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पराक्रमी अजानंद
१२१ इन्द्र ने कहा : 'कुमार, मैंने पूर्वजन्म में जिस धर्म का आचरण किया था...उसके फलस्वरूप यह सारा सुख मुझे प्राप्त हुआ है। हालाँकि यह इन्द्र का जीवन तो धर्मवृक्ष का एक छोटा सा फूल मात्र है...धर्मवृक्ष का फल तो मोक्ष है। मुक्ति है। जो कोई भी प्राणी धर्म की शरण में जाता है... उसे सुंदर मनुष्य जन्म मिलता है... देवलोक के दिव्य सुख मिलते हैं और अंत में मोक्ष का अक्षय-अनुपम सुख मिलता है। धर्म की महिमा अपार है...धर्म का प्रभाव निःसीम है।'
'देवराज, मैं भी उस धर्म की आराधना करूँगा।'
इन्द्र ने एक आज्ञांकित देव को आज्ञा दी कि अजानंद को उसके स्थान पर पहुँचा दिया जाये। और परिवार के साथ वहाँ से अपने स्थान पर चले गये।
अजानंद ने देव से कहा : 'मैंने अभी यहाँ चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की पूजा नहीं की है...तो वह कर लूँ... और जब यहाँ पर आया ही हूँ तो इस पवित्र पर्वत का सौन्दर्य जी भरकर देख लूँ... तब तक तुम रुकने की कृपा करोगे ना?'
देव ने हामी भरी। अजानंद ने परमात्मा की भावपूर्वक पूजा की। श्री ऋषभदेव भगवान से लेकर श्री महावीर स्वामी तक के चौबीस तीर्थंकर भगवंतो की रत्नमय प्रतिमाओं का अपूर्व रूप-सौन्दर्य देखकर अजानंद मुग्ध हो उठा। अजानंद ने उस देव से पूछा : 'ओ महापुरुष! यह इतना सुदंर सोने का मंदिर और ये रत्नों की मूर्तियाँ किसने बनवाये हैं? यह क्या आप मुझे बतलायेंगे?'
'कुमार, पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का इसी अष्टापद पर्वत पर निर्वाण हुआ है। निर्वाण के समाचार सुनकर, उनके सबसे बड़े पुत्र भरत महाराजा जो कि खुद बड़े चक्रवर्ती सम्राट थे, यहाँ पर आये थे। उन्होंने अपने पिता तथा प्रथम तीर्थंकर की स्मृति में यह सोने का मंदिर और ये रत्नों की मूर्तियाँ बनाकर यहाँ स्थापित की हैं।'
अजानंद ने पूछा : 'मैं, जब विद्याधर देवियों के साथ उनके विमान में भ्रमर बनकर यहाँ आ रहा था तब मैंने दूर से इस पर्वत को देखा था। इस पर्वत पर चढ़ने की आठ सीढ़ियाँ भी मैंने देखी थी। परंतु उन सीढ़ियों के बीच में इतना तो अंतर है...दूरी हैं...कि बेचारा आदमी तो चढ़ने का सोच भी नहीं सकता! और फिर
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