग्नि में प्रवेश कर दें!' कुमार ने कहा : ___ 'सभी अपने-अपने गरुड़ पर बैठ जाओ...।' राजकुमारी को मेघनाद ने अपने गरुड़ पर बिठा लिया और गरुड़ आकाश में उड़ने लगा। चंपानगरी में महाराजा और अन्य सभी स्त्री-पुरुष आकाश की ओर चातक की निगाहों से देख रहे थे। सभी इंतजार की आग में सुलग रहे थे। एक-एक पल जैसे एक-एक बरस सा बीत रहा था। और...एक खुशी की चीख नीकली...'गरुड़ आये...गरुड़ आये...!' दूर-दूर क्षितिज पर बिन्दु उभरने लगे। देखते ही देखते वे बिन्दु गरुड़ में बदल गये। वे गरुड़ नगरी में उतरने लगे। राजा-रानी दौड़ते हुए राजकुमार के पास पहुँचे। राजकुमारी को देखते ही रानी ने उसे अपने सीने से लगा लिया। राजा ने राजकुमार को अपने उत्संग में खींच लिया। राजा-रानी की आँखे आँसू बहाने लगी। सैनिकों को विदा करके राजा-रानी कुमार और राजकुमारी को लेकर राजमहल में गये । अन्य राजा और राजकुमार स्वयंवर मंडप में कुमार मेघनाद और कुमारी मदनमंजरी की राह देखते हुए बैठे थे। स्नान-भोजन वगैरह से निवृत्त होकर राजा ने कुमार व कुमारी को अपने साथ लेकर स्वयंवर मंडप में प्रवेश किया। सभी राजाओं व राजकुमारों ने खड़े होकर उनका स्वागत किया। अभिवादन किया। For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १२ राजा मदनसुन्दर ने खड़े होकर, सभा को संबोधित करते हुए कहा : । 'राजेश्वरों और राजकुमारों, हमारे ऊपर परमात्मा जिनेश्वर देव की कृपा बरसी है। राजकुमारी सही-सलामत वापस लौटी है...। हम राजकुमार मेघनाद के उपकार को कभी भी नहीं भूल सकते। राजकुमार ने मदनमंजरी की प्रतिज्ञा पूरी की है, अतः मैं मदनमंजरी से अनुरोध करता हूँ कि वह राजकुमार के गले में वरमाला आरोपित करके सभी के मन को आनंदित करे।' ___ सोलह सिंगार सजाकर राजकुमारी हाथ में वरमाला लेकर मेघनाद के सामने आई। और उसने राजकुमार के गले में वरमाला आरोपित कर दी। 'राजकुमार मेघनाद की जय हो!' की आवाज से वातावरण गूंज उठा। सभी राजा और राजकुमार वगैरह ने मेघनाद को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। उसके साथ मैत्री का रिश्ता बाँधा। मेघनाद ने सभी को आदरपूर्वक बिदाई दी। राजा मदनसुन्दर ने मेघनाद को एक सुन्दर महल दिया। मदनमंजरी के साथ राजकुमार मेघनाद उस महल में सुख-चैन से रहने लगा। चंपानगरी के प्रजाजन रात-दिन मेघनाद के व्यक्तित्व की प्रशंसा करने लगे। ___ एक दिन मेघनाद ने मदनमंजरी से कहा : 'देवी, अब हमको रंगावती नगरी जाना चाहिए। मेरे माता-पिता विरह से व्यथित होंगे।' मेघनाद ने राजा मदनसुन्दर से बात की। राजा मदनसुन्दर और रानी प्रियंगुमंजरी ने पहले तो काफी दुःख महसूस किया, पर बाद में 'बेटी तो आखिर पराया धन है, एक न एक दिन उसे बिदा तो करना ही है...।' मान कर अपने दिल को कड़ा किया। राजा ने अनेक हाथी-घोड़े भेट दिये । पाँच सौ सैनिकों की फौज दी। एक सुन्दर रथ दिया! सोना-चाँदी और हीरे-जवाहरात से ढंक दिया राजकुमार व राजकुमारी को! राजा-रानी ने मदनमंजरी को प्यार भरी हितशिक्षा दी। शुभ मुहूर्त में मेघनाद ने राजकुमारी के साथ रंगावती की ओर यात्रा प्रारंभ की। ___ सब से आगे पच्चीस हाथियों का काफिला चलता है...। उसके पीछे शस्त्रसज्ज सौ सैनिक कतारबद्ध चल रहे हैं। फिर राजकुमार का रथ चल रहा है...। और सब के बाद चार सौ सैनिक चल रहे हैं। इस तरह पूरा काफिला सज-धज कर चल रहा है। भोजन का वक्त होता है तो डेरे-तम्बू डालकर पड़ाव रखा जाता है | भोजन For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १3 मायावी रानी और कुमार मेघनाद व आराम होने के पश्चात वापस यात्रा चालू होती है। रात के समय पड़ाव लगता है। यों करते-करते दस दिन बीत गये । कुमार के काफिले ने उस राक्षस के जंगल में प्रवेश किया, जिस राक्षस से मिलने का वादा राजकुमार ने किया था। सेनापति ने सभी से सावधानी रखकर चलने की सूचना दी। संध्या का समय हुआ। राजकुमार ने सेनापति को बुलाकर कहा : 'सेनापति, आज रात का पड़ाव इसी जंगल में कोई अच्छी जगह देखकर डाल दीजिये! रात यहाँ बिता कर सबेरे आगे चलेंगे।' ‘पर कुमार... यह जंगल डरावना एवं बीहड़ है...हम जंगल को पूरा करके बाद में विश्राम करें तो?' _ 'ओफ्फोह, तुम भी क्या डरपोक जैसी बातें कर रहे हो? इतने सारे सैनिक अपने साथ हैं, तुम हो, और फिर मैं बैठा हूँ ना? क्यों चिंता करते हो? पड़ाव इसी जंगल में डालना है...। मैं कहूँ वैसे करो!' जंगल में लग गये डेरे-तम्बू! राजकुमार साँझ की घिरती बेला में परमात्मा का पूजन करने के लिये बैठ गया। दो घंटों तक वह परमात्मा का पूजन-ध्यान करता रहा। फिर मदनमंजरी के साथ गपशप करने में रात के तीन घंटे बीत गये। श्री नमस्कार महामंत्र का स्मरण करके राजकुमार सोने की तैयारी करता है...। अचानक उसके दिल में राक्षस को दिया हुआ वचन याद आता है! राक्षस का चेहरा... उसके साथ की हुई बात बिजली की तरह कौंधी उसके दिमाग में! उसकी नींद उड़ गई। वह सोचने लगा : 'मुझे मेरा वचन तो निभाना ही चाहिए। मुझे जाना ही चाहिए राक्षस के पास! वह मेरे शरीर को खा जाये तो भी परवाह नहीं! मैं जाऊँगा जरुर उसके पास! पर फिर मेरी इस पत्नी का क्या होगा? इसका मुझ पर कितना प्यार है... यह मेरा विरह सह नहीं पायेगी...। मेरे पीछे यह भी शायद जान दे देगी।' कुमार गहरे सोच में डूब गया। वह सोचता है : ___ 'मेरी यह पत्नी चाहे अपने प्राणों को त्याग दे... मेरा राज्य लुट जाये तो भी गम नहीं...चाहे मेरी जान भी चली जाये तो शिकवा नहीं...फिर भी मैं अपना वचन जरुर निभाऊँगा! वचन से मुकर कर जीने का क्या मतलब? तो क्या यह सो जाये तब मैं गुपचुप चला जाऊँ यहाँ से? नहीं... नहीं... For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ मायावी रानी और कुमार मेघनाद यह तो धोखा होगा...। इससे बेहतर है, मैं इसे बता कर ही जाऊँ! शादी के वक्त मैने इसका दाहिना हाथ मेरे हाथ में लेकर विश्वास दिया था। इसको मुझ पर कितना भरोसा है...! मैं इसको धोखा कैसे दूँ? राक्षस के पास जाने का कारण भी बता देना चाहिए इसे!' यों सोचकर उसने मदनमंजरी से सारी बात की। मदनमंजरी तो सुन कर कुमार से लिपट गई... और मासूम कबूतरी की भाँति काँपती हुई बोली : 'नहीं...कुमार...नहीं...मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगी! तुम जाओगे तो वापस जिन्दा नहीं लौटोगे! तब फिर मेरे जीने का भी क्या मतलब? मैं भी अपने प्राण त्याग दूँगी! और... मेरी बात जाने दो... तुम अपने माता-पिता के बारे में तो सोचो! उन्हें कितना दुःख होगा? वे भी तुम्हारी जुदाई को सह नहीं सकेंगे...! वे भी प्राण त्याग देंगे! इसलिये अब एक पल की भी देरी किये वगैर यहाँ से हम रात में ही चल दें...| इस जंगल को पार कर लें...!!!' मेघनाद ने कहा : ‘पर देवी! मैं अपनी प्रतिज्ञा को कैसे तोड़ दूँ? गुणी व्यक्ति अपनी जान की बाजी लगाकर भी दिया हुआ वचन निभाता है। वचन निभाने के लिये चाहे जंगलों में भटकना पड़े...आग में जलना पड़े...राजपाट छोड़ के निकलना पड़े... पर मैं जरुर जाऊँगा उस राक्षस के पास! तू मुझे माफ कर... मैं तेरी बात नहीं मान सकता!' मेघनाद ने कहा : 'देवी... तु धैर्य रख। यहीं पर रुक । मेरे जाने के बाद यदि रात की अंतिम घड़ी में भी मैं वापस न लौ, तो तू मेरी तलाश करवाना... और फिर तुझे जो उचित लगे वह करना। अभी तो मुझे अकेला ही जाने दे!' कुमार अकेला ही वहाँ से चल दिया-खुद मौत के मुँह मैं, राक्षस के पास! ४. जादुई कटोरा मिला! राक्षस की दी हुई निशानी के मुताबिक मेघनाद राक्षस के महल में पहुँच गया। वहाँ जाकर उसने राक्षस का अभिवादन करके कहा : 'राक्षसराज! मैंने आपको वचन दिया था कि वापस लौटते वक्त मैं आपके पास आऊँगा। तुम्हारी कृपा से चंपानगरी की राजकुमारी से मेरा ब्याह हो गया है। अब जैसी आपकी इच्छा हो वैसा आप करें।' राक्षस भूखा था। कई दिनों से उसे आदमी का मांस नहीं मिला था। कुमार For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १५ को-अपने शिकार को सामने आया हुआ देखकर राक्षस खुशी से नाचने लगा! वह अपनी छोटी तलवार लेकर राजकुमार के ऊपर झपटा! इतने में... ___ 'ओ पापी... दुष्ट... मेरे पति को मत मार... मारना है तो मुझे मार...।' चिल्लाती हुई मदनमंजरी कुमार के समक्ष आकर खड़ी हो गयी। __ कुमार तो अचानक मदनमंजरी को वहाँ पर आई देखकर स्तब्ध रह गया । राक्षस भी पहले तो सहमकर चार कदम पीछे हट गया । पर मंजरी का साहस देखकर राक्षस प्रसन्न हो उठा। उसने पूछा : 'तू कौन है? और इस आदमी को बचाने के लिये यहाँ पर क्यों आई है? मदनमंजरी ने अपनी आवाज को धीमी करते हुए कहा : 'राक्षसराज, यह मेरे पति हैं... और प्रजा का पालन करनेवाले राजा हैं...। इन्हें छोड़ दो! और यदि आपको भक्ष्य ही चाहिए तो मेरे शरीर का भक्षण कर लो खुशी से!' राक्षस ने कहा : 'यह हमारे राक्षसों का आचार नहीं है...। हम कभी किसी स्त्री की... बच्चों की और रोगी की हत्या नहीं करते हैं...। मैं तेरे शरीर का वध नहीं कर सकता! मदनमंजरी ने कहा : 'आपका कहाना सच है। परन्तु यदि आप मेरे पति की हत्या करोगे तो पति विरह में मैं थोड़े ही जिन्दा रहँगी? मैं भी प्राणत्याग करूँगी ही! मेरे पति की मौत के साथ ही मेरी मौत भी निश्चित है।' और मदनमजंरी करुण क्रंदन करने लगी। फूट-फूट कर रोने लगी। राक्षस का हृदय पसीजने लगा। उसे मदनमंजरी पर दया आ गई। वह अपने आसन पर से खड़ा हुआ। अपने मकान के भीतरी कमरे में जाकर एक रत्नों का बना हुआ कटोरा ले आया। वह कटोरा मंजरी को बता कर उसने कहा : 'ओ शीलवती, यह कटोरा मैं तुझे दे देता हूँ! यह कटोरा मुझे नागराज धरणेन्द्र ने स्वयं दिया था। इसके लिये मैंने बारह बरस तक उल्टा सिर लटकाये हुए जंगल में तपश्चर्या की है...। यह कटोरा मनचाही सभी चीजवस्तु देता है।' मदनमंजरी ने पूछा : 'यदि यह कटोरा सब कुछ देता है, तब फिर आप मेरे पति की हत्या क्यों करते हैं?' For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १६ राक्षस ने कहा : 'यह कटोरा आदमी का मांस नहीं देता है। इससे मैं आदमी का मांस माँग भी नहीं सकता! और मेरे पापों के कारण मुझे आदमी का मांस खाने की आदत पड़ गयी है...| पीछले छह महीनों से मैंने आदमी का मांस चखा नहीं है। मैं भूख से जल रहा हूँ! मेरी किस्मत है... मुझे ऐसा कोमल शरीरवाला आदमी आज मिल गया है, भोजन के लिये! उसमें तू रुकावट करने आ गयी... और कोई ऐरी-गैरी औरत होती तो मैं परवाह भी नहीं करता! पर तू पतिव्रता-शीलवती नारी है...। तू शील का कवच पहन कर आयी है, मैं तुझे कुछ नहीं कर सकता! मैं नीच जाति का हूँ! फिर भी तेरी पतिभक्ति से, तेरे शीलव्रत से और तेरी साहसिकता से मेरा मन तेरे ऊपर रीझ उठा है...। तुझ पर मुझे दया आती है | मैं जानता हूँ कि तुच्छ मांस के लोभ में मैं यह दिव्य कटोरा देने की बड़ी मूर्खता कर रहा हूँ...। एक फूटी कौड़ी के लिये जैसे कीमती चिंतामणी रत्न लुटा रहा हूँ...| ले यह कटोरा...!!' राक्षस ने मदनमंजरी को दिव्य कटोरा दे दिया। राक्षस ने कटोरा देकर कहा : 'यह कटोरा तुझे जिन्दगी भर तक सुख-वैभव देगा। और मैं भी तेरे इस पति का भक्षण करके तृप्त हो जाऊँगा! अब तू स्वस्थ होकर अपने स्थान पर चली जा, तेरा कल्याण होगा!' मदनमंजरी अजीब उलझन में फँस गई, पर उसके दिमाग में अचानक कुछ सूझा । उसने राक्षस को हाथ जोड़कर कहा : 'राक्षसराज, आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है यह दिव्य कटोरा देकर! इसके प्रभाव से सभी प्रकार की सिद्धि मुझे प्राप्त होगी ही। मुझे इसमें तनिक भी संदेह नहीं है...चूंकि देवों का वचन मिथ्या या झूठा नहीं होता है। परन्तु स्त्रीयाँ हमेशा अधीर होती हैं...। हमारा स्वभाव ही कुछ वैसा होता है। इसलिये आपके दिये हुए इस कटोरे की मैं परीक्षा करना चाहती हूँ! आपके समक्ष ही मैं परीक्षा करूँगी! जब तक परीक्षा पूरी न हो तब तक आप मेरे पति को नहीं मारोगे-ऐसा वचन मुझे दीजिए।' राक्षस ने कहा : 'ठीक है... तू परीक्षा कर ले, मैं तेरे पति को बाद में मारूँगा।' मदनमंजरी खुशी से नाच उठी। उसने दोनों हाथों में कटोरा रखा और भक्तिभाव पूर्वक नागराज धरणेन्द्र का स्मरण करके बोली - For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ मायावी रानी और कुमार मेघनाद 'हे नागेन्द्र, आप स्नेहभरी दृष्टि से मुझे देखिए... और मुझे आप पति रूप भिक्षा दें।' यह सुनते ही राक्षस बिफर उठा! वह गुस्से से बौखला उठा। वह समझ गया कि मंजरी ने उसे ठग लिया है...। वह एकदम कटारी लेकर कुमार की तरफ दौड़ा मारने के लिये... इतने में नागराज धरणेन्द्र स्वयं वहाँ पर प्रगट हुए! राक्षस का कटारीवाला हाथ आकाश में ऊपर ही लटकता रहा...| उसकी आँखो में भय की आशंका घिर आयी । नागेन्द्र ने उसका घोर तिरस्कार करते हुए उसे ऐसी लात मारी कि वहीं पर उसका काम पूरा हो गया! ___ मेघनाद और मदनमंजरी ने भक्तिभाव से नागराज के चरणों में वन्दना की। नागेन्द्र ने प्रसन्न होकर कहा : ___ 'कुमार-कुमारी, मैं इस कटोरे का अधिष्ठायक देव नागराज धरणेन्द्र स्वयं हूँ | इस राक्षस ने जो कि एक मनुष्य था, बारह बरस तक जंगल में रह कर तपश्चर्या की थी। औंधे सिर लटक कर जाप किया था...। इस तरह उसने मेरी आराधना की थी। उस पर प्रसन्न होकर मैंने यह दिव्य कटोरा उसे दिया था । पर ऐसी चिंतामणी रत्न-सी दिव्य वस्तु पुण्यहीन आदमी के नसीब में नहीं होती है! तुम दोनों ने गत जन्म में जो धर्म-आराधना की है, उसके प्रभाव से इस जन्म में बिना कोई तपश्चर्या किये यह कटोरा अनायास तुम्हें प्राप्त हो गया है। मेरी कृपा से जीवन पर्यन्त तुम्हें इससे सभी प्रकार के सुख प्राप्त होंगे। हालाँकि तुम्हारी जिन्दगी में छह महीने का एक ऐसा समय आयेगा... जब तुम्हें दुःख का सामना करना होगा...। उस समय यह कटोरा भी काम नहीं आयेगा, पर बाद में सब ठीक हो जायेगा!' । यों कहकर नागराज धरणेन्द्र अदृश्य हो गये। मेघनाद छलकती खुशियों को पलकों पर सँजोये भीनी निगाहों से मदनमंजरी के सामने देखता रहा। मदनमंजरी के साहस-पराक्रम से एवं उसकी चतुराई से वह बड़ा प्रसन्न हो उठा था। मेघनाद ने कहा : 'प्रिये, तेरा साहस गजब का है। मुझ पर तेरा प्रेम भी कितना अद्भुत है। तेरी चतुराई भी कितनी अजब की है! यदि तू मेरे पीछे-पीछे नहीं आई होती तो शायद मैं जिन्दा होता या नहीं भी होता! राज्य भी नहीं होता... और यह दिव्य कटोरा भी नहीं मिल पाता! आज के बाद भविष्य में चाहे अनेक राजकुमारियाँ मेरी पत्नियाँ बनेगी पर मेरी पट्टरानी तो तू ही है और रहेगी!' For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १८ मदनमंजरी ने कहा : 'स्वामी, यह सारा प्रभाव तो आपके प्रतिज्ञा पालन के धर्म का है। अब हम जल्दी-जल्दी अपने पड़ाव पर पहुँच जायें... चूँकि रात की केवल एक घड़ी ही बाकी है... वहाँ पर कहीं सब अपने बारे में चिंता न करने लग जाएँ!' __ दोनों जल्दी-जल्दी अपने पड़ाव में पहुँच गये। दिव्य कटोरे को रथ में ही उचित जगह पर रख दिया। स्नान वगैरह से निवृत्त होकर दोनों ने परमात्मा की पूजा की। दुग्धपान करके तैयार होकर आगे प्रस्थान किया। ___ अभी तो उन्हें पंद्रह दिन तक रास्ता तय करना था। कुमार की इच्छा तो दस ही दिन में घर पहुँच जाने की थी, उसने यात्रा को वेगवान भी बनायी। परन्तु आदमी सोचता है कुछ, और होता है, कुछ और ही! ___ एलापुर गाँव में वे दोपहर को पहुँचे। भोजन के लिये पड़ाव डाला। वहाँ पर एक नई आफत ने आ घेरा राजकुमार और राजकुमारी को! ५. नई आफत में फँसे! मेघनाद ने मध्याह्नकालीन पूजा वगैरह कार्य किया और जब वह भोजन करने के लिये भोजनालय में गया तो वहाँ पर उसने अजीब-सी बात देखी! वहाँ एक नहीं पर दो मदनमंजरी हाजिर थी। राजकुमार के आश्चर्य का पार नहीं रहा। - एक सा रूप! - एक सी ऊँचाई! - एक से कपड़े! - एक सी भाषा! - सब कुछ एक सा... सब कुछ समान! कुमार मेघनाद ने सोचा : 'क्या मेरी पत्नी ने खुद दो रूप रचाये होंगे मेरी सेवा करने के लिये? या फिर मुझे ठगने के लिये किसी व्यंतर देवी ने मदनमंजरी का रूप रचाया होगा? या फिर कहीं मुझे दृष्टिभ्रम तो नहीं हो रहा है? जिससे मुझे दो मदनमंजरी दिख रही है! उसने अपनी आँखें मसली और फिर गौर से देखा...तो फिर भी दो मदनमंजरी ही दिख रही थी! कुमार की बुद्धि बड़ी सूक्ष्म थी। उसने सच्ची मदनमंजरी खोजने के लिये काफी For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद १९ दिमाग लड़ाया | पर वह भेद नहीं सुलझा सका | उसने दोनों स्त्रियों से कह दिया- 'तुम्हें मुझे भोजन कराने की आवश्यकता नहीं है...। मैं खुद अपना भोजन कर लूँगा । और आज के बाद तुम में से किसी को मेरी सेवा नहीं करनी है।' __ वह भोजन करके अपने तंबू में गया । वह स्वयं अष्टांग निमित्त में पारंगत था। निष्णात था। उसने सच्ची-झूठी पत्नी का भेद जानने के लिये अपने निमित्तशास्त्र से प्रयत्न किया। पर वह निष्फल रहा भेद खोलने में! दोनों स्त्रियाँ उचित समय पर परमात्मा की पूजा करती थी। दोनों साथ ही भोजन करती थी। दान देती थी...। स्नान वगैरह करती थी। जो क्रिया एक स्त्री करती... दूसरी भी ठीक वैसे ही करती थी। कुमार मेघनाद दोनों में से किसी भी स्त्री को अपने तंबू में आने नहीं देता है...। वह निराश हो गया। उसने नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि 'कोई भी मांत्रिक, तांत्रिक या विद्वान व्यक्ति सच्ची-झूठी मदनमंजरी को पहचान लेगा उसे एक करोड़ सोनामुहरें भेंट दूंगा।' । ___घोषणा सुनकर कई मांत्रिक आये! बहुतों ने मंत्र जाप किये...दोरे-ताजीब किये... धूनी रमाई... पर कोई परिणाम नहीं निकला! कई तांत्रिक आये...जमीन पर आकृतियाँ बनाई... त्रिकोण, चौकोर, षट्कोण...गोल... तरह-तरह के यन्त्र बनाये पर कुछ बात बनी नहीं। कई विद्वान आये... पंडित आये... शास्त्र पलटने लगे... पर भेद नहीं खोल पाये! सभी निराश होकर वापस लौट गये। कुमार मेघनाद ने एक अन्य उपाय किया। उसने लकड़ी की एक बड़ी पेटी बनायी। उसमें एक ही छेद रखवाया। दोनों मदनमंजरी को भीतर में सुलाया। उसने दोनों से कहा : 'जो स्त्री इस छेद में से बाहर निकलेगी उसे मैं सच्ची मदनमंजरी मानूँगा।' जो वास्तव में मदनमंजरी थी वह बोली : 'स्वामी, में तो एक मनुष्य औरत हूँ... मैं कैसे बाहर आ सकती हूँ इस छेद में से? जो देव-देवी हो... वो ही इस तरह बाहर आ सकते हैं!' ___ जो झूठी मदनमंजरी थी उसने भी वही बात कही। 'स्वामिन्, मैं तो मनुष्य स्त्री हूँ... मैं इस छेद में से कैसे बाहर निकल सकती हूँ...? जो देव-देवी हों... वे ही इस छेद में से बाहर आ सकते हैं!' कुमार की द्विधा का पार नहीं रहा। उसने पेटी खोल कर दोनों स्त्रियों को For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद बाहर निकाला। दोनों स्त्रियाँ विलाप करती हैं, रोती हैं...। पर कुमार दोनों स्त्रियों को अपने से अलग रखता है। वह उदास-उदास होकर जीता है! न तो उसकी धनुषविद्या काम आती हैं... न उसका निमित्तज्ञान कुछ बताता है। उसकी अद्भुत कलाएँ भी बिल्कुल असहाय सी हो गयी...।। सच्ची मदनमंजरी की पीड़ा का पार नहीं है...। पति के विरह में वह रोरोकर दिन-प्रतिदिन कमजोर होती जा रही हैं...। इधर झूठी मदनमंजरी भी वैसी ही दुर्बल बनती जा रही है। यों करते-करते छह महीने बीत गये। एलापुर नगर के बाहर ही कुमार का पड़ाव था। छह महीने पूरे हुए कि एक दिन अचानक वास्तविक मदनमंजरी को, राक्षस का दिया हुआ नागराज से अधिष्ठित कटोरा याद आ गया! वह गुपचुप चली गई...उस तंबू में, जहाँ पर जिनमंदिर था। उसने परमात्मा की पूजा की। फिर फूलों से कटोरे की पूजा करके वह बोली : 'हे नागेन्द्र! आप मेरे पर प्रसन्न बनें! आप तो विनम्र भक्तजनों को सहायता करने के लिये जाग्रत देव हो! यह कोई दुष्ट देव मुझे छह-छह महीनों से सता रहा है!' तुरंत ही नागराज धरणेन्द्र प्रगट हुए | तंबू के बाहर छुप कर खड़ी हुई बनावटी मदनमंजरी की चोटी पकड़कर नागराज ने उसका घोर तिरस्कार किया। 'अरि दुष्टा, मैं तुझे अभी ही मार डालूँगा | तूने इस दंपति को आफत में डालकर मेरा भयंकर अपराध किया है।' ___ वह बनावटी मदनमंजरी तो बेचारी डर के मारे काँपने लगी...| नागराज घरणेन्द्र के सामने उसकी बनावट चलने वाली नहीं थी। धीरे-धीरे उसने अपना वास्तविक रूप प्रगट किया...। दोनों हाथ जोड़कर नागराज के चरणों में गिरती हुई...दीन-हीन बनकर गिड़गिड़ाने लगी : 'मेरे अपराध माफ करो... ओ नागराज, आपने जिस राक्षस को मार डाला था, मैं उस राक्षस की बहन हूँ | मेरा नाम 'भ्रमरशीला' है । अपने भाई की मौत से मैं अत्यन्त क्षुब्ध थी। आपका तो मैं कुछ बिगाड़ नहीं सकती थी! इसलिये गुस्से में तमतमाकर बदला लेने के लिये मैं इस दंपति के पास आई। पर जैसे मैंने इस कुमार को देखा, मेरा गुस्सा पिघल गया...। यह कुमार मुझे अच्छा लगने लगा। इसका रूप मुझे भा गया । पर मैंने जाना कि कुमार अपनी पत्नी के अलावा किसी स्त्री से बात तक नहीं करता है, तब मैंने मदनमंजरी का रूप रचाया। इस मदनमंजरी को उठाकर मैंने दूसरे प्रदेश में रख देने का सोचा। पर इसके शीलधर्म के प्रभाव के कारण मैं इसको कुछ नहीं कर सकी। मैं For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २१ इसकी आँखों से आँखें मिलाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाई । और फिर इसके हृदय में धर्म बसा हुआ है। मैं इसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकी! फिर मैंने मदनमंजरी के रूप में, अनेक प्रकार के हावभाव करके कुमार को वश में करने की कोशिश की। पर कुमार की पलकों में भी प्रेम या आकर्षण नहीं जग पाया मेरे प्रति! यह कुमार तो मेरू पर्वत जैसा अडिग और निश्चल है। क्या तूफानी हवा या आँधी-अँधड़ में पर्वत कभी हिलते भी हैं ? इस कुमार का दिल तो वज्र सा सख्त है...। वरना तो कभी का मेरे नाज नखरे से पसीज गया होता। यह मेरे रूप में बँध गया होता और मैं इसका खून पी लेती ! पर हे नागेन्द्र, मुझ पर कृपा करो। मेरे गुनाहों को माफ कर दो...। अब मैं इन्हें कभी नहीं सताऊँगी...।' नागेन्द्र से क्षमा माँगकर उस राक्षसी ने मेघनाद और मदनमंजरी से भी क्षमा माँगी। उसने कुमार को ' त्रैलोक्यविजय' नामक हार भेंट दिया । उसने कहा : 'कुमार, इस हार को पहन कर तू युद्ध के मैदान पर जायेगा तो तेरा अवश्यमेव विजय ही होगा । कभी तू युद्ध में पराजित नहीं हो सकेगा!' यों कहकर राक्षसी वहाँ से अदृश्य हो गई। नागराज भी दोनों को आशीर्वाद देकर अदृश्य हो गये । एलापुर में छह महीने बीत गये । कुमार मेघनाद अपने वतन रंगावती नगरी जाने के लिये उत्सुक हुआ । उसने शीघ्र ही प्रस्थान के लिये आदेश दिया। सभी तैयार हो गये और प्रयाण प्रारंभ हो गया । केवल तीन ही दिन में वे रंगावती नगरी के समीप पहुँच गये। कुमार ने अपने विचक्षण एवं मधुरभाषी राजदूतों को अपने पिता महाराजा लक्ष्मीपती की सेवा में भेजा । उन्होंने जाकर महाराजा को कुमार मेघनाद के आगमन के समाचार दिये । महाराजा लक्ष्मीपति तो समाचार सुनकर खुशी से पुलकित हो उठे। रानी कमलादेवी भी अपने लाड़ले के आगमन का समाचार जानकर आनंद से पागल हो उठी। दोनों अपने बेटे को नगर में लिवा लाने के लिये सज-धज कर नगर के बाहर आये । कुमार भी अपने विशाल काफिले के साथ रंगावती नगरी के बाहर पहुँच गया था। उसने दूर से ही देखा अपने माता-पिता को आते हुए ... । वह और मदनमंजरी दोनों तुरंत रथ में से उतर गये। वे पैदल चलकर आये और लक्ष्मीपति के चरणों में वंदना की । मदनमंजरी दूर खड़ी रही । मेघनाद ने पिता के चरण पकड़ लिये । राजा ने मेघनाद को दोनों हाथों से उठाकर अपने सीने For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २२ मायावी रानी और कुमार मेघनाद से लगा लिया। दोनों की आँखो में से हर्ष के आँसू मोती बन कर ढलक रहे थे। राजा कुमार को जी भरकर देख रहा है। पिता-पुत्र दोनों खड़े-खड़े वहीं पर देर तक बतियाते रहे। इधर रानी कमला ने बेटे को आशीर्वाद देकर अपनी बहू मदनमंजरी को अपने उत्संग में ले लिया। ___ अनेक प्रकार के वाद्य बज उठे। हजारों स्त्री-पुरुष जय-जयनाद करने लगे। कुमार के स्वागत यात्रा में नगर के हजारों नर-नारी सम्मिलित हुए थे। राजमार्ग पर स्वागतयात्रा घूमने लगी। कुमार और राजा एक रथ में बैठे थे। जबकि रानी कमला और मदनमंजरी दूसरे रथ में आरुढ़ हुए थे। कुमार ने राजमार्ग पर देखा तो कई स्त्री-पुरुष राजा को अभिवादन करते हुए नगर के बाहर की तरफ जा रहे थे। कुमार ने राजा से पूछा : 'ये लोग अभी-इस वक्त नगर के बाहर कहाँ जा रहे हैं?' राजा ने कहा : 'बेटा, नगर के बाहर उद्यान में श्री धर्मघोषसूरिजी नाम के महान ज्ञानी और पवित्र आचार्य पधारे हुए हैं। अज्ञानरूप अंधकार को दूर करने के लिये वे सूर्य की भाँति तेजस्वी हैं | ऐसे गुरुदेव का सानिध्य तो महान भाग्योदय से ही मिलता है। लोग गुरुदेव के दर्शनार्थ जा रहे हैं।' कुमार ने कहा : 'पिताजी, हम भी गुरुदेव के दर्शन करने के लिये चलें ।' 'वत्स, आज तो मैंने सारे नगर में तेरे व युवराज्ञी के आगमन की खुशहाली में महोत्सव का आयोजन किया है...अतः हम कल जायेंगे गुरुदेव के दर्शन करने के लिये।' ___'पिताजी, हम आज ही गुरुदेव को वंदन करने के लिये चलें। नगर में प्रवेश करते समय गुरुदेव के दर्शन होना यह तो परम मंगलकारी है। एक उत्सव में दूसरा उत्सव मिल जायेगा! दूध में शक्कर मिलेगी! साधु के दर्शन तो कल्याणकारी होते हैं... और फिर शुभ कार्य में देर क्या?' __महाराजा लक्ष्मीपति, कुमार की विवेकयुक्त मीठी वाणी सुनकर प्रसन्न हो उठे। उन्होंने शोभायात्रा को उद्यान की तरफ चलने की आज्ञा दी। उद्यान के बाहर रथ में से सभी नीचे उतरे और गुरुदेव श्री धर्मघोषसूरिजी के चरणों में पहुंचे। सूर्य जैसे तेजस्वी! For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २३ चन्द्र जैसे शीतल! कमलपत्र से निर्लेप! गुरुदेव के दर्शन करके, वंदन करके, विनयपूर्वक सभी जमीन पर बैठे। सैंकड़ों नगरवासी स्त्री-पुरुष भी वहाँ पर एकत्रित हुए थे। ___ गुरुदेव ने धर्म का उपदेश देना प्रारंभ किया। उनकी वाणी में जैसे शहद घुली हुई थी...सभी नर-नारी वाणी सुनने में रसलीन बन गये। गुरुदेव ने संसार के सुखों की असारता बतलायी। पुण्यकर्म और पापकर्म के फल बताये। धर्म के प्रभाव का वर्णन किया। परम सुखमय मोक्ष का स्वरूप समझाया। एक-एक बात तरह-तरह के उदाहरण दलीलें व तर्क देकर इतनी सरस शैली में बतलायी कि श्रोताओं के मन में वैराग्य की भावना जाग उठी। श्रोताओं के मन को आनंद मिला। उनके संताप दूर हो गये। सभी के हृदय को शांति मिली। राजा लक्ष्मीपति ने खड़े होकर, सर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर गुरुदेव से कहा : __'गुरुदेव, आत्मा पर लगे हुए अनंत-अनंत कर्मो का नाश करने के लिये मैं तत्पर बना हूँ। आपके धर्मोपदेश से मेरा मन सभी प्रकार के सांसारिक सुखों से विरक्त बना है। गुरुदेव, मैं आपके चरणों में अपना जीवन समर्पित करना चाहता हूँ। मुझे दीक्षा देकर, संसार सागर से पार उतारिये!' गुरुदेव ने कहा : 'राजन, अच्छे कार्य में अनेक प्रकार की बाधाएँ आती रहती हैं, इसलिये विलंब करना उचित नहीं हैं।' ___ कुमार मेघनाद ने भी खड़े होकर विनयपूर्वक गुरुदेव से कहा : 'ओ गुरुदेव! मैं भी इस संसार के तमाम सुखों से विरक्त बना हूँ। मुझे भी गृहस्थजीवन में नहीं जीना हैं...आप मुझे भी दीक्षा प्रदान करके भवसागर से पार करें।' गुरुदेव ने पल दो पल आँखे मूंदी और कुमार के भविष्य को अपने ध्यान के माध्यम से देखा। आँखे खोल कर उन्होंने कुमार से कहा : __ 'कुमार, तेरी भावना सुंदर है... चारित्रधर्म का पालन किये बगैर मोक्ष का मिलना संभव नहीं है... पर जैसे अशुभ कर्म भुगते बिना छुटकारा नहीं होता है... वैसे शुभ कर्मों के उदय को भी भोगना ही पड़ता है। पापकर्म लोहे की जंजीर है, तो पुण्यकर्म सोने की जंजीर। वत्स, तुझे तो अभी बहुत सारे For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २४ पुण्यकर्म का सुख भोगना है। एक लाख बरस तक तुझे संसार में जीना होगा। फिर तू इसी जीवन में दीक्षा लेगा और सभी कर्मों का नाश करके मोक्ष को प्राप्त करेगा। अभी तो गृहस्थजीवन में जीते हुए बारह व्रतों के पालन का धर्म तू अंगीकार कर ले, जिस से तेरे थोड़े-थोड़े कर्म नष्ट हो जायेंगे।' मदनमंजरी ने कुमार से कहा : 'स्वामिन, मैं भी बारह व्रत अंगीकार करना चाहती हूँ।' मेघनाद और मदनमंजरी ने बारह व्रत अंगीकार किये। प्रसन्नमन होकर राजा ने गुरुदेव को वंदना की और राजकुमार के साथ नगर की तरफ प्रस्थान किया। __ भोजन वगैरह से निवृत्त होकर राजा ने राजपुरोहित को बुलवाया। राजा ने पुरोहित से कहा : 'अब मैं शीघ्र ही दीक्षा लेना चाहता हूँ... अतः जल्दी से जल्दी जो शुभ मुहूर्त आता हो... उसमें कुमार का राज्याभिषेक करना है। ऐसा श्रेष्ठ मुहूर्त निकालिये कि उसी दिन मैं राजकुमार का राज्याभिषेक करके आत्मकल्याण के मार्ग पर प्रस्थान कर सकूँ! और कुमार भी प्रजा का अच्छी तरह पालन करे।' राजपुरोहित ने पंचांग खोला । मीन-मकर-मेष-कुंभ...गिना । कुछ गिनतियाँ लगाई मन ही मन और अक्षयतृतीया का श्रेष्ठ मुहूर्त निकाला। कुछ ही दिन बाकी थे। जोरों की तैयारियाँ होने लगी। इधर रानी कमला ने भी राजा से विनयपूर्वक निवेदन किया : 'स्वामिन, आप आत्मकल्याण करने के लिये तत्पर बने हैं... तो फिर मैं इस संसार में रह कर क्या करूँगी? मैं भी आप के साथ संयम का मार्ग ग्रहण करूँगी।' राजा लक्ष्मीपति की आँखे हर्ष के आँसुओं से भर आई। उन्होंने रानी को अनुमति दी। अक्षयतृतीय के दिन राजकुमार मेघनाद का राज्याभिषेक कर दिया गया और उसी दिन राजा-रानी ने संसार त्याग करके संयम का मार्ग ग्रहण किया। दीक्षा लेकर राजा-रानी ज्ञान-ध्यान और तीव्र तपश्चर्या करने लगे। उनकी आत्मा पर लगे पापकर्म नष्ट होने लगे। सभी कर्मों का नाश करके राजा-रानी की आत्माओं ने मोक्ष को प्राप्त किया। उन्हें परम सुख की प्राप्ति हुई। For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २५ कुमार मेघनाद अब राजा मेघनाद बन चुका था। कुमारी मदनमंजरी अब रानी मदनमंजरी बन गयी थी। राजा-रानी दोनों परमात्मा के दर्शन-पूजन करते हैं और उस दिव्य कटोरे की भी पूजा करते हैं। राजा-रानी जितना धन चाहते हैं...कटोरा उन्हें देता हैं...जो कोई दिव्य सुख उन्हें चाहिए वह कटोरे के प्रभाव से मिल जाता है। देवलोक के इन्द्र-इन्द्राणी जैसे सुखभोग में उनके दिन गुजरते हैं...बरस बीतते हैं। राजा-रानी दीन-दुःखी और गरीबों को रोजाना दस करोड़ सोनामुहरों का दान देते हैं। सज्जन पुरुष हमेशा उदारता से महान बनते हैं। राजा-रानी ने हजारों जिनमंदिर बनवाये...कुछ संगमरमर के, कुछ पत्थर के, तो कुछ सोने और चाँदी के जिनमंदिर बनवाये । पैसे का सदुपयोग इसको कहते हैं! राजा-रानी ने पाषाण की, चाँदी की, सोने की और रत्नों की करोड़ों जिनमूर्तियाँ बनवाई... जिसे जो अच्छा लगता हो... वह उसकी मूर्ति बनवाता है...राजा-रानी को भगवान बहुत अच्छे लगते थे... तो उन्होंने भगवान की मूर्तियाँ बनवाई। राजा-रानी जिनमंदिर में जाकर भव्य पूजाएँ रचाते थे। गीत-गान और नृत्य वगैरह करते थे। राजा-रानी प्रति वर्ष हजारों लोगों के साथ तीर्थयात्रा करते...रथयात्रा का आयोजन करते! गुणी व्यक्ति सत्कार्य करने में थकान अनुभव नहीं करते हैं! राजा ने अपने राज्य में हर प्रकार का कर-'टैक्स' माफ कर दिया था। हजारों श्रावकों को राजा ने करोड़पति बनाये और हजारों को लखपति बनाये...। प्रति माह राजा हजारों श्रावक-श्राविकाओं को प्रेम व आदर के साथ भोजन करवाता था। भोजन करवाकर उन्हें कीमती वस्त्र-अलंकार समर्पण करता। इस तरह साधर्मिक भक्ति करने से अनंत-अनंत पुण्य मिलता है...यह बात राजा अच्छी तरह जानता था । राजा-रानी दोनों सुबह-दोपहर-शाम को परमात्मा की विविध पूजा करते थे। पर्वतिथि व विशिष्ट दिनों में वे पौषध व्रत भी करते थे। रोजाना सुबह-शाम प्रतिक्रमण किया करते थे। हजारों राजाओं ने मेघनाद राजा को स्वेच्छया अपने सर्वश्रेष्ठ राजा के रूप में माना था। समुचे भारत पर मेघनाद राजा का प्रभाव छाया हुआ था। इस For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २६ तरह राज्य करते-करते मेघनाद और मदनमंजरी के जीवन के एक लाख बरस बीत गये! समय कहाँ बीत गया, पता ही नहीं लगा। ___ एक दिन राज्य के उपवन के माली ने आकर राजा मेघनाद से निवेदन किया : 'महाराजा, अपने उपवन में श्री पार्श्वदेव नाम के महान ज्ञानी गुरुदेव पधारे सुनकर राजा अत्यंत प्रसन्न हो उठा। उसने माली को सोने का हार भेंट दे दिया । राजा के तन-मन में खुशी की लहर दौड़ रही थी। राजा ने रानी को समाचार दिया। नगर में समाचार भिजवा दिये। ___ अपने पूरे राजपरिवार के साथ राजा मेघनाद आचार्य पार्श्वदेव के दर्शनवंदन करने के लिये उपवन की ओर चला। गुरुदेव पार्श्वदेव अवधिज्ञानी महात्मा थे। वे मनुष्य के भूतकाल को और भविष्यकाल को अच्छी तरह जान सकते थे, बता सकते थे। राजपरिवार के साथ राजा ने अत्यंत भावपूर्वक गुरुदेव को वंदना की और सभी विनयपूर्वक गुरुदेव के समक्ष बैठे | गुरुदेव ने मधुर वाणी में धर्म का उपदेश दिया। उपदेश पूर्ण होने के पश्चात् राजा मेघनाद ने खड़े होकर, सर झुकाकर, दोनों हाथ जोड़कर, गुरुदेव से पूछा : __'गुरुदेव, गत जन्म में मैंने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था कि जिससे मुझे इतना विशाल राज्य मिला और सभी मनोरथ पूर्ण करनेवाला दिव्य रत्नकटोरा मिला?' गुरुदेव ने कहा : 'राजन्, इसके लिये तुझे तेरे गत जन्म की कहानी सुनानी होगी।' 'कृपा कीजिये गुरुदेव...आप तो ज्ञानी हैं... मुझे कहिए मेरे गत जन्म की कहानी। ७. विवेक सबसे बड़ा गुण 'मेघनाद...अच्छी तरह मन लगा कर सुनना... मैं तेरे पूर्वजन्म की बात बता रहा हूँ। For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २७ इसी देश में शोर्यपुर नाम का नगर था। उस नगर में भीम नाम का एक व्यापारी रहता था। उसके पास एक बैलगाड़ी थी। वह बैलगाड़ी को किराये पर घुमाया करता था । यही उसका धंधा था । कभी बैल बीमार हो गया हो तो भीम खुद अपने सर पर सामान ढो कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाया करता था । भीम बड़ा लोभी था। उसकी पत्नी लोला भी एक नंबर की कंजूस थी । उनका इकलौता बेटा लाला भी पूरा मक्खीचूस था । मोटे-मोटे कपड़े पहनते और रूखा-सूखा खाना खाते । भीम कभी भी न तो किसी उत्सव में जाता था... न किसी धार्मिक स्थान में जाता था । कभी भी धर्म की बात या धर्म का उपदेश सुनने की तो बात ही नहीं थी! देवमंदिर देखकर वह मुँह बिचका कर रास्ता बदल लेता था । भीम ने अपनी पूरी जिंदगी कड़ी मजदूरी करके पूरे एक लाख रुपये कमाये थे। जब वह मौत के बिछावन पर सोया था... उसने अपने बेटे लाला को बुलाकर कहा : ‘देख, बेटा! मैंने अपना पसीना बहाकर एक लाख रुपये इकठ्ठे किये हैं । तू उन रुपयों को खर्च मत करना... पर सम्हाल कर रखना । मेरी तरह मेहनतमजदूरी करके पैसे इकट्ठे करना। मंदिर में जाना मत। साधुओं के पास तो जाना ही मत...। उनका उपदेश कभी मत सुनना । किसी भी उत्सव में कभी भाग नहीं लेना... नहीं तो सारे पैसे खतम हो जायेंगे!' भीम तो मर गया पर लाला तो उससे भी दो इंच बढ़कर कंजूस निकला । बाप की सलाह उसने ठीक मानी । उसने भी जीवनपर्यंत गाढ़ी मजदूरी करके एक लाख रुपये कमाये । उसको एक बेटा था। उसका नाम था रूपा...। लाला ने भी मरते समय रूपा को वैसी ही सलाह दी। रूपा को दो लाख रुपये मिले! लाला तो मर गया। रूपा ने बाप-दादों का धंधा चालू रखा। उसने भी एक लाख रुपये कमाये । उसके बेटे का नाम था धना । धना को रूपा ने तीन लाख रुपये दिये और रूपा मर गया । धना भी ठीक रूपा के जैसा ही कंजूस था । उसने रूपा की एक-एक बात मानी। धना की पत्नी का नाम था धन्या । वह बड़ी सदाचारी - गुणी सन्नारी थी । उसमें उदारता का गुण था । उसे धर्म अच्छा लगता...। उसे मंदिर, भगवान, गुरुदेव सब बहुत अच्छे लगते ...। पर वो बिचारी क्या करती ? उसे धना की For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद कंजूसाई-कृपणता जरा भी अच्छी नहीं लगती थी... पर वह कभी भी धना के साथ झगड़ा नहीं करती थी! धना अगर बगुले जैसा था...