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श्रेष्ठिकुमार शंख
'महाराजा, आज अपने राज-उद्यान में महान तेजस्वी ज्ञानसूरि नाम के आचार्य भगवंत अपने शिष्य समुदाय के साथ पधारे हुए हैं।'
राजा ने ऐसे शुभ समाचार देने के लिये...माली को सोने का कीमती हार भेंट किया। माली भी खुश-खुश होकर चला गया।
राजा ने पूरे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया'नगर के बाहर बगीचे में ज्ञानी गुरुदेव पधारे हुए हैं, इसलिये उनके दर्शन के लिये एवं उपदेश सुनने के लिये सभी प्रजाजन जायें ।'
राजा भी अपने परिवार के साथ बगीचे में गया। उसने विनयपूर्वक नम्रता से गुरुदेव को वंदना की। उसका हृदय खुशी से भर आया । गुरुदेव ज्ञानसूरिजी ने 'धर्मलाभ' का आशीर्वाद दिया। राजा ने कुशलपृच्छा की और धर्मोपदेश देने की विनती की। __ नगरजन भी सैंकड़ों की संख्या में एकत्र हुए थे। आचार्यदेव ने उपदेश दिया :
'जीवन में धर्म ही एक सारभूत चीज है, ' यह बात समझाई। 'सभी धर्मो में जीवदया का धर्म श्रेष्ठ है, ' यों कहकर दयाधर्म का फल भी बताया। उन्होंने कहा : दयाधर्म के पालन से मनुष्य को सौभाग्य, आरोग्य, दीर्ध आयुष्य, संपत्ति और साम्राज्य प्राप्त होते हैं।'
अभयसिंह ने विनयपूर्वक पूछा : 'गुरुदेव, पूर्व जीवन में मैंने कौन से ऐसे कर्म किये थे जिस से इस जन्म में आपत्ति भी मिली और संपत्ति भी मिली?'
गुरुदेव तो भूत-भावी और वर्तमान के ज्ञानी थे। उन्होंने अभयसिंह का पूर्वभव कह सुनाया । वह सुनते-सुनते राजा को अपना पूर्व जन्म याद आ गया! उसने गुरुदेव के पास जीवन पर्यन्त जीवदया का व्रत लिया। रानी कनकवती ने भी प्रतिज्ञा की।
राजा अभयसिंह ने लम्बे समय तक राज्य किया। राज्य में प्रजा को धार्मिक बनाई। अहिंसा धर्म का प्रचार-प्रसार किया।
जब उनका राजकुमार योग्य उम्र में आया तब उसे राज्य सौंप कर अभयसिंह और कनकवती ने संसार का त्याग करके चारित्र ग्रहण किया-दीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर काफी तीव्र तपश्चर्या की। सभी कर्मों को जला दिया और राजा-रानी दोनों मोक्ष में गये!
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