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श्रेष्ठिकुमार शंख
५४ बाबा ने शंख को गुस्सैल आवाज में कहा : 'बुत की तरह खड़ा-खड़ा देख क्या रहा है? चौथे बकरे का वध तुझे करना है। उठा तलवार!
शंख ने कहा : 'मैं तो कभी किसी की हत्या करता नहीं हूँ... मैं बकरे की हत्या नहीं करूँगा।' शंख का दिल करुणा से भरा हुआ था । वह तो अपने दोस्तों के हाथ से तीन-तीन बकरों की हत्या होती देखकर काफी बौखला उठा था। उसे तो यह बाबा राक्षस प्रतीत हो रहा था। बाबा का दिमाग गुस्से से खौल उठा :
'अबे बनिये के बच्चे, मारता है कि नहीं बकरे को?' 'नहीं...कभी नहीं करूँगा बकरे की हत्या। कान खोलकर सुन ले ओ राक्षस! तुम से जो हो सके वह तू कर ले।'
शंख ने बड़ी हिम्मत के साथ बाबा को जवाब दिया। राक्षस जैसे भंयकर बन उठे बाबा ने हाथ में तलवार ली और स्तब्ध बन कर खड़े हुए राजकुमार का सर काट डाला। फिर अर्जुन का वध किया और दौड़ने की कोशिश कर रहे सोम को पकड़कर उसका भी वध कर दिया। तीनों मित्रों के मस्तक लेकर बाबा ने यक्ष की कमलपूजा की।
शंख तो एक तरफ आँखे मूंदकर खड़ा था। वह अपने मन में श्री नवकार मंत्र का ध्यान कर रहा था। वह बिलकुल निर्भय था। __खून की प्यासी तलवार हाथ में लेकर बाबा शंख को मारने के लिये लपका। ज्यों ही उसने तलवार का प्रहार करने के लिये हाथ उठाया...त्यों ही हवा में उसका हाथ स्थिर हो गया। एक जोरदार धमाका हुआ । यक्ष की मूर्ति फट पड़ी और उसमें से साक्षात् यक्षराज प्रगट हो उठे।
बाबा की आँखे फटी-फटी सी रह गई। उसके शरीर से पसीना बहने लगा। गुस्से से गर्जना करते हुए यक्षराज ने कहा :
'दुष्ट, यदि तू इस महात्मा को मारेगा तो तेरी बोटी-बोटी कर डालूँगा...। देख नहीं रहा है तू कि इसने बकरे को भी नहीं मारा है। यह दयालु है। धर्मात्मा है। छोड़ दे इसे!' __ बाबा ने शंख को छोड़ दिया। शंख ने यक्षराज को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और सर पर पैर रखकर वहाँ से भाग निकला। जंगल में जो भी रास्ता उसे दिखा उसी पर भागने लगा...दौड़ते-दौड़ते उसने जंगल को पार किया।
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