तो धन्या राजहंसी जैसी थी! धना काँच के टुकड़े जैसा था और धन्या थी लक्ष्मी के अवतार जैसी! कैसी बेमेल और बेढंगी जोड़ी थी! धना के पास पूरे तीन लाख रुपये थे...। फिर भी वह गरीब की भाँति गाढ़ी मजदूरी करता था! साधुओं के पास जाने का तो नाम तक नहीं! अरे, अपने रिश्तेदारों के साथ भी वह किसी तरह का व्यवहार नहीं रखता था! देवमंदिर की बात उसे कतई अच्छी नहीं लगती! यह सब देखकर धन्या को बड़ा दुःख होता...उसका दिल जल उठता... पर वो बेचारी करती भी क्या? मन ही मन कुढ़ कर रह जाती! आखिर उससे रहा नहीं गया...| एक दिन उसने हिम्मत करके धना से कह दिया : 'तुम्हें इस तरह गाढ़ी मजदूरी करते हुए शरम नहीं लगती? धन के लोभ में तुम्हारी बुद्धि जड़-सी हो गयी है...। अपने घर में अपने बाप-दादों का कमाया हुआ ढेर सारा धन है...। फिर भी तुम पुण्य-कार्य में एक भी पाई खर्च नहीं करते हो...| खुद न तो अच्छा खाते हो...न अच्छा कभी कुछ पहनते हो...| यह सब का सब यों का यों छोड़कर ही एक दिन जाना पड़ेगा! मौत के बाद क्या साथ ले जाना है? कफन के टुकड़े तो जेब भी नहीं होती! तुम्हारे पुरखों की जैसी गति हुई वैसी ही तुम्हारी होगी! अच्छा हो... तुम जरा विवेकवान बनो! धन्या ने देखा तो धना का चेहरा उतरा हुआ था... उसके चेहरे पर उदासी छाई हुई थी! धन्या ने पूछा : _ 'क्या हुआ? एकदम यों उदास क्यों हो गये हो? कुछ नुकसान हुआ है क्या? किसी ने तुम्हारा अपमान किया है क्या? बात क्या है?' धना ने कहा... 'नहीं रे... तू कहती है वैसा तो कुछ नहीं हुआ है, पर तूने आज उस ब्राह्मण को मुठ्ठी भरकर जो आटा दे दिया... यह देखकर मुझे बड़ी बेचैनी हो रही है। पैसे को इस तरह लुटाना मुझे जहर से भी खारा लगता है! तू जानती नहीं है... अरे...धन ही तो आदमी की बुद्धि है...धन ही रिद्धि है और धन ही तो सिद्धि है...| धन ही तो अपनी रक्षा करता है...। अरे पगली! धन ही For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद २९ तो आदमी का जीवन है...| तू इस तरह यदि फिजूल का खर्चा करती रही तो... थोड़े ही दिन में सारा पैसा लुट जायेगा...हम गरीब भिखारी हो जायेंगे!' धन्या बड़ी चतुर औरत थी। धना की बात सुनकर उसने कहा : __'ठीक है...अब के बाद मैं ऐसा खर्च नहीं करूँगी...आपको जो पसंद होगा वही करूँगी। पर मेरी एक बात तो आपको माननी ही होगी। जिस अच्छे कार्य करने में एक पाई का खर्च नहीं होता हो, वैसा एकाध पुण्यकार्य तो आप भी करो रोजाना! प्रतिदिन जिनमंदिर जाओ... भगवान के दर्शन करो... एक पाई का भी खर्चा नहीं लगेगा! साधु-पुरुषों को वंदन करने के लिए जाओ... उनका उपदेश सुनो... इसमें कहाँ एक पैसे का भी खर्च होगा?' धना ने कहा : 'नहीं रे...! साधुओं के पास तो कभी जाऊँगा ही नहीं...! साधु तो मीठीमीठी बातें करके मुझे ठग लें...। वो तो कहेंगे..'मंदिर बना...भगवान की मूर्ति बना... साधु को आहार-पानी दे... तीर्थयात्रा कर... गरीबों को दान दे... धर्म की किताबें लिखवा...शास्त्र की पूजा कर...!' और यह सब मैं करूँ तो मेरा सारा धन खतम हो जाये! मैं साधुओं की तो परछाई भी नहीं लूँगा! हाँ...ठीक है... तू कहती है तो रोजाना मंदिर जरुर जाऊँगा दर्शन करने के लिये। क्योंकि भगवान तो कुछ बोलते नहीं हैं...मैं प्रतिदिन जिनेश्वर भगवान के दर्शन करने के बाद में ही भोजन करूँगा...। यह मेरी जिंदगीभर की प्रतिज्ञा है, बस? इसमें एक पैसे का भी खर्चा नहीं है और तू भी खुश रहेगी!' । धन्या खुश होकर नाच उठी! उसने कहा...' मेरे स्वामी.. इस प्रतिज्ञा के पालन से आपको जरूर अद्भुत संपत्ति मिलेगी!' धन्या और धना दोनों आनंद से जिंदगी गुजारते हैं। आपस का प्यार तभी टिकता है जब एक दूसरे का मन प्रसन्न रहे! धना रोज मंदिर मे जाकर भगवान के दर्शन करता है। दर्शन करने के बाद ही भोजन करने बैठता है। एक दिन की बात है। धना कड़ी मजदूरी करके थका-हारा घर आया था। उसे जोरों की भूख लगी थी। वह सीधा खाने के लिये बैठ गया। धन्या ने बड़े प्यार से उसकी थाली में खिचड़ी परोसी और उसमें तेल डाला। धना ने हाथ में कौर लिया कि उसे एकदम प्रतिज्ञा याद आ गई, आज For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ३० उसने दर्शन तो किये ही नहीं थे... | कौर उसके हाथ में ही रह गया। उसने धन्या से कहा : 'अरे...आज मैं भगवान के दर्शन करने के लिये तो गया ही नहीं... मैं अभी दर्शन करके वापस आता हूँ...। उसने खिचड़ी का कौर थाली में रखा । पर हाथ धोने की उसकी इच्छा नहीं हुई, क्योंकि इतना तेल फिजूल चला जाता ना? उसने धन्या से कहा : 'तू मेरे इस दाहिने हाथ पर रुमाल ढक दे... मैं दर्शन करके आता हूँ।' धन्या ने उसके तेल-खिचड़ी से भरे हुए हाथ पर रुमाल ढंक दिया । धना गया मंदिर की तरफ-भगवान के दर्शन करने के लिये। धन्या की आँखे खुशी के आँसू से छलक उठी... वह सोचती है मन ही मन : 'ओह! इतने भूखे थे मेरे पति, फिर भी प्रतिज्ञा का पालन करने में उनकी दृढ़ता कितनी है...? भूखे पेट वे गये दर्शन करने के लिये! साथ ही साथ उनके अंतराय कर्म-पाप कर्म का उदय भी कितना भारी है कि मंदिर जाने से पहले हाथ धोने की उनकी इच्छा नहीं हुई। ठीक है, जिस भावभक्ति से वे मंदिरजी में गये हैं...मुझे लगता है कि आज जरुर जिनालय के अधिष्ठायक देव उन पर प्रसन्न होने चाहिए... मुझे पिछली रात वैसा सपना भी आया है...कि 'हमारे पर अधिष्ठायक देव प्रसन्न हो उठे।' जिनेश्वर भगवान को एक बार भी भक्तिभावपूर्वक की गई वंदना महान फल देनेवाली होती है, तो फिर प्रतिज्ञापूर्वक हमेशा वंदना करने से क्या कुछ नहीं मिलेगा?' धन्या ने धना को मंदिर जाने से पहले सूचना भी दी थी कि 'मंदिर में यदि कोई तुमसे कुछ पूछे तो मुझे पूछने के बाद ही जवाब देना।' धना गया मंदिर में | उसने भावपूर्वक वीतराग भगवान को वंदना की। वह मंदिर के बाहर निकल ही रहा था कि उसने एक दिव्य आवाज सुनी : । 'ओ धना, आज से मैं तेरा नाम 'धनराज' रखता हूँ। तेरी प्रतिज्ञापालन की दृढ़ता से मैं इस मंदिर का अधिष्ठायक, तेरे ऊपर प्रसन्न हुआ हूँ। बोल, तुझे क्या चाहिए? तुझे जो भी चाहिए, तू मुझ से माँग ले!' धना ने कहा : 'ओ यक्षराज! मैं मेरी पत्नी को पूछकर तुमसे माँगूंगा। मैं पूछकर वापस लौ, वहाँ तक आप यहीं रुकना।' यक्ष ने हाँ कही। धना सीधा गया अपने घर पर! धन्या से उसने कहा : For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ३१ ___ 'प्रिये, अब तू मुझे धनराज कहना | मंदिर के यक्षराज ने मेरा नाम धनराज रखा है... और मुझसे वरदान माँगने को कहा है...। मैंने उनसे कहा कि मैं मेरी पत्नी से पूछकर आता हूँ... तब तक आप रुकना । तो उन्होंने हामी भर ली। बोल... मैं उनके पास क्या माँगूं?' धन्या की खुशी का पार नहीं रहा। उसने कहा : 'स्वामिन! आपकी प्रभुभक्ति आज सफल हो गयी है। अपने सब दुःख दूर हो गये समझना। आप जाकर यक्षराज से कहना कि 'हे यक्षराज, मैं हमेशा-हर पल विवेकवान बनूँऐसा वरदान दो। चूंकि सभी गुणों में विवेक श्रेष्ठ है। और विवेक ही सभी संपत्ति का मूल है।' धनराज तेजी से चल कर गया मंदिर में। उसने यक्षराज को संबोधित करके जैसे धन्या ने कहा था... उसी तरह कह दिया। यक्षराज ने खुश होकर विवेकी होने का वरदान दे दिया। ____ धनराज वापस घर पर आया । उसे भूख लगी थी। वह भोजन करने बैठता है और उसकी नजर गई अपने तेल व खिचड़ी से सने हुए हाथ पर! उसने धन्या से कहा : 'मुझे गरम पानी दे... मैं हाथ धोकर बाद में भोजन करूँगा।' धन्या ने तुरंत ही गरम पानी दिया। उसने सोचा : ‘सचमुच, अब इनका विवेक जाग उठा है... अब तो इनका जीवन धन्य हो उठेगा।' धन्या का चेहरा गुलाब सा खिल उठा। उसने प्यार के साथ धनराज को भोजन करवाया। __भोजन करने के बाद उसने कुछ समय आराम किया। उसने अपने जीवन में पहली बार ही आराम किया वरना तो यह भोजन करके तुरन्त काम पर चला जाता था । धनराज अपने मन में सोचता है : 'इतने बरस दान दिये बिना और सुखभोग किये बिना फिजूल ही बह गये...। मेरा धन जंगल के फूलों की तरह क्या काम का?' यों सोचते-सोचते उसको नींद आ गयी। ___ अगले दिन सुबह उठकर शुद्ध कपड़े पहनकर वह जिनमन्दिर मे गया। परमात्मा के दर्शन करके वह गुरुदेव को वंदना करने के लिया गया। दोपहर में बारह बजने पर उसने गरम पानी से स्नान किया। शुद्ध-श्वेत वस्त्र पहनकर हाथ में पूजन की सामग्री लेकर वह पूजा करने के लिये मन्दिर में गया। उसने खुद अपने हाथों चंदन घीसा । मुखकोश बाँधा । For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मायावी रानी और कुमार मेघनाद ३२ सब से पहले उसने मूर्ति पर से बासी फूल वगैरह दूर किये। फिर भावपूर्वक पानी का अभिषेक किया। चंदन से मूर्ति के नौ अंगो पर पूजा की। खुश्बूदार फूल चढ़ाये। धूप किया। दिया जलाया । अक्षत से स्वस्तिक रचाया । उस पर मिठाई रखी। फल चढ़ाया। जिन्दगी में पहले-पहल उसने उस तरह अष्टप्रकारी पूजा की। इसके पश्चात् उसने आरती उतारी और मंगलदीप उतारा। उसका मन आनंद से तरबतर हुआ जा रहा था। वह घर पर गया। उसने धन्या से पूजा में आये आनंद की बात कही। धन्या ने प्रसन्न होकर प्रशंसा की। फिर तो धनराज रोजाना इस तरह भगवान की पूजा करने लगा। पूजा करके वह भोजन करता है। वह भी दो-चार साधर्मिकों को अपने साथ बिठाकर भोजन करवाता है। बाद में खुद भोजन करता है। भोजन करवा कर उन्हें उत्तम वस्त्र वगैरह की भेंट देता है। नगर में धनराज की प्रशंसा होने लगी। मान्य लोगों में उसका नाम लिया जाने लगा। अब तो वह हररोज सबेरे और शाम को प्रतिक्रमण करता है। गुरुजनों के चरणों में बैठकर विनय से धर्म का ज्ञान प्राप्त करता है। गुरुजनों को भक्तिभावपूर्वक भिक्षा देता है। पुस्तकें लिखवाकर साधु-पुरुषों को देता है। अब वह मात्र दो प्रहर-छह घंटे ही सोता है। रात्रि में जब जाग जाता है... तब आत्मा के बारे में चिंतन करता है। श्री नवकार महामंत्र का स्मरण करता उसने जिनमंदिर बनवाया। स्वर्ण की सुन्दर प्रतिमा बनवाकर मंदिर में स्थापित की। हजारों रुपये खर्च करके उसने हजारों पशुओं को बचाये । दुःखी मनुष्यों को भोजन-वस्त्र वगैरह का दान दिया। उनके दुःख दूर किये। इस तरह उसने जैनधर्म का पालन किया । धन्या ने भी जैनधर्म का सुन्दर पालन किया। दोनों का आयुष्य पूरा हुआ। धनराज मर कर तू मेघनाद हुआ है और धन्या मर कर मदनमंजरी बनी है। तूने जो अपूर्व व अद्भुत प्रभुभक्ति की थी और दानधर्म का पालन किया था, उसके कारण तुझे इस जन्म मैं कल्पवृक्षसा रत्नों का दिव्य कटोरा मिला है। ढेर सारी राज्यसंपत्ति मिली है। अपने और मदनमंजरी के पूर्वजन्म की बातें सुनकर मेघनाद को और For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 33 मायावी रानी और कुमार मेघनाद मदनमंजरी को आनंद हुआ। साथ ही साथ, संसार के सुखों के प्रति उनके दिल में वैराग्य का भाव पैदा हो गया। अब दोनों ने गुरुमहाराज से विनती की : 'गुरुदेव, आप कुछ दिन यहाँ पर रुकने की कृपा करें | उस भवसागर को पार करानेवाली भागवती दीक्षा लेने के भाव हमारे दिल में जगे हैं | नगर के सभी जिनालयों में आठ दिन का भव्य प्रभुभक्ति का महोत्सव रचाकर, राजकुमार का राज्याभिषेक करके, आप के चरणों में हम जीवन समर्पित करना चाहते हैं।' गुरुदेव ने सहमति दी। महोत्सव बड़े ठाठ-बाठ से हो गया। राजकुमार का राज्याभिषेक हो गया। राजा मेघनाद और रानी मदनमंजरी ने गुरुदेव श्री पार्श्वदेव के चरणों में दीक्षा ली। ज्ञान-ध्यान और तपश्चर्या करके उन दोनों ने सभी कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान प्राप्त किया। और फिर आयुष्यकर्म पूरा होने पर उनकी आत्माएँ मोक्ष में चली गई। For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ३४ कर १. राजकुमार अभयसिंह। कुशान नाम का एक गाँव था। एक बार उस इलाके में दुष्काल के साये उतर आये । खाने के लिये अनाज नहीं... और पीने के लिये पूरा पानी भी नहीं मिलता था। लोग कब तक भूखे और प्यासे रह सकते थे? काफि लोग उस इलाके को छोड़कर दूर-दूर के गाँवों में चले गये। ___ उस गाँव मे 'भद्रक' नाम का एक युवक रहता था। वह किसान था। वह उस गाँव को छोड़कर जाने की स्थिति में नहीं था, क्योंकि उसकी माँ बहुत बूढ़ी थी। वह घर के बाहर भी न निकल सके वैसी उसकी हालत थी। ___ जब घर में अनाज का एक दाना भी नहीं रहा तब भद्रक के मन में बुरे विचार आने लगे। ___ 'मैं जंगल में जाकर जानवरों का शिकार करूँ... पशु का मांस पकाकर भोजन करूँ।' उसने हँसिया उठाया और जंगल में गया । जंगल में उसने एक खरगोश को देखा। तुरंत ही उसने दूर से हँसिये का वार किया। पर खरगोश चालाक निकला... वह जल्दी से भाग गया...उसे हँसिया लग नहीं पाया । भद्रक हँसिया लेकर उसके पीछे दौड़ा...फिर से वार किया... पर खरगोश से वार चुक गया । तीसरी बार वार किया... पर हर बार खरगोश बचता रहा । और दौड़ता हुआ वह खरगोश जंगल में ध्यान करते हुए एक मुनिराज के दोनों पैरों के बीच में जाकर दुबक गया। दया के सागर जैसे मुनिराज की उसने शरण ले ली। ___ मुनिराज तपस्वी थे। ज्ञानी और ध्यानी थे। उनके प्रभाव से उस जंगल का एक देव उनका सेवक बन गया था। उस वनदेवता ने खरगोश को मुनिराज के चरणों में दुबका हुआ देखा...और हँसिया लेकर दौड़े आ रहे भद्रक को भी देखा। देव ने तुरंत ही मुनिराज के आगे एक स्फटिक की पारदर्शी दीवार खड़ी कर दी। देव के पास तो दिव्य शक्ति होती है। उसे दीवार खड़ी करने में कितनी देर लगनेवाली थी? पाँच-दस क्षण में तो उसने दीवार खड़ी कर दी। भद्रक उस दीवार को नहीं देख पा रहा था... क्योंकि वह स्फटिक रत्न की पारदर्शी दीवार थी। For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३५ राजकुमार अभयसिंह भद्रक ने मुनिराज के चरणों में बैठे हुए खरगोश के सर को निशाना बनाकर हँसिया फेंका | पर हँसिया दीवार से टकराकर औंधा गिरा... और भद्रक के सर पर आकर टकराया। उसके सर में से खून बहने लगा...उसे काफी पीड़ा होने लगी। वह बेहोश होकर जमीन पर गिर गया। जंगल की शीतल-शीतल हवा के झोंको ने जब उसकी बेहोशी दूर की तब उसने समीप खड़े मुनिराज को देखा। मुनिराज तो चन्द्रमा जैसे शांत थे। चंदन जैसी शीतल उनकी बोली थी। तपश्चर्या का तेज उनके चेहरे पर झिलमिला रहा था। भद्रक ने मुनिराज के दर्शन किये। उसके पाप विचार दूर हो गये। उसके मन में विचार आया : 'सचमुच तो मेरे पाप का फल मुझे यहीं पर मिल गया। फिर भी मेरे किसी पुण्य का उदय होगा... वरना मेरे हाथों ऐसे पवित्र मुनिराज की हत्या हो जाती। किसी आदृश्य शक्ति ने ही मुझे भयंकर पाप से बचा लिया। यदि इन मुनि की हत्या मेरे हाथ से हो जाती तो मुझे मर कर नरक में ही जाना पड़ता। भद्रक ने मुनिराज को दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया...सर झुकाकर वंदना की। मुनिराज ने ध्यान पूर्ण करके भद्रक की ओर देखा । उसे आशीर्वाद दिया और बड़ी मीठी आवाज में कहा : ___वत्स, तू क्यों जीवहिंसा का पाप करता है? जीवहिंसा तो सभी दुःखों को बुलाने का निमंत्रणपत्र है। मांसभक्षण करनेवाले भी जो हिंसा करते हैं... वे मरकर नरक में जाते हैं। जो आदमी दयाधर्म का पालन करता है, वह मरकर स्वर्ग में जाता है... उसे अपार सुख प्राप्त होते हैं।' मुनिराज के वात्सल्य से छलकते शब्द सुनकर भद्रक के मन में विवेक जागा। उसने नम्रता से कहा : 'महात्माजी, आज से जीवनभर मैं जीवहिंसा नहीं करूँगा। आपने मुझे उपदेश देकर मेरे ऊपर महान उपकार किया है।' मुनिराज ने कहा : 'वत्स! आज तू धन्यवाद का पात्र बना है... आज तूने जीवदया का धर्म प्राप्त किया है। सभी सुखों की जड़ हैजीवदया। इस जीवदया धर्म के पालन से तुझे विपुल सुख-संपत्ति प्राप्त होंगे।' __भद्रक मुनिराज को भावपूर्वक वंदना करके अपने गाँव में आया। उसने अपने जीवन को धर्ममय बनाया । दया धर्म का पालन बड़ी दृढ़ता एवं श्रद्धा के For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ३६ साथ करने लगा। लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। धीरे-धीरे उसने काफी रुपये कमाये। शादी भी की। सभी का प्रेम प्राप्त किया। धर्म के प्रभाव से क्या नहीं मिलता है दुनिया में? सब कुछ मिल जाता है... यदि हम निष्ठापूर्वक धर्म का पालन करें तो। एक दिन भद्रक की मृत्यु हो गयी। श्वेता नाम का नगर था। वहाँ के राजा का नाम था वीरसेन । उसकी रानी का नाम था वप्रा । भद्रक मरकर रानी वप्रा के वहाँ बेटे के रूप में पैदा हुआ। वह जब माँ के गर्भ में था तब वप्रारानी ने पराक्रमी शेर का सपना देखा था। रानी की खुशी का पार नहीं रहा। जब पुत्र का जन्म हुआ तो राजा-रानी ने बड़े ठाठ-बाठ से जन्म की खुशियाँ मनाई। पर जब वह राजकुमार एक महीने का हुआ तब एक भयंकर घटना हुई। राजा वीरसेन के कट्टर दुश्मन राजा मानसिंह ने बड़ी भारी सेना लेकर श्वेतानगरी पर धावा बोल दिया। दोनों राजाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। राजा वीरसेन भी बहादुर था, पर किस्मत ने उसका साथ नहीं दिया और वीरसेन युद्ध के मैदान में ही मारा गया । राजा मानसिंह ने श्वेतानगरी पर अपना अधिकार जमा दिया। रानी वप्रा, अपने एक महीने के राजकुमार को अपनी गोद में छुपाकर गुप्त रास्ते से निकलकर जंगल में भाग गई। ___ मनुष्य चाहे जहाँ जाये पर उसके पाप-पुण्य तो आखिर उसके साथ ही रहते हैं...। आगे-पीछे चलते हैं...| जंगल में रानी को एक सैनिक ने देख लिया। रानी का सुन्दर सलोना रूप देखकर उसका मन पापी हो गया। इधर सैनिक को अपनी ओर ताकता देखकर रानी डर के मारे सिहर उठी। उसे अपनी इज्जत की चिंता थी... उसे अपने लाड़ले बेटे की फिक्र थी। सैनिक ने रानी के पास आकर कहा : 'तू चिंता मत कर... मैं तुझे मार नहीं डालूँगा। मैं तुझे अपनी औरत बनाऊँगा! तुझे जंगल में इस तरह भटकना भी नहीं पड़ेगा... मैं तुझे मेरे घर की रानी बनाकर रखूगा।' For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra राजकुमार अभयसिंह www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३७ रानी ने दहाड़ते हुए कहा : ‘जबान सम्हालकर बोल ... बकवास बंद कर नालायक ! ऐसा बोलते हुए शरम नहीं आती है? मैं मर जाना पसंद करूंगी, पर तेरी पत्नी तो हरगिज नहीं बनूँगी। दूर रहना... नजदिक आया तो मैं यही पर आत्महत्या कर लूँगी । ' ‘अरी पागल औरत! इतना अभिमान क्यों कर रही है ? कौन आयेगा तुझे इस जंगल में बचाने के लिये ? सीधे-सीधे मेरी बात मान लोगी तब तो ठीक है, अन्यथा मैं तुझे जबरदस्ती भी पत्नी बना के रहूँगा । पर यह तो सब ठीक है... पहले एक काम कर... तेरे इस छोटे बच्चे को यहीं जंगल में छोड़ दे ! अपने लिए यह बच्चा बाधा पैदा करेगा। तू इसे फेंक दे।' सैनिक की आँखो में बदमाशी तैरने लगी थी । 'मेरी जान देकर भी मैं अपने बच्चे का रक्षण करूँगी... यह मेरा बेटा है...। मैं इसे किसी भी हालत में नहीं छोडूंगी।' रानी ने राजकुमार को सीने से लिपटा लिया । पर उस शैतान हो गये सैनिक के दिल में दया कहाँ थी? उसने तपाक से रानी के हाथ में से उस मासूम बच्चे को झपटा और पास की घास में फेंक दिया। रानी का हाथ जबरदस्ती पकड़ कर वह चलने लगा। रानी रो रही थी.... दहाड़ मारकर रो रही थी... पर उस जंगल में उसकी चीख कौन सुननेवाला था? उस पत्थर दिल सैनिक पर तो असर होने वाली थी ही नहीं! वह तो रानी को अपनी औरत बनाने के खयाल में डूबा है । उसे रानी का रूप ही दिखता है। ‘रानी एक माँ है...' यह वह सोच भी नहीं रहा था! रानी का विलाप तीव्र होता चला...। चलते-चलते उसके कदम लड़खड़ाने लगे। अचानक वह बेहोश होकर एक चट्टान से टकरा कर पथरीली जमीन पर जा गिरी... गिरते ही जोरों की चोट लगी उसे और उसी समय उसकी मौत हो गयी। रानी को मरी हुई देखकर सैनिक के प्राण सूख गये। उसने सोचा : 'अब यहाँ खड़े रहना खतरे से खाली नहीं रहेगा।' वह रानी के मृत शरीर को वहीं छोड़कर वहाँ से सर पर पैर रखकर भागा ! पीछे मुड़कर देखा तक नहीं उसने ! For Private And Personal Use Only रानी मरकर देवलोक में देवी हुई। धर्म का यह प्रभाव था । शीलधर्म की रक्षा करते हुए यदि कोई स्त्री Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ३८ आत्महत्या भी करती है, तो भी उसकी सद्गति होती है। क्योंकि धर्म सबसे बढ़कर है। देवी ने तुरन्त ही अपने ज्ञान से देखा कि : 'वह कहाँ से मरकर यहाँ पर देवी हुई है?' उसने जंगल को देखा...अपने मृत शरीर को देखा... और लाड़ले को भी देखा! देवी हो गई तो क्या हुआ? मातृत्व का झरना फूट निकला उसके दिल में! आखिर वह उस बेटे की माँ जो थी! राजकुमार, जामुन के पेड़ के नीचे लेटालेटा...छोटे-छोटे जामुन उठा-उठाकर खाने कि कोशिश कर रहा था। देवी ने गाय का रूप धारण किया और राजकुमार को दूध पिलाया । गाय का रूप लेकर वह वहीं पर रही...और अपने बेटे की रक्षा करती रही। राजकुमार हँसता है... खेलता है...दूध पीता है...और गाय के चार पैरों के बीच आकर आराम से सो जाता है। दूसरे दिन दोपहर के समय उसी रास्ते से श्वेतानगरी का एक बहुत बड़ा व्यापारी प्रियमित्र वहाँ से गुजरा | उसने गाय के पास खेलते हुए गोरे-गोरे राजकुमार को देखा । पास खड़ी गाय को देखा । राजकुमार पर जामुन के पेड़ की छाया स्थिर बन गयी थी। प्रियमित्र ने निकट आकर राजकुमार को देखा। उसे राजकुमार के शरीर पर सभी शुभ लक्ष्ण नजर आये। उसे कुमार पसन्द आ गया। __वैसे भी प्रियमित्र को बेटा था नहीं। उसे बेटे की बड़ी इच्छा थी...जैसे कि कुदरत ने सामने आकर उसे बेटा दिया। वह कुमार को लेकर श्वेतानगरी में आ गया। अदृश्यरूप से देवी भी उसके साथ-साथ श्वेतानगरी में आई। प्रियमित्र ने अपनी पत्नी को कुमार सौंप दिया। उसे भी राजकुमार...नन्हा-सा बेटा बड़ा प्यारा लगा। वह उसे अपने बेटे के भाँति पालने लगी। उसका नाम रखा गया 'अभयसिंह ।' जंगल में वह शेर की भाँति निर्भय होकर रहा था...अभय-उसे डर जैसा था ही नहीं। सेठ प्रियमित्र ने अभयसिंह को बड़े प्यार से पाल-पोष कर बड़ा किया। उसे पढ़ाया, उसे शस्त्रकला में भी निपुण बनाया। जब अभयसिंह बीस बरस का हुआ तब, एक दिन उसकी माँ-देवी ने मध्यरात्रि के समय बेटे के समीप आकर कहा : For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ३९ 'वत्स, मैं जो कह रही हूँ... वह तू ठीक से ध्यान लगाकर सुनना। इस नगर के राजा थे वीरसेन । मैं उनकी वप्रा नाम की रानी थी। तू हमारा बेटा तेरे पिता के साथ, अभी यहाँ जो राजा मानसिंह है...उसने अन्यायपूर्वक युद्ध किया था। तेरे पिता की मृत्यु हो गई। तू तब केवल एक महीने का था। मैं तुझे लेकर जंगल में ओझल हो गई, पर राजा मानसिंह के एक सैनिक ने मेरा पीछा किया... मुझे पकड़ा...और अपने शील की रक्षा करते हुए मेरी मृत्यु हो गई। मरकर मैं व्यंतर देवलोक में देवी हुई हूँ| बेटा, यह राजा मानसिंह तेरा दुश्मन है। उसे जब यह मालूम हो जायेगा कि तू राजा वीरसेन का बेटा है... तो तुझे मारने की, तेरी हत्या कर डालने की कोशिश करेगा। __ मैं तुझे अदृश्य होने की विद्या देती हूँ। यह विद्या हमेशा तेरा रक्षण करेगी। इसके सहारे तू निर्भय-निडर होकर जी सकेगा। अभयसिंह विस्मय से चकित होता हुआ खड़ा हुआ। उसने भावपूर्वक अपनी माँ के चरणों में वंदना की और विनयपूर्वक विद्याशक्ति को ग्रहण किया। उसने कहा : 'माँ, मुझ पर आपने बड़ी कृपा की | माँ, मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकता!' देवी ने कहा : 'बेटा, तू जब भी मुझे याद करेगा... मैं तेरी सहायता के लिये चली आऊँगी। तू किसी भी तरह की चिंता मत करना । तू निश्चिंत होकर जीना।' अभयसिंह की खुशी की सीमा नही रही। उसने अपनी माँ-देवी को वंदना की। देवी वहाँ से अदृश्य होकर अपनी जगह पर चली गई। राजा मानसिंह मांसाहारी था। मांसाहार के अलावा अन्य कोई भी भोजन उसे पसन्द नहीं था। ___ एक दिन भोजन तैयार करके रसोईया स्नान करने के लिये बाहर गया, इतने में वहाँ पर एक बिल्ला आया और राजा के लिये तैयार खाना खा कर भाग गया। रसोईया घबरा उठा। राजा के लिये नया खाना बनाना होगा, पर उसके पास मांस तो था नहीं, अब क्या करना? वह गाँव के बाहर गया...जिस For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४० राजकुमार अभयसिंह श्मशान में छोटे-छोटे बच्चों के मुर्दे गाड़ दिये जाते थे वहाँ पर पहुंचा और एक ताजे गाड़े हुए बच्चे के शरीर को बाहर निकाला। टोकरे में छुपाया और उस पर कपड़ा डालकर वह राजमहल में चला आया। ___ उसने वापस भोजन बनाया । राजा खाना खाने के लिए आया । उसने राजा को भोजन परोसा। राजा को वह भोजन काफी स्वादिष्ट लगा। उसने रसोईये से पूछा : 'आज का भोजन काफी अच्छा लग रहा है... क्या बात है? किसका मांस पकाया है आज?' पहले तो रसोईया घबरा उठा। उसने काँपते हुए हाथ जोड़कर राजा से कहा : 'महाराजा, आप मुझे सजा नहीं करें तो मैं आपको सही बात बताऊँ!' 'अरे... सजा काहे की? तुझे तो मैं इनाम दूँगा। कितना बढ़िया खाना बनाया है तूने! पर यह बता पहले कि खाना बनाया किस चीज का है?' 'जी... महाराजा, आज मैंने बच्चे का मांस पकाकर खाना बनाया है...' यों कहकर जो बात हुई थी वह सारी बात कह दी। ___ 'ठीक है, मैं और कुछ नहीं चाहता, मुझे अब रोजाना ऐसा ही खाना चाहिये। तू व्यवस्था कर देना...आज से तेरी तनख्वाह भी दुगनी कर दी जायेगी। पर मुझे आज जैसा ही भोजन रोज मिलना चाहिए।' ___ 'जैसी आपकी इच्छा और आज्ञा, महाराजा! आपको खुश करना तो मेरा फर्ज है!' रसोईया भी खुश हो उठा। अब तो वह रोजाना एक जिन्दे बच्चे को पकड़-पकड़ कर लाने लगा...और मारने लगा। राजा के लिये भोजन बनने लगा। राजा भी पेट भरकर खाने लगा। __ सारे नगर में हाय-तौबा मच गया। हर एक माता-पिता अपने बच्चों को छुपा-छुपा कर रखने लगे। लोगों को मालूम पड़ गया था कि अपना पापी राजा खुद ही अपने बच्चों को पकड़वा कर मारता है और उन्हें खा जाता है। राजा के लिये प्रजा में गुस्सा खौलने लगा। लोग भगवान से प्रार्थना करने लगे कि 'यह राजा जल्दी मर जाये तो अच्छा!' एक दिन राजा महल की छत पर बैठा था। उसके मन में विचारों के बादल छाये जा रहे थे। उसने सोचा : 'मेरी प्रजा काफी बौखला उठी है... क्या ये लोग मुझे राजगद्दी पर से नीचे तो नहीं उतार देंगे? मुझे राज्य में से जबरदस्ती निकाल तो नहीं देंगे ना?' For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ४१ इतने में तो आकाश बादलों से घिर गया। जोरों की हवा बहने लगी। बारिश चालू हो गयी। धीरे-धीरे बारिश जोर पकड़ने लगी...चारोतरफ अन्धेरा ही अन्धेरा छाने लगा। बिजली कड़कने-भड़कने लगी। इधर राजा को ऐसा महसूस हुआ, जैसे कोई दो व्यक्ति आपस में बात कर रहे हों। राजा ने इर्द-गिर्द देखा, पर अन्धेरा होने से उसे कुछ नजर नहीं आया। आवाज स्पष्ट सुनाई दे रही थी। आदमी की आवाज आ रही थी : 'देख... तुझे एक गुप्त बात बताता हूँ। यह जो राजा है उसका भविष्य मैं तुझे बता रहा हूँ। तू ध्यान से सुनना।' औरत की आवाज उभरी : 'कहिये...आप, मैं ठीक-ठीक सुन रही हूँ, आप जल्दी से कहिये।' आदमी ने कहा : 'निर्दोष बच्चों की हत्याएँ कर-करके इस राजा के पाप का घड़ा अब भर चुका है। अब यह कुछ ही दिनों का मेहमान है... बुरी मौत मरेगा यह दुष्ट राजा।' 'तब फिर इस नगर का राजा कौन बनेगा?' पुरुष ने कहा : 'इस राजा को तो कोई बेटा नहीं है। केवल एक राजकुमारी है। इसलिए जो युवा इस राजा की आज्ञा को नहीं मानेगा, पागल बने हुए हाथी को वश में कर लेगा...और राजा की कुँवरी के साथ ब्याह रचायेगा, वह इस नगर का राजा होगा।' बस, इतनी बात हुई और वार्तालाप बंद हो गया। यह बातचीत करनेवाले सचमुच तो दो भूत थे। पति-पत्नी थे। वे अदृश्य रहकर अपना कुतुहल पूरा करने के लिए बातें कर रहे थे। यकायक वे अदृश्य हो गये। वे दूसरे स्थान पर चले गये। राजा तो सारी बात सुनकर बावरा सा हो उठा था। उसका हृदय धक-धक करने लगा था। उसने अपने सेनापति को बुलाकर आनन-फानन आज्ञा की : 'आज से नगर में चौकसीपूर्वक यह ध्यान रखो कि कौन आदमी राज्य के नियमों का ठीक से पालन नहीं कर रहा है। यदि कोई युवा मेरी आज्ञा का उल्लंघन करे तो तुरंत ही उसे पकड़कर मेरे पास पेश करना।' अब राजा का मन न तो खाने-पीने में लग रहा है...न तो उसे राजकार्य में रुचि है। सारे दिन वह उखड़ा-उखड़ा सा रहता है। मौत का डर उसके For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४२ राजकुमार अभयसिंह दिल-दिमाग पर छा गया है। वह परेशान हो उठा... पर करता भी क्या? एक दिन की बात है। अभयसिंह शाम के समय गाँव के बाहर रामदेव के मन्दिर में नाटक देखने के लिए गया था। नाटक रात को नौ बजे पूरा हुआ। अभयसिंह धीरे-धीरे चहलकदमी करता हुआ अपने घर की तरफ लौट रहा था। रास्ते में-बीच बाजार में सैनिकों ने उसे रोका और जवाबतलबी की : 'क्यों रे...तू कौन है? तेरा नाम क्या है?' पर अभयसिंह सुना-अनसुना करके आगे बढ़ गया | उस सैनिक ने गुस्से से भरी आवाज में फिर पूछा : ___'क्यों जवाब नहीं दे रहा है? तुझे महाराजा की आज्ञा का पता नहीं है क्या? हमें सब आदमियों की जाँच-पड़ताल करने का अधिकार दिया गया है।' __ 'अरे ओ सिपाई के बच्चे...तेरे राजा की आज्ञा जाकर तेरे बाप को सुना...मुझे नहीं...समझा?' यह सुनकर सैनिकों की भौंहें तन गई। मुख्य सैनिक बोल उठा : 'अरे...देख क्या रहे हो पुतले की तरह...? पकड़ कर कैद करो इस नालायक उदंड जवान को | महाराजा की आज्ञा का मखौल उड़ा रहा है! ले चलो इसे बाँधकर महाराजा के पास ।' सैनिक लोग अभयसिंह को पकड़ने के लिये लपके... अभयसिंह तो सावधान था ही। उसने तुरंत अदृश्य होने की विद्या का स्मरण किया। सैनिक देखते रहे...और अभयसिंह जैसे हवा में खो गया! सैनिकों के चहेरे पीले पड़ गये... उनके मुँह चौड़े हो गये...आँखें फटीफटी सी रह गई! 'ओह...यह क्या जादू! यह लड़का तो कोई जादूगर सा लगता है! पलक झपकते तो बिल्कुल अदृश्य हो गया।' अभयसिंह अपने घर पर पहुँच गया। सैनिक अपनी खोपड़ी खुजलाते हुए अपने स्थान पर पहुँचे। सुबह जाकर राजा के सामने उन्होंने रात की सारी बात कही। पूरी घटना कह सुनाई। राजा तो सुनकर गुस्से के मारे काँपने लगा। 'अरे...हरामखोरों...तुम इतने थे फिर भी तुम एक लड़के को भी नहीं पकड़ सके? डरपोक! भागो यहाँ से, तुम नगर की क्या सुरक्षा करोगे? अपना मुँह काला करो... क्यों आये हो यहाँ पर...? अपना मरियल सा चेहरा लेकर मेरे पास आना मत! आजकल का एक छोकरा तुम्हारी आँखो में धूल झोंक For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ४३ गया...और तुम मुँह बाये छोकरी की तरह खड़े रहे...शरम नहीं आयी तुम लोगों को?' राजा का चेहरा तमतमा उठा। वह महल की छत पर चला गया। इधर सैनिक लोग बेचारे चेहरा लटकाये हुए अपने-अपने घर पर चले गये । दूसरे ही दिन एक अजीब घटना घटी। राजा का प्रिय हाथी अचानक पागल हो गया। जिस खंभे के साथ इसे बाँध रखा था, उस खंभे को उखाड़ कर वह नगर के बीच रास्ते पर दौड़ने लगा। जो कोई रास्ते में सामने मिलता है उसे वह कुचल देता है! सूंढ में उठाकर पटकता है...दुकानो को तहस-नहस कर देता है...वृक्षों को उखाड़-उखाड़ के फेंक देता है। ___ सारे नगर में अफरा-तफरी मच गई। लोग अपने-अपने घर और दुकानों के छप्पर पर चढ़ गये | हाथी को पकड़ने के लिये... काबू में लेने के लिये...राजा के सैनिक पीछे दौड़ रहे हैं...| महावत अंकुश लेकर भागा... पर किसी के बस का रोग नहीं रहा था वह तूफानी हाथी! इधर उस वक्त राजा मानसिंह की राजकुमारी कनकवती नगर के बाहर कामदेव की पूजा करके, वापस लौट रही थी...। उसकी ओर हाथी ने देखा...। राजकुमारी के साथ उसकी दस-बारह सहेलियाँ भी थी। हाथी उनकी तरफ लपका। हाथी को अपनी तरफ आते देखकर सभी थर्रा उठी... 'बचाओ... बचाओ...' की चीखें निकलने लगी...उनके मुँह से | अभयसिंह अपने घर से निकलकर बाजार में आ रहा था। उसने लोगों का कोलाहल सुना। स्त्रियों की चीख-चिल्लाहट... बचाओ...बचाओ...' की पुकार उसने सुनी। वह जल्दी-जल्दी बाजार में आया। हाथी राजकुमरी की ओर तूफानी वेग से चला आ रहा था। राजकुमारी बावरी-सी होकर असहाय हो उठी थी। उसकी सहेलियाँ आसपास के मकानों के चबुतरे पर चढ़ गई थी। राजकुमारी असहाय-अकेली हो गई थी। अभयसिंह शघ्रता से हाथी के पास पहुँचा। अपनी तमाम शक्ति एकत्र करके उसने हाथी की सूंढ पर लात मारी | मुष्ठि-प्रहार किया। हाथी ने घूर कर अभयसिंह को देखा । वह अभयसिंह की ओर मुड़ा। अभयसिंह ने हाथी को थकाने की चाल चली। वह हाथी के इर्द-गिर्द गोल-गोल घूमने लगा। भारी-भीमकाय हाथी बेचारा गोल-गोल घूम कर थकने लगा। उसके शरीर For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ४४ पर पसीना-पसीना छूट गया। वह पलभर के लिये खड़ा रहा। उसी समय अभयसिंह उसकी सूंढ पकड़ कर छलांग लगाकर उसकी पीठ पर कूद गया । नजदीक में आये हुए हाथी के महावत ने अभयसिंह के हाथ में अंकुश फेंका। अभयसिंह ने अंकुश लगा-लगाकर हाथी को वश में कर लिया । राजकुमारी तो अभयसिंह का पराक्रम देखकर आश्चर्यचकित हो उठी थी । उसकी आँखे खुशी के आँसुओं से गीली हो उठी थी । नगरवासी हजारों लोगों ने युवा अभयसिंह का जय-जयकार करके आकाश को भर दिया। सभी लोग उसे प्यार की निगाहों से देखने लगे । धीरे-धीरे हाथी को चलाता हुआ अभयसिंह राजा की हस्तिशाला (हाथी को रखने की जगह) के दरवाजे पर पहुँचा । राजा मानसिंह अपने महल के झरोखे में खड़ा-खड़ा अभयसिंह को देख रहा था। वह सोच रहा था : 'यह लड़का किसी बनिये का बेटा नहीं लगता है। यह किसी क्षत्रिय का खून लगता है...। उसकी आकृति, उसका पराक्रम यह सब किसी क्षत्रिय खून की गवाही दे रहा है। क्या यह नौजवान उस दिव्य वाणी को सच करेगा ? तब तो मुझे पहला काम उसको ठिकाने लगाने का करना होगा ।' अभी अभयसिंह हाथी पर बैठा था । लोग उसका जयजयकार मचा रहे थे। राजा ने अपने सैनिकों को बुलाकर फटकारा : 'ओ डरपोक कायरों ! तुम युद्ध कला में इतने निपुण होते हुए भी एक मामूली हाथी को वश में नही कर सके ? इस बनिये के बेटे ने हाथी को वश करके बीच बाजार में, सरेआम तुम्हारा नाक काट लिया ! शरम करो कुछ, डूब मरो हथेली में पानी लेकर ! यदि तुम इस लड़के को जिन्दा रहने दोगे तो लोग जिन्दगी भर तक उसका आदर करेंगे और तुम्हारी मजाक उड़ायेंगे। इसलिये यदि तुम में जरा भी अक्ल हो तो यह जैसे ही हाथी पर से नीचे उतरे... तुम तुरंत उसे मार डालो! जाओ...मूरखों के सरदारों ... डरपोक पिड्डुओं ! भागो यहाँ से!' राजा ने चिल्लाते हुए कहा । सैनिक अभयसिंह की तरफ दौड़े। अभयसिंह हाथी पर से उतरने की तैयारी कर रहा था। इतने में उसने नंगी तलवारें हाथ में लिये पचास सैनिकों को अपनी तरफ लपकते देखा। वे हाथी को घेर कर खड़े रहे। सभी ने तलवार उठा ली। अभयसिंह को खयाल आ गया कि वे लोग मुझे मारने के लिये आये हैं।' उसने अदृश्य हो जाने कि विद्या का स्मरण किया और तुरंत ही जैसे वह हवा में ओझल हो गया । For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ४५ सैनिक तो सारे के सारे बुद्ध की भाँति देखते ही रहे आँखे फाड़ कर! लोग भी आश्चर्य से स्तब्ध रह गये। अभयसिंह आराम से सीधा अपने घर पर पहुँच गया। सैनिकों ने राजा के पास जाकर निवेदन किया : 'महाराजा, गजब हो गया ! हम हाथी को घेर कर खड़े रहे... तलवारें खींच कर खड़े रहे... पर इतने में तो वह हाथी पर से ही न जाने कहाँ अदृश्य हो गया!' सैनिकों की बात सुनकर राजा मूढ़ सा हो गया । वह कुछ भी नहीं बोला । सैनिक सब चले गये । राजा को कुछ सूझ नहीं रहा था । राजा चिंता में डूबा हुआ बैठा था। इतने में राजकुमारी की धावमाता वसंतसेना ने आकर राजा को प्रणाम किया। राजा ने अनमनेपन से पूछा : 'अभी इस वक्त क्यों आई है, वसंतसेना ?' ‘महाराजा, एक जरुरी काम से आई हूँ इस वक्त । आपको मालूम ही है कि राजकुमारी को कोई भी वर पसंद नहीं आ रहा है । साक्षात् रूप के दरिये जैसे राजकुमार के चित्र बताने पर भी उसे किसी के प्रति प्यार या अनुराग नहीं जग रहा है।' 'तेरी बात सही है... वसंतसेना, मुझे भी इसी बात की चिंता है।' राजा बोला । ‘महाराजा, अब आपकी वह चिंता दूर हो जायेगी । राजकुमारी का मन एक युवा के प्रति अनुरक्त हो गया है। वह जवान है सेठ प्रियमित्र का पुत्र अभयसिंह! राजकुमारी को उसने बचाया भी है। उसे देखकर, उसके पराक्रम को देखकर राजकुमारी उसी के साथ शादी करने की जिद्द कर रही है।' ‘परन्तु क्या क्षत्रिय कन्या बनिये के बेटे के साथ शादी करेगी ?' राजा का गुस्सा भड़क उठा । 