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राजकुमार अभयसिंह दिल-दिमाग पर छा गया है। वह परेशान हो उठा... पर करता भी क्या?
एक दिन की बात है।
अभयसिंह शाम के समय गाँव के बाहर रामदेव के मन्दिर में नाटक देखने के लिए गया था। नाटक रात को नौ बजे पूरा हुआ। अभयसिंह धीरे-धीरे चहलकदमी करता हुआ अपने घर की तरफ लौट रहा था। रास्ते में-बीच बाजार में सैनिकों ने उसे रोका और जवाबतलबी की :
'क्यों रे...तू कौन है? तेरा नाम क्या है?' पर अभयसिंह सुना-अनसुना करके आगे बढ़ गया | उस सैनिक ने गुस्से से भरी आवाज में फिर पूछा : ___'क्यों जवाब नहीं दे रहा है? तुझे महाराजा की आज्ञा का पता नहीं है क्या? हमें सब आदमियों की जाँच-पड़ताल करने का अधिकार दिया गया है।' __ 'अरे ओ सिपाई के बच्चे...तेरे राजा की आज्ञा जाकर तेरे बाप को सुना...मुझे नहीं...समझा?'
यह सुनकर सैनिकों की भौंहें तन गई। मुख्य सैनिक बोल उठा : 'अरे...देख क्या रहे हो पुतले की तरह...? पकड़ कर कैद करो इस नालायक उदंड जवान को | महाराजा की आज्ञा का मखौल उड़ा रहा है! ले चलो इसे बाँधकर महाराजा के पास ।'
सैनिक लोग अभयसिंह को पकड़ने के लिये लपके... अभयसिंह तो सावधान था ही। उसने तुरंत अदृश्य होने की विद्या का स्मरण किया। सैनिक देखते रहे...और अभयसिंह जैसे हवा में खो गया!
सैनिकों के चहेरे पीले पड़ गये... उनके मुँह चौड़े हो गये...आँखें फटीफटी सी रह गई! 'ओह...यह क्या जादू! यह लड़का तो कोई जादूगर सा लगता है! पलक झपकते तो बिल्कुल अदृश्य हो गया।'
अभयसिंह अपने घर पर पहुँच गया। सैनिक अपनी खोपड़ी खुजलाते हुए अपने स्थान पर पहुँचे। सुबह जाकर राजा के सामने उन्होंने रात की सारी बात कही। पूरी घटना कह सुनाई। राजा तो सुनकर गुस्से के मारे काँपने लगा।
'अरे...हरामखोरों...तुम इतने थे फिर भी तुम एक लड़के को भी नहीं पकड़ सके? डरपोक! भागो यहाँ से, तुम नगर की क्या सुरक्षा करोगे? अपना मुँह काला करो... क्यों आये हो यहाँ पर...? अपना मरियल सा चेहरा लेकर मेरे पास आना मत! आजकल का एक छोकरा तुम्हारी आँखो में धूल झोंक
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