'महाराजा, मैंने उससे यह बात कही । अभयसिंह बनिये का बेटा है... .J तो क्षत्रियकन्या है... तुम्हारी शादी जमेगी नहीं ! शोभा नहीं देगी!' 'फिर क्या कहा उसने ?' 'उसने कहा कि मुझे नहीं लगता है कि इतना पराक्रमी युवा बनिया हो । मुझे तो यह काई राजकुमार ही लगता है। यदि वह राजपुत्र नहीं होता तो मेरे हृदय को जीत नहीं सकता था । और शायद... वह राजकुमार हो या न भी For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir राजकुमार अभयसिंह ४६ हो... इससे क्या फर्क पड़ता है मेरे लिये? जिसने मेरे प्राण बचाये... मेरे लिये अपनी जान हथेली पर रख दी, उसको छोड़ कर मैं यदि दूसरे के साथ शादी की बात सोचूं तो फिर मेरे जितनी बेवफा और कौन होगी? मैं तो उसे मन ही मन अपना पति मान चुकी हूँ।' ___ "ठीक है, जल्दबाजी नहीं करना है। मैं उस प्रियमित्र के लड़के को बुलाकर उसके साथ बात करूँगा, फिर कोई भी निर्णय लेंगे।' वसंतसेना को विदा करके उसने द्वाररक्षक सैनिक को बुलाकर कहा : 'त प्रियमित्र सेठ के घर जा और उसके बेटे अभयसिंह को बुलाकर ला। उसे कहना कि तूने राजकुमारी की रक्षा की है इसलिये महाराजा तेरा सम्मान करना चाहते हैं।' सैनिक प्रियमित्र सेठ के घर पर गया । अभयसिंह घर पर ही था। सैनिक ने अभयसिंह को राजा का संदेश दिया। अभयसिंह को अपनी माँ की बात याद आ गई। उसने सोचा : 'राजा बुला रहा है, मै जाऊँ तो सही... मेरी माँ मेरी रक्षा करेगी।' उसने सुन्दर कपड़े पहने और वह सैनिक के साथ चला। राजसभा में जाकर उसने राजा को नमस्कार किया। राजा ने अभयसिंह को रुबरु देखा। वह चमक उठा... 'यह लड़का एक दिन मुझे मार डालेगा?' उसे अभयसिंह का डर तो सता ही रहा था। ___ उसने तुरन्त सेनापति को आज्ञा की : 'अभयसिंह को आज की रात यहीं पर रोके रखना है।' सैनिकों ने तुरन्त अभयसिंह को घेर लिया । अभयसिंह वैसे तो सावधान ही था। पलक झपकते ही वह अदृश्य हो गया। सैनिक तो एक-दूसरे का चेहरा देखने लगे। राजा भी स्तब्ध हो गया। उसे भारी चिंता होने लगी : 'यह दुष्ट अभयसिंह मेरी राजकुमारी को उठाकर ले जायेगा।' राजा उस दिन राजकुमारी के पलंग के पास जाकर सोया । आधी रात होने पर राजा एकदम जाग उठा... हाथ में खुली तलवार लेकर वह दौड़ा.. अरे दुष्ट, खड़ा रह... मेरी कुमारी को तू कहाँ ले जा रहा है? मैं तुझे मार डालूँगा... ओ शैतान!' राजा को खयाल नहीं रहा कि वह पहली मंजिल पर सोया हुआ है। सीढ़ी For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४७ राजकुमार अभयसिंह पर से सीधा नीचे गिरा... उसकी तलवार उसी के पेट में घुस गयी। खून का फव्वारा छूटा और राजा वहीं पर मर गया। सुबह में जब लोगों को मालूम हुआ कि 'राजा मर गया है', तब लोग काफी खुश हो उठे। दुष्ट और प्रजाभक्षक राजा के मरने से किसे खुशी नहीं होती? मंत्रीमंडल एकत्र हुआ। राजा के मृतदेह का अग्निसंस्कार किया गया। और अब किस को राजा बनाना, उसका परामर्श करने लगे। उसी समय आकाशवाणी हुई : 'ओ मंत्रीगण, सुनो मेरी बात! तुम्हारे प्रिय राजा वीरसेन के राजकुमार अभयसिंह को राजा बनाओ।' मंत्रीमंडल दिव्य वाणी सुनकर चौंक उठा। 'क्या अभयसिंह राजा वीरसेन के पुत्र हैं?' 'हाँ, जब महाराजा वीरसेन युद्ध में मौत के शिकार बने तब मैं उसकी रानी वप्रा अपने एक महीने के बेटे को लेकर जंगल में भाग गई थी। जंगल में अपनी शीलरक्षा करते हुए अपने प्राणों की मैंने बाजी लगाई। राजकुमार को श्रेष्ठि प्रियमित्र ले गये थे। मैं मर कर देवलोक में देवी हुई हूँ। मैंने ही अभयसिंह को अदृश्य होने की विद्याशक्ति दी हुई है।' इतना कह कर देवी अपने स्थान पर चली गई। मंत्रीमंडल ने हर्षोल्लास पूर्वक महोत्सव के साथ अभयसिंह का राज्याभिषेक किया और राजकुमारी कनकवती के साथ शादी भी कर दी। अभयसिंह राजा हो गया फिर भी वह अपने पालक माता-पिता प्रियमित्र सेठ को भूला नही! उनका त्याग नहीं किया। उन्हें महल में रखा... और उनकी उचित सेवा की। ___ अभयसिंह ने बड़े अच्छे ढंग से राज्य का संचालन करना प्रारंभ किया। प्रजा को सुखी एवं समृद्ध बनाने की भरसक कोशिश करने लगा। वह लोकप्रिय राजा हो गया। कुछ बरस बीत गये। एक दिन सुबह का समय था। बगीचे के माली ने आकर राजा को प्रणाम किया और नम्रतापूर्वक निवेदन किया : For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४८ श्रेष्ठिकुमार शंख 'महाराजा, आज अपने राज-उद्यान में महान तेजस्वी ज्ञानसूरि नाम के आचार्य भगवंत अपने शिष्य समुदाय के साथ पधारे हुए हैं।' राजा ने ऐसे शुभ समाचार देने के लिये...माली को सोने का कीमती हार भेंट किया। माली भी खुश-खुश होकर चला गया। राजा ने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया'नगर के बाहर बगीचे में ज्ञानी गुरुदेव पधारे हुए हैं, इसलिये उनके दर्शन के लिये एवं उपदेश सुनने के लिये सभी प्रजाजन जायें ।' राजा भी अपने परिवार के साथ बगीचे में गया। उसने विनयपूर्वक नम्रता से गुरुदेव को वंदना की। उसका हृदय खुशी से भर आया । गुरुदेव ज्ञानसूरिजी ने 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया। राजा ने कुशलपृच्छा की और धर्मोपदेश देने की विनती की। __ नगरजन भी सैंकड़ों की संख्या में एकत्र हुए थे। आचार्यदेव ने उपदेश दिया : 'जीवन में धर्म ही एक सारभूत चीज है, ' यह बात समझाई। 'सभी धर्मो में जीवदया का धर्म श्रेष्ठ है, ' यों कहकर दयाधर्म का फल भी बताया। उन्होंने कहा : दयाधर्म के पालन से मनुष्य को सौभाग्य, आरोग्य, दीर्ध आयुष्य, संपत्ति और साम्राज्य प्राप्त होते हैं।' अभयसिंह ने विनयपूर्वक पूछा : 'गुरुदेव, पूर्व जीवन में मैंने कौन से ऐसे कर्म किये थे जिस से इस जन्म में आपत्ति भी मिली और संपत्ति भी मिली?' गुरुदेव तो भूत-भावी और वर्तमान के ज्ञानी थे। उन्होंने अभयसिंह का पूर्वभव कह सुनाया । वह सुनते-सुनते राजा को अपना पूर्व जन्म याद आ गया! उसने गुरुदेव के पास जीवन पर्यन्त जीवदया का व्रत लिया। रानी कनकवती ने भी प्रतिज्ञा की। राजा अभयसिंह ने लम्बे समय तक राज्य किया। राज्य में प्रजा को धार्मिक बनाई। अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया। जब उनका राजकुमार योग्य उम्र में आया तब उसे राज्य सौंप कर अभयसिंह और कनकवती ने संसार का त्याग करके चारित्र ग्रहण किया-दीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर काफी तीव्र तपश्चर्या की। सभी कर्मों को जला दिया और राजा-रानी दोनों मोक्ष में गये! For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ३. श्रेब्धिकुमार शंख। बहुत पुराने समय की यह कहानी है। पर है बड़ी मजेदार...रसपूर्ण और रोमांचक! विजयवर्धन नाम का बड़ा नगर था। उस नगर का राजा था जयसुंदर और रानी थी विजयवती। राजा-रानी को एक ही पुत्र था...उसका नाम था भुवनचन्द्र! राजकुमार भुवनचन्द्र के तीन दोस्त थे। सेनापति का पुत्र सोम, श्रेष्ठि का पुत्र शंख और पुरोहित का पुत्र अर्जुन | ये चारों जिगरी दोस्त थे। बचपन से ही उनकी दोस्ती थी...| जवान हुए तो भी साथ ही खेलते... साथ ही खाते...!! सोम, शंख और अर्जुन, भुवनचन्द्र को ज्यादा महत्व देते थे। एक तो वह राजकुमार था...दूसरा वह विनीत था और बुद्धिशाली था। जबकि राजकुमार का दिल शंख पर विशेष स्नेह रखता था... चूंकि शंख बुद्धिमान था, दयालु था, और पराक्रमी भी था। एक दिन चारों मित्र बगीचे में घूम रहे थे। इतने में एक पेड़ के नीचे उन्होंने एक जटाजूटधारी बाबा को धूनी रमा कर बैठा हुआ देखा। राजकुमार और दोस्तों ने जाकर बाबाजी को प्रणाम किया। राजकुमार को आशीर्वाद देते हुए बाबा ने कहा : 'कुमार, तू पातालकन्याओं का पति होगा!' राजकुमार यह सुनकर बाबाजी के पास बैठा। उसने बाबाजी से पूछा : 'बाबाजी, इस मनुष्यों की दुनिया में तो पाताल की कन्याएँ आयेगी कहाँ से? आपको यदि पता हो तो बताओ कि पातालकन्याएँ मिलेंगी कहाँ पर? और कैसे मिलेंगी?' बाबा ने कहा : 'राजकुमार, पातालकन्याएँ रास्ते में ही नहीं भटकती हैं। उन्हें पाने के लिये तो कष्ट उठाने पड़ते हैं | जोखिम उठाना पड़ता है! ध्यान से सुन, मैं जो कहता हूँ : यहाँ से कुछ दूरी पर 'विंध्याचल' नाम का पर्वत है | वहाँ उस पर्वत की तलहटी में 'कुडंगविजय' नाम का एक वन है। उस वन में 'सुवेल' नाम के देव का मंदिर है। उस मंदिर की दक्षिण दिशा में कमल के आकार की एक पत्थर की चट्टान है। उस चट्टान को यदि खिसकाया जाये तो नीचे 'केयूर' For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५० श्रेष्ठिकुमार शंख नाम की एक बड़ी गूफा दिखायी देती है। उस गुफा में अंदर ही अंदर चार मील तक चलते रहें तब पातालकन्याओं के निवासस्थान आते हैं...। वहाँ पर महलों में वे सुंदर पातालकन्याएँ रहती हैं... यदि तुम्हारी वहाँ जाने की इच्छा होगी तो मैं तुम्हें ले जाऊँगा। तुम्हारे जैसे पराक्रमी और सुंदर-सलोने कुमारों को देखकर वे पातालकन्याएँ स्वयं तुम्हारे पास चली आयेंगी और तुम्हारे गले में वरमाला पहनायेंगी। बाबा का नाम 'ज्ञानकरंडक' था। वह बड़ा ही चालाक ठग था। बड़ा दुष्ट था। मीठी-मीठी बातें करके औरों को फँसाता था और अपनी बात मनवाता था। उसकी बातें सुनकर चारों मित्रों को आश्चर्य हुआ। बाबा को किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया। हालांकि, इधर राजकुमार के मन में तो पातालकन्याओं को देखने की तीव्र इच्छा जाग उठी थी, फिर भी वह कुछ बोला नहीं...गंभीर रहा...और वहाँ से उठकर दोस्तों के साथ राजमहल में गया। चारों मित्र साथ-साथ भोजन करने बैठे | राजकुमार ने तो जरा-सा खाना खाया न खाया...और खड़ा हो गया! उसके चेहरे पर उदासी उतर आई थी। बुद्धिशाली मित्र उसकी बेचैनी का कारण जान गये थे, फिर भी उसे पूछा : 'भुवनचन्द्र, तू आज बड़ा चिंतित दिखाई दे रहा है... क्या बात है?' कुमार तो मौन रहा। शंख ने कहा : 'कुमार, उस बाबा की बात सुनकर तुम्हारे मन में पातालकन्याओं के देश में जाने की इच्छा जगी है ना? पर कुमार... मुझे तो उस बाबा पर संदेह है। वह ठग प्रतीत होता है। ऐसे लोग 'मुँह में राम मन में छुरी' रखते हैं। इसलिये ऐसे लोगों की बातों पर भरोसा नहीं करना चाहिए। इनकी चिकनी चुपड़ी बातों में नहीं आ जाना चाहिए | मैं तो यह मानता हूँ।' राजकुमार ने कहा : 'शंख, बिल्कुल निःस्वार्थ और निर्दोष जीवन जीनेवाले ऐसे योगीपुरुष क्यों झूठी बात करेंगे? उन्हें अपने से भला क्या स्वार्थ होगा? ये तो बड़े जानकार योगी होते हैं...| संतोषरूप अमृत होता है इनके पास! तू नाहक शंका-कुशंका कर रहा है...। अपनी किस्मत खुल गई समझ! यदि ऐसे योगी की अपने ऊपर मेहरबानी हो जाये!' शंख चुप रहा। वह राजकुमार के जिद्दी स्वभाव को जानता था। राजकुमार जो बात पकड़ लेता उसे छोड़ना वह समझा ही नहीं था । सोम और अर्जुन भी खामोश रहे...। For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५१ राजकुमार के मन में तो पाताल की राजकुमारियाँ चक्कर काट रही थी। रातभर राजकुमार सपने देखता रहा पातालकन्याओं के! उसने सोचा : 'सबेरे मैं अकेला ही बाबा के पास चला जाऊँगा।' सुबह में राजकुमार अकेला ही जा पहुँचा बाबा के पास! बाबा तो राह देखकर ही बैठा हुआ था। उसका तीर ठीक निशाने पर ही लगा था। बाबा ने बड़ी खुशी जताई राजकुमार के आने पर| राजकुमार ने पूछा : 'बाबाजी आपने कल जिस गुफा के बारे में बताया था...क्या वहाँ पर जाया जा सकता है? कैसे जाया जाता है? मेरा मन वहाँ जाने के लिये अति व्याकुल है... मैं रातभर सोया भी नहीं हूँ...।' बाबा ने कहा : 'बेटा, ज्यादा तो क्या कहूँ? पर यदि मैं तुझे पातालकन्याओं के पास न ले चलूँ तो मेरा नाम ज्ञानकरंडक नहीं! तू मेरे ऊपर थूक देना... पर देख कुमार, अच्छे कार्य में अनेक अंतराय आते हैं, अवरोध खड़े होते हैं । इसलिये तू जल्दी से जल्दी तैयारी करके आ जा | बात करने में या सोचने में समय बिता दिया तो फिर मौका हाथ से निकल जायेगा।' कुमार बाबा को प्रणाम करके राजमहल में गया। उसने अपने तीनो मित्रों को बुलाकर कहा : 'मेरे प्यारे दोस्तों, तुम योगी की बात में जरा भी शंका मत करो... मैं आज ही उनके पास जाकर आया हूँ...। वे अपने को पातालकन्याओं के पास गुफा में ले जायेंगे। इसलिये जरा भी देरी किये बगैर तुम तैयार हो जाओ! हमको इस ढंग से यहाँ से निकलना है ताकि किसी को न तो मालूम पड़े, न ही कोई हमें रोक पाये...। तीनों दोस्तों को राजकुमार की बात जरा भी ऊँची नहीं परन्तु आखिर दोस्ती तो पक्की थी...। इतनी सी बात को लेकर दोस्ती टूट जाय यह उन्हें पसंद नहीं था। राजकुमार के साथ जाने के लिये शंख, अर्जुन और सोम तैयार हो गये। रात के समय चारों दोस्तों ने भेष बदल लिया। किसी को पता न लगे इस ढंग से वे नगर के बाहर बगीचे में आये । आधी रात गये चार अनजान आदमियों को यकायक आये देखकर बाबाजी भड़क उठे। उन्होंने चौंककर पूछा : 'कौन हो तुम?' 'महात्माजी, यह तो मैं कुमार...' For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५२ 'ओह कुमार? आ गये तुम चारों दोस्त!' 'जी हाँ, महात्माजी!' 'तो फिर अब एक मिनट का भी विलंब किये बिना यहाँ से हम चल दें।' सब से आगे ज्ञानकरंडक बाबा चला। उसके पीछे शंख चला... उसके पीछे भुवनचन्द्र चलने लगा। उसके पीछे अर्जुन और सब से पीछे सोम चलने लगा। अभी तो प्रयाण करके पन्द्रह-बीस कदम ही चले थे कि एक के बाद एक अपशकुन होने लगे| चारों मित्र की बाँयी आँख फड़कने लगी। शंख ने कहा : 'भुवन, मेरी बाँयी आँख फड़क रही है...।' 'मेरी भी बाँयी आँख फड़क रही है।' भुवचन्द्र ने कहा। अर्जुन और सोम भी बोल उठे : 'मेरी भी बाँयी आँख फड़क रही है।' इतने में दाहिनी तरफ से जोर-जोर से गधे के रेंकने की आवाज आई। सोम ने अर्जुन से कहा : 'अर्जुन, शकुन अच्छे नहीं हो रहे हैं।' इधर हवा भी सामने से जोरों की चलने लगी। अर्जुन ने सोम से कहा : 'यह भी खराब शकुन है।' सोम ने कहा : 'हम चले तभी मुझे तो ठोकर लगी थी...तभी से अपशकुन चालू हो गये हैं। इतने मे शंख चिल्लाया : 'बाबाजी, काला साँप रास्ता काट गया अभी-अभी...बड़ा ही खराब शकुन हुआ...हमको अभी आगे नहीं बढ़ना चाहिए।' ___ अर्जुन ने कहा : 'शंख, जरा ध्यान से देख चारो दिशा में धूल के गोटे उड़ते दिखाई दे रहे हैं...यह भी अच्छी बात नहीं है।' शंख ने भुवनचन्द्र से कहा : 'कुमार, हम तीनों का कहा मानो तो अभी इस वक्त आगे नहीं बढ़ना चाहिए। शकुन हम को आगे बढ़ने से रोक रहे हैं | चेतावनी दे रहे हैं। शकुन देखे बगैर प्रयाण करने से कार्य सिद्ध नहीं होता है। इसलिए हमको वापस लौट जाना चाहिए।' ___शंख की बात सुनकर भुवनचन्द्र खामोश रहा... चूंकि उसके दिल-दिमाग पर तो पातालकन्याएँ ही छाई हुई थीं। पर बाबा बोला : 'तुम सब क्यों इतने डर से मर रहे हो? तुम में से कोई भी शकुन का परमार्थ जानते ही नहीं हो और कभी के चिल्ला रहे हो...पाताललोक की For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५३ श्रेष्ठिकुमार शंख यात्रा में तो ऐसे शकुन ही श्रेष्ठ माने जाते हैं! कार्य को सामने रखकर शकुन के बारे में सोचना चाहिए। फिर भी यदि तुम्हारे मन में शंका हो तो मैं कहता हूँ...'इन सारे शकुन का जो भी फल हो, वह सब मुझ पर हो... तुम निर्भय और निश्चित होकर मेरे पीछे-पीछे चले आओ।' ___ बाबा की बात सुनकर भुवनचन्द्र को बाबा पर भरोसा जम गया। वह बाबा के पीछे-पीछे चलने लगा...तीनों दोस्त भी मन मसोस कर पीछे-पीछे चलने लगे। चलते-चलते वे विंध्याचल पर्वत की तलहटी में आ पहुँचे। वहाँ पर 'कुडंगविजय' नाम का जंगल था। कितना डरावना जंगल! बाप रे...इधर चीते, बाघ, शेर की गर्जनाएँ सुनाई देती, तो उधर दिन होने पर भी-सूरज के उगने पर भी उस जंगल में काला स्याह अन्धेरा छाया था...इतनी तो वहाँ घनी झाड़ियाँ थीं। वहाँ पर एक यक्ष का मन्दिर भी था। बाबा ने कहा : 'यहाँ पर स्नान करके हम सब को चंपा के फूलों से यक्ष की पूजा करनी है।' सभी ने स्नान करके यक्ष की पूजा की...और बाद में चारों मित्र थके-थके उस मंदिर के चबुतरे पर ही लंबे होकर सो गये। जब वे जगे तब साँझ ढल चूकी थी। उस दौरान 'ज्ञानकरंडक' बाबा न जाने कहीं से चार बकरे पकड़ लाया था...। उसने चारों मित्रों से कहा : 'पाताललोक में जाने के लिए जो द्वार खोलना पड़ेगा उसके लिये पहले यक्षराज को खुश करना पड़ेगा। इन चार बकरों की कुरबानी देने से वह यक्षराज प्रसन्न हो उठेगा। पहले मैं चारों बकरों को स्नान करवाऊँगा। फिर तुम चारों को भी स्नान करवा के पवित्र बनाऊँगा।' बाबा ने चारों बकरों को नहलाया। इसके पश्चात् चारों दोस्तों को स्नान करवाया। बाबाने अपने झोले में से चन्दन का डिब्बा निकाला। उस डिब्बे में पानी मिला कर हाथ से हिलाकर विलेपन तैयार किया। फिर चारों मित्रों के शरीर पर विलेपन किया। __बाबा ने कहा : 'अब तुम सब को एक-एक बकरे का बलि देना है...। बकरे को मार कर उसके खून से यक्ष को अंजलि देना है।' बाबा ने सबसे पहले राजकुमार के हाथ में तलवार दी। राजकुमार ने एक बकरे की हत्या कर दी। इसके बाद अर्जुन ने दूसरे बकरे को मार डाला और इसके पश्चात् सोम ने तीसरे बकरे को मार डाला। For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५४ बाबा ने शंख को गुस्सैल आवाज में कहा : 'बुत की तरह खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है? चौथे बकरे का वध तुझे करना है। उठा तलवार! शंख ने कहा : 'मैं तो कभी किसी की हत्या करता नहीं हूँ... मैं बकरे की हत्या नहीं करूँगा।' शंख का दिल करुणा से भरा हुआ था । वह तो अपने दोस्तों के हाथ से तीन-तीन बकरों की हत्या होती देखकर काफी बौखला उठा था। उसे तो यह बाबा राक्षस प्रतीत हो रहा था। बाबा का दिमाग गुस्से से खौल उठा : 'अबे बनिये के बच्चे, मारता है कि नहीं बकरे को?' 'नहीं...कभी नहीं करूँगा बकरे की हत्या। कान खोलकर सुन ले ओ राक्षस! तुम से जो हो सके वह तू कर ले।' शंख ने बड़ी हिम्मत के साथ बाबा को जवाब दिया। राक्षस जैसे भंयकर बन उठे बाबा ने हाथ में तलवार ली और स्तब्ध बन कर खड़े हुए राजकुमार का सर काट डाला। फिर अर्जुन का वध किया और दौड़ने की कोशिश कर रहे सोम को पकड़कर उसका भी वध कर दिया। तीनों मित्रों के मस्तक लेकर बाबा ने यक्ष की कमलपूजा की। शंख तो एक तरफ आँखे मूंदकर खड़ा था। वह अपने मन में श्री नवकार मंत्र का ध्यान कर रहा था। वह बिलकुल निर्भय था। __खून की प्यासी तलवार हाथ में लेकर बाबा शंख को मारने के लिये लपका। ज्यों ही उसने तलवार का प्रहार करने के लिये हाथ उठाया...त्यों ही हवा में उसका हाथ स्थिर हो गया। एक जोरदार धमाका हुआ । यक्ष की मूर्ति फट पड़ी और उसमें से साक्षात् यक्षराज प्रगट हो उठे। बाबा की आँखे फटी-फटी सी रह गई। उसके शरीर से पसीना बहने लगा। गुस्से से गर्जना करते हुए यक्षराज ने कहा : 'दुष्ट, यदि तू इस महात्मा को मारेगा तो तेरी बोटी-बोटी कर डालूँगा...। देख नहीं रहा है तू कि इसने बकरे को भी नहीं मारा है। यह दयालु है। धर्मात्मा है। छोड़ दे इसे!' __ बाबा ने शंख को छोड़ दिया। शंख ने यक्षराज को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सर पर पैर रखकर वहाँ से भाग निकला। जंगल में जो भी रास्ता उसे दिखा उसी पर भागने लगा...दौड़ते-दौड़ते उसने जंगल को पार किया। For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५५ श्रेष्ठिकुमार शंख __ जंगल के बाहर एक पेड़ के नीचे वह साँस लेने के लिये बैठा। अपने जिगरजान दोस्तों की हत्या से उसका मन काँप रहा था। वह फफक-फफक कर रो पड़ा। रो-रो कर दोस्तों के गुण याद कर-कर के वह दुःखी होने लगा। सिसकियाँ भरने लगा। आखिर आँखें पौंछते हुए खड़ा हुआ। चारों दिशा में देखा और पूरब दिशा में एक गाँव उसे दिखाई दिया। शंख धीरे-धीरे कदम भरता हुआ उस गाँव की तरफ चल दिया। एक तरफ उसे अपने माता-पिता याद आ रहे थे। घर की याद सता रही थी। दूसरी तरफ तीनों दोस्तों की करुण हत्या से उसका दिल दहल गया था... सीने पर पत्थर रखकर...दिल को मजबूत करके उसने कदम उठाये! शंख एक छोटे से गाँव में पहुंचा। वह काफी थका हुआ था। उसे थकान उतारने के लिये किसी अच्छी जगह की तलाश थी, जहाँ पर वह सो सके | उसे भूख भी जोरों की लगी थी, भोजन भी करना था। ___ गाँव के बाहर एक कुआँ था । पाँच-सात औरतें कुएँ पर पानी भर रही थी। शंख कुएँ के पास गया। एक औरत ने पूछा : 'कहाँ से आ रहे हो, भाई?' 'विजयवर्धन नगर से।' 'अरी चंपा, देख तो...ये भाई तेरे पीहर के गाँव से आ रहे हैं।' 'बहन मुझे प्यास लगी है...पानी पिलाओगी?' चंपा ने शंख को पानी पिलाया। शंख ने पेट भर पानी पीया और मुँह भी धो लिया। _ 'भाई, आज मेरे घर पर ही भोजन के लिये चलो... वहीं रुकना...।' चंपा ने शंख को निमंत्रण दिया। शंख के लिए तो 'अंधा क्या चाहे-दो आँखें' जैसा हो गया | चंपा के साथ-साथ शंख उनके घर पर गया | चंपा के घर में उसका पति और उनका एक छोटा बेटा, यों तीन व्यक्ति ही रहते थे। चंपा ने शंख को बड़े प्यार से भोजन करवाया और फिर शंख एक खटिये पर सो गया निश्चित होकर। शंख सोकर उठा तब सूरज पश्चिम की ओर ढल चुका था। चंपा गृहकार्य में व्यस्त थी। चंपा का पति भी घर पर नहीं था। शंख विचार में डूब गया... अब यहाँ से कहाँ जाना? कैसे जाना? घर पर जाऊँ? तब तो मुझे For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५६ राजा को, पुरोहित को और सेनापति को जवाब देना पड़ेगा | उनके पुत्रों की करुण मृत्यु के समाचार सुनकर उन्हें बड़ी पीड़ा होगी...। वे दुःखी-दुःखी हो जायेंगे। मुझे भी दोस्तों के बगैर गाँव में अच्छा नहीं लगेगा...| तो जाऊँ कहाँ? अभी चंपा मुझे पूछ ले कि 'शंख तू कहाँ जानेवाला है?' तब मैं उसे क्या जवाब दूं? खैर, उसे तो यह कह दूँगा कि 'यहाँ से वापस 'विजयवर्धन' जाना है।' परंतु यदि उसने वहाँ का कोई कार्य बतला दिया तो? मुझे विजयवर्धन तो जाना नहीं है। ठीक है... एक बात जरुर है कि मुझे यहाँ से जल्द से जल्द निकल जाना चाहिए।' उसकी इच्छा तो इस गाँव में से जल्दी निकल जाने की थी, परंतु चंपा ने उसको जाने नहीं दिया। तीन दिन तक उसे रखा, फिर बिदा किया। जाते जाते शंख ने अपनी सोने की अंगूठी निकाल कर चंपा को पहना दी 'भाई की इतनी भेंट तो बहन को लेनी ही चाहिए।' कहकर वह वहाँ से निकल गया। ___ वह उत्तर दिशा में चला | श्री नवकारमंत्र का स्मरण करते-करते वह चला जा रहा है | चंपा ने साथ में एक नाश्ते का डिब्बा बाँध दिया है। मध्याह्न के समय शंख एक सरोवर किनारे पहुँचा। सरोवर के किनारे बड़े-बड़े पेड़ों का झुरमुट था। एक पेड़ के नीचे छाया में बैठकर नाश्ते का डिब्बा खोल कर उसने भोजन किया और पास के सरोवर में उतरकर पानी पी लिया। उसने सोचा : 'धूप थोड़ी ढल जाय तब तक यहीं विश्राम करूँ, बाद में आगे बढूँगा।' नवकारमंत्र का स्मरण करते-करते वह सो गया। जब वह जगा तब उसने पास में से गुजरते हुए एक छोटे यात्रासंघ को देखा। काफी घोड़े थे, खच्चर थे, खच्चरों पर माल-सामान लदा हुआ था। एक सौ जितने स्त्री-पुरुष थे। उसने एक आदमी से पूछा : 'आप लोग तीर्थयात्रा करने के लिये जा रहे हो क्या?' 'नहीं भाई नहीं... हम तो व्यापारी हैं। हमारे साथ कुछ मुसाफिर हैं। इस रास्ते पर चोर-डाकुओं का डर होने से मुसाफिर हमारे साथ, इस तरह आतेजाते रहते हैं।' शंख के मन में आया : 'मैं भी इन लोगों के साथ जुड़ जाऊँ?' उसने व्यापारी से पूछ लिया : 'क्या मैं भी तुम्हारे साथ आ सकता हूँ...?' व्यापारी ने हामी भर ली। For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५७ सभी के साथ शंख चलने लगा। रात घिर आई थी। पर उजियारी रात होने से सभी मुसाफिर निश्चित होकर चल रहे थे। रात का एक प्रहर पूरा हो गया था। अचानक रास्ते के दोनों तरफ से नंगी तलवारों के साथ पचास डाकू आ गये। जिन व्यापारिओं के पास घोड़े थे वे तो भाग गये। काफी खच्चर भी जंगल में इधर-उधर दौड़ गये। मुसाफिर लोग भी आपाधापी मे दौड़ने-भागने लगे। परंतु डाकुओं ने कई खच्चरों को पकड़ कर उन पर लदा हुआ माल लूट लिया। नौ पुरुषों को जिन्दा पकड़ लिये...जिन्होंने सामना करने की कोशिश की उनको तलवारों से मार डाले। डाकुओं ने शंख को भी जिन्दा पकड़ लिया। लूट का माल और दस आदमियों को लकेर डाकू अपनी पल्ली में गये। वहाँ पर पल्लीपति 'मेघ' के पास जाकर धन-माल की गठरियाँ रखी और कहा : __'हम इन दस पुरुषों को जिन्दा पकड़ लाये हैं और यह धन-माल भी ले आये हैं।' पल्लीपति ने अपने साथियों को शाबाशी देते हुए कहा : 'इन दस आदमियों को अच्छी तरह से रखना। इनके शरीर पर एकाध भी घाव न हो इस बात की सावधानी रखना । अभी एक और ग्यारहवाँ आदमी चाहिये । मेरा लाड़ला बेटा किसी भूत-व्यंतर से पीड़ित है। मैंने ग्यारह पुरुषों का बलिदान देने की मनौती कर रखी है। तुम एक और पुरुष को खोज लाओ, फिर मैं एक साथ ही ग्यारह बलि देवी के चरणों में चढ़ा दूंगा।' डाकुओं ने शंख सहित दसों आदमियों को मजबूत रस्से से जानवर की भाँति बाँध दिया। एक अँधेरी कोठरी में उन्हें डाल दिया। रोज उन्हें भोजनपानी वगैरह दिया जाने लगा। कुछ दिन बाद डाकू एक और पुरुष को पकड़ लाये । अब ग्यारह पुरुष हो चुके थे। डाकू सरदार ने उन ग्यारह पुरुषों को नहलाया, श्वेत (सफेद) कपड़े पहनाये, गले मे लाल फुलों की मालाएँ डाली । मस्तक पर तिलक किया और उन्हें देवी चंडिका के मंदिर में ले गया। डाकू सरदार ने उन ग्यारह पुरुषों से कहा : __'तुम्हें तुम्हारे इष्टदेव को याद करना हो तो कर लो, आज मैं तुम्हारा बलिदान देनेवाला हूँ।' दूसरे सभी पुरुष तो डर के मारे काँपने लगे...रोनेकलपने लगे। पर शंख निर्भय था । बड़ी स्वस्थता से आँखे मूंदकर श्री नवकार For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रेष्ठिकुमार शंख ५८ मंत्र का स्मरण कर रहा था। डाकू सरदार ने तलवार खींची। देवी को प्रणाम किया और पुरुषों का वध करने के लिये आगे बढ़ा। इतने में उसका एक नौकर दौड़ता हुआ आया और चिल्लाया : Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'सरदार...दौड़ो...दौड़ो... तुम्हारे बेटे को भूत ज्यादा हैरान कर रहा है । ' सरदार ने तलवार दूर फेंक दी और दौड़ता हुआ अपने बेटे के पास पहुँचा । सरदार पुत्र की शांति के लिये उपाय करने लगा... पर ज्यों-ज्यों उपाय करता हैं, त्यों-त्यों पुत्र का दर्द बढ़ता है... वह चिल्लाता है... सर पटकता है.... खिंचता है। सरदार चिंतित हो उठा। उसे कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। उसे लगता है...'अभी उसका बेटा मर जायेगा...' उसकी आँखों में आँसू भर आये...'ओ भगवान...! तू मेरे बेटे को बचा ले ... ।' वह भगवान को पुकारने बाल लगा। इधर चंडिका के मंदिर में श्री नवकार मंत्र के ध्यान में लीन बने हुए शंख ने डाकू सरदार के एक साथी से कहा : 'यदि तुम मुझे तुम्हारे सरदार के पुत्र के पास ले चलो तो मैं तुम्हें कुछ चमत्कार दिखा सकता हूँ। शायद सरदार का बेटा बच सकता है । ' 'क्या चमत्कार दिखायेगा रे तू ?' 'यह तो वहाँ पर रुबरु देखने को मिल जायेगा ।' उस डाकू ने जाकर अपने सरदार से बात कही : 'ग्यारह पुरुषों में जो सब से छोटावाला है... वह यहाँ आकर कुछ चमत्कार बताने कि बात कह रहा है... तो उसे यहाँ ले आऊँ ?' 'जरुर...जल्दी से जल्दी ले आ तू उसे!' सरदार उछल पड़ा। आशा की एक किरण उसे दिखाई दी। उस डाकू ने जाकर शंख से कहा : 'यदि हमारे सरदार के बेटे को तूने बचा लिया, उसे अच्छा कर दिया तो तुझे हम यहाँ से छोड़ देंगे।' शंख के चेहरे पर आनन्द छा गया । वह सरदार के पास आया। सरदार ने शंख की सुन्दर आकृति देखकर कहा : 'ओ विद्वान पुरुष...तुम्हारा सुन्दर चेहरा कहता है कि जरुर तुम कोई चमत्कार करने की शक्ति रखते हो। तुम मुझ पर उपकार करो। मेरे बेटे को बचा लो। मैं तुम्हारा ऋणी रहूँगा । तुम्हें जो साधन-सामग्री चाहिए वह मिल जायेगी । ' शंख ने कहा : For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ५९ 'जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है...और किसी चीज की भी आवश्यकता नहीं है। तुम सब शांति से बैठ जाओ...।' __ शंख ने जमीन साफ करवायी और स्वंय पद्मासन लगाकर बैठ गया वहाँ पर | उसने अपनी दृष्टि नाक के अग्रभाग पर जमा दी। अपने मन को हृदय के नीचे नाभिप्रदेश में स्थिर किया । उसने नवकार महामंत्र का ध्यान लगाया। दो घड़ी ध्यान करके उसने फिर स्पष्ट रूप से मधूर ध्वनि में नवकार महामंत्र का गान प्रारंभ किया...जैसे कि अमृत की बरसात बरसती हो...शांत नदीझरने का पानी कल-कल बहता हो! उसका स्वर मधुर-मधुरतम बनता चला। सरदार के बेटे के कानों में वह ध्वनि पड़ रही थी। अचानक उसका शरीर काँपने लगा...और जो पिशाच उसको सता रहा था... वह जोरों से चिल्लाता हुआ वहाँ से निकल भागा! सरदार के पुत्र का शरीर शांत हो गया। उसके चेहरे पर शीतलतास्वस्थता छाने लगी। सरदार भी खुशी से खिल उठा। उसकी आँखों में से हर्ष के आँसू बहने लगे। उसने शंख से कहा : _ 'ओ महापुरुष! तुम दिखने में छोटे हो, पर वास्तव में महान हो...। तुम्हारे प्रभाव से मेरा बेटा स्वस्थ हो गया । तुम्हारी मंत्रशक्ति की ताकात से सब कुछ अच्छा हो गया... | तुम्हारी ताकत का उपयोग भी तुमने खुद के लिये नहीं किया... परोपकार के लिये किया। मैं तुम्हारे ऊपर बेहद खुश हूँ...। मैं तुम्हारी कोई भी इच्छा पूरी करने के लिये तैयार हूँ। माँगो...तुम...जो भी तुम्हारी इच्छा हो... वह माँग लो!!!' शंख ने कहा : 'ओ पल्लीपति सरदार! यदि तुम मेरे ऊपर सचमुच ही प्रसन्न हुए हो तो मेरे साथ जिन दस आदमियों को पकड़ा है...उन्हें जीवनदान दे दो...| स्वजनों की तरह उन्हें सम्मानित करके, उन्हें प्रेम से बिदा कर दो।' __ पल्लपति, शंख की भावना देखकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने सभी मुसाफिरों को अच्छे वस्त्र दिये, मिठाई का नाश्ता दिया... और बड़े आदर के साथ सब को बिदाई दी। पल्लपति ने शंख से कहा : 'छोटे महापुरुष, तुम को मैं अभी बिदाई नहीं दूंगा! कुछ दिन तुम यहीं पर रहो...। मैं तुम्हारी सेवा करूँगा...। तुम्हें अच्छी तरह रखूगा | मुझे तुम अपना For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ६० ही समझकर यहाँ रहो ।' शंख वहाँ रुक गया । पल्लीपति ने शंख को बड़े प्यार से रखा। दोनों के बीच दोस्ती की डोर बँध गयी । शंख ने पल्लीपति को कई बार समझाया : 'ओ वीरपुरुष! जीवों की हत्या करना... बेगुनाह जीवों को मारना ही सारे दुःखो की जड़ है । निरपराधी, निःशस्त्र और अशरण जीवों की हत्या जैसा बुरा पाप कोई नहीं है! तुम क्यों जीवहिंसा का पाप करते हो? छोड़ दो यह हिंसा का जीवन! अहिंसाधर्म का पालन करो। जीवों के ऊपर दया रखो, प्रेम और करुणा रखो । सरदार! इन्सान का कीमती जीवन, अच्छा स्वस्थ शरीर... और लोगों में आदर-सम्मान, यह सब अहिंसा धर्म के प्रभाव से ही मिलता है । जो मौत के भय से फड़कते जीवों को जीवनदान देता है, अभय का वरदान देता है, वह अपने जीवन में अवश्यमेव निर्भय बनकर जीता है, इसलिये मेरी तुम से हार्दिक विनती है कि तुम जीवहिंसा छोड़ दो! चोरी और लूटमार करना भी छोड़ दो...। तुम्हारे पास कितनी सारी जमीन है ... । तुम खेती कर सकते हो...आदमियों के पास खेती करवा सकते हो...। हजारों पशुओं का पालन कर सकते हो। तुम्हारे पास ढेर सारी संपत्ति है... इससे अनेक पर उपकार के कार्य कर सकते हो। इस मनुष्य जीवन को सफल बनाने के सारे कार्य तुम कर सकते हो!' शहद से भी ज्यादा मीठी वाणी सुनकर पल्लीपति मेघ मुग्ध हो उठा। उसकी आत्मा में दयाभाव का झरना बहने लगा। उसने शंख के पास अहिंसाव्रत लिया । शंख को बहुत आनंद हुआ। उसने सोचा : 'पल्लीपति को धर्म के पालन में मजबूत बनाने के लिये मुझे अभी और कुछ दिन यहीं पर गुजारने होंगे। वैसे भी सरदार खुद ही मुझे जल्दी तो जाने नहीं देगा ।' शंख वहीं पर रहा कुछ दिन | महीने आनंद-प्रमोद में बीत गये । एक दिन शंख को अपने घर की याद सताने लगी। उसने पल्लीपति से इजाजत ली। पल्लीपति ने शंख को सोना-चाँदी से भरी एक गठरी दी... । वह उसे चार कोस तक पहुँचाने के लिये साथ गया । बिदा देते-देते पल्लीपति की आँखें गीली हो गई। कुछ मुसाफिरों का काफिला मिलने पर शंख उनके साथ हो गया। इधर पल्लीपति मेघ वापस लौटा । For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख मुसाफिरों के साथ शंख अपने गाँव की तरफ आगे बढ़ता है...रात हुई। सब के साथ शंख ने भी उसी जंगल में आराम किया। आधी रात गये अचानक डाकुओं ने आ दबोचा सबको! लूट-मार मचाने लगे। शंख तुरंत ही डाकुओं के पास आया और कहने लगा : 'देखो, तुम्हें तो धन-दौलत से मतलब है ना? ले लो यह मेरा सारा का सारा धन... पर इन निर्दोष-बेगुनाह लोगों को मारो मत...छोड़ दो इन्हे!' __शंख ने अपनी सोने-चाँदी की गठरी रख दी डाकुओं के सामने । इतने में दो-चार डाकू जो दूर खड़े थे... वे नजदीक आये | मशाल के प्रकाश में उन्होंने शंख का चेहरा देखा...'अरे, यह तो हमको जीवनदान दिलानेवाले महापुरुष शंख हैं। अरे भाई...बंद करो लूटना! इन्हें नहीं लूटा जा सकता! राक्षस जैसे उस पल्लीपति के सिकंजे में से इन्हीं महापुरुष ने तो हमको छुड़वाया था। यह तो अपने लिये पूजनीय महापुरुष हैं...।' __काफिले के मुसाफिर भी इकट्ठे हो गये। शंख के प्रति डाकुओं का आदरभाव देखकर वे सब तो ताज्जुब रह गये। डाकुओं ने शंख से कहा : 'ओ हमारे उपकारी...आप हमारे साथ हमारी पल्ली पर पधारो...। करीब ही है...। हम आपकी खातिरदारी करेंगे। हमारी बात आपको माननी ही होगी! हम आपको मेहमान बनाकर ही बिदा करेंगे।' __शंख ने काफिले के मुखिया की इजाजत ली और वह डाकुओं के साथ चल दिया। __शंख ने पल्लीपति मेघ के बंधनों में से जिन दस आदमियों को मुक्त करवाया था, वे इस इलाके में अपना अधिकार जमाकर चोरी-लूट का धंधा कर रहे थे। फिर भी उनके हृदय उपकारी के उपकार भूले नहीं थे। उन लोगों में 'कृतज्ञता' नाम का गुण था। उन्होंने शंख की काफी खातिरदारी की। मेहमानवाजी की। बढ़िया से बढ़िया भोजन करवाया। अलंकार भेंट दिये। अन्य कई कीमती चीजें उपहार के रूप में दी। __ शंख ने उन लोगों को हिंसा, झूठ, चोरी, लूटमार वगैरह छोड़ देने की प्रेरणा दी। उन्हें शंख पर प्रेम तो था ही। शंख के उपकार से वे काफी प्रभावित थे। उन्होंने शंख की बात मान ली। दया धर्म को अपनाया। किसी भी निरपराधी-बेगुनाह, अशरण, निःशस्त्र व्यक्ति की हिंसा नहीं करने की उन सबने प्रतिज्ञा की। शंख की खुशी द्विगुणित हो गई। For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ६२ कुछ दिन वहाँ रहकर शंख ने उन लोगों को सद्गृहस्थ का जीवन जीना सिखाया और फिर वहाँ से बिदा ली । वे सब जन शंख को विजयवर्धन नगर तक छोड़ने के लिये साथ-साथ आये। विजयवर्धन नगर के बाहर शंख को सही - - सलामत स्थिति में पहुँचा कर वे वापस लौट गये। शंख ने मन में तरह-तरह की शंका- आशंका को सँजोये हुए अपने नगर की तरफ कदम बढ़ाये । गाँव के बाहर शंख ने पुराने कपड़े उतार दिये । नये सुन्दर वस्त्र धारण किये। अलंकार पहने । बन-ठन कर अपने घर की ओर जाने को निकला । धनश्रेष्ठि की हवेली नगर के मध्यभाग में थी । पुत्र को देखते ही धनश्रेष्ठि की आँखें चौड़ी हो गई। चूँकि इतने लंबे समय से न तो पुत्र का पता लगा था, न ही कोई समाचार थे । अतः उन्होंने शंख के वापस लौटने की आशा करीबकरीब छोड़ दी थी । यकायक पुत्र को सामने सकुशल देखकर सेठ का दिल उछलने लगा। शंख ने पिताजी के चरणों में प्रणाम किया। धनश्रेष्ठि ने शंख को अपने सीने से लगा लिया । शंख की चिरपरिचित आवाज सुनकर सेठानी धनवती भी बाहर निकल आई ... । पुत्र को खुशहाल देखकर धनवती भी नाच उठी। माँ के चरणों में शंख ने प्रणाम किया । धनवती की आँखें खुशी के आँसू बहाने लगी । शंख ने स्नान वगैरह से निपटकर गृहमंदिर में परमात्मा जिनेश्वर देव की पूजा की । १०८ नवकार मंत्र का जाप किया । पिता के साथ बैठकर भोजन किया। धनश्रेष्ठि ने कहा : 'बेटा, तू लंबी मुसाफरी कर के आया है, थोड़ी देर आराम कर ले। शाम को दिन ढले तेरी यात्रा की बातें सुनेंगे।' शंख अपने शयनखंड में चला गया। पंचपरमेष्ठि भगवंत का सुमिरन करते-करते सो गया । ठीक तीन घंटे तक वह सोया रहा। जब वह जागा तब उसे मालूम पड़ा कि सेनापति और राजपुरोहित अपने - अपने परिवार के साथ आकर हवेली में बैठे हुए हैं। इधर राजमहल से भी राजा के दो आदमी शंख को बुलाने के लिये आकर बैठे थे। शंख ने अपने पिताजी से कहा : ' इन राजपुरुषों से आप कह दीजिये कि मैं स्नान वगैरह से निपटकर अभी आधे घंटे में ही महाराजा के पास पहुँचता हूँ ।' धनश्रेष्ठि ने राजपुरुषों को बिदा किया। सेनापति और राजपुरोहित को For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ६३ शंख ने प्रणाम किया। 'भाई शंख, अर्जुन और सोम कहाँ हैं? वे तेरे साथ वापस क्यों नही लौटे?' 'पूज्यवर, आपको सुनकर जरूर दुःख होगा । परंतु मुझे सच-सच बात तो बतानी ही चाहिए। मेरे उन तीनों जिगरजान दोस्तों की मृत्यु हुई है !' 'मृत्यु ? ओह... पर कैसे ? कहाँ ? कब ?' एक साथ सेनापति और राजपुरोहित बोल उठे। उनकी पत्नियाँ तो करुण विलाप करने लगी । शंख ने ‘ज्ञानकरंडक' बाबा की बात कही। शुरू से लेकर सारी बात कही । यह सुनकर पुरोहित बोला : 'उनके किये हुए पाप का फल उन्हे तत्काल मिल गया। उन्होंने बकरे मारे तो बाबा ने उनको मार डाला। भाई शंख तू सचमुच पराक्रमी है, दयालु है। तेरे दयाधर्म के प्रभाव से तूने संपत्ति प्राप्त की... और वापस घर को सुरक्षित लौट आया। अब तू महाराजा के पास जा और हमें जो बात बतायी वह सारी बातें तू उन्हें कहो । राजा-रानी तो राजकुमार की चिंता में दुःखी दुःखी हो गये हैं!' शंख के साथ धनश्रेष्ठि भी राजमहल में गये। महाराजा जयसुंदर और महारानी विजयावती राह देखते हुए ही बैठे थे। श्रेष्ठि और श्रेष्ठिपुत्र को देखकर वे दोनों खड़े हो गये । सामने जाकर उनका स्वागत किया । खड़े-खड़े ही राजा ने पूछा : 'शंख, राजकुमार कहाँ है ? वह तेरे साथ वापस क्यों नहीं लौटा ?' 'महाराजा, आप आसन पर बैठिये। मैं शुरू से लेकर अंत तक की सारी बात आपको बता रहा हूँ। बात दुःखद है, पर जो हो चुका वह मिथ्या नहीं होने का।' सभी नीचे जमीन पर बैठ गये । राजा-रानी आसन पर बैठे और शंख ने सारी बात शुरू से अंत तक कह सुनायी। राजकुमार मृत्यु के समाचार सुनकर राजा - रानी एकदम रो पड़े । राजा ने स्वस्थ होकर कहा : ‘शंख बेटा, तू धर्मात्मा है ... दयाधर्म में तेरी श्रद्धा बेजोड़ है। तू सुखी होगा!' सारे नगर में चारों दोस्तों की बात फैल गई । घर-घर और गली-गली में शंख की प्रशंसा होने लगी। धनश्रेष्ठी ने शंख के लिये उसी नगर के प्रभंजन श्रेष्ठि की कन्या पद्मिनी की मंगनी की। प्रभंजन ने खुशी-खुशी अपनी बेटी का ब्याह शंख के साथ अच्छा मुहूर्त देखकर कर दिया । धनश्रेष्ठि ने शंख से कहा : For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ६४ ‘शंख, अब मैं आत्मकल्याण करना चाहता हूँ... । अब यह घर, दुकान, व्यापार सब तुझे सम्हालना है। मैं और तेरी माँ सद्गुरु के चरणों में जीवन समर्पित करके चारित्र-धर्म की आराधना करते हुए आत्मा का कल्याण करेंगे।' धनश्रेष्ठि और धनवती ने दीक्षा अंगीकार की। सारे नगर में शंख की प्रशंसा होने लगी। दिन-ब-दिन उसका यश फैलने लगा। राजा ने शंख को नगरश्रेष्ठि का पद दिया | शंख के गुणों की प्रशंसा लोग खुले मुँह करने लगे । सभी का दिल शंख ने जीत लिया था। शंख ने अपनी अपार संपत्ति का सद्व्यय करके पाँच सुन्दर जिनमन्दिर बनवाये। कई धर्मशालाएँ, विश्रामगृह बनवाये । सद्गुरु के पास बारह व्रतमय श्रावक जीवन स्वीकार किया। श्री नवकार मंत्र की विधिपूर्वक विशिष्ट आराधना की। धर्म, अर्थ और काम- इन तीनों पुरूषार्थ का उचित ढंग से पालन किया । मानवजीवन को उसने सार्थक बनाया । उसका आयुष्य पूर्ण हुआ। श्री नवकार मंत्र का स्मरण करते-करते उसकी मृत्यु हुई। मरकर भवनपति देवलोक में वह देव बना । देवलोक में तो जन्म लेते ही जवानी आ जाती है । वहाँ पर तो शरीर हमेशा युवा ही रहता है । बचपन या बुढ़ापा वहाँ पर है ही नहीं! जन्म के साथ ही वहाँ पर अवधिज्ञान होता है । देव अपने ज्ञान से दूर-दूर की बातें जान सकता है...। शंखदेव ने अपने अवधिज्ञान से देखा कि 'वह कहाँ से मरकर यहाँ पर देव के रूप मे पैदा हुआ है? क्या करने से उसे देव का जन्म मिला है?' ‘ओह...यह तो दयाधर्म का प्रभाव है। श्री नवकार मंत्र का प्रभाव है !' वह प्रसन्न हो उठा। देवलोक में भी जिनमन्दिर होते हैं । शंखदेव वहाँ पर भी परमात्मा की पूजा करता है। पृथ्वी पर एक मुनिराज को केवलज्ञान प्रगट हुआ । केवलज्ञान का महोत्सव मनाने के लिए देव-देवी आते हैं, पृथ्वी पर । स्वर्ग में से अनेक देव-देवी पृथ्वी पर आये। सोने का सुन्दर कमल आकृतिवाला सिंहासन बनाया । मुनिराज उस आसन पर बिराजमान हुए। देवों ने गीत गाये... नृत्य किया । मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया। शंखदेव ने खड़े होकर विनयपूर्वक पूछा : 'हे भगवान, देवलोक का आयुष्य पूरा होने के पश्चात् मेरा जन्म कहाँ पर होगा? आप मुझे कहने की कृपा करें । ' केवलज्ञानी भगवंत ने कहा : For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख __ 'शंखदेव, विजयनगर में राजा विजयसेन होगा | उसकी विजया नाम की रानी के वहाँ तुम्हारा पुत्र के रूप में जन्म होगा।' शंखदेव को सुनकर आनंद हुआ । मुनिराज ने वहाँ से विहार कर दिया। सभी देव अपने-अपने स्थान पर चले गये। ___ शंखदेव के असंख्य बरस देवलोक में गुजर जाते हैं। एक दिन उसने अवधिज्ञान के सहारे विजयनगर को देखा | राजा विजयसेन और रानी विजया को देखा। उसने रात्रि के समय सोये हुए राजा को स्वप्न दिया। राजा से स्वप्न में कहा : ___ 'राजन्, मैं जैसे कहूँ वैसे तुम तुम्हारी राजसभा में चित्रकार के द्वारा चित्र बनवाओ। एक योगी एक राजकुमार को उसके तीन मित्रों के साथ भयंकर जंगल में ले जाता है। जंगल में यक्षराज का मन्दिर आता है। उस मन्दिर के बाहर योगी चार बकरे लाता है। राजकुमार के द्वारा एक बकरे की हत्या करवाता है। दूसरे बकरे की हत्या सेनापति के बेटे के हाथों करवाता है। तीसरे बकरे का वध पुरोहित के पुत्र के हाथों करवाता है। पर श्रेष्ठिपुत्र बकरे को मारता नहीं है | योगी उन तीनों को मार डालता है। वहाँ का यक्ष श्रेष्ठिपुत्र शंख पर प्रसन्न हो जाता है। शंख सकुशल घर वापस लौटता है। जीवदया के धर्म से वह सुखी बनता है।' राजा विजयसेन स्वप्न देखकर जाग उठा। वह सोचता है अपने मन में : 'मैंने ऐसा कभी सोचा भी नहीं है...ऐसा देखा भी नहीं है... फिर मुझे ऐसा स्वप्न क्यों आया? मेरे शरीर में कफ या पित्त का विकार भी नहीं है! और फिर यह सपना भी कितना लम्बा चला... एक कहानी सा...शायद यह गलत होगा।' राजा ने सपने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। शंखदेव अवधिज्ञान से हमेशा देख रहा है कि स्वप्न देखकर राजा क्या करता है? जब उसने देखा कि राजा ने कुछ भी नहीं किया, तो देव ने दूसरे दिन रात को फिर से वैसा ही स्वप्न दिया राजा को। राजा जगकर सोचता है : 'जरुर इस में कुछ रहस्य है। वही का वही सपना मुझे दुबारा आया! मुझे मान लेना चाहिए। शायद इसके पीछे कोई दिव्यशक्ति का कुछ संकेत रहा होगा?' उसने अपने नगर के श्रेष्ठ चित्रकारों को बुलाकर देखे हुए स्वप्न की कहानी बता दी और उस मुताबिक दीवार पर सुन्दर चित्र बनाने का आदेश दिया। चित्रकारों ने राजसभा की ही एक दीवार पर सुन्दर ढंग से सजीव चित्र बना दिया। काफी मेहनत और लगन से काम For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख किया चित्रकारों ने। राजा चित्र देखकर प्रसन्न हो उठा। उसने चित्रकारों को अच्छी खासी धनराशि देकर उन्हें खुश करके बिदा किया। इधर शंखदेव का देवलोक का आयुष्य पूर्ण हुआ। रानी विजया ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। राजा ने पुत्र के जन्म का बड़ा भारी उत्सव मनाया। और पुत्र का नाम रखा जयकुमार | जयकुमार को बडे लाड़-प्यार से और नाज से रखा जाने लगा। जब वह कुछ बड़ा हुआ तो एक दिन नगर का कोटवाल न जाने कहाँ से अपने साथ तीन बच्चों को लेकर आया और महाराजा से निवेदन किया : ___ 'महाराजा, ये तीन बच्चे अनाथ हैं | इनकी माँ अकाल मृत्यु का शिकार हो गई है। इन पर दया आने से मैं इन्हें आपके पास ले आया हूँ।' राजा ने बच्चों के सामने देखा । बच्चे सुन्दर और सुशील प्रतीत हुए। राजा ने बच्चों को प्यार से सहलाते हुए कहा : ‘बच्चों, तुम आज से राजमहल में ही रहना! राजकुमार के साथ रहना...खानापीना, खेलना-कूदना और पढ़ाई करना। राजकुमार की सेवा करना।' 'जी, हम राजकुमार को प्रसन्न रखेंगे।' बच्चों ने कहा । एक का नाम था धनपाल । दूसरे का नाम था वेलंधर और तीसरे का नाम था धरणीधर।। वे तीनों तो राजकुमार के दोस्त बन गये। कुछ दिनों के सहवास में उन तीनों ने राजकुमार का दिल जीत लिया। राजकुमार उन तीनों के प्रति हार्दिक स्नेह रखने लगा। राजकुमार ने युद्धकला सीखी। शस्त्रकला और शास्त्रकला दोनों में वह विशारद बना। जवानी की दहलीज पर वह पाँव रखने ही लगा था कि एक दिन महाराजा विजयसेन ने उसने कहा : 'कुमार, मुझे लगता है...कि मेरी मौत निकट है... आज मुझे वैसा स्वप्न भी आया है। अब मैं अपना आत्मकल्याण करना चाहता हूँ - पर इससे पहले राज्यसिंहासन पर तेरा अभिषेक करना चाहता हूँ। फिर मैं दीक्षा ग्रहण करूँगा।' राजपुरोहित को बुलाकर राज्याभिषेक का मुहूर्त्त पूछा। राजपुरोहित ने पन्द्रह दिन बाद का मुहूर्त दिया। नगर में महोत्सव का प्रारंभ हो गया। गरीबों को दान दिया जाने लगा। काफी धूमधड़ाके के साथ राजकुमार का राज्याभिषेक किया गया । For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ६७ श्रेष्ठिकुमार शंख महाराजा विजयसेन ने ज्ञानी गुरुदेव के चरणों में जाकर चारित्र अंगीकार किया। एक दिन राजा जय राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। उसके सर पर श्वेत छत्र था। दोनों तरफ दो परिचारिकाएँ चामर दुलो रही थी। अनेक आज्ञांकित राजा जयराजा को प्रणाम करके अपने-अपने सिंहासन पर बैठे हुए थे। राजसभा के मध्यभाग में नृत्यांगनाएँ नृत्य की तैयारियाँ कर रही थी। बंदीलोग राजा की बिरुदावलियाँ गा रहे थे। पंडित, कवि, कलाकार और अनेक विशिष्ट व्यक्ति वहाँ हाजिर थे। पूरी राजसभा खचाखच भरी हुई थी। । इतने में अचानक एक तरफ शोर मच उठा | राजा और सभी सभाजन उस तरफ देखने लगे। 'क्या हुआ है वहाँ? जल्दी तलाश करो।' राजा ने अपने अंगरक्षक को उस तरफ भेजा। इतने में वहाँ से एक सैनिक दौड़ता हुआ आया और बोला : 'महाराजा, आपके धनपाल वगैरह तीनों मित्र उस तरफ बेहोश होकर जमीन पर गिर गये हैं। आप वहाँ पधारें।' राजा तुरंत वहाँ पर पहुँचा। वहाँ पर खड़े एक राजपुरुष ने कहा : 'महाराजा, आपके ये प्रिय मित्र, इस दीवार पर के चित्र को देखने में लीन हो गये थे...और अचानक बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गये।' राजा जय की निगाह भी दीवार पर के चित्र पर गई। राजा भी टकटकी बाँधे चित्र देखने लगा...और वह भी बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गया। राजसभा में हाहाकार मच गया। गीत-गान-नृत्य सब बंद हो गये। राजा और तीन मित्रों के इर्द-गिर्द सशस्त्र सैनिक जमा हो गये | मंत्रीमंडल भी 'क्या करना?' इस बारे में मशविरा करने लगे। मुख्य परिचारिकाएँ महाराजा पर शीतल पानी के छींटे देने लगी। पंखे से हवा झलने लगी। कुछ देर बाद राजा की बेहोशी दूर हुई। राजा ने आँखें खोली। उपस्थित अन्य राजाओं ने पूछा : 'महाराजा, अचानक आपको क्या हो गया?' राजा जय ने कहा : 'चलो, सभी राजसभा में बैठ जाओ...अपनी-अपनी जगह पर | मैं वहाँ सारी बात बताता हूँ। For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख ६८ धनपाल वगैरह तीनों मित्र भी होश में आ गये थे। राजा ने उन तीनों को अपने समीप ही बिठाया। राजा ने अपने पूर्वजन्म की बात विस्तार से कही। 'ये धनपाल वगैरह तीनों मेरे पूर्वजन्म के मित्र हैं।' राजा की आँखें हर्ष के आँसुओं से छलछला उठी। राजा खड़ा हुआ और तीनों मित्रों से गले मिला। __राजा की भाँति धनपाल वगैरह तीनों मित्रों को भी पूर्वजन्म की स्मृति हो आई थी। धनपाल ने खड़े होकर राजा को प्रणाम करके कहा : __'महाराजा, आपने दयाधर्म का पालन किया... किसी की हत्या नहीं की तो आप देवलोक में गये और राज्य का वैभव मिला आपको इस जन्म में! हमने हिंसा की...तो हम नरक में गये और इस जन्म में भी अनाथ से पैदा हुए। हम आज से दयाधर्म को स्वीकार करते हैं।' राजा और तीनों सेवकों का पूर्वजन्म सुनकर सारी राजसभा आश्चर्य से चकित रह गई। दयाधर्म का अद्भुत प्रभाव सुनकर हजारों लोगों ने दयाधर्म को अंगीकार किया। ___ एक दिन विजयनगर में 'निर्वाणबोध' नाम के महामुनि पधारें। नगर के बाहरी उपवन में अनेक शिष्यों के साथ वे ठहरे | माली ने जाकर राजा को समाचार दिये। राजा अपने परिवार के साथ उपवन मे पहुँचा। हजारों नगरवासी लोग भी वहाँ पर आये | मुनिराज ने धर्म की देशना दी। राजा और मंत्रीमंडल ने श्रावकजीवन के बारह व्रत स्वीकार किये। नगर में ढिंढोरा पीटवा दिया गया कि 'जो भी व्यक्ति जीवहिंसा करेगा... उसको कड़ी सजा दी जायेगी। उसका सर्वस्व ले लिया जायेगा और जेल में उसे जाना पड़ेगा।' राजा जय ने इसके बाद तो अनेक भव्य जिनमन्दिरों का निर्माण किया। सुवर्ण की हजारों जिनप्रतिमाएँ बनवाई। लाखों की संख्या में संगमरमर की जिनप्रतिमाएँ बनवाई। करूणाभाव से गरीबों को, दीन-दुःखीजनों को दान दिया। इस तरह अनेक प्रकार के सत्कार्य करते हुए राजा जय ने एक हजार बरस तक राज्य किया। एक दिन राजा जय राजसभा में सिंहासन पर बैठा हुआ था। राजसभा में नृत्यांगना का नृत्य चल रहा था। राजा जय आत्मचिंतन में डूबने लगा। वह सोचने लगा मन ही मन : 'यह राज्य भी छोड़ने के लिये है। जहर से भरी मिठाई की तरह यह राज्यवैभव है।' For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रेष्ठिकुमार शंख राजा के दिल में वैराग्य का भाव हिलोरे लेने लगा। उसने सभाजनों को संबोधित करते हुए कहा : 'प्रजाजनों, यह मनुष्यजीवन क्षणिक है। संसार के सुखभोग रोग जैसे हैं। समृद्धि हवा की भाँति चंचल है | शरीर अनेक रोगों से भरा हुआ है। स्वजनों के संबंध स्वार्थ से भरे हुए हैं। मौत प्रत्येक आदमी के साथ साया बनकर चल रही है...फिर भी अज्ञान और अवश जीवात्मा धर्म को समझते नहीं। धर्म को स्वीकार करते नहीं। पाप करते रहते हैं। आत्मा को दुःखी करते है ! दूसरे जीवों की हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरी और दुराचारसेवन करते हैं, इसके बदले में वे ऐसे पाप बाँधते हैं कि जिससे उनको नरक में जाना पड़ता है...। ओ मेरे प्रिय प्रजाजन, तुम धर्म का आचरण करो।' __ यों कहकर राजा स्वयं आत्मचिंतन में डूब गये। शरीर और आत्मा की जुदाई का ज्ञान उन्हें हुआ | उनकी आत्मा में अपूर्व समताभाव प्रगट हो उठा। और चिंतन की धारा में बहते-बहते राजा को केवलज्ञान प्रगट हो गया! राजसिंहासन पर ही केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी।। उसी समय देवलोक से हजारों देव वहाँ विजयनगर में उतर आये। राजा को साधु का वेश दिया । समग्र राजसभा स्तब्ध होकर सोच रही थी...' यह सब क्या हो रहा है?' देवों ने राजसभा में घोषणा की : 'महाराजा जय को केवलज्ञान प्राप्त हुआ है।' देवों और प्रसन्नता से नाच उठे नगरवासियों ने केवलज्ञान का भव्य उत्सव मनाया। स्वर्ण के सुहावने कमल पर बिराजमान होकर जय केवली भगवान ने धर्म का उपदेश दिया। इसके बाद गाँव-गाँव में और नगर-नगर में पदार्पण करते हुए जय महामुनि ने जीवदया का सबको उपदेश दिया। 'तुम खुद जियो और औरों को जीने दो! जैसे तुम्हें दुःख पसंद नहीं है... वैसे और जीवों को भी दुःख अच्छा नहीं लगता है...तुम किसी भी जीव को दुःख मत दो! सभी के प्रति मैत्री-प्रेम और करुणा का भाव रखो। __ कई बरसों तक लोगों को सच्चे ज्ञान का दान देकर जय केवलज्ञानी मोक्ष में गये। शरीर और कर्मों के बंधन से वह मुक्त हो गये! For Private And Personal Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या विनयेन शोभते 100 k४. विद्या विनवेन शोभते । मगध नाम का एक बहुत बड़ा देश था। उस देश के राजा का नाम था श्रेणिक! श्रेणिकराजा भगवान महावीर का परम भक्त था। हालाँकि भगवान महावीर के परिचय में आने से पहले तो श्रेणिक धर्म को मानता ही नहीं था। पर भगवान महावीर की वाणी सुनकर वह उनका परम भक्त हो गया था। श्रेणिक की रानी का नाम था चेल्लणा। राजा को रानी के ऊपर बहुत प्यार था। रानी की हर एक इच्छा वह पूरी करता था। रानी को जो भी चाहिए, राजा उसे लाकर देता था। एक दिन रानी चेल्लणा ने राजा से कहा : 'महाराजा, मेरे लिये नगर के बाहर बगीचे में एक सुन्दर एकडंड महल बनवाइये। फिर हमलोग उसमें रहेंगे। राजा ने रानी की बात मान ली और कहा : 'रानीजी, तुम्हारे लिये जल्दी से जल्दी महल बनवाने के लिये मैं आज्ञा करता हूँ।' राजा ने अपने महामंत्री अभयकुमार को बुलाकर कहा : 'अभय, नगर के बाहर बगीचे में रानी चेल्लणा के लिये एक सुंदर महल बनवाना है। पूरा महल लकड़ी के एक खंभे पर बनना चाहिए।' अभयकुमार ने कहा : 'महाराजा, इसके लिये तो बड़ी-बड़ी लकड़िया चाहिये | मैं आज ही बढ़ई को बुलवाकर सारी बात करता हूँ। फिर मैं स्वयं बढ़ई को लेकर, जिस वृक्ष की लकड़ी चाहिये...जंगल में जाकर कटवा दूंगा। जल्दी से जल्दी काम चालू करवाने की कोशिश करूँगा।' राजा खुश हो गया। रानी भी खुश हो उठी। अभयकुमार ने बढ़िया कारीगरों को बुलवाकर एकडंड महल बनाने की बात की। कारीगरों ने कहा : 'महल तो हम छह महीने के अंदर-अंदर बना सकते हैं...और पूरा महल लकड़ी का ही बनायेंगे। जिस खंभे पर महल बनायेंगे... वह खंभा भी लकड़ी का ही बनायेंगे। पर इसके लिये जंगल में जाकर जैसी लकड़ी हमें चाहिए वह लानी होगी।' For Private And Personal Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या विनयेन शोभते ७१ __अभयकुमार खुद कारीगरों को साथ लेकर जंगल में गये| चारों दिशा में अच्छे-अच्छे वृक्षों की खोज करने लगे। पूरब दिशा में उन्होंने एक बहुत बड़ा सुंदर और मजबूत वृक्ष देखा। कारीगर उस वृक्ष को देखकर नाच उठे : 'वाह भाई वाह! एकडंड महल का खंभा तो इस वृक्ष के तने में से ही बन जायेगा।' ___ कारीगर लोग तो आरी वगैरह निकालकर उस वृक्ष को काटने की तैयारी करने लगे। परंतु अभयकुमार ने उन्हें ऐसा करने से रोका और कहा : 'देखो, जिस वृक्ष को हम काटना चाहते हैं... पहले उसकी इजाजत लेनी चाहिए। शायद इस वृक्ष में कोई देव या यक्ष वगैरह का निवास भी हो!' यों कहकर अभयकुमार ने वृक्ष के सामने खड़े होकर दोनों हाथ जोड़े। सर झुकाकर वे बोले : 'यदि कोई देव इस वृक्ष पर रहते हों...या किसी देव-यक्ष का इस वृक्ष पर अधिकार हो तो हम इस वृक्ष को नहीं काटेंगे । अन्यथा हम वृक्ष काटने की इजाजत लेते हैं। __ इतने में वृक्ष की डालियों में से एक तेजभरा प्रकाश वर्तुल फैला...एक देव प्रगट हुआ और उसने कहा : ___ 'मैं तुम्हारे विनय एवं तुम्हारी नम्रता से बहुत खुश हूँ तुम्हारे ऊपर | यह वृक्ष मेरा है...। इसे तुम काटना मत। मैं तुम्हे राजगृही नगर के बाहरी इलाके में एक सुन्दर बगीचा दूँगा। उस बगीचे में सभी ऋतुओं के तरह-तरह के फूल खिला करेंगे। उस बगीचे के बीचोबीच मैं एक खंभे पर रानी चेल्लणा जैसा चाहती है, वैसा महल भी बना दूंगा।' ___ अभयकुमार ने सर झुकाकर देव का आभार माना। देव खुश होता हुआ अदृश्य हो गया । अभयकुमार अपने कारीगरों को लेकर वापस राजगृही नगरी में लौट आये। राजा श्रेणिक और रानी चेल्लणा भी बहुत प्रसन्न हुए देव की कृपा हुई जानकर। उस देव ने अपनी दिव्य शक्ति के सहारे थोड़े दिनों में तो सुन्दर बगीचा बनाकर उस में कलात्मक और बड़ा सुन्दर एकडंड महल खड़ा कर दिया। राजा-रानी को लेकर अभयकुमार नये बगीचे में आये। वहाँ पर उन्होंने सुंदर एकडंड महल देखा... सभी नाच उठे | खुश हो उठे। रानी चेल्लणा ने राजा से कहा : 'हमलोग तो आज से ही इस महल में रहने के लिये आ जायें।' राजा ने हामी भर ली। For Private And Personal Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७२ विद्या विनयेन शोभते राजा-रानी दोनों एकडंड महल में आनंद से रहते हैं। बगीचे में घूमते हैं...और हर एक ऋतु के फल-फूल देखकर आनंदित हो उठते हैं। कहाँ-कहाँ पर कौन-कौन से फलों के पेड़ हैं यह राजा के खयाल में पूरी तरह आ गया था। राजगृही नगर के लोग भी एकडंड महल की रचना देखकर और बगीचे की सुंदरता देखकर दाँतों तले उँगली दबा जाते हैं। जी भरकर प्रशंसा करते हैं, राजा-रानी के किस्मत की। अभयकुमार की बुद्धिमत्ता पर आफरीन हो उठते हैं...और यूँ दिन बड़ी खुशी मे कटते हैं। उसी राजगृही नगर में मातंग नाम का आदमी अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह था तो चंड़ाल जात का पर बड़ा बुद्धिमान था। उसके पास दो विद्याएँ भी थी। उसे अपनी पत्नी पर बहुत प्रेम था। पत्नी जो कुछ कहती, मातंग उसकी हर एक बात मानता था। सर्दियों के दिन थे। एक दिन मातंग चंडाल की पत्नी को आम खाने की इच्छा हुई। उसने अपने पति से कहा : 'मेरा मन आम खाना चाहता है, आप कहीं से भी मेरे लिये आम्र फल ले आओ!' 'पर अभी सर्दियों में भला, आम मिलेंगे कहाँ पर? अभी तो आम की ऋतु कहाँ है?' 'कहीं से भी लाकर के दो। मुझे आम खाना है। और हाँ, राजा के नये बगीचे में तो बारहो महीनों आम लगे रहते हैं पेड़ पर | वहीं से ले आओ!' _ 'पर राजा के बगीचे पर चौकी-पहरा कितना भारी रहता है...? अंदर जाऊँ कैसे? कहीं पकड़ा गया तो?' 'कुछ भी हो...मुझे आम खाना है...। मुझे कल तो आम चाहिए ही।' जिद...और वह भी औरत की! बेचारा चंड़ाल तो मुसीबत में फंस गया । उसने सोचा : ___ 'राजा के नये बगीचे में से ही आम मिल सकता है सर्दियों में, पर बगीचे में मुझे जाने कौन दे? आम तोड़ने कौन दे?' वह हिम्मत करके बगीचे के पास गया। बगीचे के चारों तरफ चक्कर काटने लगा। उसने बगीचे की दीवार के समीप ही एक आम के पेड़ पर आम लटकते देखे, पर डाली काफी ऊपर थी। For Private And Personal Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या विनयेन शोभते ७३ ___ मातंग के पास 'अवनामिनी' नाम की विद्याशक्ति थी। उस विद्या को याद करने से ऊपर रही हुई चीज नीचे आ जाती। और 'उन्नामिनी' नाम की विद्या का स्मरण करने से वह चीज जहाँ की तहाँ वापस पहुँच जाती थी। वह दूसरे दिन सुबह के अंधेरे में बगीचे के पास चला गया । दीवार के इस पार खड़ा रहकर उसने डाली को लक्ष्य कर के 'अवनामिनी' विद्या का स्मरण किया और आम की डाली नीचे झूक आई। उसने फटाफट आम तोड़े...टोकरी में भर लिये और 'उन्नामिनी' विद्या का स्मरण किया तो डालियाँ वापस अपनी जगह पर चली गई। आम की टोकरी लेकर वह जल्दी-जल्दी कदम भरता हुआ अपने घर पर पहुँच गया। पत्नी को आम दे दिये| पति-पत्नी दोनों ने बड़े मजे से आम काट-काट कर खाये...और हँसते-हँसते राजा के चौकीदारों की आँखों में धूल डालने पर मजाक करते रहे! सबेरे-सबेरे इधर जब राजा श्रेणिक और रानी चेल्लणा बगीचे में घूमने को निकले तब राजा की निगाहें वृक्ष पर पड़ी। उसने वहाँ पर आम नहीं देखे : 'अरे...रोजाना तो इस पेड़ पर आम कितने सारे दिखाई देते थे, आज तो पूरी डाली बिल्कुल खाली है। क्या बात है? आम तोड़े किसने? वह भी मेरी इजाजत के बगैर?' राजा ने माली को बुलाकर उसे डाँटते हुए पूछा | माली बेचारा सकपका गया। उसे कुछ भी पता नहीं था। बगीचे में तो कोई आया नहीं था। मातंग कहाँ बगीचे के अंदर आया था? किसी के पदचिन्ह भी वहाँ थे नहीं! राजा ने तुरंत ही महामंत्री अभयकुमार को बुलाकर सारी बात कही और कहा : 'कहीं से भी चोर को पकड़कर मेरे समक्ष हाजिर करो।' अभयकुमार यानी बुद्धि का बादशाह! अभयकुमार यानी अक्कल का खजाना! अभयकुमार यानी चतुराई का भंडार! उसने बड़े-बड़े चोरों को चुटकी बजाते हुए पकड़ लिये थे। इस चोर को भी पकड़ लाने के लिये अभयकुमार ने हॉ भर ली। चोर को हाथ करने के लिये अभयकुमार नगर के बाहर और भीतर घूमने लगा। लोगों से मिलने लगा। सभी पर नजर रखने लगा। चोरों के छुपने की For Private And Personal Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७४ विद्या विनयेन शोभते जितनी जगहें थी... सब उसने ढूंढ़ निकाली। कहीं पर भी चोर का अता-पता लगा नहीं। यों करते-करते रात हो गयी। अभयकुमार नगर के एक बड़े चौक के पास से गुजरा | वहाँ पर चार रास्तों का चौराहा था। काफि लोगों की भीड़ वहाँ पर खड़ी थी। अभयकुमार ने किसी आदमी से पूछा : 'भाई, बात क्या है? ये सब लोग यहाँ पर खड़े क्यों हैं?' उस आदमी ने कहा : 'यहाँ पर थोड़ी देर में नाटक होनेवाला है...ये सारे लोग नाटक देखने के लिये यहाँ पर खड़े हैं! अभयकुमार ने अपने मन में कुछ सोचा और वह नाटक के मंच पर आ पहुँचा। नाटक करनेवाली मंडली अंदर के भाग में परदे के पीछे कपड़े बदलकर साज-सज्जा कर रही थी। अभयकुमार नाटक-मंडली के मालिक की इजाजत लेकर स्टेज पर आ गया और अपनी ऊँची आवाज में लोगों से कहा : 'प्यारे नगरवासियों, सुनिये, नाटकमंडली को तैयार होने में कुछ देर है... तब तक मैं तुम्हें एक मजेदार कहानी सुनाना चाहता हूँ... तुम सब ध्यान से सुनना : ___ 'एक छोटा पर बड़ा रमणीय गाँव था गोपालपुर | वहाँ पर गोवर्धन नामक सेठ रहते थे। उनकी एक बेटी थी जिसका नाम था रूपवती । रूपवती सचमुच सुंदर थी... पर सेठ के गरीब होने से उनकी बेटी के साथ कोई शादी करने को तैयार नहीं हो रहा था। सेठ को अपनी बेटी की बड़ी चिंता रहती थी। रूपवती को भी काफी दुःख होता था। वह अपने योग्य पति को पाने के लिये रोजाना भगवान से प्रार्थना करती थी। इसके लिये वह रोज गाँव के बाहर तालाब के किनारे पर बने हुए कामदेव यक्ष के मंदिर में जाकर कामदेव की पूजा करती थी। कामदेव की पूजा के लिये फूल तो जरुरी होते हैं। फूल खरीदने के लिये उनके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वह नित्य चोरी-छुपी से बगीचे में घुसकर वहाँ से फूल तोड़ लाती। __ एक दिन बगीचे के माली ने उसे फूलों की चोरी करते हुए पकड़ ली। पर रूपवती की सुंदरता देखकर वह उस पर लट्ट हो गया। वह रूपवती को सताने लगा...रूपवती की मजाक करने लगा। For Private And Personal Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७५ विद्या विनयेन शोभते रूपवती ने हाथ जोड़कर उससे कहा : 'तू मुझे मारना चाहे तो मार ले, पर मेरे को सताओ मत...मेरे शरीर को छूना मत।' माली ने कहा : 'देख, यदि तू शादी करने के बाद सबसे पहले मुझसे मिलने आने का वचन दे, पहले मेरे पास आने की प्रतिज्ञा ले तो ही मैं तुझे छोडूंगा...जाने दूंगा।' रूपवती ने हामी भर ली। वह अपने घर पर लौट आयी। कुछ दिन बीते... उसकी कामदेव की पूजा सफल हुई। एक अच्छे घराने के लड़के के साथ रूपवती की शादी हो गई। शादी के बाद रूपवती ने अपने पति से मिलकर कहा : ___ 'मैंने शादी से पहले बगीचे के माली से अपने आपको छुड़ाने के लिए वचन दिया था कि शादी के बाद मैं पहले उस माली से मिलने के लिये जाऊँगी। इसलिये यदि आप इजाजत दें तो मैं माली के पास जा आऊँ!' पति भी रूपवती की प्रतिज्ञा पालन करने की दृढ़ता की बात सुनकर प्रसन्न हुआ। उसने इजाजत दे दी। रूपवती माली के पास जाने के लिये निकली। रास्ते में उसे चार चोर मिले। उन्होंने रूपवती को देखकर उसे लूटने का इरादा किया। उन्होंने उसे पकड़ा। रूपवती से कहा : 'हम तुझे हमारी पत्नी बनायेंगे... अब तू हमारे पास से कहीं नहीं जा सकती!' रूपवती ने कहा : 'देखो... मेरी प्रतिज्ञा है माली के पास जाने की... वहाँ जाकर वापस आऊँ... तब तुम्हें जो करना हो सो करना... अभी तो मुझे जाने दो!' चोरों ने उसे जाने दिया। रूपवती आगे चली... इतने में एक भयंकर राक्षस ने आकर उसको दबोचा...'मैं तुझे जिन्दा ही खा जाऊँगा।' रूपवती ने जरा भी घबराये बगैर कहा : 'मेरी एक प्रतिज्ञा है... माली के पास जाने की... वहाँ जाकर वापस लौटू तब तुम्हारे मन में जो आये वह करना... फिलहाल मुझे जाने दो।' राक्षस ने भी उसे जाने दिया। ___ रूपवती सीधी बगीचे के माली के पास उसके घर पर जा पहुंची। माली ने रूपवती को देखा। उसे आश्चर्य हुआ। उसने पूछा : 'अरे...तू अभी यहाँ पर रात को क्यों आयी है?' For Private And Personal Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विद्या विनयेन शोभते ७६ ___ रूपवती ने कहा : 'मैंने तुम्हें वचन दिया था न कि शादी के बाद सीधी तुम्हारे पास आऊँगी। उस वचन को निभाने के लिये आयी हूँ।' माली ने पूछा : 'क्या तेरे पति ने इजाजत दे दी तेरे को?' 'हाँ, मेरी प्रतिज्ञा का भंग न हो... इसलिए उन्होंने इजाजत दे दी।' फिर तो उसने रास्ते में मिले हुए चोर और राक्षस की बात भी की। वह सुनकर माली ने सोचा : 'यह औरत कितनी पक्की है अपने वचन की। इसकी प्रतिज्ञापालन की दृढ़ता से खुश होकर उसके पति ने, चोरों ने और राक्षस ने भी उसे छोड़ दिया तो फिर मैं इसको क्यों परेशान करूँ? यदि मैं इसको सताऊँगा तो भगवान मुझे माफ थोड़े ही करेगा?' माली ने रूपवती को अपनी बहन बनाकर उसे सुंदर कपड़े वगैरह भेंट देकर विदा कर दी। रूपवती खुश होती हुई वहाँ से वापस लौटने लगी। वह जब राक्षस के पास आयी तो राक्षस ने भी आश्चर्य-चकित होकर उसकी प्रतिज्ञापालन की प्रशंसा की और भेंट-सौगात देकर उसे छोड़ दिया। रूपवती वहाँ से चलकर चोरों के पास आयी। चोर भी रूपवती की निर्भयता और वचन-पालन की तत्परता के लिये खुश हो उठे थे। उन्होंने भी रूपवती को ससम्मान अपने पति के पास जाने की इजाजत दी। घर पर आकर रूपवती ने सारी बात अपने पति से कही। उसका पति भी रूपवती पर बड़ा खुश हुआ। उससे बहुत प्रेम करने लगा और दोनों मौज करते हुए आराम से दिन गुजारने लगे। अभयकुमार ने कहानी पूरी करते हुए लोगों से पूछा : 'नगरवासियों, मैं तुम्हे पूछ रहा हूँ...कि रूपवती का पति, वे चोर, वह राक्षस और वह माली, इन चारों में से तुम श्रेष्ठ किसे कहोगे?' एक व्यापारी जवान बोल उठा : रूपवती का पति श्रेष्ठ । एक ब्राह्मण जवान बोला : राक्षस श्रेष्ठ | एक क्षत्रिय बोला : माली श्रेष्ठ । एक चंडाल बोल उठा : चोर श्रेष्ठ । अभयकुमार ने तुरंत चंडाल को पकड़ लिया और उसके हाथों में बेड़ियाँ डाल दी। उसे ले जाकर राजा श्रेणिक के समक्ष खड़ा कर दिया। यह चंड़ाल For Private And Personal Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विद्या विनयेन शोभते ७७ और कौई नहीं पर वह आम चुरानेवाला मातंग ही था । 'चोर-चोर मौसेरे भाई' - चोर को चोर ही श्रेष्ठ लगेगा न ? राजा ने उस चंडाल से पूछा : 'तूने बगीचे में से आम चुराये हैं?" ‘हाँ, महाराजा।’ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'क्यों चुराये?' 'मेरी पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिये !' 'पर तूने चोरी की कैसे ? इतने पहरे के बीच बगीचे में घुसना...' 'महाराजा, मैं बगीचे में घुसा ही नहीं... बाहर दीवार के पास खड़े रहकर मैंने आम तोड़े थे।' 'पर डालियाँ तो काफी ऊँची थी । तूने किस तरह आम उतार लिये?' 'महाराजा, क्षमा करना... मेरे पास 'अवनामिनी' नाम की विद्या है... उस विद्या के सहारे मैंने डालियों को झूका दी और आम तोड़ लिये। फिर ‘उन्नामिनी' नामक विद्या से उन डालियों को वापस कर दी ।' चंड़ाल ने सारी बात सच-सच बता दी । राजा तो ताज्जुब हो गया यह जानकर कि इस चंड़ाल के पास इतनी सुंदर दो विद्याएँ हैं। उसकी इच्छा हुई, उन विद्याओं को प्राप्त करने की ! राजा ने चंडाल से कहा : 'तू तेरी वे दो विद्याएँ मुझे सिखायेगा ?' 'जरुर... महाराजा... आप तो हमारे मालिक हो! आप को नहीं सिखाऊँगा तब फिर किसे सिखाऊँगा?' 'तो सिखला दे मुझे वे विद्याएँ ।' राजा श्रेणिक सिंहासन पर बैठा था । मातंग चंड़ाल राजा के सामने जमीन पर खड़ा था । वह विद्या बोलता है, राजा से बुलवाता है, पर राजा को विद्या याद नहीं रहती है ! दस-पन्द्रह बार बुलवाने पर भी जब राजा को विद्या याद नहीं हुई तो राजा को बड़ा गुस्सा आया चंड़ाल पर। उसने कहा : तू जान-बूझकर मुझे ठीक से नहीं सिखा रहा है!’ For Private And Personal Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ों का कहा मानो ७८ अभयकुमार पास में ही खड़ा था, उसने कहा : 'माफ करना महाराजा, इस तरह विद्या नहीं सीखी जा सकती। विद्या तो आपको यह ठीक ही सिखा रहा है, पर आपका अविनय ही बाधक बना हुआ है, विद्या सीखने में। 'मेरा अविनय? वह कैसे?' 'देखिये...आपको सीखना है और आप खुद सिंहासन पर बैठे हैं मजे से, और जिससे सीखना है उस मातंग को सामने जमीन पर खड़ा कर रखा है! सीखनेवाला बड़ा है या सिखानेवाला?' राजा को अपनी गलती का खयाल आ गया। राजा सिंहासन पर से नीचे उतरा और खुद जमीन पर बैठकर मातंग को अपने सिंहासन पर बिठाया। हाथ जोड़कर बहुमानपूर्वक राजा ने विद्या सीखने की शुरुआत की। चंडाल ने राजा को दोनों विद्याएँ दी। राजा को याद रह गयी। बगीचे में जाकर चंडाल के समक्ष ही दोनों विद्याओं का सफल प्रयोग किया। राजा ने प्रसन्न होकर मातंग चंडाल को ढेर सारी संपत्ति दी और उसका सम्मान किया। इस तरह मातंग चंड़ाल राजा का विद्यागुरु बन गया। इस कहानी का सारांश यह है कि हम भी जिन से कुछ सीखें...विनय से, नम्रता से और बहुमानपूर्वक, आदर के साथ सीखें। सिखानेवाले पर कभी भी गुस्सा न करें। अध्यापक या गुरुजनों के सामने न बोलें। उनकी मजाक न उड़ायें। तो ही हम सही रूप में कुछ भी सीख पायेंगे। हमारे नीतिशास्त्रधर्मशास्त्र कहते हैं-'विद्या विनयेन शोभते' विद्या विनय से शोभती है। विनय तो विद्या का शृंगार है। कुछ भी सीखो, पूरे विनय के साथ, आदर के साथ। खूब पढ़ो पर विनय के साथ! आगे बढ़ो पर नम्रता के साथ! For Private And Personal Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ों का कहा मानो ७९ ५. बों का कहा मानो। NOI एक सरोवर था! सरोवर के किनारे पर एक बड़ा घटादार पेड़ था। उस पेड़ पर बहुत सारे हंस रहा करते थे। दिन को वे हंस सरोवर के पानी में तैरते... और रातों को पेड़ के ऊपर अपनी-अपनी डाली पर आकर आराम करते! कभी-कभी दाना चुगने के लिये दूर-दूर उड़ भी जाते! पर शाम को वे जरुर अपने पेड़ पर आकर रहते। ___ उन हंसों के टोले में एक बूढ़ा हंस भी था । बूढ़े हंस ने एक दिन देखा कि पेड़ की जड़ के इर्द-गिर्द एक बेल का अंकुर उग रहा है। उसकी आँखो में डर उभर आया । उसने सोचा : 'यह बेल शायद बड़ी होकर हमको नुकसान कर सकती है। अभी से इसको काट देना चाहिए।' पर उस बूढे हंस की चोंच कमजोर थी। उसने सभी हंसो को बुलाकर कहा : 'देखो बेटों, अपने पेड़ की जड़ में जो बेल का अंकुर उगा है, उसे तुम चोंच से काट डालो, वरना अपने सबको एक दिन मरना पड़ेगा!' बूढ़े हंस की बात सुनकर जवानी के जोश में होश गवाँ बैठे जवान हंस हँसने लगे। बूढ़े हंस की मजाक करने लगे। एक जवान हंस ने कहा : 'दादा, अब तो आप काफी बूढ़े हो गये हो, फिर भी मौत से घबराते हो? वैसे भी अब मौत तो आपके सामने खड़ी है...! हम भी मौत से नहीं डरते...फिर आपको तो डरने की जरूरत ही क्या है! आप चिंता क्यों करते हो? हमारी रक्षा करना हमें आता है। हम अपने आप निपटेंगे आनेवाली आफत से | आप नाहक परेशान मत होओ!' बूढ़ा हंस बेचारा मन में सोचता है : 'ये हंस मेरा कहना मान नहीं रहे हैं | मेरी बात का महत्व नहीं समझ पा रहे हैं। मूर्ख हैं। हालांकि मूों को उपदेश या सलाह देनी ही नहीं चाहिए | नकटे आदमी को आईना बताने से उल्टा वह गुस्सा करता है, वैसे ही मुर्ख को सलाह देने से वह चिढ़ता है!' बूढ़े हंस ने कहा : "ठीक है...जब आफत उतरेगी तब अकल ठिकाने आयेगी। ओ अभिमान के पुतलों, अभी तुम मेरा मजाक उड़ा रहे हो... पर जब मौत आकर घेरेगी तब फिर देखना...' ___ 'हम मौत से बिल्कुल नहीं डरते... आप आपका काम करो!' जवान हंसों ने बूढ़े हंस की बात सुनी-अनसुनी कर दी! For Private And Personal Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बड़ों का कहा मानो ८० __ तीन-चार महीने बीत गये । बेल अब बड़ी होकर पेड़ को लिपटती हुई ऊपर चढ़ने लगी। एक दिन न जाने कहीं से एक शिकारी सरोवर के किनारे पर आया। उसने पेड़ देखा... वह जानता था की 'इस पेड़ पर कई हंस रहते हैं।' वह बेल को पकड़कर फर्राटे से ऊपर चढ़ गया। उसने अपनी कमर में छुपायी हुई जाल बाहर निकाली। उसने पेड़ के चारो तरफ जाल बिछा दी। उस समय पेड़ पर एक भी हंस हाजिर नहीं था। सभी दाना चुगने दूर-दूर गये हुए थे। ___शाम हुई...रात हुई। दूर गये हुए हंस वापस लौटने लगे। अंधेरे में किसी ने जाल को देखा नहीं। ज्यों ही वे पेड़ पर बैठने गये कि सभी जाल में बुरी तरह फँस गये! बूढ़ा हंस सब से पीछे धीरे-धीरे उड़ता हुआ आ रहा था। जाल में फँसे हुए हंसो ने जोरों से चीखना-चिल्लाना चालू किया। नजदीक आये हुए बूढ़े हंस ने यह सब सुना | उसके मन में कुछ बुरा होने की आशंका जाग उठी । वह पेड़ से दूर ही रहा। उसने वहीं से पूछा : 'क्यों बेटे, क्या हुआ? क्यों चीख रहे हो?' 'दादा, हम फँस गये हैं जाल में! अंधेरे में इस जाल को देख ही नहीं पाये और फँस गये!' बूढ़ा हंस समझ गया । 'अवश्य, उस बेल को पकड़ कर ही शिकारी पेड़ पर चढ़ा होगा। उसने ही जाल बिछायी होगी।' उसने उन अभिमानी हंसों से कहा : ___ 'अब तो तुम्हारी मौत नक्की है, पर चिंता किस बात की? तुम तो बहादुर हो...! मौत से डरते नहीं हो... आराम से पड़े रहो! सुबह में शिकारी आकर के तुम सब को ले जायेगा अपने साथ!' 'दादाजी...हमारे ऊपर दया करो... कुछ भी उपाय बतलाइये... हमें बचा लीजिये।' 'मैं कैसे बचाऊँ तुम्हें? मैंने तो उसी वक्त तुम्हें सावधान कर दिया था! पर तुम तो मेरा मजाक उड़ा रहे थे तब! अब तुम्हें मरना ही होगा।' ___ 'दादाजी, माफ कर दो हमारी गलती को! हमें अभी बड़ी पश्चात्ताप हो रहा है। यदि हमने आपका कहा मानकर उस बेल के अंकुर को उसी समय काट दिया होता तो आज हमारी यह दशा नहीं होती! माफ कर दो दादाजी...' सभी हंस रोने लगे...कलपने लगे। हंसों के रोने का स्वर सुनकर बूढ़े हंस को दया आ गई। उसने कहा : For Private And Personal Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८१ बड़ों का कहा मानो 'अज्ञान से, आलस से या लापरवाही से काम बिगड़ने के बाद, आदमी कितनी भी कोशिश करता फिरे... पर वह सफल नहीं हो पाता है! सरोवर में से पानी बह जाने के बाद किनारा बाँधने से क्या फायदा?' युवा हंसो ने कहा : 'ओ दादाजी, हम तो अज्ञान बच्चे हैं... भोले हैं, पर आपके ही हैं। आप हमारे ऊपर दया करें... आप अपने स्वस्थ दिमाग से सोचकर हमें बचाने का कोई कारगर उपाय बताइये । स्वस्थ चित्त में बुद्धि पैदा होती है।' बूढ़े हंस को महसूस हुआ : 'अब इन जवानों का गर्व गल गया है। अब वे सीधा ही चलेंगे। अतः उसने जाल में से छूटने का उपाय बताया : 'मेरे प्यारे बेटों, तुम जरा ध्यान देकर मेरी बात सुनना । जब शिकारी आये तब तुम बिल्कुल मुरदे होकर पड़े रहना! शिकारी को लगेगा कि तुम सब मर गये हो । यदि उसे ऐसा लगा कि तुम जिन्दा हो तो वह तुम्हारी गरदन मरोड़मरोड़ कर फेंक देगा। इसलिये तुम मर जाने का दिखावा करना । तुम्हें मरा हुआ समझकर वह तुम्हें जमीन पर फेंक देगा । जैसे ही तुम जमीन पर गिरो... कि तुरंत ही उड़ जाना। पर एक बात ध्यान में रखना, शिकारी तुम सबको नीचे फेंक दे... बाद में ही तुम सब एक साथ ही उड़ना...!' सभी हंसों ने वृद्ध हंस की बात मान ली : 'दादा, जब आप कहोगे कि 'उड़ जाओ!' तभी हम सब साथ में उड़ जायेंगे।' प्रभात में जब शिकारी आया तब उसने सभी हंसों को जाल में फँसे हुए और मरे हुए पाया। पेड़ पर चढ़कर वह एक-एक हंस को जमीन पर फेंकने लगा। सभी हंसों को नीचे फेंक दिये। वृद्ध हंस जो बगल के पेड़ पर बैठा था, उसने कहा : 'उड़ जाओ!' - और सभी हंस फुर्रर्र... करके उड़ गये। शिकारी तो हक्का-बक्का सा रह गया...! पंख फैलाकर उड़ते हुए हंसों को मुँह बाये हुए शिकारी बेचारा देखता ही रहा! बूढ़े-बुजुर्गों का कहा मानने से, बड़ों की बात मानने से सुख मिलता है। आफतें टलती है। हमेशा बड़ों का कहना मानो । For Private And Personal Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! ६. चोर की चतुराई। A महामंत्र की भलाई! उत्तरमथुरा नाम का एक बहुत बड़ा गाँव था। उस गाँव में 'रूपा' नाम का एक चोर रहता था। रूपा बड़ा दुष्ट था...खराब था! वह मांस खाता...शराब पीता...जुआ खेलता...और शिकार भी करता था! रोजाना वह किसी न किसी सेठ के घर में चोरी करता। पर रूपा चालाक इतना था कि कभी भी पकड़ा नहीं जाता था! एक दिन रूपा ने जुआ खेलने में काफी रुपये कमाये| रुपये लेकर वह अपने घर जाने के लिये निकला। रास्ते में उसे कुछ भिखारी मिले । न जाने रूपा के मन में क्या आया!! उसने गरीब भिखारियों को रुपये देना चालू किया। भिखारी भी खुश होकर रुपये ले रहे थे। रास्ते ही रास्ते मे पाँच घंटे बीत गये! सारे रुपये उसने बाँट दिये थे। उसे जोरों की भूख लगी थी। वह अपने घर की ओर चला। रास्ते में राजा का महल आया। महल के झरोखे में से बढ़िया खुशबू आ रही थी। वह दो मिनट खड़ा रह गया... | 'ओह...यह तो बढ़िया ताजी मिठाई की खुशबू है! कितना मीठा भोजन तैयार हो रहा होगा राजमहल में!' रूपा की जीभ लपलपाने लगी। उसे भूख भी जोरों की लगी थी। उसने अपने मन में सोचा : 'चलो, आज तो राजा के सामने बैठकर राजा की थाली में से ही भोजन करेंगे।' रूपा के पास आँखो में डालने का ऐसा अंजन था कि जिसे आँखों में आंजने पर वह अदृश्य हो जाता! कोई उसे देख नहीं सकता था! रूपा एक कोने में गया । जेब में से अंजन की शीशी निकाली। दोनों आँखों में उसने अंजन लगा दिया। वह अदृश्य हो गया। किसी से अपना शरीर टकरा न जाये इसकी सावधानी रखते हुए वह महल में घुस गया। एक के बाद एक कमरे में से गुजरता हुआ सीधा राजा के भोजनालय में पहुँच गया। राजा पद्मोदय भोजन करने के लिये बैठा हुआ था। अभी उसने भोजन चालू किया ही था। रूपा ठीक उसके सामने जाकर जम गया । वह भूखा तो था ही। मीठी-मधुर और स्वादिष्ट रसोई देखकर उसके मुँह में पानी भर आया । थाली में से उठा-उठा कर वह कौर भरने लगा, भोजन करने लगा। राजा एक कौर For Private And Personal Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! लेता इतने में रूपा चार-पाँच कौर दबा जाता! जल्दी-जल्दी भोजन करके रूपा तो जिस रास्ते आया था उसी रास्ते महल से बाहर निकल गया। इधर राजा पद्मोदय तो सोच में पड़ गया : 'अरे, यह क्या गजब है? आज मेरी थाली में से खाना जल्दी-जल्दी कैसे खतम हो गया? मैं तो अभी भूखा ही हूँ...| मैंने तो इतना खाया भी नहीं, अब और खाना मांगूंगा तो रसोईया समझेगा 'मैं कितना खाना खाता हूँ।' शरम के मारे राजा बेचारा भूखा ही उठ गया खाने पर से। रूपा तो अपने घर पहुंचकर मजे से आराम करने लगा। उसे राजमहल के खाने का चस्का लग गया था। वह अपने मन में सोच रहा था : 'अब तो बस, मैं रोजाना राजमहल में जाकर राजा की थाली में से ही खाना खाऊँगा! मेरे पास अंजन तो है ही। मुझे कौन देखने वाला है? किसकी ताकत है जो मुझे पकड़ेगा?' ___ और रूपा प्रतिदिन राजा की थाली में से भोजन करने लगा। राजा बेचारा शरम के मारे हर रोज भूखा रहने लगा। किसी से कहे भी तो क्या कहे? राजा तो भूख से कमजोर पड़ने लगा। एक दिन राजा के मंत्री मतिशेखर की नजर राजा के कमजोर हुए जा रहे शरीर पर पड़ी। मंत्री का मन चिंतित हो उठा : ___ 'राजा इतने कमजोर क्यों हुए जा रहे हैं? क्या राजा को कोई चिंता या बीमारी है? क्या वे पूरा भोजन नहीं कर रहे होंगे? भोजन के बिना शरीर तंदुरस्त कैसे रहेगा? जैसे बिना आँखों के मुँह अच्छा नहीं लगता, बगैर न्याय का राजा शोभा नहीं देता, बिना नमक का भोजन अच्छा नहीं लगता, बिना चाँद की रात नहीं सुहाती...और धर्म के बिना जीवन शोभा नहीं देता... वैसे ही खाने के बगैर शरीर शोभा नहीं देता!' मंत्री ने एक दिन अवसर पाकर राजा से हाथ जोड़कर पूछा : 'महाराजा, क्या बात है...? आपका शरीर इतना कमजोर और दुबला क्यों हो रहा है? किस बात की चिंता-फिक्र है आपको? कम से कम आप मुझसे तो सब बात खोल कर बतायें! आखिर क्या परेशानी है?' राजा ने मंत्री से कहा : 'मतिशेखर, तुम्हारे जैसा बुद्धिमान मंत्री मेरे पास है फिर मुझे चिंता किस बात की? पर पिछले पंद्रह-बीस दिन से मुझे ऐसा महसूस होता है कि कोई For Private And Personal Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! ८४ व्यक्ति अदृश्य रूप से मेरे साथ मेरी थाली में से भोजन कर रहा है! मेरी थाली में जितना भी भोजन परोसा जाता है... उसमें से मैं तो बहुत थोड़ा ही खा पाता हूँ, बाकी तो सारा का सारा भोजन वह ही खा जाता है!' राजा की बात सुनकर मंत्री विचार करने लगा : 'जरुर कोई अंजनसिद्ध व्यक्ति अदृश्य बनकर राजा की थाली में से भोजन कर लेता है।' राजा की कमजोरी का कारण उसकी समझ में आ गया। उसने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा : ___ 'महाराजा, आप चिंता मत करें... अब मैं उस व्यक्ति से निपट लूँगा...। कल ही उस अदृश्य आदमी को मैं पकड़ लूँगा।' मंत्री राजा को प्रणाम करके अपने घर पर गया। उसने बुद्धि लगाई और सोच-समझकर एक बढ़िया योजना बनाई। अपनी बनाई हुई योजना पर वह स्वयं आफरीन हो उठा। दूसरे दिन भोजन के कुछ समय पहले मंत्री राजमहल में गया। जिस कमरे में बैठकर राजा भोजन करता था उस कमरे में मंत्री ने आक के सूखे पत्ते बिखेर कर बिछा दिये और सूखे फूल डलवा दिये। उस कमरे के चारों कोनों में चार बड़े-घड़े रखवा दिये। उन घड़ों में तीव्र गंधवाला धूप भरवा दिया, और घड़ों के मुँह ढंकवा दिये। कमरे के बाहर शस्त्रों से सज्ज सैनिक दस्ते तैनात कर दिये। __मंत्री खुद भी पास के कमरे में छुप कर बैठ गया। भोजनखंड में राजा रोजाना की भाँति भोजन करने के लिये बैठा। थाली में भोजन परोस दिया गया था। इतने में अदृश्यरूप में रूपा चोर वहाँ आ पहुँचा। उसकी नजर तो राजा की तरफ और भोजन की तरफ थी। जैसे ही उसने कमरे में पैर रखा...आक के सूखे पत्ते कड़क कर खड़खड़ाये | मंत्री चौकन्ना हो गया। वह भोजन की थाली के पास पहुँचा। इतने में तो मंत्री ने चार कोनों में रखे हुए घड़ों के मुँह खुलवा दिये...और पूरा कमरा धुएँ से भर गया | इतना धुआँ...कि जैसे अश्रुगैस छोड़ा हो किसी ने! ___पत्तों के खड़खड़ाने से ही मंत्री समझ गया था कि वह अदृश्य आदमी आ पहुँचा है! इसलिए तुरंत उसने धुआँ छोड़ दिया। राजा, मंत्री और चोर... तीनों की आँखें जलने लगी...| आँखों में से पानी गिरने लगा। रूपा हड़बड़ाहट में अपनी आँखें मसलने लगा...उसकी आँखों में लगाया हुआ अंजन धुलने For Private And Personal Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८५ चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! लगा...। ज्यों-ज्यों अंजन धुलने लगा, रूपा प्रत्यक्ष दिखने लगा। बाहर खड़े हुए सशस्त्र सैनिकों ने वेग से आकर रूपा को पकड़ लिया। राजा पद्मोदय का गुस्सा रूपा पर खौल उठा | उसने कड़क कर सैनिकों को आज्ञा दी-'इस दुष्ट चोर को नगर के बाहर ले जाओ और शूली पर लटका दो। इसके साथ यदि कोई आदमी कुछ बात करने की कोशिश करता दिखाई दे तो उसे राजद्रोही समझकर गिरफ्तार कर लेना और पकड़कर मेरे पास हाजिर करना।' सैनिक रूपा को ले गये। वहाँ शूली लगाई गई। और रूपा को शूली पर लटका दिया गया। उसका पेट बींध गया। जमीन पर खून बहने लगा। फिर भी उसकी मौत नहीं हुई। राजा के सैनिक इधर-उधर थोड़ी दूर पर बैठे हुए पूरा ध्यान रख रहे थे कि कोई रूपा के साथ बात तो नहीं कर रहा है ना? ___ एक दिन गया...दूसरा दिन बीता... तीसरा दिन भी बीतने की तैयारी में था। सूरज क्षितिज पर ढल चुका था। उस समय, उसी नगर के एक सेठ जिनदत्त अपने बेटे जिनदास के साथ, उस रास्ते से गुजर रहे थे। जिनदास ने रूपा को शूली पर लटकते हुए देखा...उसको दया आ गई। उसने अपने पिता से पूछा : 'पिताजी, यह आदमी कौन है?' 'बेटा, यह चोर है।' 'पिताजी, इसे इतना दुःख क्यों मिला है?' 'बेटा, उसने चोरी का पाप किया है, उसने कइयों को मारा है। उसने मांस खाया है। उसने तरह-तरह के पाप किये हैं। उसका फल वह भुगत रहा है। पापों का फल तो भुगतना ही पड़ता है।' __पिता-पुत्र का वार्तालाप रूपा सुन रहा था। उसने इशारे से पिता-पुत्र को अपने पास बुलाया। वह बोल नहीं पा रहा था। उसका सर कौओं ने नोच लिया था। लोमड़ी ने उसके पैर काट खाये थे। फिर भी बड़ी मुश्किली से उसने धीरे से कहा : ___ 'सेठ, तुम्हारी बात सही है...मेरे पापकर्म उदय में आये हैं। तुम तो दया के सागर हो, उपकारी हो, मुझे बड़ी प्यास लगी है, मुझे थोड़ा पानी पिलाओ सेठ!' रूपा सेठ के सामने करूण स्वर में पुकार उठा। गायें परोपकार के लिये दूध देती हैं, पेड़ औरों के लिये फल देते हैं और For Private And Personal Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! नदियाँ परोपकार के लिये ही बहती हैं, उसी तरह सज्जन लोग परोपकार के लिये ही प्रवृत्ति करते हैं। जिनदत्त सेठ ने कहा : 'भाई, मैं पानी लेने के लिये जाता हूँ, परन्तु जब तक मैं पानी लेकर वापस लौ, तब तक तुझे एक मंत्र देता हूँ, उसका जाप करते रहना। यह मंत्र मेरे गुरू ने मुझे आज ही दिया है। मैने बारह बरस तक उनकी सेवा की थी इसलिए उन्होंने प्रसन्न होकर यह मंत्र दिया है।' रूपा ने कहा : 'इस मंत्र के जपने से क्या होता है?' सेठ ने कहा : 'इस मंत्र के जपने से दुःख दूर होता है, सुख मिलते हैं, देवों की संपत्ति मिलती है, विपत्ति का नाश होता है, पापों का नाश होता है, मोह दूर होता है। इस मंत्र का नाम है श्री नमस्कार महामंत्र।' रूपा ने कराहते हुए पूछा : 'ओ उपकारी, आप मुझे वह मंत्र देने की कृपा करें... आप पानी लेकर आओगे तब तक मैं उस मंत्र का जाप करूँगा।' सेठ ने रूपा को श्री नमस्कार महामंत्र सिखलाया और सेठ स्वयं पानी लेने के लिये गये। सेठ पानी लेकर आये, इससे पहले तो, रूपा नवकार मंत्र का स्मरण करता हुआ आखरी साँस भरने लगा...और उसकी आत्मा देह का पिंजरा छोड़ कर उड़ गई। पर मरते समय उसके होठों पर नमस्कार महामंत्र था। जिनदत्त सेठ जब पानी लेकर लौटे तब उन्होंने देखा कि रूपा की आँखें शांत थी, दोनों हाथ जुड़े हुए थे। उसका प्राणपखेरु उड़ चुका था। उन्होंने अपने बेटे से कहा : 'बेटा, यह चोर समाधिमृत्यु प्राप्त करके स्वर्गवासी हो गया है।' जिनदत्त ने कहा : 'पिताजी, सत्समागम का ही यह प्रभाव है। सत्संग से जीव के पाप दूर हो जाते हैं, सत्संग से बुद्धि की जड़ता दूर हो जाती है। सत्संग से मान सम्मान मिलता है। सत्संग से यश फैलता है...और सत्संग से मन भी प्रसन्न एवं स्वस्थ रहता है।' पुत्र की बात सुनकर सेठ को बड़ा संतोष हुआ। वे पुत्र को साथ लेकर अपने गुरुदेव के पास गये। गुरुदेव को सारी घटना बतायी। रात वहीं पर धर्मशाला में बिता कर, दूसरे दिन सबेरे उपवास करके समीप के जिनमंदिर में जाकर सेठ प्रभुभक्ति करने लगे। रूपा चोर मर गया। इसके बाद दूर बैठे हुए सैनिक राजा के पास गये। राजा से जाकर कहा : For Private And Personal Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! __'महाराजा, जिनदत्त सेठ ने चोर के साथ बहुत देर तक बातें की थी। उसके लिये वे पानी भी ले आये थे।' राजा का चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। उसने कहा : 'जिनदत्त सेठ राजद्रोही है... उनके पास चोरी का माल सामान भी होगा। लगता है चोर के साथ उनकी सांठगांठ होनी चाहिए। जाओ सैनिकों, जाकर उसे बेड़ी में बाँधकर यहाँ मेरे समक्ष हाजिर करो!' सैनिक सेठ को पकड़ने के लिये चले। रूपा चोर मरकर पहले देवलोक में देव हुआ था। देव होकर तुरंत ही उसने सोचा : 'मैं यहाँ पर कहाँ से आया हूँ? किसके प्रभाव से मैं देव हुआ हूँ?' देव को 'अवधिज्ञान' नाम का दिव्य ज्ञान होता है। उस ज्ञान से देव हजारों... लाखों...करोड़ों मील दूर तक देख सकता है। रूपा देव ने अवधिज्ञान से उत्तरमथुरा नगर को देखा। जिनदत्त सेठ को देखा | और उसका सर झुक गया : 'ओह, इन्हीं जिनदत्त सेठ ने मुझे नवकार मंत्र दिया था... मेरे ऊपर इनका महान उपकार है। मैं इनका उपकार कभी नहीं भूल सकता! मैं यदि इनके उपकारों को भुला दूं... तो फिर मेरे जैसा पापी दूसरा कौन होगा इस दुनिया में? उन्हीं के प्रताप से तो मैं देव हुआ हूँ। कहाँ मैं रूपा चोर था! और कहाँ मैं आज यहाँ पर वैभवशाली देव बना हूँ!' अवधिज्ञान से रूपदेव ने सेठ को देखा... और सेठ को पकड़ने के लिये जा रहे सैनिकों को भी देखा...और देव को गुस्सा आया : 'अरे...ये सैनिक तो मेरे उपकारी सेठ को पकड़ने के लिये जा रहे हैं! ठीक है, अब तो मैं ही इन्हें मजा चखाऊँगा। देखता हूँ मैं भी!' और देव ने भेष बदलकर एक दुबले-पतले आदमी का रूप बनाया। हाथ में बड़ा डंडा लेकर खड़ा हो गया, सेठ की हवेली के दरवाजे पर। __ सैनिक लोग हवेली के दरवाजे पर आये तो उस देव ने उनकी मजाक उड़ाते हुए कहा : 'अरे ओ मोटे-मोटे भीमदेवों...आप यहाँ पर क्यों आये हैं?' सैनिकों ने गुस्से में लाल-पीले होकर कहा : 'क्यों रे पतलू, मरना है क्या? जबान सम्हाल के बोल | चल हट यहाँ से। हमें जाने दे हवेली में!' रूपादेव ने उनको और सताया : For Private And Personal Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई! महामंत्र की भलाई! _ 'अरे बेवकूफों, क्या तुम मोटे हो तो अपने आप को ज्यादा ही समझने लगे हो क्या? मुझे डरा रहे हो...? पर तुम मोटे कर क्या सकोगे? जिसमें ताकत होती है...तेज होता है...वह शक्तिशाली होता है, फिर वह दुबला ही क्यों न हो! अरे...हाथी कितना भी लम्बा-चौड़ा होता है? पर एक छोटे से अंकुश से दब जाता है ना! पहाड़ कितना ही बड़ा क्यों न हो, पर वज्र की मार से चूरचूर हो जाता है ना।' इतना कह कर रूपादेव ने डंडे को घुमाया! दो-चार सैनिकों को मार गिराया...और दस-बारह सैनिक उसका सामना करने के लिये उस पर झपटे तो डंडे मार-मार कर उनकी भी पूरी धूलाई कर दी! एक सैनिक जान बचाकर भागा-भागा राजा के पास पहुँचा | राजा से कहा : 'महाराजा, हम तो मर गये! जिनदत्त सेठ की हवेली के दरवाजे पर एक दुबला-पतला पर बड़ा ही तेजस्वी आदमी हाथ में डंडा लेकर खड़ा है। उसने अपने पाँच सैनिकों को मार डाला। और दस-बारह को बेहोश कर डाला।' राजा तो सुनकर आपे से बाहर हो गया। उसका गुस्सा खौल उठा। उसने दूसरे पच्चीस सैनिक भेजे । रूपादेव ने उन सबको भी पहुँचा दिया मौत के दरवाजे पर | राजा खुद ही बड़ी सेना लेकर आया । रूपादेव ने सारी सेना को तितर-बितर करके सबको मार भगाया। राजा तो घबरा उठा। इधर रूपादेव ने भयंकर राक्षस का रूप रचाया । राजा डर के मारे भागने लगा। रूपादेव ने गर्जना की-'दुष्ट राजा, जाता है कहाँ? तू जहाँ जायेगा वहाँ पर मैं तेरा पीछा करूँगा। तुझे मारकर ही दम लूँगा। आज तेरी मौत तुझे बुला रही है।' राजा सकपका कर रूपादेव के चरणों में गिर गया और रोते रोते बोलने लगा : 'मुझे मत मारो...मुझे छोड़ दो... मैं आपकी पूजा करूँगा। देव ने कहा : 'गाँव के बाहर जो सहस्त्रकूट जिनमंदिर है, वहाँ पर अभी जिनदत्त सेठ धर्मध्यान में मग्न हैं। यदि तू उनके चरणों में जायेगा तो मैं तुझे कुछ नहीं करूँगा। तू उनके चरणों में नहीं गया तो मैं तुझे छोड़नेवाला नहीं ___मरता क्या नहीं करता? राजा वहाँ से सर पर पैर रखकर भागा! दौड़कर सहस्त्रकूट जिनमंदिर में पहुँचा। जिनदत्त वहाँ पर धर्मध्यान कर रहे थे। राजा तो सीधा जाकर सेठ के चरणों मे गिर गया। 'ओ सेठ मुझे बचा लो... मैं तुम्हारी शरण में आया हूँ। मेरी रक्षा करो। सेठ, मुझ पर कृपा करो...।' For Private And Personal Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चोर की चतुराई ! महामंत्र की भलाई ! ८९ सेठ ने आँखें खोलकर सामने देखा तो ऊपर राक्षस मंडरा रहा था। नीचे राजा उसके चरणों में लोट रहा था । सेठ की समझ में कुछ आया नहीं । उसने राजा के सामने देखा । राजा दीन-हीन बनकर बोल रहा था : 'सेठ... मेरी रक्षा करो...तुम्हें असीम पुण्य प्राप्त होगा ।' सेठ ने राक्षस से कहा : 'हे देव! कायर आदमी जब भाग जाता है... तब बलवान आदमी को उसका पीछा नहीं पकड़ना चाहिए ।' सेठ का कहना सुनकर रूपादेव ने अपना रूप प्रगट किया। उसने सबसे पहले सेठ को तीन प्रदक्षिणा देकर भावपूर्वक वंदना की। बाद में परमात्मा को और गुरुदेव जो कि वहाँ पर आये हुए थे, उन्हें भक्तिपूर्वक वंदना की । राजा से रहा नहीं गया। वह बोल उठा : ‘स्वर्ग के देव तो बुद्धिशाली और विवेकी माने जाते हैं, पर लगता है अब विवेक वहाँ पर भी नहीं रहा है... वह देव परमात्मा और गुरुदेव को छोड़कर पहले गृहस्थ को वंदना कर रहे है । यह तो देव - गुरु की आशातना ही हुई ना?' रूपादेव ने कहा : 'राजन्, मैं विवेक जानता हूँ। पहले देव को, फिर गुरु को और इसके पश्चात् श्रावक को झूकना चाहिए। इस प्रसिद्ध क्रम की जानकारी मुझे है । परंतु मैंने पहले जिनदत्त सेठ को वंदना की इसका कारण तुम्हें बताता हूँ, वह सुनिये।' रूपा ने यों कहकर सारी घटना सुनायी । राजा तो सुनकर हतप्रभ रह गया । 'रूपा चोर ! जिसको मैंने शूली पर चढ़ाया था...वही यह देव !' राजा ने देव से पूछा : 'ओ देव, आपने किस की प्रेरणा से सेठ के उपकार को याद रखा है?' ‘राजन्, सत्पुरुषों का स्वभाव ही वैसा होता है। वे कृतज्ञ होते हैं। वे औरों के उपकार कभी भूल नहीं सकते हैं । ' राजा ने पूछा : 'देव, इन सेठ ने आप पर किसकी प्रेरणा से उपकार किया था?' देव ने कहा : For Private And Personal Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीव और शिव ९० 'राजन्, सूरज किसकी प्रेरणा से पृथ्वी को प्रकाश देता है? बादल किस के कहने से बरसते हैं...? लोगों को पानी देते हैं? यह उनका स्वभाव ही है...। इसी तरह उत्तम पुरुषों का परहित करने का स्वभाव ही होता है।' राजा ने कहा : 'सचमुच जैनधर्म उत्तम धर्म है।' जिनदत्त सेठ ने कहा : 'राजन्, महान पुण्य के उदय से ही जैनधर्म मिलता है।' रूपादेव ने वहाँ पर रंगबिरंगे फूलों की वृष्टि की। करोड़ों सोनैये बरसाये । सुगंधित पानी के छींटे डाले... और जिनदत्त सेठ का बहुमान किया। राजा पद्मोदय धर्म के अचिन्त्य प्रभाव से वैरागी हो गया। उसने दोनों हाथ जोड़कर गुरुदेव से कहा : 'सचमुच, धर्म की महिमा बड़ी भारी है। सर्प भी फूलों की माला में बदल जाता है... तलवार रत्नों का हार बन जाती है...जहर भी अमृत हो जाता है...शत्रु मित्र बन जाता है... और देव भी चरणों में झुकते हैं।' राजा ने, मंत्री ने, और जिनदत्त सेठ ने गुरुदेव श्री जिनचन्द्रसूरिजी के चरणों में दीक्षा ग्रहण की। रूपादेव ने उन सबको भावपूर्वक वंदना की और वह देवलोक में चला गया। For Private And Personal Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीव और शिव ७. जीव और शिव यह कहानी है काशीनगर की! जितनी मजेदार है उतनी ही प्रेरणाप्रद और आदर्शपूर्ण! काशीनगर में एक वैद्य रहता था। उसका नाम था देवदत्त! देवदत्त यानी देवदत्त! मरते हुए मनुष्य को भी जिन्दा कर दे वैसा वैद्य था। नगर का राजा जितशत्रु भी देवदत्त वैद्य को मानसम्मान व इज्जत देता था। पूरे काशी राज्य में देवदत्त का काफी रुतबा था। लोग उसकी दवाई के लिए दूर-दूर से आते थे। पर एक दिन ऐसा हुआ...औरों को जिन्दा करनेवाला वैद्य यकायक मर गया। काशी में पहुंचे हुए वैद्य की कमी हो गयी। राजा जितशत्रु ने देवदत्त की पत्नी को बुलाकर पूछा : 'बहन, तेरे दो बेटों में से कोई बेटा उसके पिता की जगह संभाल सके वैसा विद्धान और अनुभवी है सही? यदि है तो मैं उसे राजवैद्य के रूप में नियुक्त कर दूँ!' देवदत्त की पत्नी जमना ने इन्कार कर दिया। राजा जितशत्रु ने दूसरे राज्य से एक प्रसिद्ध वैद्य को निमंत्रित करके बुलवाया और राजवैद्य के रूप में नियुक्त कर दिया। वह नया वैद्य हमेशा देवदत्त के घर के आगे होकर राजसभा में जाया करता था। उसे देखकर जमना बेचारी ठंढ़ी आहें भरती थी. 'ओह... मेरे दोनों बेटे मूर्ख और गँवार से हैं... वरना उनके पिता का स्थान इस तरह दूसरे के हाथों में थोड़े ही जाने देते?' एक दिन तो जमना का दिल काफी भर आया। वह रोने लगी। उसके दोनों बेटे खेलने के लिए बाहर गये हुए थे। वे जब वापस लौटे तो उन्होंने अपनी माँ को रोते देखा...माँ से पूछा : 'माँ, तू क्यों रो रही है?' । 'रोऊँ, नहीं तो क्या करूँ? तुम दोनों कैसे मूर्ख पैदा हुए हो? न तो पढ़ते हो, न ही कुछ सोचते हो... तुम्हारे पिता को राजा कितना धन देता था...सम्मान और इज्जत देता था! अब वह सारा मान-सम्मान और धन-दौलत एक परदेशी वैद्य को मिलता है! यह सब सोचते-सोचते मुझे रोना आ गया!' For Private And Personal Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ९२ बड़े बेटे शिव ने कहा : 'माँ, तू रो मत | हम दोनों भाई आज ही पढ़ाई करने के लिये रवाना होकर मथुरा जायेंगे। वैद्यशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र में विद्वान होकर आयेंगे। फिर राजसभा में हमारे पिताजी का नाम रोशन करेंगे।' माँ बड़ी खुश हो उठी। उसने दोनों बेटों को मुँह मीठा करवाया। ललाट पर तिलक किया...आरती उतारी...और विदाई दी। शिव बड़ा था, जीव छोटा था। दोनों भाई मथुरा पहुंचे। वहाँ वैद्यशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन चालू किया । सात साल तक अध्ययन किया। दोनों पंडित बन गये। गुरू कि इजाजत लेकर दोनों काशी आने के लिए निकले। रास्ते में एक भयंकर जंगल आया। जंगल में उन्होंने एक मरा हुआ शेर देखा। शिव ने जीव से कहा : 'जीव, अपने पास जो 'मृतसंजीवनी' विद्या है, उसका इस शेर पर प्रयोग करके इसे जिन्दा कर दें तो?' ___ 'भैया, हम घर पर जाकर विद्या का प्रयोग करेंगे। यहाँ पर नहीं करना है...' जीव ने कहा। __परन्तु शिव जिद्दी और कुछ नासमझ भी था। उसने कहा : 'नहीं नहीं...यहीं पर...इस शेर पर ही इसका प्रयोग करना है!' जीव तो पास के पेड़ पर चढ़ गया। शिव ने एक गुटिका थेले में से निकाली और 'मृतसंजीवनी' विद्या का स्मरण किया। वह स्वयं शेर के सामने आकर बैठ गया। उसने गुटिका शेर की आँखों में लगायी। उसी क्षण शेर जिन्दा हो उठा। उसने गर्जना की...और छलांग लगाकर हमला कर दिया। शिव को मार डाला और वहीं पर उसे खा गया। शेर वहाँ से उठकर दुम पटकता हुआ वहाँ से चला गया। जीव धीरे से सम्हलता हुआ पेड़ पर से नीचे उतरा। शिव का थैला लेकर वह फटाफट वहाँ से चलने लगा। घर पर आकर माँ से सारी बात कही। माँ को काफी दुःख हुआ। राजा ने जीव को राजसभा में आदरभरा स्थान दिया। बुद्धिहीन शिव बेमोत मारा गया। जब कि अक्कलमन्द जीव सुखी हुआ। उसने अपनी माँ को सुखी बनाया, माँ की इच्छा पूरी की। For Private And Personal Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पराक्रमी अजानंद www.kobatirth.org ८. पराक्रमी अजानन्द १. कुमार अजानन्द चन्द्रानना नाम की एक सुन्दर नगरी थी। वहाँ की प्रजा सुखी थी। लोग धार्मिक थे। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ९३ उस नगर में चन्द्रापीड़ नाम का राजा राज्य करता था । वह बड़ा शूरवीर था। दुश्मनों के लिये वह साक्षात् यमराज था । पर अपनी प्रजा पर उसे बहुत प्यार था। सभी के सुख-समृद्धि का उसे ख्याल रहता था । उस नगर में एक धर्मोपाध्याय नामक ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी का नाम था गंगादेवी। गंगादेवी सचमुच गंगा की भाँति पवित्र थी । मृदु-मधुर स्वभाववाली औरत थी । एक दिन गंगा ने एक सुन्दर - सलोने पुत्र को जन्म दिया । धर्मोपाध्याय खुद ज्योतिष का पंडित था । उसने अपने बेटे की जन्मकुंडली बनायी । जन्मकुंडली बनाकर उसके भविष्य के बारे में जब वह सोचने लगा तो चौक पड़ा। उस कुंडली में राज्य और लक्ष्मी देनेवाले पाँच ऊँचे-ऊँचे ग्रह थे । 'अपना बेटा राजा बनेगा...' यह सोच कर धर्मोपाध्याय को खुशी नहीं हुई। बल्कि दिल-दिमाग उदास उदास हो उठा। वह सोचने लगा : 'मेरा बेटा एक न एक दिन राजा बनेगा... उसकी किस्मत में राज्य लिखा है ... वह कभी वेदों का अध्ययन नहीं करेगा... ब्राह्मण का बेटा बनकर भी वह पवित्र जीवन नहीं जी पाएगा ! तरह-तरह के पाप करके वह जरूर नरक में जाएगा...राजा बनेगा तो कभी युद्ध करेगा...लड़ाई करेगा... किसी को फाँसी देगा... कितने पाप करेगा! उसके बेटे भी वैसे ही होंगे। यह मेरा बेटा होकर मेरे कुल का सत्यानाश कर डालेगा। अच्छा यही होगा कि मैं आज ही उसका त्याग कर दूँ ।' उसने अपनी पत्नी से कहा : ‘देवी, इस पुत्र का हम अभी इसी वक्त त्याग कर दें...' गंगा तो बेचारी यह सुनकर बावरी सी हो उठी... वह अपलक आँखों से अपने पति के सामने ताकती रही... उसने कहा : For Private And Personal Use Only 'यह आप क्या कह रहे हो ? चिंतामणी रत्न और पुत्ररत्न तो एक से होते हैं... महान पुण्य के उदय से पुत्र की प्राप्ति होती है और आप उसे छोड़ देने Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद की बात कर रहे हो? यह आज आपको क्या हो गया है?' गंगा की आंखों से आँसू बहने लगे। उपाध्याय ने कहा : 'तुम्हारी बात सही है देवी, पर जो बेटा बड़ा होकर कुल को उज्ज्वल बनाये...यश को फैलाये...उसे पालपोष कर बड़ा करना चाहिए | यह बेटा तो मेरी सात पीढ़ी की पवित्रता को बरबाद कर देगा! मैंने इसकी जन्मकुंडली बनाई है...और अच्छी तरह जाँची है...इसलिये ज्यादा चूं-चप्पड़ किये बगैर चुपचाप जैसे मैं कहुँ वैसे इसको कहीं पर भी छोड़कर आ जा! हमको ऐसा बेटा नहीं चाहिए!' ___ गंगा को दुःख तो पहाड़ जितना हुआ...उसका दिल तो टुकड़े-टुकड़े हो गया... पर वह अपने पति की आज्ञांकित थी। उसने अपने कलेजे के टुकड़े को गले से लगाया...बार-बार उसके सर को चूमने लगी... माँ के आँसुओं से नवजात शिशु भींग गया। रात के समय बच्चे को हाथों मे उठाकर गंगा अपने घर से निकल कर एक निर्जन रास्ते के किनारे पर आई...एक मुलायम कपड़े में लपेट कर बच्चे को किनारे पर छोड़ कर गंगा चुपचाप रोती-बिलखती घर लौट आई। जिस रास्ते पर गंगा का बेटा पड़ा हुआ था, उस रास्ते पर से एक बकरी गुजर रही थी। पीछे-पीछे उसका मालिक वाग्भट्ट चला आ रहा था। बकरी गंगा के बेटे के पास आकर रुक गई। न जाने क्या हुआ... बकरी के आंचल में से दूध झरने लगा... वह भी सीधा बच्चे के चेहरे पर...बच्चे ने धीरे से अपना नन्हा मुँह खोला...दूध की धारा उसके मुँह में गिरने लगी... बच्चा दूध पीने लगा...जैसे अपनी माँ का दूध पी रहा हो! वाग्भट्ट तो यह दृश्य देखकर चकरा गया। उसने बच्चे को देखा। बच्चा सुन्दर था...खूबसूरत था | प्यारा सा लग रहा था । वाग्भट्ट को बच्चा पसंद आ गया। उसने बच्चे को अपने हाथों में उठाया...और उसे अपने घर पर ले आया । वाग्भट्ट को कोई बच्चा नहीं था। उसने अपनी पत्नी से कहा : 'अरी... जरा देख तो सही... मैं तेरे लिए क्या लेकर आया हूँ!' यों कहकर उसने बच्चा अपनी पत्नी के हाथों में दिया। 'अरे...तुम यह किसका बेटा ले आये हो? कितना प्यारा लगता है...चाँद के टुकड़े जैसा है...' बच्चे को अपने सीने से लगाते हुए वाग्भट्ट की पत्नी बोल उठी। 'ऐसा मान ले कि...भगवान ने अपनी बात सुन ली... और हमको यह बेटा दे दिया!' यों कहकर कैसे उसको बच्चा प्राप्त हुआ... यह बात बताई। For Private And Personal Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ___ 'पर ऐसे सुन्दर-सलोने से बच्चे को जन्म देनेवाली माँ कैसी पत्थरदिल होगी...कि अपने इतने प्यारे बेटे को रास्ते पर छोड़ गई। उसका दिल कैसे माना होगा बेटे को छोड़ते हुए? अच्छा हुआ तुम उसे यहाँ ले आये...हम इसे पाल-पोष कर बड़ा करेंगे। अपना सूना-सूना घर अब चहकने लगेगा। पर हम इसका नाम क्या रखेंगे?' 'ऐसा करें... इसने दूध पीया है अपनी अजा का! (अजा यानी बकरी) हम इसका नाम 'अजानंद' रखें तो? कैसा लगा तुझे यह नाम? पसंद है ना?' 'अरे...वाह! कितना बढ़िया नाम खोज निकाला है...अजानंद! मेरा लाड़ला अजानंद!' कहकर वाग्भट्ट की पत्नी ने बच्चे को चूम लिया। वाग्भट्ट और उसकी पत्नी अजानंद को बड़े लाड़-प्यार के साथ पालने लगे। अजानंद ज्यों-ज्यों बड़ा होने लगा, त्यों-त्यों उसके गुण प्रगट होने लगे। उसका पुण्य भी बढ़ने लगा। अजानंद अपने पिता के साथ भेड़-बकरी चराने के लिए अक्सर जंगल में भी जाने लगा। पशु भी अजानंद से हिल-मिल गये... वह बकरी, जिसने नन्हे अजानंद को दूध पिलाया था, वह तो बस अजानंद के आसपास ही घूमती है...अजानंद की इस तरह संभाल रखती है...जैसे उसकी पूर्वजन्म की माँ हो! ___ जब अजानंद सोलह बरस का हुआ...तब वाग्भट्ट अकेले अजानंद को पशु चराने भेजने लगा। एक दिन की बात है : अजानंद पशुओं को लेकर जंगल में गया था। पशु सब खेतों में चारा चर रहे थे और अजानंद एक पेड़ के नीचे बैठा हुआ था... और पशुओं पर नजर रख रहा था। इतने में वहाँ, उस नगर का राजा चन्द्रापीड़ अपने काफिले के साथ आ पहुँचा | राजा शिकार पर निकला हुआ था। धूप और थकान से वह परेशान हो उठा था । विश्राम करने के लिए वृक्ष के नीचे आकर बैठा । अजानंद एक तरफ जाकर खड़ा हो गया । इतने में वहाँ पर एक चमत्कार सा हुआ। अचानक आकाश में से एक दिव्य स्त्री वहाँ पर उतर कर आई... वह जमीन से ऊपर हवा में खड़ी रही। उसके गले में ताजे खिले हुए खुशबूदार फूलों की माला थी। उसका रूप लावण्य अद्भुत था। उसने राजा चन्द्रापीड़ को, अजानंद की तरफ उंगली उठाकर कहा : 'ओ राजा, आज से ठीक बारह बरस के बाद यह अजानंद यहाँ पर आयेगा... उसके साथ एक लाख सैनिक होंगे। तुझे मारकर यह लड़का इस नगरी का राजा बनेगा।' For Private And Personal Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ९६ इतना कहकर देवी जैसी आई थी... वैसी ही पलक झपकते अदृश्य हो गई। राजा तो अजानंद की तरफ देखता है... कभी आकाश में ताकता है... वह सोचने लगा..’कौन होगी यह औरत ? फिजूल का बड़बड़ा रही थी... यह भेड़ बकरी चरानेवाला मेरे जैसे शेर को मारेगा? अरे, कभी कोई लंगड़ा आदमी मेरु पर्वत के शिखर पर चढ़ सकता है क्या? यह लड़का मुझे क्या मारेगा ? कभी कोई हाथकटा आदमी समुद्र को तैर जाए तो भी यह गँवार मुझे मारना तो क्या छूने की हिम्मत भी नहीं कर सकता!' राजा अपने मंत्री के सामने देखकर हँसने लगा... देवी की भविष्यवाणी का मजाक उड़ाने लगा । मंत्री ने कहा : 'महाराजा, दुश्मन चाहे छोटा क्यों न हो ... उसकी उपेक्षा करनी उचित नहीं है। नीतिशास्त्र ने कहा है कि व्याधि और विरोधी - दोनों समान होते हैं। उनकी उपेक्षा करने से, उनके प्रति लापरवाह बनने से वे शक्तिशाली हो जाते हैं। फिर उनको खत्म करना काफि मुश्किल होता है। और फिर, आपको कोई देवी... ... जो आप पर प्रेम रखती होगी... खुद आकर कह गई है कि 'यह अजानंद बारह साल के बाद आपको मार कर राजा बनेगा ।' तो यह बात माननी चाहिए। देववाणी झूठी नहीं होती है। ठीक है, अभी यह बच्चा है ..... आपको कुछ नहीं कर सकता... फिर भी...मेरा दिल यह कहता है कि इसको राज्य से बाहर तो निकाल फेंकना ही चाहिए। मैं तो मेरे मन की बात कह रहा हूँ, आगे आपको जो उचित लगे वह आप कर सकते हैं। ' राजा को मंत्री की सलाह में सच्चाई नजर आई। उसने तुरंत ही अपने दो घुड़सवार सैनिकों को आज्ञा कर दी : 'इस गँवार लड़के को दूर जाकर फेंक दो...' अजानंद ने राजा की बात सुनी तो वह घबरा उठा। पर वह वहाँ से भाग कर जा नहीं सकता था । राजा के सैनिकों ने उसे घेर लिया था। दो सैनिकों ने उसको पकड़कर घोड़े पर डाला और घोड़े को जंगल की तरफ दौड़ा दिया। दोनों घुड़सवार दूर जंगल में पहुँच गये और वहाँ जाकर अजापुत्र को उठाकर फेंक दिया। सैनिक वापस लौट गये । अजापुत्र उठकर एक पेड़ की छाया में जाकर बैठा । उसका शरीर दुःख रहा था। फेंके जाने से उसे चोट भी आई थी। वह अपने मन में सोचने लगाः 'देवी की भविष्यवाणी सुनकर और मंत्री की सलाह मानकर राजा ने मुझे For Private And Personal Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ९७ जंगल में फिंकवा दिया... ठीक है...राजा ने अपनी मनमानी की... पर देवी का वचन झूठा तो होगा नहीं! भविष्य में मैं एक लाख सैनिकों का सेनापति होऊँगा यह पक्की बात है...और इस दुष्ट राजा को खत्म करूँगा यह भी नक्की बात है। ठीक है... आज मैं दुःख में हूँ | पर मैं डरता नहीं हूँ | मुझ में हिम्मत है... मेरी ताकत, मेरा जोश ही मुझे सब जगह विजय दिलाएगा। हिम्मत रखकर ही मुझे आगे बढ़ना होगा। मैं ऐसे पापी राजाओं को खत्म करकें उनके राज्यों को जीतता रहूँगा।' ऐसा सोचकर वह खड़ा हुआ । उसे भूख लगी थी। उसने वहाँ पर कुछ वृक्ष खोज निकाले... और उनके फल खा लिये। पानी के झरने के पास जाकर पानी पी लिया। उसके शरीर में ताजगी आ गई। वह जंगल में आगे बढ़ने लगा। रास्ते में उसने लम्बे-लम्बे साँप देखे। बड़े-बड़े अजगरों को पेड़ों से लिपटे हुए देखे। फिर भी बिल्कुल नीडर होकर वह चलता रहा। चलते-चलते रात घिर आई... उसने एक पेड़ पर चढ़कर डालियों की घटा में विश्राम किया। रात बीत गई। सुबह में नीचे उतर कर वह आगे बढ़ा। एक वृक्ष पर उसने सुन्दर फल देखे। वह जानता था उन फलों को। पेड़ पर चढ़कर उसने वे फल तोड़े और मजे से खाये | नीचे उतर कर आगे चला। रास्ते में एक नदी आई... उसने पानी पीया...और सामने किनारे पर नजर फेंकी तो एक शेरनी अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ खड़ी थी और उसके सामने देख रही थी। अजानंद पहली बार शेरनी और उसके शावकों को देख रहा था! उसे डर तो था ही नहीं! कुछ देर बाद शेरनी बच्चों के साथ जंगल में अदृश्य हो गई। अजानंद नदी के किनारे-किनारे चलने लगा। यों उसने तीन दिन और तीन रात जंगल में गुजारी। चौथे दिन उसने दूर एक गाँव देखा...उसके चेहरे पर चमक आई। वह जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ उस गाँव की ओर चला। गाँव दूर था। रास्ते में एक मंदिर आया। मंदिर काफी पुराना नजर आ रहा था। पर सूर्य के प्रकाश में उसके सफेद पत्थर चमक रहे थे। वह एक यक्षदेव का मंदिर था । अजानंद ने मंदिर में प्रवेश किया। वहाँ पर उसने एक अग्निकुंड देखा | कुंड में आग सुलग रही थी और उस कुंड के इर्द-गिर्द चार पुरुष बैठे हुए थे। अजानंद ने उनकी तरफ गौर से देखा | चारों पुरुष केवल कौपीन पहनकर बैठे थे। दिखने में चारों गरीब-दीन लग रहे थे। उनके चेहरे पर निराशा छाई हुई थी। चारों मौन थे। जैसे कि वे किसी गंभीर सोच में डूबे हुए थे। For Private And Personal Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ९८ ___ अजानंद हिम्मत करके उनके निकट गया। दोनों हाथ जोड़कर चारों को नमस्कार किया। उन्होंने अजानंद की ओर अनमनेपन से देखा । अजानंद ने पूछा : 'महाशय, यह अग्निकुंड यहाँ पर क्यों बनाया गया है? और आप सब इतने निराश होकर यहाँ पर क्यो बैठे हो? यदि आपको एतराज न हो तो मुझे यह बताने का कष्ट करे ।' __उन चारों में से एक जो बड़ी उम्र का व्यक्ति था... उसने कहा : 'अरे भाई, तू अभी काफी छोटा है...हमारा काम तो बहुत बड़ा और कठिन है। तुझे क्या कहेंगे? तू हमारा काम क्या करेगा? तू तेरा रास्ता नाप...भाई...हमारी चिंता मत कर!' अजानंद ने कहा : 'आपकी बात सही है... बड़े काम बड़ों से ही होते हैं...छोटों से नहीं होते... परन्तु कुछ वैसे भी बड़े काम होते हैं जो बड़ों से नहीं हो पाते...पर छोटे उन्हें कर पाते हैं। पत्थर को तोड़ने के लिये भाला काम नहीं लगता...जबकि छोटी सी छैनी उसे तोड़ देती है!' ___ चारों आदमी अजानंद की मीठी और हिम्मतभरी बात सुनकर एक-दूसरे के सामने देखने लगे| उस आदमी ने कहा : ___'तू बच्चा है... पर बातें तो बड़ी काम की करता है... तू बहादुर दिखता है...इसलिये तुझे हमारी मुश्किली की बात करता हूँ। पर पहले तेरा नाम बता दे!' 'मेरा नाम है अजानंद!' नाम बताकर वह उन चारों के समीप जाकर बैठ गया। बड़ी उम्रवाले आदमी ने अपनी मुश्किली की बात कहनी शुरू की। २. अग्निवृक्ष का फल 'हम चार भाई हैं। हम चंपानगरी में रहते हैं। हमारे सबसे छोटे भाई के वहाँ एक सुन्दर और सलोने पुत्र का जन्म हुआ ।' उसने अंगुली से अपने छोटे भाई की तरफ इशारा करके बताया। ___ 'वह पुत्र एक दिन अचानक बीमार पड़ गया। रोग काफी भंयकर था। हमने दवाई करने में कोई कसर नहीं रखी। तरह-तरह के वैद्यों को बुलवाया और उपचार करवाये | पर रोग इतना हठीला था कि कोई उपचार कारगर साबित नहीं हुआ। हम चारों भाईयों के परिवार में यह एकमात्र लड़का था। हम किसी भी कीमत पर उसको बचाना चाहते थे। काफी कोशिशे करने के For Private And Personal Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद बावजूद जब वैद्यों ने भी हाथ झटक दिये तब हम सब गहरी चिंता में डूब गये। हम सबके चेहरे पर निराशा के घने बादल छा गये। हमारे पूरे परिवार में चिंता और बेचेनी छा गई। न हम किसी को खाना भाता था, न पीना। कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। __एक दिन एक परदेशी आदमी अचानक हमारे घर पर आया । हमने उसका स्वागत किया। आये हुए अतिथि का स्वागत करना हमारा कर्तव्य होता है। हमने उस परदेशी को जलपान, भोजन वगैरह करवाया। वह परदेशी प्रसन्न हो उठा। उसने हमारे घर में बिछोने में बीमार सोये हुए बच्चे को देखा, ध्यान से देखा। कुछ देर उसने सोचा और फिर हम से कहा : 'भाईयों, तुम निराश मत बनो। उदास होने से काम नहीं चलेगा। जहाँ तक मैं सोचता हूँ वहाँ तक वैद्य या अन्य कोई चिकित्सक इस बच्चे की बीमारी को नही मिटा सकता, पर यह बीमारी मिट जरुर सकती है।' _ 'कैसे? क्या आप कोई उपाय जानते हैं?' हम चारों भाई एक साथ उनसे पूछ बैठे।' 'हाँ, हाँ... मैं उपाय जानता हूँ, और तुम्हें बताऊँगा भी। एक 'अग्निवृक्ष' नाम का पेड़ होता है। उसका फल पकाकर यदि इस बच्चे को खिलाया जाय तो इस बीमारी में से इसका छुटकारा हो सकता है।' ___ 'पर वह फल मिलेगा कहाँ पर? क्या आप उस जगह का पता बता सकते हैं?' हमने पूछा। ___ 'हाँ... हाँ... मैं जरुर तुम्हें पता बताऊँगा। 'कादंबरी' नाम के एक घने जंगल में एक यक्ष का पुराना मंदिर है। वहाँ पर उस मंदिर में एक 'अग्निकुंड' है। उस अग्निकुंड में हमेशा आग सुलगती रहती है। उस आग में वह अग्निवृक्ष का फल पड़ा हुआ है। उस कुण्ड में कूद करके उस फल को प्राप्त किया जा सकता है। परन्तु इसके लिये हिम्मत चाहिए, और मर मिटने की तमन्ना चाहिये।' इतना कह कर वह परदेशी हमारा अभिवादन करके वहाँ से चला गया । परदेशी की बात सुन कर हमें खुशी हुई। उस फल को प्राप्त करने के लिए तत्पर हुए। और हम चारों भाई यहाँ पर इस यक्ष के मंदिर में आ पहुँचे । अग्निकुंड में आग की लपकती ज्वालाओं को देखकर हम घबरा उठे। हमारी हिम्मत पानी-पानी हो गयी और हम मूढ़ बन कर बैठ गये। क्या करना, कुछ For Private And Personal Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०० सूझता नहीं है! फल को पाना जरुरी है, पर अग्निकुंड में कूदने का साहस हममें नहीं है। यह हमारी कहानी है। बोलो भाई, तुम इसमें क्या कर सकते हो?' ___ अजानंद ने शान्ति से सारी बातें सुनी। उसके शरीर में शौर्य का दरिया उफनने लगा। उसने कहा : 'भाइयों, तुम जरा भी चिंता मत करो। तुम्हारे बेटे की जिंदगी को बचाने के लिये मैं उस अग्निकुंड में कूदूंगा और अग्निवृक्ष का फल लेकर आऊँगा।' 'नहीं नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। यह उचित भी नहीं है! कितनी भी ताकत क्यों न हो, पर दूसरे के लिये भला कोई मरने का साहस करेगा? यह तो मौत का खेल है...बच्चे, इसमें तेरा काम नहीं है। तू तेरे रास्ते पर जा भाई! हम चार में से कोई न कोई भाई इस कुण्ड में कूद कर जरुर फल ले आयेगा! ___ अजापुत्र हँस ने लगा। उसका सत्व, उसकी हिम्मत उसका जोश, उसे बराबर उत्तेजित कर रहे थे कुछ साहस कर दिखाने के लिये | उसने कहा : 'बड़े भाई, आप ऐसा मत कहिये | स्वार्थ से भी परमार्थ का कार्य ऊँचा होता है। अच्छे आदमी परमार्थ को पसंद करते हैं। देखो, आकाश में रहे हुए बादल औरों के लिये ही बरसते हैं ना? पेड़ फल देते हैं तो औरों के लिये ही देते हैं ना? और नदियाँ भी औरों की प्यास बुझाने के लिये ही बहती है! मुझे भी परोपकार अच्छा लगता है। मेरा शरीर परोपकार के लिये उपयोगी बनता है तो मुझे बड़ी खुशी होगी। एक बच्चे की जिंदगी को बचाने का ऐसा मौका मैं हाथ से नहीं जाने दूंगा।' इतना कहते हुए अजानंद ने अचानक अग्निकुण्ड में छलाँग लगा दी। और वह भी ऐसे जैसे कि स्नान करने के लिये पानी के हौज में डूबकी लगाई हो! चारों भाई 'नहीं' 'नहीं' करते हुए खड़े हो गये। एक दूसरे का मुँह ताकते रहे। और कुछ समय गुजरा कि अग्निकुण्ड में से अजानंद हाथ में दो दिव्य फल लेकर कुण्ड के बाहर आ गया | चारों भाई पुतले की तरह स्तब्ध बनकर अजानंद को देखते रहे। उसके शरीर को या उसके कपड़े को आग का स्पर्श तक नहीं हुआ था। उसके चेहरे पर चमक थी, स्मित था। चारों भाई की आँख विस्मय से चौड़ी हो गयी। चारों ने हाथ जोड़कर अजानंद को सर झुकाया और कहा : __ 'ओ वीर-पुरूष! तुम दिखने में कितने छोटे लड़के हो, पर सचमुच तुम लड़के नहीं हो। तुम कोई दिव्य पुरुष लगते हो! हमारे जैसे अनजान और अपरिचित लोगों के लिये अपनी जान की परवाह किये बगैर अग्निकुण्ड में छलाँग लगा दी और दिव्य फल तुम ले आये। तुमने हमें चिंता के सागर में से For Private And Personal Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०१ बाहर निकाला | हमारी पीड़ा दूर कर दी। हम तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकते । दुनिया तो स्वार्थ के पीछे पागल बने हुए लोगों से भरी पड़ी है। उसमें तुम एक ऐसे निकले जिन्होंने हमारे ऊपर महान उपकार किया। तुम्हारे इस उपकार का बदला हम किस कदर चुका सकेंगे?' यों अजानंद की जी भरकर प्रशंसा की और फिर पूछा : 'ओ महापुरुष! हमें जरा यह तो बताओ कि तुम आग में कूद गये फिर भी तुम्हें जरा भी आँच नहीं आयी, यह कैसे हुआ? और तुम एक फल के बजाय दो फल कैसे ले आये?' अजानंद ने कहा : 'भाइयों, मैं जैसे ही अग्निकुंड में कूदा, वैसे ही मुझे ऐसा लगा कि किसी देवी ने मुझे हाथों में उठा लिया और उसी देवी ने मुझे अग्निकुंड के बाहर रख दिया।' अजानंद ने दोनों फल उन भाइयों को दे दिये | पर भाइयों ने एक ही फल अपने पास रखा। दूसरा फल आग्रह करके अजानंद को वापस दे दिया। अजानंद फल लेकर मन्दिर से बाहर निकला और अपने रास्ते पर आगे बढ़ा। इधर वे चारों भाई फल लेकर अपने घर पर गये। फल को पकाकर बच्चे को खिलाया और जैसे कि चमत्कार हुआ...कुछ ही दिनों में बच्चे का रोग दूर हो गया। अजानंद अपने रास्ते पर आगे बढ़ता जाता है । जंगली रास्ता होने पर भी उसको जरा भी डर नहीं है। रास्ते में एक सुन्दर सरोवर उसने देखा | सरोवर पानी से लबालब भरा था। पानी भी स्वच्छ और शीतल था। कमल के फूल जगह-जगह पर खिले हुए थे। और उन पर मंडराते हुए भँवरे मीठा गुंजारव कर रहे थे। अजानंद सरोवर के किनारे पर जाकर बैठा। उसे प्यास लगी थी। उसने रुमाल में अग्निकुंड वृक्ष के फल बाँधकर किनारे पर रख दिया और पानी पीने के लिये सरोवर में उतरा । वह पानी पी रहा था । इतने में एक बन्दर वहाँ पर आया और फल की सुंगध से आकर्षित होकर रुमाल को हाथ में उठाया। उसने रुमाल खोला, फल को देखा और हाथ में फल लेकर छलाँग लगाता हुआ समीप के पेड़ पर चढ़ गया। इधर अजानंद पानी पीकर किनारे पर आया। उसने रुमाल तो देखा पर उसमें फल नहीं था। उसको चिन्ता हुई। उसके दिल में धुकधुकी-सी फैल गयी। उसने इधर-उधर नजर फेंकी। कोई आदमी या जानवर उसे नजर नहीं For Private And Personal Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०२ आया। वह अपने मन में सोचने लगा : 'अरे, कौन मेरा फल ले गया? ओफ्फोह! सचमुच मेरी किस्मत ही दगाखोर है! अभागा के हाथ में आया हुआ रत्न भी टिक नहीं सकता। खो जाता है या उसे कोई चुरा जाता है। मैं भी कितना मूर्ख हूँ, यदि मैंने दिमाग लगाकर उस फल को अपनी ही कमर पर बाँध लिया होता तो वह फल मेरे पास रहता। कोई उस फल को नहीं ले जा सकता था। पर अब क्या हो सकता है?' यों निराश होकर अजानंद उसी पेड़ के नीचे आकर बैठा कि जहाँ से बन्दर फल उठाकर ले गया था। इतने में एक खूबसूरत दिखनेवाला आदमी वहाँ पर आकर अजानंद के सामने खड़ा हो गया | उसके गले में सुन्दर कीमती रत्नों का हार झूल रहा था | उसने आकर अजानंद को प्रणाम किया और कहा : ___ 'ओ महापुरष! तुम चिन्ता मत करोलो, यह तुम्हारा दिव्य फल...यों कहकर उसने अजानंद को वह फल वापस दिया। अजानंद ने आश्चर्यचकित होकर उस पुरुष को देखा और पूछा : 'तुम यह फल क्यों ले गये थे? और अब मुझे वापस क्यों लौटा रहे हो?' ___ उस आदमी ने कहा : 'देखो, दरअसल में तो यह तुम्हारा फल एक बन्दर उठाकर ले गया था। उसने इस फल का केवल ऊपर का छोटा सा हिस्सा खाया। कौर खाते ही वह बन्दर आदमी बन गया। वह आदमी मैं खुद हूँ। सचमुच मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानता हूँ। तुम यहाँ जैसे मेरे हित के लिये ही आ पहुँचे हो। तुम्हारे कारण मुझे इन्सान का देह मिला । तुम मेरे उपकारी बने हो। मैं तुम्हारा उपकार कभी नहीं भूल सकता | लो ये मेरा हार, मैं आपको भेट करता हूँ। मेरी स्मृति के रूप में तुम यह हार अपने पास में रखना।' यों कहकर उस आदमी ने अजानंद को हार भेंट किया। अजानंद तो यह सारी घटना देख, सुनकर आश्चर्य से मुग्ध हो उठा। अग्निवृक्ष के फल के प्रभाव से जानवर को आदमी बना हुआ देखकर उसके आनंद की सीमा नहीं रही। अजानंद ने अपने मन में सोचा : 'मुझे अभी १२ साल तक घूमना है। दुनिया में जगह-जगह पर परिभ्रमण करना है। इस आदमी को यदि मैं अपने साथ रख लूँ तो यह जरूर मेरे लिये सहायक बनेगा। यात्रा में एक से दो भले।' __उसने बन्दर से आदमी बने हुए से पूछा : 'भाई, अब तू इस जंगल में अकेला रहकर क्या करेगा? चल मेरे साथ | हम साथ-साथ घुमेंगे। देशविदेश में जायेंगे। नयी-पुरानी दुनिया देखेंगे और साथ-साथ रहेंगे।' __वह आदमी तैयार हो गया अजानंद के साथ चलने के लिये | दोनों वहाँ से आगे की यात्रा पर रवाना हुए। For Private And Personal Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०३ पराक्रमी अजानंद दोपहर का समय था, धूप थी। पर गर्मी नहीं थी। हवा भी ठण्ढ़ी-ठण्ढ़ी बह रही थी। दोनों दोस्त बातें करते हुए चले जा रहे थे। शाम ढलने तक वे चलते ही रहे...चलते ही रहे | एक विशाल देवमन्दिर के सामने आकर वे रूके। अजानंद ने अपने मित्र से कहा : 'हम आज की रात इसी मन्दिर में रुक जायें | थकान भी लगी है। यहाँ सो जायेंगे तो आराम भी मिल जायेगा। सुबह फिर यहाँ से आगे बढ़ेंगे। मित्र ने हाँ कह दी। दोनों मित्र मन्दिर में चले गये। मन्दिर के एक कोने में जमीन साफ करके दोनों ने विश्राम किया । अजानंद ने अपने मित्र से कहा : 'ऐसा करें, पहले तू सो जा। मैं जागता हुआ बैठा हूँ। आधी रात गये मैं तुम को जगा दूँगा। तब मैं सो जाऊँगा। जंगल का मामला है, इसलिये दोनों को नहीं सोना चाहिए।' ___ वह मित्र तो थोड़ी ही देर में गहरी नींद में सो गया | अजानंद जागता हुआ बैठा था। उसके मन में उसे नये मित्र मे बारे में विचार चल रहे थे। इतने में उसने मन्दिर में सामने के कोने में कुछ उजाला सा देखा । वह पहले तो चौंक उठा। फिर सावधान होकर टकटकी बाँधे उस उजाले को देखता रहा। वह सोचने लगा : 'क्या यह कोई दिव्य प्रकाश होगा या फिर किसी सर्प के माथे पर रहे नागमणि का प्रकाश होगा? ऐसे सूनसान मंदिरों में कुछ भी हो सकता है। जरा नजदीक जाकर देखू तो कुछ पता चलेगा।' ऐसा सोचकर वह खड़ा हुआ । जहाँ प्रकाश दिखता था वहाँ पर धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ पहुँचा । प्रकाश में उसने देखा, वहाँ पर एक भूमि-गृह उसे दिखा । प्रकाश भूमि-गृह के दरवाजे पर ही था। अजानंद भूमि-गृह के दरवाजे के पास गया कि प्रकाश भूमिगृह में उतरने लगा। अजानंद के आश्चर्य का पार नहीं रहा। किसी भी आदमी के सहारे के बिना वह प्रकाश अपने आप जैसे चल-फिर रहा था। अजानंद को छटपटी हुई उस प्रकाश के रहस्य को खोलने की। अजानंद भी भूमि-गृह में नीचे उतरा। प्रकाश आगे और अजानंद उसके पीछे | भूमिगृह में रास्ता नीचे की ओर जाता था। प्रकाश की गति में वेग आया। तो अजानंद ने भी अपने कदम जल्दी-जल्दी बढ़ाये । आखिर में तो उसे दौड़ ही लगानी पड़ी। कई घंटो तक वह इस तरह चलता रहा और दौड़ता रहा। उसे कुछ खयाल ही नहीं रहा। जब समतल जमीन का इलाका आया कि यकायक वह प्रकाश अदृश्य हो गया-जैसे कि हवा में चिराग गुल हो गया। अजानंद वहाँ पर खड़ा रह गया। For Private And Personal Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०४ उसने अपनी दाहिनी तरफ नजर दौड़ाई तो वहाँ पर उसे एक सुन्दर नगर का दरवाजा दिखाई दिया। अजानंद तो आश्चर्य से ठगा-ठगा सा रह गया। उसे अपना वह साथी मित्र याद आ गया । 'अरे! बिचारा वह तो अभी मंदिर में ही सो रहा होगा। जब जगेगा और मुझे नहीं देखेगा तब वह मेरे बारे में क्या सोचेगा? और इधर मुझे यहाँ तक खींच लाने वाला प्रकाश भी गायब हो गया ! कैसे अचानक अदृश्य हो गया ! ठीक है, अब तो इस नगर में जाऊँ और जाकर देखूँ तो सही कि यह नगर कैसा है ? इस नगर का नाम क्या है ? यहाँ के लोग कैसे हैं ?' अजानंद ने सावधानी पूर्वक नगर में प्रवेश किया। आकाश में सूरज झिलमिला रहा था। सूरज की सुनहरी किरणों का काफिला राजमार्ग पर उतर आया था। मुख्य सड़क पर चलते-चलते अजानंद नगर के मध्य भाग में पहुँचा। राजमार्ग सूनसान था । मध्य भाग में कुछ लोग उसे नजर आये। वे दिखने में उसे सुन्दर लग रहे थे। कपड़े भी उन्होंने सुन्दर पहन रखे थे । पर वे सब के सब उदासी के साये में सिमटे - सिमटे नजर आ रहे थे। किसी ने भी आँख उठाकर अजानंद की तरफ देखा तक नहीं । अजानंद राजमार्ग पर आगे बढ़ा। वह राजमहल के दरवाजे पर पहुँचा । वहाँ उसने देखा तो दरवाजे पर खड़े हुए द्वाररक्षक सैनिक भी शोक में डूबे हुए थे। उनके चेहरे पर उदासी की बदली छायी हुई थी। अजानंद हैरान हो गया । उसने जरा भी घबराये बगैर द्वाररक्षक से पूछा : 'भैया, मैं परदेशी हूँ। यहाँ पर आ गया हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ कि इस नगर का नाम क्या है ? यहाँ का राजा कौन है? तुम सब इतने उदास क्यों नजर आ रहे हो? सारा नगर इस तरह सूनसान और वीरान सा क्यों लग रहा है ? आखिर क्या हो गया है तुम सबको ?' द्वाररक्षकों ने अजानंद के सामने देखा । एक द्वाररक्षक ने कहा : 'ओ परदेशी जवान, इस नगरी का नाम 'शिवंकरा' है और यहाँ के महाराजा का नाम 'दुर्जय' है। वे बड़े पराक्रमी तथा शूरवीर हैं...। साथ ही साथ अपनी प्रजा से वे बेहद प्यार करते हैं। पर उन्हें शिकार करने का बहुत शौक है । शिकार के पीछे वे पागल हो जाते हैं । एक दिन वे शिकार करने के लिये जंगल में गये । उनके साथ कुछ सैनिक भी सज्ज होकर गये। कुछ सैनिकों के पास त्रिशूल थे। कुछ के पास गदाएँ थी। कइयों के हाथों में नुकीले भाले चमचमा रहे थे, तो कुछ सैनिकों के साथ शिकारी कुत्ते भी जीभ लपलपाते हुए चल रहे थे । राजा For Private And Personal Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०५ खुद भी तीर और कमान के साथ लैश होकर गये थे। राजा को हिरनों का शिकार करना था। जंगल में पहुँच कर राजा ने तीरों की वर्षा करनी शुरू कर दी। बेचारे भोले-भाले हिरन पेड़ से गिरते पत्तों की भाँति तीर खा-खाकर गिरने लगे। इधर सैनिक लोग भालू इत्यादि जंगली जानवरों का शिकार करने लगे। राजा स्वयं हिरनों के पीछे दौड़ते-दौड़ते जंगल में काफी दूर निकल गये। आकाश में सूरज आग बरसा रहा था। राजा पसीने से नहा उठा। और प्यास के मारे उसके प्राण गले तक आ गये | पानी के लिये राजा इधर-उधर देखता रहा इतने में उसने थोड़ी दूरी पर पानी से भरा हुआ एक सरोवर देखा । बस, अंधे को चाहिये क्या, दो आँखें! राजा तो खुश होकर सरोवर में उतरा और हाथों की अंजलि में पानी भर करके पीने लगा... पर अरे! यह क्या हो गया? जरा सा पानी राजा के पेट में पहुँचा न पहुँचा, इतने में तो राजा आदमी के बदले बाघ बन गया। कैसा बाघ? एकदम खूखार बाघ! बड़ी-बड़ी आँखें, आग की तरह लपकती जीभ! नुकीले पंजे! इतना डरावना और भयावना बाघ था की बस! देखो तो बेहोशी आ जाये! ३. अजानन्द उसी सरोवर में! अजानंद बड़ी उत्सुकता के साथ द्वाररक्षक सैनिक की बात सुन रहा था। उसके चेहरे पर आश्चर्य के भाव उभर रहे थे। उसने पूछा : 'महाराजा बाघ तो बन गये लेकिन बाद में क्या हुआ?' 'राजकुमार नरसिंह जो कि महाराजा का इकलौता पुत्र था, वह बहुत से सैनिकों को लेकर उसी जंगल में महाराजा के पीछे आ रहा था। उसने अपनी आँखों से महाराजा को बाघ बनते हुए देखा। वह स्तब्ध रह गया । उसे सारे शरीर में घबराहट के मारे पसीना छूटने लगा : 'अरे! अरे! मेरे पिताजी को यह क्या हो गया? मेरे पिताजी बाघ कैसे बन गये? यों चिल्लाता हुआ वह दौड़ा और सरोवर के पास आया । इतने में तो बाघ ने छलाँग लगायी और वह राजकुमार पर टूट पड़ा। देखते ही देखते उसने राजकुमार को चीर डाला। पिता ने खुद अपने पुत्र की हत्या कर दी। सैनिक तो सभी पत्थर के पुतले की तरह खड़े रह गये । बाघ को मारे भी तो कैसे मारे? क्योंकि वे जानते थे कि यह बाघ ही हमारा राजा है। राजकुमार को इस तरह बेमौत मरा हुआ देखकर सैनिकों का दिल दहल उठा। वे जोर-जोर से रोने लगे। For Private And Personal Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०६ इतने में तो वह बाघ छलाँग लगाकर सैनिकों की ओर लपका ! बाघ को अपनी तरफ लपकता देखकर सैनिक लोग हड़बड़ा कर खड़े हो गये। अपने बचाव के लिए कोशिश करने लगे। उनके पास शिकार को बाँधने के लिए लोहे की भारी जंजीर थी । उस जंजीर से उन्होंने उस बाघ को काफी मेहनत करने के बाद बाँध लिया और पिंजरे में डालकर नगर में ले आये ! जब यह बात सारे नगर में फैली तो सभी लोग दुःखी दुःखी हो उठे । अपना प्रिय राजा बाघ बन गया और सबका लाड़ला राजकुमार अपने ही पिता के हाथों मारा गया- इस बात का सभी को गहरा अफसोस होने लगा। लेकिन वे बेचारे कर भी क्या सकते थे? ओ परदेशी ! वह बाघ अभी इस राजमहल में ही है। अब तुम ही कहो-जिस नगर में ऐसी भयानक दुर्घटना हुई हो, उस नगर में भला शोक और संताप नहीं होगा तो और क्या होगा? इस नगर में अब उदासी और आँसू के अलावा बचा भी क्या है ?' कहते-कहते द्वाररक्षकों की आँखें आँसुओं से भर गयी! सारी बात सुनकर अजानंद का दिल भी भर आया । वह बोला : 'ओ वफादार सैनिक, उस बाघ को वापिस राजा बनाने के लिए कोई कोशिश की जा रही है क्या ?' ‘हाँ, हमारा मंत्रीमण्डल जी-जान से हर तरह की कोशिश कर रहा है। अनेक मंत्र-तंत्र करने वालों को बुलाया गया । झाड़-फूँक करने वालों को भी बुलाया गया। डोरा-ताबीज करने वालों को भी लाया गया। उन सबने काफी कोशिशे की। कई तरह के जाप जपे, कई तरह के होम-हवन किये। पर सब कुछ व्यर्थ रहा। सारे प्रयत्न निरर्थक साबित हुए। वे बेचारे मांत्रिक और तांत्रिक भी क्या कर सकते हैं? जब आदमी का भाग्य ही रुठ गया हो ! उसकी किस्मत ही उससे नाराज हो तब कोई कुछ नहीं कर सकता ! जब दुर्भाग्य आता है तब कितना भी ज्ञान हो, देव-देवी की आराधना की हो, परोपकार के कार्य किये हों, अरे बड़े राजा-महाराजा की कृपा भी हो, पर यह सब किसी काम नहीं आता है! हमारे राजा की स्थिति ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण हो गयी है । जैसे पूनम की रात को आकाश में चाँद को राहु ग्रसित कर लेता है ! वैसे हमारे राजा पर दुर्भाग्य का राहु छा गया है। हालाँकि उपचार तो चालू ही है पर नतीजा कुछ भी नहीं मिल रहा है।' अजापुत्र ने कहा : 'भाइयों, तुम मुझे बाघ के पास ले चलो। यदि परमात्मा की कृपा होगी तो मैं उसे राजा बनाने की भरसक कोशिश करूँगा और मुझे विश्वास है कि मैं For Private And Personal Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०७ मेरी कोशिश में जरुर सफल होऊँगा और बाघ को राजा बनाने में निमित्त बन पाऊँगा।' द्वाररक्षक के चेहरे पर अजानंद की बात सुनकर उत्साह की लहर दौड़ आयी | उसने कहा : 'ओ परदेशी, तुम यहीं पर खड़े रहो... मैं जाकर महामंत्री को पूछकर आता हूँ।' द्वाररक्षक महामंत्री के पास गया और उनसे कहा : 'महामंत्रीजी, एक परदेशी जवान आया है और वह कहता है कि मैं बाघ को पुनः राजा बना सकता हूँ। मुझे उस बाघ के पास ले चलो, तो क्या हम उस परदेशी को आपके पास लेकर आएँ?' 'अरे, जरूर! अभी के अभी उस परदेशी को तुम बड़े आदर के साथ मेरे पास ले आओ।' द्वाररक्षक अजानंद को लेकर महामंत्री के पास आये। महामंत्री स्वयं अपने आसन से खड़े हो गये | सामने जाकर उन्होंने अजानंद का स्वागत किया और उसे अपने गले लगाया । अजानंद को सुन्दर सिंहासन पर बिठाकर महामंत्री ने कहा : __ 'ओ महानुभाव, हमारे द्वाररक्षक ने आपसे जो कुछ कहा वह सब बिल्कुल सही है, हम सभी पर घोर संकट के बादल छा गये हैं। तुम यहाँ पर चले आये इससे मुझे बहुत खुशी हुई है | मैं तुम्हारी प्रतीक्षा ही कर रहा था क्योंकि मुझे गत रात्रि में समाचार मिल गये थे कि पवित्र पुरुष अजानंद कल सबेरे शिवंकरा नगरी में आयेंगे।' 'अरे! बहुत ही ताज्जुब की बात है! आपको समाचार दिये किसने?' अजानंद ने बड़ी उत्सुकता से पूछा। ___ मैंने अग्निवृक्ष की अधिष्ठायिका देवी की आराधना की थी। उसी देवी ने कृपा करके मुझे स्वप्न में तुम्हारे आने के समाचार दिये और मुझसे कहा कि 'तुम चिंता मत करो। यह अजानंद बड़ा पुण्यशाली है। बाघ बने हुए तुम्हारे राजा को वही पुनः मनुष्य बना देगा।' तब मैंने देवी से पूछा : 'माताजी, यह अजानंद है कौन? अभी वह कहाँ पर है? और हमारी नगरी में वह कैसे आयेगा?' देवी ने मुझसे कहा : 'यह पुण्यशाली अजानंद देश-विदेश में घूमताघामता पर्यटन के लिए निकला हुआ है। वह इस तरफ आ गया है। एक देवमंदिर में रात्रि विश्राम के लिए वह ठहरा हुआ है। मैं खुद उसे प्रकाश दिखाकर यहाँ ले आऊँगी। तुम निश्चित रहना। इतना कहकर वह देवी For Private And Personal Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०८ अदृश्य हो गयी। इधर मेरा स्वप्न भी पूरा हो गया । और मैं जगा । मैंने स्वप्न को अच्छी तरह याद रखा। फिर बाकी रात मैं सोया नहीं । परमात्मा के ध्यान में ही मैंने रात व्यतीत की। अब आप यहाँ आ गये हो, यह हमारा महान भाग्योदय है। हमारी किस्मत ही तुम्हें यहाँ खींच लायी है । आप हम पर कृपा करें और हमारे महाराज को पुनः मनुष्य बना दें।' T महामंत्री स्वयं अजानंद को लेकर बाघ के पिंजरे के पास गये। अजानंद ने बाघ को देखा। बाघ ने भी अजानंद को देखा। अजानंद ने अपने मन में अग्निवृक्ष की अधिष्ठायिका देवी को याद किया और अग्निवृक्ष का जो फल उसके पास था उसका उसने चूर्ण बनाया। जरा सा चूर्ण लेकर खाने में मिलाकर बाघ को खिला दिया। जैसे ही बाघ ने भोजन किया कि तुरन्त ही उसका शरीर आदमी का हो गया, जैसे नया चमत्कार हो गया हो ! मंत्री वगैरह तो खुशी से नाच उठे । राजा की स्मृति चली गयी थी। उसे कुछ भी याद नहीं था । उसने मंत्री से पूछा : 'ऐ...तुम सब कौन हो ? यहाँ मुझे घेरकर क्यों खड़े हो?' मंत्री ने राजा को विस्तार से सारी कहानी सुनाई। धीरे-धीरे राजा की याददाश्त वापस लौटने लगी । 'अरे...अरे...! मैंने खुद अपने बेटे को मार डाला । मैं हत्यारा हूँ। मैं कितना पापी हूँ। राजा फूट-फूट कर रोने लगा। जमीन पर सिर पटकने लगा और फिर बेहोश हो गया। रानियों को समाचार मिलते ही दौड़ी-दौड़ी आयीं । उन्होंने पानी के छींटे मारकर राजा की बेहोशी दूर की। राजा वापस जोरजोर से रोने लगा। राजकुमार नरसिंह के गुणों को याद कर-कर के आँसू बहाने लगा। अपना बेटा किसे प्यारा नहीं होता है ? और इसमें भी राजकुमार नरसिंह तो बड़ा गुणी था । वह हमेशा हँसमुख रहता था। वह सभी के साथ प्यार से बोलता था। सभी का लाड़ला था । राजा को इस तरह रोते-कलपते देखकर अजानंद ने आश्वासन दिया और राजा से शांत होने को कहा । राजा ने अजानंद के सामने देखा । 'ओ महापुरुष! मैंने खुद अपने हाथों अपने बेटे की हत्या कर दी ! कितना बड़ा पाप कर दिया मैंने ! अब मेरा क्या होगा ? मर कर मुझे नरक में जाना पड़ेगा? वहाँ भी इस पाप से मेरा छुटकारा नहीं होगा । अजानंद ने महाराजा को आश्वासन देते हुए कहा : For Private And Personal Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १०९ 'राजाजी, जो होना था सो हो गया। अब इतना रोने से क्या फायदा? और फिर आपने थोड़े ही कुमार को मारा है? कुमार को तो उस बाघ ने मारा है। आप अब स्वस्थ हो जाइये और राजकुमार के शरीर की जो उत्तरक्रिया करनी हो वह निपटाइये।' धीरे-धीरे राजा की सिसकियाँ बंद हुई। उसके आँसू थमे। राजा कुछ स्वस्थ हुआ और कुमार की जो भी उत्तरक्रिया करनी थी वह की। राजा ने अजानंद को अपने साथ बिठाकर भोजन किया। फिर उसे कीमती वस्त्रअलंकार भेंट करके सम्मानित किया। राजा ने अजानंद का सच्चे दिल से आभार मानते हुए कहा : __'ओ परोपकारी महापुरूष! तुम सचमुच तेजस्वी हो, महान हो! जैसे सूरज अपनी किरणों के द्वारा अंधेरे को चीरकर दुनिया को रोशनी देता है, वैसे तुमने अपने पराक्रम से मेरे दुर्भाग्य को दूर करके मुझे नया जीवन दिया है और मुझे स्वस्थ किया है। मैं यदि मेरा सर्वस्व भी तुझे अर्पण कर दूं तो भी तेरे इस उपकार का बदला मैं नहीं चुका सकता क्योंकि तूने तो मुझे जिन्दगी दी है और जीवन देनेवाले का बदला कभी कोई नहीं चुका सकता। तूने उपकार के बदले की आशा रखे बगैर मेरे ऊपर यह महान उपकार किया, मैं तुझे क्या दूं? ले, यह मेरा सारा राज्य मैं तुझे दे देता हूँ! तू इसको स्वीकार कर | मुझे इससे बड़ी खुशी मिलेगी, मुझे संतोष होगा।' दुर्जयराजा ये शब्द सच्चे अन्तःकरण से बोल रहा था। उसके दिल में अजानंद के प्रति अपार स्नेह उभर रहा था। अजानंद ने कहा : 'महाराज! यह आपका महान गुण है। आप वाकई में कृतज्ञ हैं। आपका मेरे ऊपर जो इतना स्नेह है, वही मेरे लिए सब कुछ है। राज्य आपका है और आप ही उसे सम्हालें! ठीक है, मैं मेरे मन से राज्य को मेरा मान लेंगा! मैं यह चाहता हूँ कि अपने बीच में दोस्ती का अटूट रिश्ता बना रहे, क्योंकि सज्जन पुरुषों को दोस्ती प्रिय होती है। सत्पुरुषों के साथ दोस्ती रखने से बुद्धि बढ़ती है, क्लेश दूर होता है। गलतियाँ नहीं होती है। गुण बढ़ते हैं। सुख बढ़ता है, यश फैलता है और सम्पत्ति बढ़ती है। आदमी धर्माभिमुख बनता है--अरे! दिल की दोस्ती तो सचमुच कामधेनु के बराबर होती है।' दुर्जयराजा ने अजानंद को अपना दोस्त बनाया और उसे अपने पास रखा। राजा अजानंद के लिए हर एक सुविधा का ध्यान रखता है। अजानंद के दिन हँसते-हँसाते मौज मनाते बीतने लगे। एक दिन अजानंद ने राजा से कहा : For Private And Personal Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११० 'महाराज, मुझे वह सरोवर देखना है, जहाँ पर कि आप बाघ बन गये थे!' राजा ने कहा : 'ठीक है, कल सुबह ही हम वहाँ जायेंगे।' दूसरे दिन सबेरे-सबेरे अजानंद के साथ राजा सौ घुड़सवार सैनिकों को लेकर उस सरोवर के पास पहुँचा। राजा ने अजानंद से कहा : 'दोस्त, यही है वह जादुई सरोवर, और यही है वह करामती पानी, जिसने मुझको जानवर बना दिया था और फिर तेरे जैसा मित्र मुझे मिल गया। हालाँकि मैने तो वह पानी अनजाने में पीया था पर अब लगता है कि यदि मैं वह पानी नहीं पीता तो मुझे तेरे जैसा अच्छा दोस्त दुनिया में ढूंढ़े नहीं मिलता।' अजानंद ने कहा : 'महाराज! वैसे तो इस सरोवर का पानी भी और सरोवरों के पानी की तरह ही लगता हैं। दिखने में तनिक भी फर्क नहीं लगता है। फिर भी इस पानी का दुष्प्रभाव कैसा गजब का है! आदमी को जानवर बना दे! तो क्या यह जानवर को भी आदमी बना देता होगा? दोनों मित्र इस तरह बातें कर ही रहे थे कि अचानक एक आश्चर्यकारी घटना हुई। __उस जादुई सरोवर में से एक बड़ा मोटा ऊँचा हाथी प्रगट हुआ | अपनी सूंड़ को पानी पर पटकता हुआ वह सरोवर के किनारे आ धमका | इधर राजा, अजानंद और सारे सैनिक स्तब्ध होकर हाथी को देख रहे थे कि हाथी उनकी और झपटा। अपनी सूंड़ में उसने अजानंद को उठाया और तीव्र गति से सरोवर में वापस भागा। उसी वक्त हाथ में तलवार लेकर राजा ने उस हाथी के पीछे सरोवर में छलाँग लगायी। आगे हाथी और पीछे राजा! हाथी ने सरोवर में डुबकी लगाई तो राजा ने भी सरोवर में डुबकी मारी, पर हाथी तो वहाँ पर नजर ही नहीं आ रहा था। मायावी व्यंतर की भाँति हाथी अदृश्य हो गया था। फिर भी राजा तो पानी में गहरे उतरता ही रहा, उतरता ही रहा। पर न तो हाथी दिखा, न ही अजानंद का अता-पता लगा। राजा ने सरोवर में नीचे एक सुन्दर सा महल देखा । पूरा महल सोने का बना हुआ था। उसमे हीरे, मोती, जवाहरात जड़े हुए थे। राजा सोचता है - 'अरे! यह क्या हो गया? सरोवर कहाँ चला गया? वह हाथी भी गुम हो गया! और मेरा दोस्त अजानंद भी कैसे अदृश्य हो गया? लेकिन यह महल किसका है? कैसा सपने जैसा यह सब लग रहा है! ठीक है, पहले मैं इस महल में जाऊँगा और देखू कि अंदर क्या हो रहा है?' For Private And Personal Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १११ ___ असलियत में वह महल नहीं था । पर चंडिका देवी का मंदिर था । चंडिका देवी की मूर्ति को देखकर अपना सिर झुकाया। हाथ जोड़कर देवी को प्रार्थना की : 'ओ माता, आज तो मुझ पर कलंक लग गया! मैं कितना कमजोर हूँ कि मुझे जीवन देनेवाले दोस्त की भी मैं रक्षा नहीं कर सका। मेरी आँखों के आगे हाथी उसको उठाकर ले गया । अब मुझे जीना नहीं है | मैं मेरा सिर तेरे चरणों में अर्पण करके तेरी कमल-पूजा करूँगा।' इतना कह कर राजा अपनी ही तलवार से अपने सिर पर प्रहार करने लगा कि इतने में वहाँ पर देवी प्रकट होती है और कहती है : 'ओ राजा! ऐसा साहस मत कर | तू क्यों अपना सिर काट रहा है? इसकी कोई जरुरत नहीं है। छ: महिने बाद तेरा मित्र तुझे मिल जायेगा।' यों कहकर देवी ने राजा के कान में एक गुप्त बात कही। एक दिव्य औषधि उसे दी और देवी वहाँ से अदृश्य हो गयी। राजा तो देवी के इस चमत्कार से भावविभोर हुआ जा रहा था। उसकी आँखें मुंद गयी थी। इतने में धुंघरुओं की छनक ने उसका ध्यान खींचा। उस मंदिर में एक सुंदर औरत हाथ में पूजा की थाल लेकर चली आ रही थी। उसने विधिपूर्वक देवी की पूजा की। फिर उसने घूमकर राजा के सामने देखा, राजा ने भी उस औरत के सामने देखा । वह औरत कुछ मुस्कराई और वापिस लौट गयी। राजा मन में सोचता है - 'आज यह सब क्या हो रहा है? एक के बाद एक आश्चर्यकारी घटनाएं हो रही हैं। यह औरत जो अभी ओझल हो गयी है वह कोई सामान्य औरत नहीं हो सकती। अवश्य वह कोई देवी होनी चाहिए।' राजा उस दिव्य औरत के विचारों में गुमसुम होकर सोच ही रहा था कि एक सुन्दर औरत आकर के वहाँ खड़ी हो गयी। उसने राजा को नमस्कार करके कहा : 'ओ राजन्! आप जिसके खयाल में खोये हुए हो, वह औरत और कोई नहीं लेकिन व्यंतर देवी सर्वांगसुन्दरी है। मैं उनकी दासी हूँ। वे अभी-अभी यहाँ से पूजन करके गयी हैं। उन्होंने आपको देखा था। वे आपको चाहने लगी हैं। उन्होंने ही मुझे आपके पास भेजा है और कहलाया है कि आप देवी के महल पर पधारिये | देवी आपका स्वागत करके खुश होंगी।' ___ व्यंतर देवी की दासी की ऐसी मीठी और चिकनी-चुपड़ी बातें सुनकर राजा ने सोचा - ___'अरे वाह! मेरी तो किस्मत ही खुल गयी। कुछ भी सोचे बगैर फटाफट मुझे इस दासी की बात मान लेनी चाहिए और इसके साथ जाना चाहिए | For Private And Personal Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११२ राजा दासी के साथ व्यंतर देवी के महल पर गया । महल के दरवाजे पर ही सर्वांगसुन्दरी सारे सिंगार सजकर दुल्हन सी बनकर खड़ी थी। उसने मुस्कराते हुए राजा का स्वागत किया और उसे महल में आने का निमंत्रण दिया। राजा उस व्यंतर देवी के साथ महल में गया। समय कहाँ बीत रहा है राजा को मालूम ही नहीं पड़ रहा था। ४. नरक का दुःख वह मायावी हाथी अजानंद को अपनी सूंड़ में पकड़ कर व्यंतरों के प्रदेश में ले गया। एक नगर के बाहर उसे रखकर वह हाथी अदृश्य हो गया। अजानंद उस रमणीय इलाके में अपने आप को खड़ा देखकर सोचने लगा : 'अरे! क्या मैं देवों की दुनिया में आ गया हूँ?' उसने नगर में प्रवेश किया। नगर के राजमार्ग रत्नों से जड़े हुए थे। एकएक मकान महल के जितना विशाल एवं भव्य था। जगह-जगह पर उद्यान और बगीचे छाये हुए थे। अजांनद कुछ दूर चला। इतने में एक व्यंतर की नजर उस पर पड़ी। उसके चेहरे पर नाराजगी के भाव उभर आये। अरे, यह मनुष्य जाति का कीड़ा यहां पर कैसे आ गया? ये गंदे लोग हमारी दुनिया को भी गंदा कर देंगे। मैं इस को अभी उठाकर अपने राजा के महल में उनके समक्ष छोड़ देता हूँ।' यों सोचकर उसने अजानंद को उठाया और व्यंतरेन्द्र के महल में ले जाकर रख दिया। ____ महल के चारों तरफ सोने का बड़ा ऊँचा किला था। किले के ऊपर रत्नों के कॅगूरे लगे हुए थे। जमीन पर अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे रत्न जड़े हुए थे। अजानंद ने महल में सुन्दर और मनमोहक आकृति वाले देवों को देखा तो खूबसूरती के खजाने जैसी देवांगनाओं को भी देखा। राजसभा में भव्य सिंहासन पर बैठे हुए व्यंतरेन्द्र को देखा | व्यंतरेन्द्र करूणा के सागर जैसा था। अजानंद ने बड़े सलीके से व्यंतरेन्द्र को नमस्कार किया। इन्द्र ने अजानंद की ओर देखा । उसे अजानंद के प्रति स्वाभाविक वात्सल्य उभरने लगा। इन्द्र ने बड़े प्यार से अजानंद को पूछा : 'वत्स, तू कौन है और यहाँ पर तू कैसे आ गया?' अजानंद ने शुरु से लेकर यहाँ पर पहुँचने तक की अपनी आप-बीती कह सुनायी। इन्द्र ने तो दाँतो में अँगुली दबा ली। अजानंद के साहस की बातें सुनता ही रहा। उसकी निडरता, पराक्रम और उसकी दयालुता पर इन्द्र मुग्ध For Private And Personal Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११३ हो उठा। उसने कहा : 'कुमार, अच्छा हुआ, तू यहाँ पर आ गया । अब तू यहीं पर मेरे पास रहना। मेरे घर को तू अपना ही घर समझना। यहाँ पर तुझे किसी तरह की तकलीफ नहीं होगी।' ___ अजानंद के आनंद की सीमा न रही, उसका हृदय नाच उठा। इन्द्र ने अपने पास में खड़े सेवक को आज्ञा की : 'इस कुमार को अपने साथ ले जाओ। स्नान वगैरह से निवृत्त करके सुन्दर वस्त्र एवं अलंकारों से सजाकर मेरे पास ले आना ।' सेवक देव-देवी अजानंद को लेकर चले गये। अजानंद ने स्नान किया और सुन्दर वस्त्र पहने। कीमती आभूषण पहने । मनपसंद खाना खाया और आराम करने के लिए पलंग पर लेट गया । लेटते ही उसे गहरी नींद आ गयी। फिर तो अजानंद इन्द्र के साथ मजेदार बातें करता है। देव-देवियों के साथ भी ज्ञानभरी बातें करता है। अपने मधुर स्वभाव और मीठी जबान के कारण अजानंद सबका प्रिय हो गया। अजानंद को ऐसे लगने लगा जैसे कि वह भी देव हो गया हो! एक दिन अजानंद के मन में विचार आया, 'वह व्यंतरों की दुनिया कितनी समृद्धि से भरी पड़ी है, कितना सुख है यहाँ पर | लेकिन इस पृथ्वी के नीचे क्या होगा?' उसने एक दिन व्यंतरेन्द्र से पूछ लिया। व्यंतरेन्द्र ने कहा : 'कुमार, इस पृथ्वी के नीचे सात नरक बनी हुई है।' अजानंद ने पूछा : 'उन सात नरक में कौन रहता है?' ___ व्यंतरेन्द्र ने कहा - 'कुमार, जो लोग पाप करते हैं, बुरे काम करते हैं, वे मरकर वहाँ जाते हैं। हिंसा-हत्या वगैरह करनेवाले पशु भी नरक में जाते हैं, वहाँ जनमते हैं और घोर पीड़ा का अनुभव करते हैं | वहाँ पर दुःख, दर्द और पीड़ा के सिवा कुछ भी नहीं है।' 'तो क्या देव वहाँ पर नहीं जाते हैं?' 'नहीं, देवों का आयुष्य पूरा होने के पश्चात् वे या तो मनुष्यगति में जन्म लेते हैं या फिर तिर्यंचगति में चले जाते हैं। तिर्यंचगति यानी पशु-पक्षी और जानवरों की दुनिया ।' अजानंद सोच में डूब गया। उसने कहा : 'देवेन्द्र, मेरी इच्छा है कि मैं उन नरकों को अपनी आँखों से देखू। क्या आप मेरी इच्छा पूरी करेंगे?' ___ व्यंतरेन्द्र ने कहा : 'तू यहाँ पर स्थिर होकर बैठ जा | मैं अपनी विद्या-शक्ति से तुझे सातों नरक यहीं पर बैठे-बैठे दिखाता हूँ।' For Private And Personal Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११४ अजानंद चुपचाप वहाँ पर बैठ गया। व्यंतरेन्द्र ने अपना दाहिना हाथ उसके सिर पर रखा और जैसे कि चमत्कार हुआ हो वैसे अजानंद को अपनी आँखों के सामने नरक के दृश्य दिखने लगे। एक के नीचे एक वैसी सात उसने देखी। हर नरक के अन्दर अलग-अलग नरकावास देखे। नरकावास यानी नरक के जीवों के रहने की जगह | पहली नरक में तीस लाख नरकवास देखे। दूसरी नरक में पचीस लाख, तीसरी नरक में पन्द्रह लाख, चौथी नरक में दस लाख, पाँचवी नरक में तीन लाख, छठी नरक में पाँच कम एक लाख और सातवीं नरक में पाँच-ऐसे कुल ८४ लाख नरकावास उसने देखे । नरक की भूमि खून-चर्बी-मांस-पीप वगैरह गंदे-घिनौने पदार्थों से भरी पड़ी थी। चारों तरफ भयंकर दुर्गन्ध फैली हुई थी। बदबू के मारे से सर फटा जा रहा था। चारों तरफ भयानक काला स्याह अंधेरा फैला हुआ था। ___ पहली तीन नरकों में तो बाप रे! जलती हुई भट्ठी से भी ज्यादा गर्मी थी। चौथी नरक में ऊपर के हिस्से से भयंकर गर्मी थी तो नीचे के भाग में उतनी ही कड़ाके की सर्दी थी। पाँचवी नरक में कहीं पर जोरदार गर्मी थी तो कहीं पर जानलेवा ठण्ढ़ी की लहरें उठ रही थी। छठी और सातवीं नरक में हिम पर्वत से भी ज्यादा ठण्ढ़ी थी। शरीर तो क्या, साँस भी जैसे बरफ हुई जा रही थी! नरक में रहने वाले क्रूर स्वभाव के परमाधमी देव नरक के जीवों को शूली पर चढ़ा रहे थे, तो कुछ जीवों को जीतेजी आग की भट्ठी में झोंक रहे थे। कुछ जीवों को वज्र जैसे तीखे नुकीले काँटों पर कपड़े की गठरी का भाँति पटक रहे थे तो कुछ जीवों को आरी से ऐसे काट रहे थे जैसे कि लकड़ी छील रहे हों। वे परमाधमी कइयों को त्रिशूल से बींध रहे थे तो तलवार से कइयों के टुकड़े-टुकड़े कर रहे थे। कइयों की आँतों को खींचकर बाहर निकाल रहे थे तो कइयों का पेट चीर रहे थे। नरक के जीवों के हाथ, पैर, सिर वगैरह अवयव बहुत बड़ी कोठी में डालकर पका रहे थे और फिर वे परमाधमी उन्हें खाते थे। कुछ के शरीर के कच्चे ही टुकड़े कर-कर के चबा रहे थे। कुछ जीवों को वे चने कुरमुरे की तरह गरम-गरम रेत में सेक रहे थे। कुछ को वैतरणी नाम की नदी के खौलते हुए गर्म-गर्म पानी के प्रवाह में डुबा रहे थे तो कुछ को जबरदस्ती गर्म-गर्म सीसा पिला रहे थे। कुछ की जीभ को एकदम तीक्ष्ण सुई से बींध रहे थे। कुछ नरक के जीवों को अग्नि में तपाये हुए खम्भे के साथ जबरदस्ती लिपटा रहे थे तो कुछ को नुकीले काँटों के बिछौने पर मार-मार कर सुला रहे For Private And Personal Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११५ पराक्रमी अजानंद थे। कुछ नरक के जीवों को औंधे सिर लटकाकर उनके अंगोपाँग पका-पका कर वे खा रहे थे तो कुछ जीवों को पत्थर की चट्टानों पर धोबी जैसे कपड़े पटकता है, वैसे पटक रहे थे। कुछ नरक के जीव परस्पर एक दूसरे को मारते थे-काटते थे। इसके उपरांत भूख और प्यास के भयंकर दुःखो में वे जी रहे थे। अजानंद ने यह सब देखा । देखते-देखते उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कि वह खुद इन दुःखो को भोग रहा है। वह बेहोश होकर जमीन पर ढेर हो गया। तुरन्त व्यंतरेन्द्र ने उसके ऊपर ठण्ढ़े पानी के छींटे डालकर उसे होश में लाया। नरक के दुःखो को प्रत्यक्ष देखकर अजानंद का मन संसार की मौज-मजा और सुखभोग से विरक्त हो गया। उसके मन में धर्म की आराधना करने की तीव्र इच्छा पैदा हुई। उसने सोचा 'मुझे अब यहाँ से चलना चाहिये।' उसने व्यंतरेन्द्र से अपनी इच्छा कही और जाने की इजाजत माँगी | व्यंतरेन्द्र ने खुशी के साथ इजाजत दी । 'रूप परावर्तन' नामक एक जादुई गुटिका व्यंतरेन्द्र ने अजानंद को दी। अजानंद ने भावविभोर होते हुए व्यंतरेन्द्र को प्रणाम किया। इन्द्र ने अपने सेवक देव को आज्ञा की : 'जाओ, अजानंद को सरोवर के किनारे पर वापस छोड़ दो।' सेवक देव ने आँख के पलकारे में अजानंद को सरोवर के किनारे छोड़ दिया। अजानंद आँखें मसलता हुआ सरोवर के किनारे पर खड़ा-खड़ा इधर-उधर देखता है, पर उसे कहीं राजा नजर नहीं आया। हाँ, कुछ सैनिक लोग जरूर दिखे। वह एक ऊँचे वृक्ष पर चढ़ा। उसने दूर-दूर देखा पर कहीं पर भी उन सैनिकों के अलावा और कोई नजर नहीं आ रहा था। नीचे उतरकर वह दौड़ता हुआ सैनिकों के पास गया । वह सैनिकों से राजा के बारे में पूछे उससे पहले तो सभी सैनिकों ने एक साथ उससे पूछा : 'कुमार, अपने महाराजा कहाँ हैं?' अजानंद ने कहा : 'मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं है।' सैनिकों ने कहा : 'वह हाथी तुम्हें सूंड़ में पकड़कर सरोवर में घुस गया तब महाराजा भी तुम्हारे पीछे तुम्हें बचाने के लिए सरोवर में कूदे और उन्होंने गहरे पानी में डुबकी लगा दी। इसके बाद हमने सरोवर में कई बार महाराजा को खोजा पर वे कहीं नहीं मिले। उस दिन से आज तक हम उन्हें खोजते रहे, परन्तु उनका कोई अता-पता नहीं मिल पाया है और इधर राजा के बिना नगर के सब लोग दुःखी-दु:खी हो उठे हैं। लेकिन खुशकिस्मती है कि आज तुम मिल गये। अब हमें विश्वास है कि महाराजा भी अवश्य मिल जायेंगे।' For Private And Personal Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११६ ___ अजानंद अपने मन में सोचता है : 'सचमुच महाराजा कितने दयालु हैं एवं परोपकारी हैं। मेरे जैसे गरीब और छोटे मित्र के लिए भी उन्होंने अपनी जान की बाजी लगाते हुए सरोवर में छलाँग लगा दी। मुझे कहीं से भी महाराजा की तलाश करनी चाहिये। यदि मैं व्यंतरेन्द्र के पास जाकर उनसे पूछंगा तो जरुर वे मुझे महाराजा का पता बतायेंगे।' __ परन्तु अजानंद ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी। उसने सरोवर में कूदकर व्यंतरेन्द्र के पास जाने का सोचा, जबकि वहाँ पर उसे सहायता करनेवाला कोई भी व्यंतरदेव हाजिर नहीं था। जैसे ही अजानंद सरोवर में कूदा, एक मगरमच्छ ने उसे अपने मुँह में जकड़ लिया और निगलने लगा। कमर तक वह निगल गया। पर अजानंद की कमर पर अग्निवृक्ष के फल का चूर्ण बंधा हुआ था। जैसे ही वह चूर्ण मगरमच्छ के पेट में गया उसी समय मगरमच्छ मनुष्य बन गया लेकिन सरोवर के पानी के प्रभाव से अजानंद का आधा शरीर बाघ का बन गया। इस तरह उसका आधा शरीर मनुष्य का और आधा शरीर बाघ का बन गया। इतने में उस सरोवर के अन्दर पानी की लहरे उँची-ऊँची उठने लगी और एक लहर ने अजानंद को किनारे फेंक दिया। वह बेहोश हो गया था। किनारे पर ढेर होकर पड़ा रहा। राजा के सैनिक तो सरोवर से काफी दूर चले गए थे। फिर भी अजानंद का भाग्य कुछ तेज था। सरोवर का वह किनारा व्यंतर देवियों के लिए घूमने-फिरने की जगह थी। संध्या के समय कुछ देवियाँ उधर घूमने निकलीं। बहुत आश्चर्य हुआ। अरे! यह कैसा विचित्र प्राणी है। इसका आधा शरीर बाघ का है और आधा शरीर मनुष्य का है। चलो, हम इस प्राणी को अपनी रानी के पास ले चलें। सभी देवियाँ सहमत हो गयी और अजानंद को उठाकर सर्वांगसुन्दरी देवी के सामने ले जाकर रख दिया। दुर्जय राजा सर्वांगसुन्दरी के समीप बैठा हुआ था। दोनों आश्चर्य से अजानंद के आधे बाघ और आधे मानववाले शरीर को देखते ही रहे । इतने में अचानक दुर्जय राजा को चंडिकादेवी के द्वारा उसके कान में कही गयी बात याद आ गयी। 'तू तेरे मित्र को छह महीने बाद मानव-व्याघ्र के रूप में देखेगा।' उसने तुरन्त देवी के द्वारा दी हुई दिव्य औषधि को पानी में मिलाकर वह पानी अजानंद पर छींटा। कुछ ही पलो में मनुष्य बने हुए मगरमच्छ के मुँह मे से अजानंद बाहर निकल आया । मगरमच्छ मानव रूप में आ गया। इधर अजानंद का बाघ रूप For Private And Personal Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११७ दूर होकर वह भी मनुष्य रूप में आ गया था। दोनों की बेहोशी दूर हुई। दोनों में चेतना का संचार हुआ। राजा ने अजानंद को अपने सीने से लगा लिया और राजा ने सर्वांगसुन्दरी से कहा : 'देवी, यह मेरा घनिष्ट मित्र है। छह महीने बाद हम वापस मिल पाये हैं। राजा की आँखों में खुशी के आँसू उभर आये। सर्वांगसुन्दरी ने राजा को, अजानंद को और मगरमच्छ में से मनुष्य बने हुए आदमी को दिव्य वस्त्र और अलंकार दिए और उनका सुन्दर सत्कार करके उन्हें अपने घर में ही रखा। __एक दिन अजानंद ने राजा से कहा : 'महाराजा, आपके बिना आपका परिवार और आपकी प्रजा बड़ी दुःखी है। अब हमलोगों वापस अपने नगर में लौट जाना चाहिये ताकि राजपरिवार की और प्रजाजनों की चिंता दूर हो सके। राजा के मन में अजानंद की बात अँच गयी और उसने जाकर सर्वांगसुन्दरी से कहा : 'देवी, अब हम यहाँ से जाने का इरादा रखते हैं। तू मुझे इजाजत दे। मेरे बिना मेरा परिवार और नगर के लोग सब परेशान एवं चिंतित हैं। अब मुझे जाना ही चाहिये। तूने मुझे भरपूर सुख दिया है, मैं तुझे कभी नहीं भूल सकता।' ___ सर्वांगसुन्दरी की आँखों में आँसू उमड़ आये। उसने भरी आवाज में राजा से कहा : 'स्वामी, मेरी किस्मत थी जो आप इतना समय मेरे पास रहे। अब आपकी इच्छा अपने नगर में लौटने की है। मैं आपको कैसे रोकूँ? जिसे जाना हो उसे कौन रोक सकता है? फिर भी आप मुझे भूल मत जाना । मेरा हृदय तो आपके साथ और आपके पास ही रहेगा! सचमुच दुनिया में पुरुष होना कितना अच्छा है। पुरुष जहाँ चाहे वहाँ जा सकता है, जो चाहे वह कर सकता है। मगर औरत का जीवन तो पराधीन सा ही होता है। चूंकि उन्हें हमेशा किसी न किसी के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है और फिर दुनिया में मिलना और बिछुड़ना तो चलता ही रहता है। मनुष्य कभी-कभी अपने ही हाथों दुःख को बुलावा भेजता है। प्रिय व्यक्ति के मिलन में सुख तो जरा सा होता है जबकि जुदाई में दुःख पहाड़ बनकर टूट गिरता है। इतना सब समझने पर भी स्वामी, मैं आपके प्रति अनुरागी बनी हुई हूँ| अब तो मैं आपसे काफी दूर रहँगी पर फिर भी आप मुझे अपनी ही समझना। जब भी आपको मेरी जरुरत पड़े, मुझे याद कर लेना।' For Private And Personal Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११८ यों कहकर देवी ने तीनों को अच्छी सुन्दर भेंट-सौगातें दी और उन्हें विदा किया। उन तीनों को अपनी दैवी शक्ति से देवी ने सरोवर के किनारे छोड़ दिया। ५. अष्टापद पर्वत पर! अजानंद ने सरोवर मे से थोड़ा पानी एक तुम्बे में भर लिया और उन तीनों ने नगर की ओर प्रयाण किया। नगर में पहुंचने पर प्रजा ने और राजपरिवार ने बड़े शानदार ढंग से राजा का भव्य नगर-प्रवेश करवाया। ___ अजानंद एक महीने तक दुर्जय राजा के साथ रहा। एक दिन मौका पाकर उसने राजा के सामने अपनी वहाँ से जाने की इच्छा व्यक्त की। हालांकि राजा को अजानंद की बात सुनकर बहुत दुःख हुआ। पर आखिर मेहमान तो मेहमान ही ठहरा... आज नहीं तो कल चले जाने का! अजानंद अपने मनुष्यरूपधारी मगर-मित्र को साथ लेकर वहाँ से चल दिया। जिस सुरंग के जरिये वह इस नगर में आया था... उसी सुरंग में से होकर वह बाहर निकला | सुरंग उस यक्षमन्दिर में पहुँचाती थी। अजानंद यक्षमन्दिर में पहुँच गया । वहाँ उसने अपने मित्र मनुष्यरूपधारी बन्दर को बैठे हुए देखा । अजानंद ने आश्चर्य से पूछा : 'अरे दोस्त! क्या इतने महीनों से तू यहीं पर बैठा हुआ है?' 'हाँ...और जाऊँ भी कहाँ? मैं तो तुम्हारा इन्तजार करता हुआ यहीं पर बैठा हूँ!' अजानंद को उसकी दोस्ती पर बड़ी खुशी हुई। उसने बन्दर-मनुष्य को भी अपने साथ ले लिया। तीनों दोस्त वहाँ से आगे बढ़े। अभी तो वे दो सौ-तीन सौ कदम ही चले होंगे कि उन्होंने एक सुन्दर स्फटिक रत्न जैसे चमकते-दमकते पत्थरों से रची हुई बावड़ी देखी। पास में छोटे-छोटे सुन्दर विमानों का काफिला पड़ा हुआ था। अजानंद ने सोचा कि 'जरुर बावड़ी में लोग होने चाहिए।' उसने बावड़ी की दीवार के सहारे सट कर खड़े रहते हुए अंदर झाँका | बावड़ी में बीस-पच्चीस अप्सरा जैसी औरतें जलक्रीड़ा कर रही थी...वे औरतें इतनी खूबसूरत थी कि अजानंद को पलभर के लिए विचार आ गया : 'क्या ये देवियाँ होंगी?' परन्तु उनकी आँखों की पलकें झपकती थी। अतः For Private And Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद ११९ वे मनुष्य स्त्रियाँ थी यह तो निश्चित था । अजानंद उन स्त्रियों का रूप-सौन्दर्य देखकर मुग्ध हो उठा था! इतने में जैसे कि कोयल कूक उठी...एक सुंदरी बोली : 'अरे...कितनी देर हो गई है... बातों ही बातों में कितना समय निकल गया... हम को अभी तो अष्टापद तीर्थ पर जाना है। वहाँ पर देवराज इन्द्र अनेक देवियों के साथ आनेवाले हैं... इसलिए अब जलक्रीड़ा छोड़कर जल्दी से बाहर निकलो...' ___ वास्तव में ये स्त्रियाँ विद्याधर-स्त्रियाँ थी। अजानंद ने उनकी बातें सुनी। उसने सोचा : 'मैंने मृत्युलोक देखा, नरक की धरती भी देखी है... अब यदि वैमानिक देव-देवियों को प्रत्यक्ष देखना हो तो मुझे इन स्त्रियों के साथ अष्टापद पर्वत पर जाना चाहिए | ऐसा मौका नहीं खोना चाहीए ।' __नरबंदर का दिया हुआ हार और सरोवर का पानी नरबंदर और नरमगर को सौंप कर अजानंद ने व्यंतरेन्द्र की दी हुई गुटिका का प्रयोग किया | रूप परिवर्तन कर वह एक भ्रमर बन गया । ___ उन स्त्रियों के हाथ में कमल के फूल थे। उन फुलों पर वह भ्रमर बैठ गया। स्त्रियों ने अपने विमानों को आकाश में उड़ाये | भ्रमर ने मधुर गुंजारव करना शुरु किया। विद्याधर स्त्रियों को मजा आ गया । भ्रमर एक-एक करके सभी के पास जाता है... और गुंजारव करता है। इतने में दूर से अष्टापद पर्वत दिखाई दिया। पर्वत के एक सर्वोच्च शिखर पर सुवर्णमय भव्य जिनमंदिर था। वह देखकर भ्रमररूप में रहा हुआ अजानंद सोचता है...'अरे, क्या यह साक्षात् मोक्ष है? या परमात्मस्वरूप का तेजपुंज है?' वह मन ही मन नाच उठा। सब विमान अष्टापद पर्वत पर उतर गये। स्त्रियाँ भी विमान में से बाहर निकली। पूजन की सामग्री लेकर वे स्त्रियाँ मंदिर में प्रविष्ट हुई। अजानंद भी मंदिर में प्रविष्ट हुआ और भ्रमररूप में मधुर गुंजारवर करने लगा। स्त्रियों ने चौबीस तीर्थंकर भगवन्तों की पूजा की और भक्तिपूर्वक स्तवना करने लगी। इतने में देवराज इन्द्र का विमान भी आ पहुँचा। इन्द्र ने शुद्ध कीमती वस्त्रालंकार पहने हुए थे। साथ की देवियों ने भी श्रेष्ठ सिंगार रचाया था। सबने मंदिर में आकर विधिपूर्वक चौबीस तीर्थंकरों की पूजा की। देवेन्द्र मंदिर के रंगमंडप में जाकर बैठे। गीत-संगीत से भावपूजा का प्रारम्भ हुआ । वाद्य बजने लगे। गायकों ने गीत गाने शुरु किये। देवियों ने घुघरु छनकाते हुए For Private And Personal Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२० नृत्य का प्रारंभ किया। परमात्मा की भक्ति का अद्भुत वातावरण वहाँ पर बन गया । भ्रमर के रूप में रहा हुआ अजानंद एक जगह पर स्थिर बैठकर देवियों के नृत्य देखने लगा। वह मुग्ध हो उठा। ऐसे अद्भुत दृश्य उसने पहले कभी नहीं देखा था। इन्द्र ने 'तुंबरु' नाम के देव को गीत गाने की आज्ञा की। उस समय अजानंद को विचार आया कि 'मैं यदि अपनी कला बताकर यहाँ प्रगट हो जाऊँ तो? चूँकि अप्रसिद्ध एवं अनजान आदमी का जन्म जानवर की भाँति अर्थविहीन है। मुझे अपनी कला का परिचय देना ही चाहिए।' उसने गुटिकाप्रयोग के द्वारा तुरंत अपना रूप बदल दिया। वह खुद 'तुंबरु' देव बन गया और गीत गाने की शुरुआत की। शास्त्रीय राग को अपने कंठ की मधुरता से ऐसा गाया कि इन्द्र के साथ अन्य देव-देवी भी झूम उठे! इन्द्र अपने मन में ऐसा प्यारा-प्यारा मधुर गीत सुनकर सोचता है : 'शायद यह कोई नया तुंबरुदेव आया लगता है।' इन्द्र ने उस नये तुंबरु देव को अपने पास बुलाया इनाम देने के इरादे से। तुरंत अजानंद ने अपना रूप परिवर्तन कर दिया और अपने मूल रूप मे आ गया। मनुष्य के रूप में वह इन्द्र के सामने जाकर खड़ा रहा। पृथ्वी पर का एक सामान्य आदमी को अपने सामने खड़ा देखकर इन्द्र एवं सभी देव-देवी विस्मय से ठगे-ठगे से रह गये । इन्द्र ने पूछा : 'अरे! तू कौन है? यहाँ कहाँ से आया है?' अजानंद ने बड़ी निर्भयता से अपने परिभ्रमण की रसमय बातें कहनी प्रारंभ की। देवराज इन्द्र तो अजानंद की बातें सुनकर प्रसन्न हो उठा। उसके गुण एवं पराक्रम पर इन्द्र मुग्ध हो गया । इन्द्र ने अजानंद को दिव्य वस्त्र दिये...दिव्य अलंकार-गहने दिये। अजानंद ने दोनों हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा : 'ओ देवों के राजा! आपका रूप-सौन्दर्य कितना अद्भुत है! आपका तेज कितना अपूर्व एवं दीप्तिमान है। कितना विपुल वैभव है आपके पास...और ये देवियाँ तो सुंदरता के सागर सी लग रही हैं...और देवेन्द्र...यह सारी समृद्धि आपको कैसे प्राप्त हुई? अपूर्व स्वर्ग, अनुपम आवास, तेजस्वी देह...अद्भुत शक्ति, और सौन्दर्य के खजाने जैसी इन्द्राणी...यह सब आपको कैसे मिला? किसने दिया यह सब आपको? आप मुझे यह बताने की कृपा करेंगे।' For Private And Personal Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२१ इन्द्र ने कहा : 'कुमार, मैंने पूर्वजन्म में जिस धर्म का आचरण किया था...उसके फलस्वरूप यह सारा सुख मुझे प्राप्त हुआ है। हालाँकि यह इन्द्र का जीवन तो धर्मवृक्ष का एक छोटा सा फूल मात्र है...धर्मवृक्ष का फल तो मोक्ष है। मुक्ति है। जो कोई भी प्राणी धर्म की शरण में जाता है... उसे सुंदर मनुष्य जन्म मिलता है... देवलोक के दिव्य सुख मिलते हैं और अंत में मोक्ष का अक्षय-अनुपम सुख मिलता है। धर्म की महिमा अपार है...धर्म का प्रभाव निःसीम है।' 'देवराज, मैं भी उस धर्म की आराधना करूँगा।' इन्द्र ने एक आज्ञांकित देव को आज्ञा दी कि अजानंद को उसके स्थान पर पहुँचा दिया जाये। और परिवार के साथ वहाँ से अपने स्थान पर चले गये। अजानंद ने देव से कहा : 'मैंने अभी यहाँ चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की पूजा नहीं की है...तो वह कर लूँ... और जब यहाँ पर आया ही हूँ तो इस पवित्र पर्वत का सौन्दर्य जी भरकर देख लूँ... तब तक तुम रुकने की कृपा करोगे ना?' देव ने हामी भरी। अजानंद ने परमात्मा की भावपूर्वक पूजा की। श्री ऋषभदेव भगवान से लेकर श्री महावीर स्वामी तक के चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की रत्नमय प्रतिमाओं का अपूर्व रूप-सौन्दर्य देखकर अजानंद मुग्ध हो उठा। अजानंद ने उस देव से पूछा : 'ओ महापुरुष! यह इतना सुदंर सोने का मंदिर और ये रत्नों की मूर्तियाँ किसने बनवाये हैं? यह क्या आप मुझे बतलायेंगे?' 'कुमार, पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का इसी अष्टापद पर्वत पर निर्वाण हुआ है। निर्वाण के समाचार सुनकर, उनके सबसे बड़े पुत्र भरत महाराजा जो कि खुद बड़े चक्रवर्ती सम्राट थे, यहाँ पर आये थे। उन्होंने अपने पिता तथा प्रथम तीर्थंकर की स्मृति में यह सोने का मंदिर और ये रत्नों की मूर्तियाँ बनाकर यहाँ स्थापित की हैं।' अजानंद ने पूछा : 'मैं, जब विद्याधर देवियों के साथ उनके विमान में भ्रमर बनकर यहाँ आ रहा था तब मैंने दूर से इस पर्वत को देखा था। इस पर्वत पर चढ़ने की आठ सीढ़ियाँ भी मैंने देखी थी। परंतु उन सीढ़ियों के बीच में इतना तो अंतर है...दूरी हैं...कि बेचारा आदमी तो चढ़ने का सोच भी नहीं सकता! और फिर For Private And Personal Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२२ पर्वत के चारोतरफ गंगा जैसी विशाल नदी बह रही है... क्या यह सब स्वाभाविक है...? पहले से ही ऐसा है?' देव ने कहा : 'कुमार, यह सब स्वाभाविक नहीं है! परंतु मनुष्यों के द्वारा निर्मित हुआ है। मेरी बात ध्यान से सुन, भगवान ऋषभदेव के बाद में भगवान अजितनाथ हुए | उनके भाई थे सगर चक्रवर्ती! सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र इस पर्वत की यात्रा करने के लिए आये हुए थे। उन्होंने भावपूर्वक इस तीर्थ की यात्रा की। उन्होंने अपने मन में सोचा : 'यह सोने का मंदिर...ये रत्नों की मूर्तियाँ देखकर आदमी का मन ललचा जाएगा! संभव है... लोग या तो यह मंदिर तोड़कर सोना ले जाएँ, और रत्नों की मूर्तियाँ चुरा ले जाएँ...। इसलिए हमको इस तीर्थ की सुरक्षा करनी चाहिए। उन्होंने, मनुष्य इस पर्वत पर पहुँच ही नहीं सके...चढ़ ही नहीं सके इसलिए एक-एक योजन का अंतर रख कर आठ सीढ़ियाँ बनाई और गंगा नदी में से नहर खोद कर पानी ले आये । इससे पहले सगर चक्रवर्ती के पुत्रों ने पर्वत के चारोतरफ खाई भी खोद डाली...और जोर-शोर से गरजता हुआ पानी चारों तरफ की खाई में फैल गया। हालाँकि इस काम को करते हुए सगर चक्रवर्ती के उन साठ हजार बेटों को अपनी जान की बाजी लगानी पड़ी। प्राणों का बलिदान देना पड़ा!' 'वह कैसे?' अजानंद ने आश्चर्य से पूछा। 'जब सगरपुत्रों ने पर्वत के इर्द-गिर्द खाई खोदी.. इतनी गहरी खाई खोदी कि पाताललोक में रहनेवाले नागकुमार देवों के भवन पर मिट्टी गिरने लगी। नागकुमार देव पृथ्वी पर आये...उन्होंने सगरपुत्रों को चेतावनी दी...और कहा : 'तुमने इतनी गहरी खाई खोद कर हमारा अपराध किया है। हम तुम पर क्रोधित हुए हैं पर तुम भगवान ऋषभदेव के वंश में पैदा हुए हो...भगवान अजितनाथ के भतीजे हो...इसलिए एक बार तो हम तुम्हें माफ कर देते हैं...अब आगे से ऐसी गलती दोहराना मत ।' यों कहकर नागकुमार देव अपने स्थान पर चले गये। उनके जाने के बाद सागरपुत्रों ने सोचा...हम ने खाई तो काफी गहरी खोद डाली... पर बरसों बाद कभी जबरदस्त आँधी-बवडर मचेगा तब शायद यह खाई भर भी जाए...यदि हम गंगा का पानी इस खाई में ले आयें तो फिर भविष्य में कोई चिंता नहीं रहेगी...नागकुमार देव उन्हें जो भी करना होगा...करेंगे। हम तीर्थरक्षा के लिए काम कर रहे हैं, तो उसे पूरा करेंगे ही।' For Private And Personal Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२३ इस महान तीर्थ की रक्षा के लिए चक्रवर्ती के पुत्र इतने उत्सुक एवं तत्पर थे कि उन्होंने नागकुमार देवों की कड़ी चेतावनी की भी परवाह नहीं की । उन्होंने स्वयं गंगा में से पानी लाने के लिए नहर खोद डाली... और नहर के जरिये पूरी खाई में गंगा का पानी फैल गया। अब जिस जगह से मिट्टी गिर सकती है... वहाँ से पानी तो जाने का ही ! नागकुमार देवों के महलों पर पानी गिरने लगा... . देव बौखला उठे... गुस्से में दनदनाते हुए वे ऊपर आये... और सगर चक्रवर्ती के साठ हजार पुत्रों को जीते-जी जलाकर राख कर दिये ! पर तीर्थरक्षा की तमन्ना में मरे हुए वे सब मर कर बारहवें देवलोक में देव बने ।' अजानंद स्तब्ध होकर सारी कहानी सुन रहा था । आँखें मूँदकर उसने सगरपुत्रों को भावभरी वंदना की । पुनः उसने मंदिर में जाकर चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की वंदना की। बाहर आकर उसने देव से कहा : 'अब तुम मुझे उस बावड़ी के पास छोड़ दो, जहाँ से मैं यहाँ आया था!' देव ने अजानंद को उठाकर अपनी दिव्य शक्ति से बावड़ी के किनारे पर रख दिया और वह अपने स्थान पर चला गया। ६. चोरी का इल्जाम बावड़ी के पास एक पेड़ के नीचे नर- वानर और नर-मगर सोये हुए थे। अजानंद भी उन दोनों के पास जाकर सो गया । उसने इन्द्र का दिया हुआ वस्त्र ओढ़ लिया था। सुबह में जब वे दोनों मित्र जगे ... उन्होंने अपने पास किसी को सोये हुए देखा। वे आश्चर्य से सोचने लगे : 'अरे, इतना कीमती दिव्य वस्त्र ओढ़कर यहाँ पर कौन सोया है ? यह कौन होगा?' वे दोनों अजानंद के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगे। इतने में सोया हुआ अजानंद जगा । दिव्य वस्त्र दूर करके वह सहसा खड़ा हो गया! उसे देखकर वे दोनों एक साथ खुशी से चिल्ला उठे : 'अरे... तुम कब आये ? यहाँ आकर कब सो गये ?' अजानंद ने उनसे अष्टापद की यात्रा की सारी बात कही। तीनों वहाँ से आगे की सफर को चल पड़े। अजानंद के दिल-दिमाग पर अपने भविष्य के विचार आ-आकर टकरा रहे थे। 'मुझे दुनिया की कितनी तरह की विचित्रताएँ देखने को मिली ! पशु को मनुष्य बनानेवाले अग्निवृक्ष का चूर्ण मुझे मिला । मनुष्य को पशु बना देनेवाला For Private And Personal Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२४ पानी मेरे पास है...! रूप बदलने की गुटिका मेरे पास है और मेरी किस्मत के बल पर ही ये दोनों आदमी मेरे सेवक बन कर घूम रहे हैं। लगता है मेरा भाग्य अखंड है। पर न जाने मेरे माता-पिता कहाँ पर होंगे? मेरे बगैर वे बेचारे कितने दुःखी होंगे...क्या पता कब मैं उनसे मिल पाऊँगा?' यों सोचते-सोचते कब 'जयन्तीनगर' आ गया इसका पता ही न लगा! अजानंद ने अपने दोनों साथियों से कहा : 'तुम यहीं पर नगर के बाहर रुक जाओ | मैं गाँव में जाता हूँ| फिर तुम्हें ले जाऊँगा।' अजानंद ने नगर में प्रवेश किया। नगर सुन्दर था। साफ सुथरे रास्ते थे। अजानंद रास्ते पर चला जा रहा हैं...। उसने एक भव्य हवेली देखी। हवेली के बाहर एक सेठ बैठे हुए थे। अजानंद ने उन्हें प्रणाम किया और पूछा : ____ 'महानुभाव! हम परदेशी हैं...मैं और मेरे दो साथी। हम तीन लोग हैं। क्या इस नगर में रुकने के लिए कोई धर्मशाला या बगीचा वगैरह है, जहाँ पर कि हम ठहर सकें!' उस सेठ का नाम बुद्धिधन था। उसने अजानंद को देखा | उसका सुन्दरस्वस्थ शरीर देखा। उसके देह पर के दिव्य वस्त्र देखे। उसे लगा कि 'यह कोई धनवान आदमी लगता है...मेरी हवेली में ही अगर इसे ठहरा दूं तो मुझे लाभ ही होगा।' यों सोचकर उसने अजानंद से कहा : 'परदेशी कुमार, तुम मेरी हवेली में ही आराम करो। जितने दिन रहना हो खुशी से रहो।' अजानंद ने अपने दोनों साथियों को बुला लिया। तीनों ने बुद्धिधन श्रेष्ठि की हवेली में निवास किया। अजानंद ने अपने मन में साचा कि : _ 'यह वणिक-व्यापारी आदमी है। यदि मैं अपनी कोई कीमती वस्तु इसको सौपूँगा तो इसको हमारे ऊपर पूरा भरोसा हो जाएगा!' अजानंद ने अपना कीमती हार सम्हालने के लिए बुद्धिधन सेठ को दिया । बुद्धिधन खुश हो उठा। ___एक दिन अजानंद को नाखून काटवाने के लिए नाई के पास जाना था। उसने बन्दर-आदमी को अग्निवृक्ष के फल का चूर्ण सम्हालने के लिए दिया और वह नाई के घर पर गया। नाखून कटवा कर वह बाहर निकला | इतने में न जाने कैसे यकायक उसकी कमर पर बंधे हुए दो दिव्य वस्त्र सरक कर गिर गये | अजानंद को ख्याल ही नहीं आया इस बात का | नाई ने दोनों कपड़े For Private And Personal Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org पराक्रमी अजानंद १२५ उठा लिए...और एक व्यापारी को बेच दिये । व्यापारी ने इतने सुन्दर-दिव्य वस्त्र नगर के राजा विक्रम को भेंट स्वरूप दे दिये। वसन्त उत्सव के दिन आये। नगर के लोग बढ़िया कपड़े पहन कर सजधज कर नगर के बाहर बगीचे में घूमने-फिरने जाने लगे । राजा विक्रम भी, वे दोनों दिव्य वस्त्र पहन कर बगीचे में पहुँचा । इधर बुद्धिधन श्रेष्ठि का पुत्र मतिसागर भी सुन्दर वस्त्र पहनकर और अजानंद का हार गले में डालकर घूमने के लिए आया था। राजा ने बगीचे में टहलते हुए मतिसागर को देखा । उसके गले में पहने हुए रत्नहार को भी देखा । राजा चौंका। उसने मतिसागर को अपने पास बुलवाया और पूछा : 'यह रत्नहार तू कहाँ से लाया ? सच - सच बताना!' Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मतिसागर सकपका गया । वह जवाब नहीं दे पाया। सचमुच तो उसे पता ही नहीं था कि यह हार अजानंद का है। राजा ने गुस्से में आकर सैनिकों को इशारा किया...और सैनिक टूट पड़े उस मतिसागर पर ! लातों और घूँसों से उसकी हालत खस्ता कर दी ! रस्सी से बाँधकर ... ऊपर से डंडे मारने लगे । बेचारा मतिसागर खून की उल्टी करता हुआ बेहोश होकर ढेर हो गया । सेठ बुद्धिधन को समाचार मिला कि राजा के सैनिकों ने मतिसागर को मारा है। इसलिए अजानंद के साथ बुद्धिधन दौड़ता हुआ बगीचे में पहुँचा । पुत्र की दुर्दशा देखकर सेठ रो पड़ा। उसने राजा से पूछा : ‘आपके सैनिकों ने मेरे बेटे को इतनी मारपीट क्यों की | क्या गुनाह है मेरे बेटे का ?' 'गुनाह? अरे चोर है, चोर तुम्हारा सपूत ! इसने मेरे रत्नहार की चोरी की है... यह रत्नहार मेरा है ! ' 'पर महाराजा, यह हार तो इस परदेशी अजानंद कुमार का है । यह मेरी हवेली में मेहमान है। इसने मुझे हार दिया था सम्हालने के लिए। वही हार मेरे बेटे ने पहना है... ! ' सेठ ने कहा । मैने राजा ने मतिसागर को छोड़ते हुए कहा : 'क्यों रे परदेशी, तूने चुराया है यह हार ?' 'जी हाँ, चुराया है।' अजानंद को तो इस तरह का नाटक करना ही था । For Private And Personal Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२६ राजा ने अपने सैनिकों को आज्ञा कर दी-'ले जाओ...इस चोर को वधस्थान पर...और वहाँ ले जाकर एक ही झटके में इसको खत्म कर दो...!' ___ अजापुत्र ने कहा : 'मेरी हत्या करने से पहले राजाजी, मेरी एक बात आप सुन लीजिए | महाराजा, कृपा करके एक कागज पर मुझे इतना लिख कर देने की कृपा करें कि 'जिस किसी ने भी चोरी की है-वैसा पाया गया तो उसकी हत्या कर दी जाएगी। क्योंकि यहाँ पर एक और चोर भी हाजिर है।' राजा की समझ में आया नहीं...अजानंद क्या पहेलियाँ बूझा रहा है...। पर उसने गुस्से ही गुस्से में अजानंद ने जैसा कहा वैसा लिख दिया कागज पर, और कागज दे दिया अजानंद को। अजानंद ने कागज लेकर कहा : 'राजाजी, आपने जो लिखा है...उस बात का आप पालन कीजिएगा।' राजा ने कहा : 'हाँ, हाँ... मैं राजा हूँ, जरुर पालूँगा अपने वचन को!' अजानंद ने धीरे से कहा : 'महाराजा, आपके शरीर पर ये जो दो दिव्य वस्त्र हैं, ये वस्त्र मेरे हैं। इसलिए आप भी चोर हो! आप मेरी बात नहीं मानते हैं तो तलाश करवा कर पता लगवाइये कि इन वस्त्रों का सच्चा मालिक कौन है?' राजा ने एक नौकर को भेजकर वस्त्र भेंट देनेवाले व्यापारी को बुलवाया और पूछा : 'ये दिव्य वस्त्र, जो तूने मुझे भेंट दिये हैं, वे तू कहाँ से लाया?' ___ व्यापारी ने कहा : 'महाराजा, ये वस्त्र तो एक नाई मेरे वहाँ आकर बेच गया था। बड़े कीमती वस्त्र थे तो मैंने सोचा आपको भेंट कर दूं...और मैंने आपको दे दिये।' राजा ने हुक्म दिया : 'इसी वक्त नाई को यहाँ पर हाजिर किया जाय ।' नाई आया। उससे राजा ने पूछा : 'ये कपड़े तूने बेचे हैं? कहाँ से आये तेरे पास ये कपड़े?' नाई की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई...। उसने सामने ही खड़े अजानंद को देखा। वह घबरा गया। उसने सच-सच बात बता दी। अजानंद ने राजा के सामने देखा। राजा ने कहा : 'ठीक है परदेशी, ये कपड़े तुम्हारे हैं... पर किसी और ने चुराये हैं और मेरे पास आये हैं, तो मैं चोर थोड़े ही हो जाऊँगा!' For Private And Personal Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२७ अजानंद ने कहा : 'महाराजा, तब फिर यह हार भी किसी और के द्वारा चुराया गया है और मेरे पास आया है... फिर मैं इसका चोर कैसे माना जाऊँगा?' हार की चोरी का मामला उलझ गया। राजा ने तुरंत ही अपने कोषाध्यक्ष को बुलाया और पूछा। कोषाध्यक्ष ने कहा : 'महाराजा, यह हार तो मैंने राजकुमारी को पहनने के लिए दिया था।' राजा ने आनन-फानन में राजकुमारी को बुलवाया : 'बेटी, यह हार तूने पहनने के लिये लिया था?' 'हाँ पिताजी, यह हार पहनकर मैं एक दिन जलक्रीड़ा करने के लिए बावड़ी पर गई थी। वहाँ पर मेरे पालतू बंदर ने यह हार उठाया और उछलता-कूदता हुआ वह बावड़ी के बाहर दूर-दूर जंगल में भाग गया | मैंने तुरंत मेरी परिचारिका को भेजा बंदर को खोजने के लिए... पर वह बंदर हाथ नहीं आया...और हार भी नहीं मिला | मैं आप से बात करती, पर मुझे आपका डर लगा... मैंने आपसे बात नहीं की।' हार की चोरी का रहस्य तो उलझता ही जा रहा है। इतने में वह जो बंदर में से आदमी बना हुआ अजानंद का मित्र वहाँ खड़ा था उसने राजकुमारी को देखा। राजकुमारी पर उसको प्रेम तो था ही। वापस बंदर बनकर राजकुमारी के पास रहने की प्रबल इच्छा ने उसको जैसे मजबूर सा कर दिया। उसके पास आदमी को पशु बनानेवाला वह पानी तो था ही। अजानंद ने उसको रखने के लिये दिया था। उसने थोड़ा पानी पी लिया। पलक झपकते ही वह आदमी में से बंदर बन गया और छलांग मारता हुआ राजकुमारी की गोद में जाकर बैठ गया। __ पलभर तो सब चमक गये। राजकुमारी चीख उठी। सैनिक दौड़े। पर जैसे ही राजकुमारी ने बन्दर को पहचाना, उसने उसका सिर सहलाया। सैनिक भी बंदर को पहचान गये। ___ अजानंद ने वहाँ बंदर की सारी बात कही। बंदर कैसे आदमी बन गया था यह भी बताया। राजा तो सुनकर आश्चर्य से मुग्ध हो उठा। राजा ने अजानंद को उसके दिव्य वस्त्र वापस लौटा दिये । अजानंद ने हार राजा को दे दिया। राजा आग्रह करके अजानंद को अपने महल में ले गया। वहाँ उसका सुंदर आदर सत्कार करके उसे अनेक मूल्यावान उपहार भेंट में दिये। For Private And Personal Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२८ पराक्रमी अजानंद अजानंद ने उस बंदर से बचा हुआ पानी तभी वापस ले लिया था जब वह आदमी में से बंदर हो गया था। बंदर तो राजकुमारी के पास ही रह गया। अजानंद मगर-नर के साथ उस नगर को छोड़कर आगे बढ़ा। एक जंगल में से दोनों गुजर रहे थे। अचानक अजानंद ने देखा : एक हाथी बड़ी तेजी से दौड़ता हुआ आ रहा था। हाथी पर एक आदमी बेहोश होकर पड़ा हुआ था। अजानंद उस हाथी को पकड़ने के लिए दौड़ा। परंतु हाथी उसकी पकड़ में आये वैसा था नहीं। आखिर दौड़ते-दौड़ते ही अजानंद ने अपनी कमर में बँधा हुआ अग्निवृक्ष के फल का चूर्ण निकाला और भागते हुए हाथी पर फेंका। जैसे ही चूर्ण हाथी पर गिरा...कि तुरंत हाथी आदमी हो गया। हाथी पर पड़ा हुआ आदमी तो जमीन पर गिर गया था। अजानंद गया और समीप के झरने में से पानी लाया । उस बेहोश आदमी पर पानी के छींटे मारे...धीरे-धीरे उसकी बेहोशी दूर हुई। वह होश में आया। अजानंद ने उससे पूछा : 'भाई, तू कौन है?' युवक ने कहा : 'ओ उपकारी वीरपुरुष! मेरी कहानी लंबी है...फिर भी तुम्हें जरुर सुनाऊँगा।' ७. युद्ध और विजय विजया नाम की एक नगरी है। उस नगरी के राजा है महासेन । वे इन्द्र जैसे तेजस्वी एवं अतुल पराक्रमी हैं। उनकी पत्नी शीलवती रानी गुणी एवं पतिव्रता है। मैं उनका पुत्र हूँ। मेरा नाम है विमलवाहन। आज सबेरे मेरा यह हाथी अचानक उन्मत्त हो उठा। मैंने उसे वश में करने की कोशिश की। मैं उसके ऊपर चढ़ कर सवार हो गया। अंकुश मार-मार कर उसको वश में लाने का प्रयत्न किया। पर वह वश में आया नहीं। हाथी तीव्र वेग से दौड़ने लगा। हाथी जैसे यमराज सा हो चुका था। उसे वश में करने की कोशिश करते-करते मैं थक गया...बेहोश होकर ढेर हो गया हाथी पर ही! अच्छा हुआ तुम मिल गये...वरना तो मैं मर ही जाता! तुमने मेरी जान बचा ली।' यों कहते हुए विमलवाहन ने इधर-उधर निगाह दौड़ायी जैसे कि वह कुछ खोज रहा हो! 'राजकुमार, तू किसको खोज रहा है?' 'हाथी को! वह दुष्ट मुझे यहाँ पटक कर कहाँ भाग गया है?' For Private And Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १२९ 'कहीं भी भागा नहीं है... यह सामने जो कालिया - काला आदमी खड़ा है वही तेरा हाथी था। मैंने उसे दिव्य चूर्ण के प्रभाव से आदमी बना दिया है!' राजकुमार अजानंद की बात सुनकर विस्मय से मुग्ध हो उठता है । अजानंद ने अपने पास जो कुछ खाने का सामान था वह राजकुमार और हाथी-नर को खाने के लिए दिया। दोनों खा कर झरने का पानी पी कर स्वस्थ हुए । मगरनर, हाथीनर, राजकुमार और अजानंद, चारों वहाँ से आगे के लिए चल दिये। चलते-चलते रात हो आई... इतनें में एक जीर्ण देवालय नजर आया । चारों ने वहाँ पर विश्राम किया । अजानंद वगैरह तीनों तो थकान के मारे सो गये पर विमलवाहन की आँखों में नींद नहीं थी। वह करवटें बदलता हुआ यों ही चुपचाप लेटा था। इतने में एक विस्मयकारी घटना हुई । मंदिर के एक कोने में से कोई मद्धिम आवाज में बात कर रहा हो वैसी फुसफुसाहट सुनाई दी । विमलवाहन ने कान लगाये। मंदिर में अंधेरा था ... फिर भी छिटकती चाँदनी की हल्की-हल्की रोशनी मंदिर में आ रही थी। उसने ठीक ध्यान से देखा उस कोने की तरफ । वहाँ पर एक तोता-मैना का जोड़ा बैठा हुआ था। मजे की बात तो यह थी कि वे दोनों आदमी की जबान में फुसफुसा रहे थे । राजकुमार धीरे से खड़ा हुआ और एक खंभे की आड़ में खड़ा हो गया। उसके कान पर तोता-मैना की बातें सुनाई दी । मैना ने पूछा, 'अरे...इतने दिन तुम कहाँ खो गये थे ? आने में इतनी देरी क्यों कर दी ? कहाँ लगे इतने दिन तुम्हें?' तोते ने कहा : 'तूने देखा था ना कि वह भील मुझे पकड़कर ले गया था । वह मुझे विजयानगरी में ले गया। उसने राजा की दासी के हाथों मुझे बेच दिया । दासी ने ले जाकर रानी शीलवती के हाथों सौंप दिया मुझे । रानी मुझे देखकर खिलखिला उठी। मैंने मनुष्य की भाषा में संस्कृत श्लोक बोले...अरे... पूरा राजपरिवार प्रसन्न हो उठा। मुझे एक सोने के पिंजरे में रखा गया। पिंजरा सोने का था। पर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा ! कैसा भी हो ... मेरे लिए तो वह जेल था। हम तो वन-उपवन के पंखी... हम तो नीलगगन में उड़ना जानें... डाल-डाल पर मुड़ना जानें! मैंने पिंजरे में बैठे-बैठे सोचा... सच तो मूर्खता मेरी ही है । मैं यदि संस्कृत के श्लोक गाता ही नहीं... रानी के आगे For Private And Personal Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३० लटके-मटके करता ही नहीं तो मेरी यह नौबत नहीं आती! मुझे बंधन में बँधना नहीं पड़ता! ज्यादा होशियारी या ज्यादा गुण कभी इस तरह दुःखदायी हो उठते हैं! रानी तो बड़ी प्यारी है...मुझे मनचाही खुराक देती हैं...ताजे-ताजे अनार के दाने...लाल-लाल, हरी-हरी...मिर्ची...अमरुद! पर वे मनचाहे भोजन मेरे लिए अनचाहे हो गये! मुझे रोजाना नये-नये श्लोक सिखाये जाते पर मुझे पिंजरे में से बाहर निकालने का कोई नाम नहीं लेता था! ___ एक दिन ऐसा हुआ, राजा का हाथी पागल हो उठा। ऐसा पगलाया हाथी कि मोटी-मोटी जंजीरें तोड़कर भाग निकला। जो महावत हाथी को पकड़ने के लिये गये...हाथी ने उनको सूंड़ से पकड़कर घास की गठरी की तरह दूर उछाल फेंके! जो लोग उसके रास्ते में आये उन्हें उस दैत्य ने कुचल दिया...और नगर को छोड़कर जंगल की तरफ दौड़ा। हाथी राजा का प्रिय था। राजकुमार विमलवाहन ने हाथी को वश मे करने का सोचा । और दौड़ते हुए हाथी पर छलाँग लगा कर वह चढ़ बैठा। हाथी को अंकुश में लेने के लिए उसने भरसक कोशिश की पर हाथी तो पागलपन में चूर होकर बीहड़ जंगल में दौड़ता रहा। यह समाचार राजा महासेन को दे दिये गये | हाथी राजकुमार को ले गया यह जानकर महासेन राजा बेहोश हो गये। उन्हें होश में लाया गया... पर वे शून्यमनस्क होकर बैठ गये। राजकाज में उनका मन अब लगता नहीं था। राजकुमार के बगैर उनका जीना जहर सा हो गया। ___ महाराजा की इसी बेबस स्थिति का लाभ उठाकर उनके दुश्मन राजाओं ने उनके राज्य पर हमला कर दिया। बड़ी भारी संख्या में सैनिकों को लेकर धावा बोल दिया । महासेन राजा नगर एवं प्रजा की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में उतरे। पर युद्ध में उनकी हार हुई और वे मृत्यु के शिकार हुए। ___ महाराजा की मौत के समाचार नगर में फैलते ही प्रजाजनों के शोक का पार न रहा। उन्हें सुरक्षा का भय भी सताने लगा। पर महामंत्री विचक्षण एवं धीरजवाले हैं। उन्होंने तुरत नगर के सभी दरवाजे बंद करवा दिये। नगर के किले पर हजारों सैनिकों को शस्त्रसज्ज करके एहतियात के तौर पर लगा दिये। नगर की सुरक्षा का पूरा प्रबंध कर दिया। नगर के दरवाजे तोड़कर अंदर घुसने की ताकत तो दुश्मनों में थी नहीं। इधर महल में भी हाहाकार मच गया । दास-दासी सभी रोने-कलपने लगे। एक दासी ने दाना चुगाते समय मेरा पिंजरा खुला रख दिया...मुझे ऐसा मौका For Private And Personal Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३१ पराक्रमी अजानंद कहाँ मिलनेवाला था? आनन-फानन मैं पिंजरे में से बाहर निकला और पंख फैलाकर आकाश में उड़ गया। __ नगर में राजकुमार विमलवाहन है नहीं। वह पागल हाथी न जाने राजकुमार को कहाँ से कहाँ ले गया क्या पता? नगर में सन्नाटा छाया हुआ है...नगर के बाहर दुश्मन राजा घेरा डाल कर जमे हुए हैं। नगर के भीतर महामंत्री गहन चिंता में डूबे हुए हैं। अब क्या होगा... परमात्मा ही जानता है!' तोते ने बात पूरी की। राजकुमार विमलवाहन अपने पिता की मौत का समाचार सुनकर विह्वल हो उठा। उसका मन दुःख से भर आया। वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाया...बेहोश होकर मंदिर के भीतर जमीन पर गिर गया। __ जैसे ही कुमार जमीन पर गिरा तो 'धबाक...' की आवाज हुई...और अजानंद की आँख खुल गई। उसने पास में राजकुमार को सोया हुआ नहीं देखा तो वह खुद खड़ा होकर मंदिर में खोजने लगा। राजकुमार को चौकी के पास बेहोश गिरा देखकर अजानंद चौंका | तुरंत ठंढ़े पानी के छींटे मार कर उसकी बेहोशी दूर की। उसे सहारा देकर अपनी जगह पर ले आया। कुमार तो फफक-फफक कर रो पड़ा। अजानंद ने कुमार की पीठ पर हाथ फेरते हुए पूछा : 'क्या हुआ भाई? तू इतना परेशान क्यों है? तू गिर गया...रो रहा है...आखिर बात क्या है?' विमलवाहन ने सिसकियाँ भरते हुए तोते की कही हुई सारी बात अजानंद को कह सुनाई। अजानंद ने कुमार को सान्त्वना दी। ढाढ़स बंधाया। और उसने कहा : 'कुमार, तू पराक्रमी है...शोक और रोना-धोना छोड़ दे! तेरे पिता युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए हैं...किसके माता-पिता हमेशा के लिए जीते हैं? आखिर एक न एक दिन तो सब को मरना होता है! उदय और अस्त, यह तो इस सृष्टि का क्रम है-जीवन और मृत्यु शाश्वत् है...सुख के बाद दु:ख यह चक्र चलता ही रहता है | आदमी का भाग्य जब तक जगता है...तब तक ही सुख झिलमिलाता है...' 'कुमार, तू धैर्य रख । दुःख के गहरे सागर को भी महान व्यक्ति धैर्य के सहारे तैर जाते हैं!' कुमार का रोना बंद हुआ। उसने अजानंद से पूछा : For Private And Personal Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra पराक्रमी अजानंद 'अब मैं क्या करूँ?' www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३२ अजानंद ने कहा : 'तू चिंता मत कर। डर मत रख। मैं तेरे साथ हूँ... फिर तू क्यों चिंता करता है? वे दुश्मन राजा तो मेरे आगे कीड़े-मकोड़े जैसे हैं ! मैं खुद तेरे साथ आऊँगा । पर इससे पहले एक काम करना होगा ।' 'वह क्या?' इस तोते के साथ एक पत्र तुम्हारे नगर के महामंत्री को भेजना होगा । हम वहाँ पहुँच रहे हैं, वैसा संदेश भेज दे ताकि उनको शांति हो और हिम्मत मिले ।' अजानंद ने प्यार भरे शब्दों में तोते को संबोधित किया : 'शुकराज, तुमने मैना से जो बात कही वह सारी कहानी इस राजकुमार विमलवाहन ने सुनी है। तुम्हें महारानी ने बड़े लाड़-प्यार से रखा था ना ? अब उस उपकार का ऋण चुकाने का एक अवसर आया है। राजकुमार तुम्हें एक पत्र लिखकर देता है... वह पत्र महामंत्री को शीघ्र पहुँचाना है... पहुँचा दोगे ना?' अजानंद की बात तोते ने मान ली। राजकुमार का लिखा हुआ पत्र लेकर तोता आकाश मार्ग से उड़ा और उड़ान भरता हुआ जा पहुँचा विजयानगरी में । जाकर महामंत्री को पत्र दिया और वापस लौट आया । महामंत्री ने पत्र पढ़ा। पढ़कर उनके चेहरे पर चमक दमक उठी। कुमार ने लिखा था - 'महामंत्रीजी, वहाँ की सारी घटनाएँ इस शुकराज के द्वारा मुझे मालूम हुई है । आप तनिक भी फिक्र न करें। मैं जल्द से जल्द वहाँ पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ... तब तक आप नगर का रक्षण करें ।' महामंत्री ने मन ही मन तोते का आभार माना । 'ओह! क्या किस्मत के खेल हैं...कभी पशु-पक्षी जैसे अबोल गूँगे प्राणी भी कितने उपकारी बन जाते हैं...जबकि अपने कहे जानेवाले आदमी धोखा देकर दुःख देनेवाले हो जाते हैं । For Private And Personal Use Only अजानंद ने रूपपरिवर्तन की गुटिका के द्वारा भारंड पक्षी [ एक विशालकाय पौराणिक पक्षी] का रूप रचाया । विराटकाय भारंड का रूप बना कर अजानंद ने राजकुमार विमलवाहन वगैरह को अपने पंखों में समेटते हुए आकाशमार्ग Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३३ से प्रयाण किया। कुछ ही क्षणों में तो वे सब विजयानगरी में पहुँच गये। वहाँ जाते ही अजानंद ने अपना मूल रूप धारण कर लिया। राजकुमार सभी को लेकर राजमहल में गया। महामंत्री राजमहल के द्वार पर ही खड़े थे। उन्होंने सबका स्वागत किया। राजकुमार को उन्होंने अपने बाहुपाश में ले लिया! सभी सभाकक्ष में जाकर बैठे | महामंत्री ने नगर की सारी परिस्थिति बयान की । कुमार ने अजानंद का परिचय करवाया। अजानंद की दिव्य शक्तियों की बात कही। महामंत्री हर्षविभोर हो उठे । अजानंद को अपने सीने से लगाकर वात्सल्य से उसको नहला दिया! महामंत्री ने कहा : 'आज तुम स्नान वगैरह करके थकान उतारो। सुन्दर वस्त्र धारण करो...भोजन वगैरह करके आराम करो। कल हम युद्ध की व्यूहरचना के बारे में सोचेंगे।' अजानंद ने कहा : 'महामंत्री, कल सबेरे सबसे पहले तो विमलवाहन का राज्याभिषेक करने का कार्य निपटाना होगा। राजा के बिना राजसिंहासन कब तक सूना रहेगा। और फिर प्रजा को निमंत्रित करके उसे आश्वस्त एवं निश्चित करना भी अत्यन्त आवश्यक है...ताकि प्रजा का मानसिक भय दूर हो सके। फिर दुश्मनों को मार भगाने का काम बड़ा आसान हो जाएगा।' महामंत्री ने कहा : 'महापुरुष! आपकी आज्ञा के मुताबिक कल सबेरे राजकुमार का राज्याभिषेक कर देंगे। आप तो हम सब के तारनहार हो...' पूरे नगर में जोरशोर से राजकुमार के राज्याभिषेक का ढिंढोरा पिटवाया गया। प्रजा में आनंद की लहरें उठने लगी। दूसरे दिन बड़ी धूमधाम से राज्याभिषेक किया गया। उस समय इतने जोरों से घंटनाद किया गया कि नगर को घेरा डालकर बैठे हुए दुश्मन राजा-लोग चौंक उठे! 'अरे...अचानक नगर में यह घंटनाद क्यों हो रहा है? इतनी किलकारियाँ क्यों सुनाई दे रही है...जैसे उत्साह व उमंग का वातावरण बन गया हो!' इतने में उन राजाओं के पास राजा विमलवाहन का दूत आकर के खड़ा हो गया। उसने कहा : 'हमारे नये महाराजा विमलवाहन ने कहलाया है कि या तो तुम लोग नगर का घेरा उठा कर चले जाओ...वरना युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' यों कहकर राजदूत वहाँ से चला गया। विमलवाहन ने अजानंद से कहा : 'दोस्त, मेरे जिस हाथी को तूने आदमी बना दिया है...उसको अब वापस हाथी बना दे...तो मैं अपने उस पट्टहाथी पर बैठकर 'युद्ध के मैदान में उतरूँ और दुश्मनों का सफाया कर दूँ!' For Private And Personal Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३४ अजानंद ने तुरंत उस सरोवर का पानी पिलाकर उस आदमी को वापस हाथी बना दिया। विमलवाहन खुश हो उठा। इधर अजानंद गुप्तरूप से बाहर निकल गया। बाहर निकल कर आसपास में जो भी सरोवर थे कि जहाँ पर दुश्मनों के हाथी-घोड़े पानी पीते थे, उन सभी सरोवरों में उसने अग्निवृक्ष के फल का थोड़ा-थोड़ा चूर्ण डाल दिया! और अपने साथ के मगरनर को कहा : ___ 'जो-जो हाथी-घोड़े पानी पीएँगे वे सब मनुष्य हो जाएँगे। तु उन सब आदमियों को अपने कब्जे में रखना...फिर मैं आकर सब सम्हाल लूँगा।' नगर में आकर अजानंद ने विमलवाहन से कहा : 'अब तू सेना के साथ दुश्मनों पर टूट पड़ना। मैं मेरे हजारों सैनिकों के साथ पीछे से धावा बोल दूंगा।' । अजानंद ने महामंत्री से कहकर शस्त्रभंडार में से शस्त्र निकलवाकर, शत्रुओं के जिन हाथी-घोड़ों को आदमी बनाया था उनको देकर शस्त्रसज्ज कर दिये। इस तरह उसने एक लाख सैनिक तैयार किये | दुश्मनों के न तो हाथी रहे, न घोड़े! दुश्मनों की हिम्मत टूट गई। इतने में तो आगे से राजा विमलवाहन की और पीछे से अजानंद की विराट सेना उन पर टूट पड़ी! विमलवाहन और अजानंद ने दुश्मनों की बोटी-बोटी करके रख दी! जो सैनिक बचे वे सब शरण में आ गये। विमलवाहन ने शत्रुओं पर ज्वलंत फतह प्राप्त की। वह अजानंद के पास जाकर उसके पैरो में गिरा | अजानंद ने उसे खड़ा किया और अपने सीने से लगाया। नगर में भव्य विजयोत्सव के साथ उनका प्रवेश हुआ। चारों तरफ खुशी का समंदर लहरा उठा । ८. अजानंद राजा बन गया! विमलवाहन ने अजानंद से कहा : 'दोस्त, तूने मेरे ऊपर कितने उपकार किये हैं? मुझे नया जीवन दिया । मुझे राज्य दिया । युद्ध में विजय प्राप्त करवायी। मैं तेरे उपकारों को कभी नहीं भूल सकूँगा। तेरे उपकारों का बदला मैं चुकाऊँगा भी तो कैसे? खैर, यह मेरा राज्य मैं तुझें देता हूँ। सचमुच तो तू ही राज्य का हकदार है। अब तू यहीं रहना। राजा बनकर राज्य करना । मैं तेरा दोस्त...तेरा साथी बनकर तेरी सेवा करूँगा।' For Private And Personal Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३५ अजानंद ने विमलवाहन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा : 'विमल, सच में तू गुणवान है। तेरा इतना प्यार और अपनापन देखकर ही मुझे राज्य क्या, दुनियाभर की संपत्ति मिल गई! मुझे तेरा सर्वस्व मिल गया। मैंने जो कुछ भी तेरे लिए किया मेरे दिली प्यार के खातिर ही किया है! इसमें बदला क्या लेना? तू खुशी से राज्य कर | प्रजा का पालन कर और जीवन में धर्म को स्थान देना।' विमलवाहन ने बड़ी मिन्नतें करके अजानंद को वहीं रोके रखा। अजानंद कुछ महीने वहीं पर रहा। विमलवाहन ने उसको पूरे सम्मान एवं गौरव से रखा। एक दिन यकायक अजानंद को राजा चंद्रापीड़ याद आ गया! खुद एक ग्वाले का लड़का था। चंद्रापीड़ ने अपने सैनिकों के द्वारा उसे जंगल में फिंकवा दिया था...! यह सब उसके जेहन में उभरने लगा। बारह बरस बीत चुके थे परिभ्रमण करते-करते । अजानंद अब तो काफी शक्तिशाली हो चुका था । उसके मन में राजा चंद्रापीड़ के प्रति भयंकर गुस्सा फुफकारने लगा। ___ उसने विमलवाहन से कहा : 'मित्र, अब मैं यहाँ से बिदा लूँगा | परंतु मुझे एक लाख सैनिक चाहिए।' विमलवाहन ने एक लाख सैनिकों की व्यवस्था की। अजानंद ने जिन हाथी-घोड़ों को सैनिक बना दिये थे, उन्हें वापस हाथीघोड़ों में परिवर्तित कर दिया। कुछ मील तक विमलवाहन अजानंद को बिदाई देने के लिए साथ चला। अजानंद ने बड़ी मुश्किल से विमलवाहन को वापस लौटाया। अजानंद ने अपने प्रयाण को और तीव्र बनाया। चंद्रानना नगरी में राजा चंद्रापीड़ निर्भय और निश्चित होकर राज्य कर रहा था। पर जब अजानंद ने विजयानगरी से प्रयाण किया तब राजा चंद्रापीड़ को रात्रि के समय एक देवी ने आकर कहा : 'राजा, अब तेरी मौत निकट है।' इतना कहकर देवी अदृश्य हो गई। राजा चंद्रापीड़ को डर लगने लगा। उसका मन गमगीन हो उठा। उसे मौत के डरावने साये आसपास मँडराते नजर आने लगे। सुबह में उठकर नित्यकर्म से निपट कर उसने 'सत्य' नाम के ज्योतिषी को बुलाकर पूछा : 'सत्य महाराज, मुझे यह बतलाइये कि मेरी मौत कब होगी और किसके हाथों होगी?' सत्य ज्योतिषी ने तुरंत प्रश्न कुंडली रख कर अपने ज्योतिष शास्त्र के आधार पर मन ही मन कुछ निर्णय किया और राजा से कहा : For Private And Personal Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३६ ‘राजन्, आज से ठीक पंद्रहवें दिन अजानंद एक लाख सैनिकों के साथ यहाँ पर आ धमकेगा। और उसके हाथों तुम्हारी हत्या होगी । ' ज्योतिषी का यह भविष्य कथन सुनकर राजा चंद्रापीड़ बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा। परिचारकों ने शीतोपचार करके राजा की बेहोशी दूर की । तुरंत राजा ने अपने विश्वसनीय गुप्तचरों को बुलाकर उनसे कहा : 'अभी इस समय अजानंद कहाँ है...ठीक से पता करके मुझे शीघ्र ही इस बारे में समाचार दो ।' गुप्तचर चारों दिशा में चले गये तलाश करने के लिए । चार-पाँच दिन बाद गुप्तचरों ने आकर 'अजानंद का कहीं अता-पता नहीं है' कहकर अपनी तलाश का काम पूरा कर दिया। अजानंद का पता उन्हें मिला ही नहीं था । राजा निश्चिंत हो गया। यों चौदह दिन बीत गये ! इतने में राजा ने एक बहुत बड़ी गलती कर दी। राज्य के महामंत्री पर गुस्सा करके उसे देश निकाले की सजा सुना दी। सुबुद्धि मंत्री अपने इस अपमान से मन ही मन सुलग उठा था । वह राज्य की सीमा पर इधर-उधर घूम रहा था । इतने में उसने विराट सेना का काफिला आते देखा। हजारों हाथी ... सैकड़ों घोड़े ... हजारों रथ थे। और हजारों सैनिक शस्त्रसज्ज होकर पैदल चल रहे थे। मंत्री सेना के गुजरने वाले रास्ते के किनारे पर जाकर खड़ा हो गया। जैसे ही अजानंद का भव्य एवं सुंदर रथ उधर से गुजरा, उसने पास जाकर रथ में बैठे हुए अजानंद को प्रणाम किया। अजानंद ने रथ रुकवाया और मंत्री से पूछा : 'तुम कौन हो ? यहाँ पर क्यों खड़े हो ?' मंत्री ने अपना परिचय दिया । उसने साथ राजा चंद्रापीड़ ने जो ज्यादती की उसका ब्यौरा कह सुनाया। अजानंद ने मंत्री का उपयोग कर लेने का सोच कर उससे कहा : 'महामंत्री, राजा ने तुम्हारे जैसे वफादार एवं निष्ठावान मंत्री का अपमान करके भयंकर गलती की है । पर तुम चिंता मत करो, जब मैं राजा बनूँगा तब तुम्हें अपना मंत्री बनाऊँगा ।' अजानंद की बात सुनकर मंत्री प्रसन्न हो उठा। उसने कहा : ‘पराक्रमी, चंद्रापीड़ को खत्म करने का उपाय मैं तुम्हें बताऊँगा । तुम उसको मौत के घाट उतार कर राजसिंहासन की शोभा बढ़ाओगे वैसा मेरा विश्वास है।' यों कहकर मंत्री ने अजानंद को चंद्रापीड़ का वध करने का For Private And Personal Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३७ उपाय बता दिया। अजानंद ने सुबुद्धि मंत्री को एक घोड़ा देकर उसे अपने साथ ही ले लिया। सेना के साथ चंद घंटों में ही अजानंद चंद्रानना नगरी के बाहरी इलाके में पहुँच गया और वहाँ पर अपना पड़ाव डाल दिया। राजा चंद्रापीड़ ने नगरी के दरवाजे बंद करवा दिये। एक लाख की सेना के साथ आये हुए बब्बर शेर जैसे अजानंद से अब चंद्रापीड़ घबरा उठा। उसे मौत की पदचाप सुनाई देने लगी। 'कल पन्द्रहवाँ दिन है। क्या यह अजानंद कल मेरा वध कर डालेगा? नहीं... नहीं...मैं अपनी सेना के साथ उसका डटकर मुकाबला करूँगा। मेरे पराक्रम से उसको धूल चाटा कर मार डालूँगा।' उसने सेनापति को बुलाकर सैन्य को सज्ज करने का आदेश दे दिया। रात हो चुकी थी। सुबुद्धि मंत्री ने गुप्तमार्ग से नगर में प्रवेश किया। वह सर्वप्रथम सेनापति से मिला । सेनापति से कहा : 'तुम जानते हो ना कि देवी ने क्या कहा था? सत्य ज्योतिषी ने क्या कहा था? एक लाख की सेना लेकर तूफान की तरह अजानंद धंस आया है। देवी और ज्योतिषी का भविष्य कथन सच हुआ है। अजानंद कल सबेरे युद्ध में अवश्य राजा को मार डालेगा। इसलिए यदि तुम्हें जिन्दा रहना हो तो अजानंद के पक्ष में मिल जाओ! हमेशा उगते सूरज की पूजा करनी चाहिए। मैं तो तुम्हारी भलाई के लिये कह रहा हूँ। मेरे मन में तुम्हारे लिए सहानुभूति है...इसलिए तो तुम्हें कहने आया हूँ। भविष्य का लाभ देखना ही समझदारी का काम है...| बोलो...तुम्हारी क्या इच्छा है?' सेनापति को सुबुद्धि मंत्री की बात में सच्चाई नजर आयी। उसने अजानंद के पक्ष में शामिल होने के लिए हामी भर ली। मंत्री ने कहा : 'तुम सब तैयार रहना। अजानंद यहाँ आएँगे तब मैं तुम्हें उनके साथ मिलवा दूंगा।' __ मंत्री ने अजानंद को जाकर सारी बात बता दी। दूसरे दिन सबेरे अजानंद शस्त्रसज्ज होकर हाथी पर बैठा। उसने सेना को आज्ञा की : ___ 'नगर के द्वार तोड़ कर नगर में प्रवेश करो।' हाथियों की सेना ने नगर के दरवाजें तोड़ डाले। सेना ने नगर में प्रवेश करते ही द्वाररक्षकों को यमसदन पहुँचा दिया। अजानंद ने वहाँ पर अपने सैनिक लगा दिये। वहाँ से शीघ्र ही निकलकर वह नगर के चौक में पहुँचा। वहाँ राजा चंद्रापीड़ के सेनापति, प्रधान एवं सैनिकों ने जयजयकार के साथ अजानंद का स्वागत किया। For Private And Personal Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३८ पराक्रमी अजानंद __ अजानंद सबका अभिवादन स्वीकार करते हुए राजमहल के द्वार पर पहुँचा। राजमहल के रक्षक सैनिक राजा के वफादर थे। उन्होंने सामना किया। अजानंद ने उनको मार हटाया। और वहाँ अपने सैनिक लगा दिये। __ अचानक अजानंद को सेना के साथ राजमहल में आया देखकर राजा चन्द्रापीड़ दोनों हाथ में तलवार लेकर दौड़ आया। अजानंद तैयार ही था। दोनों के बीच भयानक युद्ध हुआ। एक घंटे तक दोनों जूझते रहे। आखिर अजानंद ने चन्द्रापीड़ पर तलवार का जोरदार प्रहार करके उसका सर शरीर से अलग कर दिया। सेना ने अजानंद के जयनाद से वातावरण को गुंजायमान कर दिया। सबद्धि मंत्री ने कहा : 'अभी का समय श्रेष्ठ है...आपका राज्याभिषेक अभी ही संपन्न हो जाना चाहिए।' 'नहीं।' अजानंद ने कहा : _ 'पहले राजा चन्द्रापीड़ का अग्निसंस्कार किया जाना चाहिए। उसकी उत्तरक्रिया निपटाने के पश्चात् राज्याभिषेक की क्रिया होगी। सभी ने अजानंद की बात को स्वीकार किया। चन्द्रापीड़ का अंतिम संस्कार किया गया। उसकी उत्तरक्रिया की गई। फिर अजानंद के राज्याभिषेक का भव्य उत्सव मनाया गया। उस महोत्सव में इर्द-गिर्द के कई राजामहाराजा भी सम्मिलित हुए थे। अनेक राजाओं ने अपनी-अपनी राजकुमारियों के साथ अजानंद की शादी का प्रस्ताव रखा। अजानंद ने उनकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए राजकुमारियों के साथ शादी की। अजानंद चंद्रानना नगरी का राजा बन कर स्वर्ग के सुख भोगने लगा। __ वसन्त ऋतु का आगमन हुआ। नगर में उत्सव मनाये गये। नगरवासी लोग सुन्दर कपड़े-गहने पहन कर नगर के बाहर बगीचों में आनंद-प्रमोद करने के लिए जा पहुँचे। राजा अजानन्द भी अपनी रानियों के साथ बगीचे में पहुंचा। बगीचे में वह घूम रहा था... इतने में उसके कानों पर एक दिव्य आवाज सुनाई दी। 'तू जहाँ पर है...तेरी माँ भी वहीं पर है... पर तू तो अपनी माँ की सुधबुध भी नहीं लेता है... अपने सुख में डूब गया है, धिक्कार है तुझे!' यह आवाज एक बार नहीं पर बार-बार उसे सुनाई देने लगी। For Private And Personal Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १३९ अजानन्द सोच में पड़ गया। 'जरूर कोई देव या देवी मुझे बता रहे हैं कि मेरी माँ इस नगर में ही है। मुझे सचमुच धिक्कार है...मैं मेरी जन्मदात्री माँ को भी याद नहीं करता! राज्य और रानियों के सुख में माँ को भी भूल बैठा । अच्छा व्यक्ति तो जीवनपर्यन्त माँ की आज्ञा को सर पर रखता है... जब कि मैंने तो माँ को याद भी नहीं की...माँ को भुला ही दिया!' ___ अजानन्द की आँखों में आँसू उभर आये। रुमाल से आँसू पोंछकर उसने वहीं पर मंत्री को बुलाकर कहा : 'मंत्रीश्वर, अपने नगर में ही किसी स्थान पर मेरी पूजनिया माँ रहती है। उसे खोज निकालना चाहिए। उसके दर्शन करने के बाद ही मैं भोजन करूँगा। यह मेरी प्रतिज्ञा है।' इस तरह कहकर वह रानियों के साथ महल में गया | महल में जाकर, महल के पुराने नौकरों को बुलाकर कहा : ‘अपने नगर के किले के बाहर दक्षिण दिशा की ओर एक वाग्भट्ट नाम का ग्वाला रहता है। उसे पूछो कि उनके कोई लड़का था क्या?' नौकर लोग जाकर लौटे | उन्होंने बताया : 'वाग्भट्ट का कहना है कि उनके कोई पुत्र जन्मा नहीं है...परंतु रास्ते पर से एक बच्चा उन्हें मिला था, उसे उन्होंने बेटे की भाँति रखा था पर वह तो बारह साल पहले ही गुम हो गया है।' ___ अजानन्द ने सोचा : 'अब मेरे सच्चे माता-पिता की तलाश करनी चाहिए।' उसने नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया : 'कोई भी आदमी राजा की माँ के बारे में जानकारी देगा, उसे राजा खुश होकर भारी इनाम देगा। ढेर सारा धन देगा।' सारे नगर में जोर-जोर से ढिंढोरा पिटवाया गया, पर किसी ने भी आकर राजा की माता के बारे में जानकारी दी नहीं। अजानन्द ने खाना-पीना छोड़ दिया था। पूरे राजमहल में शोक और उदासी का वातावरण फैल गया। इतने में एक रोगी बुढ़िया औरत अजानन्द के पास आई और उसने कहा : 'राजन्, तू यदि मेरा रोग मिटा दे तो मैं तेरी माँ को खोज के ला सकती अजानन्द तो खुशी से नाच उठा। उसने कहा : 'यदि तू मेरी माँ से मुझे For Private And Personal Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४० पराक्रमी अजानंद मिला देगी, तो मैं तेरा कैसा भी रोग होगा...जरुर मिटा दूंगा। जब तक तेरा रोग दूर नहीं होगा मैं खाना-पीना नहीं लूंगा।' वह रोगी स्त्री महल के बाहर गई और जैसी गई वैसी ही लौट आई, साथ में एक अन्य औरत को लेकर । अजानन्द से उस बुढ़िया ने कहा : 'लो यह तुम्हारी पूजनीय माता!' अजानन्द आँखें फाड़कर माँ के सामने देखता ही रहा... देखता ही रहा! ९. अजानन्द ने निजानन्द प्राप्त किया गंगा ने अपने कोंखजाए को देखा! माँ-बेटे दोनों एक दूसरे को देखते ही रहे...| गंगा के अंग-अंग में सिहरन फैल गई... गंगा के सीने में से दूध बहने लगा। उसकी आँखें खुशी के आँसुओं से छलक उठी। अजानन्द के मन में निर्णय हो गया कि 'यह औरत ही मेरी माँ है।' वह सिंहासन पर से खड़ा हो गया। माँ के समीप जाकर उसके चरणों में नमस्कार किया। 'माँ, मेरे पिताजी कहाँ है?' 'बेटा, तेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया है!' 'माँ, अपना वियोग कैसे हुआ? मैं आपसे अलग कैसे हो गया?' 'बेटा...तेरे पिता का नाम था धर्मोपाध्याय और मेरा नाम गंगा | तेरा जन्म हुआ तब तेरे पिता ने तेरी जन्मकुंडली बनाई। तेरा भविष्य देखा। 'तू राजा बनेगा,' यह जानकर वे बेचैन हो उठे । 'अरे...मेरा लाड़ला...एक ब्राह्मण का बेटा राजा बनेगा? राजा लोग तो अधिकांश नरक में ही जाते हैं। मेरा पुत्र नरक में जाएगा? मेरे पुत्र का पुत्र भी राजा बनेगा, वह भी नरक में जाएगा...। मेरी संतति नरकगामी होगी? नहीं...मुझे यह पुत्र चाहिए ही नहीं!' यों सोचकर उन्होंने मुझसे कहा : __ 'इस पुत्र को तू निर्जन वन में छोड़ के आ जा।' मैंने मना किया। पर उन्होंने अपनी जिद नहीं छोड़ी! बेटा, मैंने कभी अपनी जिन्दगी में तेरे पिता की किसी भी इच्छा का अनादर या उल्लंघन नहीं किया था। मेरे तो वे सर्वस्व थे। इसलिए तुझे अत्यंत प्यार के साथ मैंने निर्जन रास्ते पर इस तरह रख दिया कि आनेवाला कोई भी तुझे देख सके! बस, उसके बाद तेरा क्या हुआ, वह भी मुझे कुछ मालूम नहीं है...। इसके बाद तो मैंने आज ही तुझे देखा है!' For Private And Personal Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४१ पराक्रमी अजानंद ___ 'माँ, कर्मों की गति विचित्र होती है। इसमें पिताजी का कोई दोष नहीं है। मेरे कर्म ही ऐसे थे कि जन्म लेते ही मैं माता-पिता से जुदा हो गया। खैर, जो होना था सो हो गया। अब माँ, तुम्हें यहीं पर राजमहल में मेरे साथ ही रहना है!' गंगा ने हाँ भर दी। इसके पश्चात् उस रोगी औरत को देखकर, तुरंत वैद्यों को बुलवाया। राजवैद्यों ने आकर उस औरत के उपचार चालू किये। राजा ने वैद्यों से कहा : 'यह औरत शीघ्र अच्छी हो जाए इस ढंग से उपचार वगैरह करना।' 'महाराजा, इस औरत की आँतों में ऐसा कोई रोग हुआ है जिसे हम समझ नहीं पा रहे हैं। रोग के जाने बिना औषध दें भी कैसे?' वैद्य अजानंद के साथ बात कर ही रहे थे कि उस औरत को वमन हुआ। वमन में मांस के टुकड़े बाहर निकले। औरत तो मरने जैसी होकर जमीन पर ढेर हो गई। अजानंद ने वैद्यों से कहा : 'तुम से शक्य हो इतने उपचार चालू रखो।' वैद्यों ने उग्र उपचार चालू किये। परंतु इससे वह औरत एकदम बेहोश हो गई। काफी देर तक उपचार करने पर भी उसकी बेहोशी दूर नहीं हुई अजानंद की चिंता का पार न रहा। इतने में महल के रक्षक ने आकर कहा : 'महाराजा, एक परदेशी वैद्यराज आये हैं...और वे आपके दर्शन करना चाहते हैं।' 'शीघ्र ही उन्हें मेरे पास ले आओ।' अजानंद के चेहरे पर चमक उभरी। वह स्वयं खड़ा होकर वैद्यराज को लेने के लिए सामने गया। वैद्यराज आये। अजानंद ने कहा : 'इस औरत को देखिये, उसे अच्छी कर दीजिए...।' वैद्यराज ने औरत को देखा। कुछ देर सोचा और कहा : 'राजन्, यह औरत अच्छी तो हो सकती है परंतु उसकी दवाई...' 'बोलिए...कितनी भी कीमती दवाई होगी...मैं मँगवा दूंगा।' 'महाराजा, बकरी के दूध पर जिसका पालन हुआ हो-वैसे आदमी की जीभ का माँस यदि औरत को दिया जाए तो यह औरत अवश्य निरोगी हो सकती है।' For Private And Personal Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १४२ वहाँ उपस्थित सभी लोग एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। 'ऐसा आदमी खोजना कहाँ? और शायद मिल भी जाए तो वह खुद की जीभ काट कर देगा क्या?' इतने में अजानंद ने कहा : 'वैद्यराज, मैं खुद भी बकरी के दूध पर ही बड़ा हुआ हूँ। मैं मेरी जीभ काट कर देता हूँ।' यों कह कर उसने चाकू मँगवाया और अपनी जीभ काटने के लिए तैयार हो गया। इतने में एक दिव्य वाणी सुनाई दी : 'ओ सात्विक राजा, साहस मत कर।' और उसी क्षण वहाँ पर एक दिव्य शरीरधारी देवी प्रगट हुई। दूसरी ओर वह रोगी औरत और परदेशी वैद्य अचानक वहाँ से अदृश्य हो गये! वहाँ पर खड़े सभी लोग आश्चर्य चकित रह गये । राजा अजानंद भी इस अद्भुत घटना से स्तब्ध-सा रह गया। उसने चाकू बगल में रख दिया और देवी को प्रणाम किया। देवी ने आशीर्वाद देकर कहा : 'परोपकारी राजा, मैं इस चंद्रानना नगरी की अधिष्ठायिका देवी हूँ। तेरा जन्म हुआ तब से मेरे दिल में तेरे लिए वात्सल्य है। मैं तेरे जन्म से तेरे साथ हूँ| अनेक आपत्तियों से मैंने तुझे बचाया है। यह विशाल राज्य मैंने तुझे दिया है और तेरी परोपकार की भावना की परीक्षा भी आज मैंने ले ली है। वत्स, पराक्रम का प्रयोजन ही परोपकार है। तुम में वैसा पराक्रम है। तू परोपकार करते रहना । लम्बे समय तक तू इस विशाल राज्य का उपभोग कर सकेगा और चक्रवर्ती जैसा महान होगा।' इतना कह कर देवी अदृश्य हो गई। अजानंद अंजलि जोड़कर नतमस्तक होकर खड़ा रहा। जीवन बीत रहा है। संसार की यात्रा चलती रहती है। एक दिन राजा अजानंद अपने खंड में अकेला बैठा था। वहाँ उसके मन में परलोक का विचार आया : 'मैं मर कर किस गति में जाऊँगा? राजा मर कर नरक में जाता है।' - इस सत्य को स्वीकार करके तो मेरे पिता ने मेरा त्याग कर दिया था। तो क्या मैं नरक में जाऊँगा? नहीं...नहीं...मुझे नरक में नहीं जाना है... यदि कोई सद्गुरु मिल जाए तो मैं उनसे उपाय पूछूगा... वे जैसा कहेंगे वैसा करूँगा।' पुण्यशाली जीव की इच्छा जल्दी ही सफल हो जाती है। दूसरे ही दिन उसे समाचार मिले कि 'श्री विजयसेनसूरि नाम के आचार्यदेव नगर के बाहरी उद्यान में पधारे हैं।' अजानंद अपने परिवार के साथ गुरुदेव को वंदन करने For Private And Personal Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद चला। गुरुदेव को वंदना करके विनयपूर्वक गुरुदेव के सामने बैठा । आचार्यदेव ने उसे परमात्मा की पहचान करवाई । सद्गुरु का स्वरूप बताया, धर्म का प्रभाव बताया । अजानंद के दिल में श्रद्धा का भाव पैदा हुआ । उसे बड़ा आनंद आया । १४३ गुरुदेव ने उसे आत्मा की पहचान करवाई । आत्मा पर लगे हुए कर्मों का स्वरूप बताया। पाप और पुण्य की समझ दी । परलोक की बातें सुनाई । इसके बाद तो जब तक आचार्य देव वहाँ पर रुके तब तक अजानंद गुरुदेव के पास जाता-आता रहा। गुरुदेव के सतत संपर्क से उसकी आत्मा में वैराग्य की भावना जागृत हुई। उसे न रहा राज्य पर प्रेम या न रहा रानियों पर मोह । संसार छोड़कर साधु बनने की इच्छा उसके मन में जागी । उसने अपने बड़े राजकुमार निजानंद को बुलाकर कहा : 'वत्स, मुझे अब राज्य का या किसी भी प्रकार के सुख का मोह नहीं रहा है। मैं गुरुदेव के चरणों में दीक्षा लेना चाहता हूँ। यदि मैं संसार के सुखों का त्याग नहीं करता हूँ तो मर कर अवश्य मैं नरक में जाऊँगा । फिर यह मनुष्य जीवन वापस मिले भी या नहीं ? इसलिए मैं संयम लेकर मेरी सद्गति निश्चित करना चाहता हूँ। मैं तेरा राज्याभिषेक करूँगा। तू प्रजा का पालन न्याय से करना । चंद्रानना नगरी में राजकुमार निजानंद के राज्याभिषेक की घोषणा की गई। राजा अजानंद संसार का त्याग करके दीक्षा लेनेवाले हैं, यह जानकारी भी प्रजा को हुई। भव्य महोत्सव का आयोजन किया गया। राजकुमार का राज्याभिषेक काफी शानदार ढंग से किया गया। राजा अजानंद परिवार के साथ आचार्यदेव के पास गया । उसने आचार्यदेव को विनती की : 'प्रभो, मुझे चारित्र धर्म देकर, इस संसार से मेरा उद्धार करने की कृपा करें ।' रानियों ने भी गुरुदेव को वंदना की : 'प्रभो, हमें भी चारित्र धर्म देने की कृपा करें। For Private And Personal Use Only गुरुदेव ने राजा और रानियों को दीक्षा दी। रानियाँ साध्वी समुदाय में रहकर ज्ञान-ध्यान और त्याग - तप की आराधना करने लगी । अजानंद मुनि Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पराक्रमी अजानंद १४४ गुरुदेव के पास रहकर संयम धर्म की आराधना करने लगे। उन्होंने धर्मशास्त्रों का गहरा ज्ञान प्राप्त किया । उन्होंने अन्य साधुओं को ज्ञानदान दिया। वे शील धर्म का सुंदर पालन करने लगे और शुभ भावनाओं में हमेशा लीन-तल्लीन रहने लगे। कई बरसों तक उन्होंने निर्दोष साधु-जीवन जीया । आयुष्य पूरा होने पर, मर कर वे देवलोक में देवेन्द्र बने । देवलोक का आयुष्य पूर्ण होने पर वापस उन्हें मनुष्य जीवन मिला । आरोग्य, वैभव, सुंदर परिवार, यश और उत्तम भोगसुख प्राप्त हुए । यह सब त्याग कर उन्होंने दीक्षा ली। भगवान श्री चन्द्रप्रभस्वामी के वे गणधर हुए । केवल ज्ञानी बनकर उनकी आत्मा ने निज का आनंद, स्वयं का आनंद प्राप्त किया। शुद्ध-बुद्ध-कर्ममुक्त होकर सिद्ध हो गये। इस तरह अजानंद की भाँति सत्वशील बनकर, श्रद्धावान बनकर, परोपकारी बनकर, वैरागी बनकर, साधु बनकर हम भी मोक्ष को प्राप्त करें । [ संपूर्ण ] For Private And Personal Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर कोबा तीर्थ Acharya Sri Kailasasagarsuri Gyanmandir! Sri Mahavir Jain Aradhana Kendra koba Tirth, Gandhinagar-382 007 (Guj.) INDIA Website : www.kobatirth.org E-mail: gyanmandir@kobatirth.org ISBN: 978-81-89177-14-0 For Private And Personal Use Only